Monday 11 December 2017

संजय का राजा धृतराष्ट्र को भीष्मजी के मुख से कही हुई श्रीकृष्ण की महिमा सुनाना

राजा धृतराष्ट्र ने पूछा___संजय ! पाण्डवों का ऐसा पराक्रम सुनकर मुझे बड़ा ही भय और विस्मय हो रहा है। सब ओर से मेरे पुत्रों का ही पराभव हो रहा है____यह सुनकर मुझे बड़ी चिन्ता होती है कि अब मेरे पक्ष की जीत कैसे होगी। निश्चय ही, विदुर के वाक्य मेरे हृदय को भष्म कर डालेंगे ! भीम अवश्य ही मेरे सब पुत्रों को मार डालेगा। मुझे ऐसा कोई वीर दिखायी नहीं देता, जो संग्रामभूमि में उनकी रक्षा कर सके। सूत ! मैं एक बार पूछता हूँ; ठीक_ठीक बताओ, पाण्डवों में ऐसी शक्ति कहाँ से आ गयी ? संजय ने कहा___राजन् ! आप सावधानी से सुनिये और सुनकर वैसा ही निश्चय कीजिये। इस समय जो कुछ हो रहा है, वह किसी भी मंत्र या माया के कारण नहीं है। बात यह है कि महाबली पाण्डवलोग सर्वदा धर्म में तत्पर रहते हैं और जहाँ धर्म होता है वहीं जय हुआ करती है। इसी से युद्घ में वे अवध्य हो रहे हैं और उन्हीं की जीत भी हो रही है। आपके पुत्र दुष्टचित्त, पापपरायण, निष्ठुर और कुकर्मी हैं; इसलिये वे युद्ध में नष्ट हो रहे हैं। इन्होंने नीच पुरुषों के समान पाण्डवों के प्रति अनेकों क्रूरताएँ की हैं। अब उन्हें उन निरन्तर किये हुए पापकर्मों का भयंकर फल प्राप्त होने का समय आया है। इसलिये पुत्रों के साथ अब आप भी उसे भोगिये। आपके सुहृद् विदुर, भीष्म, द्रोण और मैंने भी आपको बार_बार रोका; किन्तु आपने हमारी बात पर कुछ ध्यान ही नहीं दिया। जिस प्रकार मरणासन्न पुरुष को औषध और पथ्य अच्छे नहीं लगते, वैसे ही आपको अपने हित की बात अच्छी नहीं मालूम हुई। अब आप जो मुझे पाण्डवों की विजय का कारण पूछते हैं, सो मैं इस विषय में मैंने जैसा सुना है वह बताता हूँ। उस दिन अपने भाइयों को युद्ध में पराजित हुआ देख राजा दुर्योधन ने रात्रि समय भीष्मजी से पूछा, ‘ ‘दादाजी ! मैं समझता हूँ कि आप, द्रोणाचार्य, शल्य,  अश्त्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा, सुदक्षिण, भूरिश्रवा, विकर्ण और भगदत्त आदि महारथी तीनों लोकों के साथ संग्राम करने में समर्थ हैं। किन्तु आप सब मिलकर भी पाण्डवों के पराक्रम के सामने नहीं टिक पाते। यह देखकर मुझे बड़ा संदेह हो रहा है। कृपया बताइये, पाण्डवों में ऐसी क्या बात है जिसके कारण वे हमें क्षण_क्षण जीत रहे हैं ?’ भीष्मजी ने कहा___राजन् ! इन उदारकर्मा पाण्डवों की अवध्यता का एक कारण है; वह मैं तुम्हें बताता हूँ, सुनो। तीनों लोकों में ऐसा कोई भी पुरुष न तो है, न हुआ है और न होगा ही जो श्रीकृष्ण से सुरक्षित इन पाण्डवों को परास्त कर सके। इस विषय में पवित्रात्मा मुनियों ने एक इतिहास सुनाया है, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ। पूर्वकाल में गन्धमादन पर्वत पर समस्त देवता और मुनिगण पितामह ब्रह्माजी का सेवा में उपस्थित थे। उस समय उन सबके बीच में बैठे हुए ब्रह्माजीने आकाश में एक तेजोमय विमान देखा। तब उन्होंने ध्यान द्वारा सब रहस्य जानकर प्रसन्नचित्त से परमपुरुष परमेश्वर को प्रणाम किया। ब्रह्माजी को खड़े होते देख सब देवता और ऋषि भी हाथ जोड़े खड़े हो गये और वह अद्भुत प्रसंग देखने लगे। जगत्रष्टा ब्रह्मा ने बड़े विधि_विधान से भगवान् का पूजन किया और इस प्रकार स्तुति करने लगे___’प्रभो ! आप संपूर्ण विश्व को आच्छादित करनेवाले, विश्वस्वरूप और विश्व के स्वामी हैं। विश्व में सब ओर आपकी सेना है। यह विश्व आपका कार्य है। आप सबको अपने वश में रखने वाले हैं। इसलिये आपको विश्वेश्वर और वासुदेव कहते हैं। आप योगस्वरूप देवता हैं, मैं आपकी शरण में आया हूँ। विश्वरूप महादेव ! आपकी जय हो; लोकहित में लगे रहनेवाले परमेश्वर ! आपकी जय हो। सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले