Saturday 11 March 2017

कौरवपक्ष का सैन्य संगठन तथा दुर्योधन का पितामह भीष्म को प्रधान सेनापति बनाना

श्रीकृष्ण के चले जाने पर राजा दुर्योधन ने कर्ण, दु:शासन  और शकुनि से कहा, ‘कृष्ण अपने उद्देश्य में असफल होकर ही पाण्डवों के पास गये हैं। इसलिये वे क्रोध में भरकर निश्चय ही उन्हें युद्ध के लिये उत्तेजित करेंगे। वास्तव में श्रीकृष्ण को पाण्डवों के साथ मेरा युद्ध होना ही अभीष्ट है तथा भीम और अर्जुन तो उन्हीं के मत में रहनेवाले हैं। युधिष्ठिर भी अधिकतर भीमसेन के वश में रहते हैं। इसके सिवा पहले मैने उनका और उनके भाइयों का तिरस्कार भी किया ही है। विराट और द्रुपद से भी मेरा वैर है ही। वे दोनो सेना के संचालक और श्रीकृष्ण के इशारों पर चलनेवाले हैं। इस प्रकार यह युद्ध बड़ा ही भयंकर और रोमांचकारी होगा। अत: अब सावधानी से युद्ध की सब सामग्री तैयार करानी चाहिये। कुरुक्षेत्र में बहुत से डेरे डलवाओ, जिनमें काफी अवकाश रहे और शत्रु अधिकार न कर सकें। उनके पास जल और काठ का भी सुभीता रहना चाहिये। उनमें ऐसे रास्ते रहने चाहिये, जिनसे जानेवाली वस्तुओं को शत्रु रोक न सकें तथा उनके आसपास ऊँची बाड़ बना देनी चाहिये। उनमें तरह_तरह के हथियार रखवा दो तथा अनेकों पताकाएँ लगवा दो और अब देरी न करके आज ही घोषणा करा दो कि कल ही सेना का कूच होगा।‘ तब उन तीनों ने ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर बड़े उत्साह से दूसरे ही दिन समस्त राजाओं के ठहरने के लिये शिविर तैयार करा दिये। वह रात निकल जाने पर जब प्रात:काल हुआ तो राजा दुर्योधन ने अपनी ग्यारह अक्षौहिणी सेना का विभाग किया। उसने पैदल, हाथी, रथ और घुड़सवार सेना में से उत्तम, मध्यम और निकृष्ट श्रेणियों को अलग_अलग करके उन्हें यथास्थान नियुक्त कर दिया। वे सब वीर अनुकर्ष ( रथ की मरम्मत के लिये नीचे बँधा हुआ काष्ठ ),  (रथ को ढकने का बाघ आदि का चमड़ा ), हाथी या घोड़े उठा सकें ऐसे तरकस ,  ऋष्टि ( एक प्रकार की लोहे की लाठी ), ध्वजा, पताका, धनुष_बाण, तरह_तरह की रस्सियाँ,  बिस्तर, कचग्रहविक्षेप ( बाल पकड़कर गिराने का यंत्र ), तेल, गुड़, बालू, बिषधर सर्पों के घड़े, राल का चूरा, घण्टफलक ( घुँघरुओंवाली ढाल ), खड्गादि लोहे के शस्त्र, औंटा हुआ गुड़ का पानी, ढेले, साल, भिन्दीपाल ( गोफियाँ ), मोम चुपड़े हुए मुद्गर, काँटोंवाली लाठियाँ, हल, बिष लगे हुए बाण, सूप तथा टोकरियाँ, दराँत, अंकुश, तोमर काँटेदार कवच, वृक्षादन ( लोहे के काँटे या कील आदि ), बाघ और गैंडे के चमड़े से मढे हुए रथ, सींग, प्रास, कुदाल, कुठार, तेल में भींगे हुए रेशमी वस्त्र, घी तथा युद्ध की अन्यान्य सामग्रियाँ लिये हुए थे। सब रथों में चार_चार घोड़े जुते हुए थे और सौ_सौ बाण रखे गये थे। उनपर एक_एक सारथि और दो_दो चक्ररक्षक थे। वे दोनों ही उत्तम रथी और अश्वविद्या में कुशल थे। जिस प्रकार रथ सजाये गये थे, वैसे ही हाथियों को भी सुसज्जित किया गया था। उनपर सात_सात पुरुष बैठते थे। इससे वे रत्नजटित पर्वतों के समान जान पड़ते थे। उनमें से दो पुरुष अंकुश लेकर महावत का काम करते थे। दो धनुर्धर योद्धा थे, दो खड्गधारी थे तथा एक शक्ति और त्रिशूलधारी था। इसी प्रकार अच्छी तरह से सजाये हुए लाखों घोड़े और सहस्त्रों पैदल भी उस सेना में चल रहे थे। फिर राजा दुर्योधन ने अच्छी तरह जाँचकर विशेष बुद्धिमान और शूरवीर पुरुषों को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। उसने कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, शल्य, जयद्रथ, सुदक्षिण, कृतवर्मा, अश्त्थामा, कर्ण, भूरिश्रवा, शकुनि और बाह्लीक____इन ग्यारह वीरों को एक_एक अक्षौहिणी सेना का नायक बनाया। वह प्रतिदिन उनका बार_बार सत्कार करता रहता था। फिर सब राजाओं को साथ ले उसने हाथ जोड़कर पितामह भीष्म से कहा, “दादाजी ! कितनी ही बड़ी सेना हो, यदि कोई उसका अध्यक्ष नहीं होता तो वह युद्ध के मैदान में आकर चीटियों के समान तितर_बितर हो जाती है। सुना जाता है, एक बार हैहय वीरों पर ब्राह्मणों ने चढाई की थी। उस समय वैश्य और शूद्रों ने भी ब्राह्मणों का साथ दिया था। इस प्रकार एक ओर तीनों वर्णों के पुरुष थे और दूसरी ओर हैहय क्षत्रिय थे। जब युद्ध आरम्भ हुआ तो तीनों वर्णों में फूट पड़ गयी और उनकी सेना बहुत बड़ी होने पर भी क्षत्रियों ने उसे जीत लिया। तब ब्राह्मणों ने क्षत्रियों से ही अपने हार का कारण पूछा। धर्मज्ञ क्षत्रियों ने उसका कारण बताते हुए कहा, ‘हम युद्ध करते समय एक ही परम बुद्धिमान पुरुष की आज्ञा मानकर लड़ते थे और तुम सब_के_सब अलग_अलग अपनी_अपनी बुद्धि के अनुसार काम करते थे।‘ तब ब्राह्मणों ने अपने में से एक युद्धनीति में कुशल शूरवीर को अपना सेनापति बनाया और क्षत्रियों को परास्त कर दिया। इसी प्रकार जो युद्ध_संचालन में कुशल, निष्कपट शूरवीर को अपना सेनापति बनाते हैं,वे ही संग्राम में शत्रुओं को जीतते हैं। आप शुक्राचार्य के समान नीतिकुशल और मेरे हितैषी हैं, काल भी आपका कुछ बिगाड़ नहीं सकता तथा धर्म में आपकी अविचल स्थिति है। अत: आप ही हमारे सेनाध्यक्ष बनें। जिस प्रकार स्वामी कार्तिकेय देवताओं के आगे रहते हैं, उसी प्रकार आप हमारे आगे चलें।“ भीष्म ने कहा___महाबाहो ! तुम जैसा कहते हो, ठीक है। मेरे लिये जैसे तुम हो, वैसे ही पाण्डव भी हैं। अत: मुझे पाण्डवों से उनके हित की बात कहनी चाहिये और तुम्हारे लिये, जैसा कि पहले मैं प्रतिज्ञा कर चुका हूँ, युद्ध करना भी मुझे है ही। मैं शस्त्रशक्ति से एक क्षण में ही देवता और असुरों से युक्त इस सारे संसार को मनुष्यहीन कर सकता हूँ। किन्तु पाण्डु के पुत्रों को मैं नहीं मार सकता तो भी मैं नित्यप्रति उनके पक्ष के दस हजार योद्धाओं का संहार कर दिया करूँगा। तुम्हारे सेनापतित्व को मैं एक शर्त के साथ स्वीकार कर सकता हूँ। इस युद्ध में या तो पहले कर्ण लड़ ले या मैं लड़ लूँगा; क्योंकि संग्राम में यह सूतपुत्र सदा ही मुझसे बड़ी लागडाँट रखता है। कर्ण ने कहा___राजन् ! गंगापुत्र भीष्म के जीवित रहते मैं युद्ध नहीं करूँगा। इनके मरने पर ही अर्जुन के साथ मेरा युद्ध होगा। इस प्रकार निश्चय हो जाने पर दुर्योधन ने विधिपूर्वक भीष्मजी को सेनापति के पद पर अभिषिक्त किया। उस समय राजाज्ञा से बाजा बजानेवाले शान्तभाव से सैकड़ों_हजारों भेरियाँ और शंख बजाने लगे। अभिषेक के समय अनेकों भीषण अपशकुन भी हुए। भीष्म को सेनापति बनाकर दुर्योधन ने बहुत_सी गाय और मुहरें दक्षिणा में देकर ब्राह्मणों से स्वास्तिवाचन कराया। फिर उनके जययुक्त आशीर्वादों से उत्साहित हो वह भीष्मजी को आगे कर अन्य सब सेनानायक एवं भाइयों के साथ कुरुक्षेत्र को चला। वहाँ पहुँचकर उसने कर्ण के साथ सब ओर घूम_फिरकर एक समतल भूमि में, जहाँ घास और ईंधन की अधिकता थी, सेना की छावनी डाली। वह छावनी दूसरे हस्तिनापुर के समान ही जान पड़ती थी।

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