योगीश्वर ! आपकी जय हो। योग के आदि और अन्त ! आपकी जय हो। आपकी नाभि से लोककमल की उत्पत्ति हुई है, आपके नेत्र विशाल हैं, आप लोकेश्वरों के भी ईश्वर हैं; आपकी जय हो। भूत, भविष्य और वर्तमान के स्वामी आपकी जय हो। आपका स्वरूप सौम्य है, मैं स्वायम्भू ब्रह्मा आपका पुत्र हूँ। आप असंख्य गुणों के आधार और सबको शरण देनेवाले हैं, आपकी जय हो। आपकी महिमा का पार पाना बहुत_ही कठिन है, आपकी जय हो। आप समस्त कल्याणप्रद गुणों से सम्पन्न, विश्वमूर्ति एवं निरामय हैं; आपकी जय हो ! आप महान् श्रीनगर और महावराह_रूप धारण करनेवाले हैं, सबके आदि कारण हैं, किरणें ही आपके केश हैं। प्रभो ! आपकी जय हो, जय हो। आप किरणों के धाम, दिशाओं के स्वामी, विश्व के आधार, अप्रमाद और अविनाशी हैं। व्यक्त और अव्यक्त___सब आपही का स्वरूप है, आपके रहने का स्थान असीम___अनन्त है। आप इन्द्रियों के नियन्ता हैं, आपके सभी कर्म शुभ_ही_शुभ हैं। आप धर्म का तत्व जाननेवाले और विजयप्रदाता हैं। आप संपूर्ण भूतों के आदि का कारण और लोकतत्व के स्वामी हैं। आप स्वाभावतः संसार की सृष्टि में प्रवृत्त रहते हैं, आप ही संपूर्ण भावनाओं के स्वामी परमेश्वर हैं। अमृत की उत्पत्ति के स्थान, सत्स्वरूप, मुक्तात्मा और विजय देनेवाले आप ही हैं। देव, आप ही प्रजापतियों के पति, पद्मनाभ और महाबली हैं। आत्मा और महावीर भी आप ही हैं। सत्वस्वरूप परमेश्वर ! आपकी जय हो। पृथ्वीदेवी आपके चरण हैं, दिशाएँ बाहु हैं और ध्युलोक मस्तक है। देवता शरीर और चन्द्रमा तथा सूर्य नेत्र हैं। तप और सत्य आपका बल है तथा धर्म और कर्म आपका स्वरूप है। अग्नि आपका तेज, वायु साँस और जल पसीना है। अश्विनीकुमार आपके कान और सरस्वतीदेवी आपकी जिह्वा हैं। वेद आपकी संस्कारनिष्ठा हैं। यह जगत् आपही के आधार पर टिका हुआ है। योग_योगीश्वर ! हम न तो आपकी संख्या जानते हैं, न परिमाण। आपके तेज, पराक्रम और बल का भी हमें पता नहीं है। देव ! हम तो आपके भजन में लगे रहते हैं। आपके नियमों का पालन करते हुए आपकी ही शरण में पड़े रहते हैं। विष्णो ! सदा आप परमेश्वर एवं महेश्वर का पूजन ही हमारा काम है। आपकी ही कृपा से हमने पृथ्वी पर ऋषि, देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सर्प, पिशाच, मनुष्य, मृग, पक्षी तथा कीड़े_मकोड़े आदि की सृष्टि की है। पद्मनाभ ! विशाललोचन ! दुःखहारी श्रीकृष्ण ! आप ही संपूर्ण प्राणियों के आश्रय और नेता हैं, आप ही संसार के गुरु हैं। आपकी कृपादृष्टि होने से ही सब देवता सदा सुखी रहते हैं। देव ! आपके ही प्रसाद से पृथ्वी सदा निर्भय रही है, इसलिये विशाललोचन ! आप पुनः पृथ्वी पर यदुवंश में अवतार लेकर उसकी कीर्ति बढ़ाइये। प्रभो ! धर्म की स्थापना, दैत्यों के वध और जगत् की रक्षा के लिये हमारी प्रार्थना अवश्य स्वीकार कीजिये। भगवन् ! आपका जो परम गुह्य स्वरूप है, उसका इस समय आपही की कृपा से हमने कीर्तन किया है। तब ज्ञानरूप श्रीभगवान् ने अत्यन्त मधुर और गम्भीर वाणी में कहा, ‘तात ! तुम्हारी जो इच्छा है, वह मुझे योगबल से मालूम हो गयी है; वह पूर्ण होगी।‘ ऐसा कहकर वे वहीं अन्तर्धान हो गये। यह देखकर देवता, गन्धर्व और ऋषियों को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने ब्रह्माजी से पूछा, ‘ भगवन् ! आपने जिनकी ऐसे श्रेष्ठ शब्दों में स्तुति की, वे कौन थे ? उनके विषय में हम कुछ सुनना चाहते हैं।‘ तब भगवान् ब्रह्मा ने,मधुर वाणी में कहा, “ये स्वयं परब्रह्म थे, जो समस्त भूतों के आत्मा, प्रभु और परमपदस्वरूप हैं। मैंने संसार के कल्याण के लिये उनसे प्रार्थना की है कि ‘ आपने जिन दैत्य, जानवरों और राक्षसों का संग्राम में वध किया था, वे इस समय मनुष्ययोनि में उत्पन्न हुए हैं; अत: आप उनके वध के लिये मनुष्य रूप में उत्पन्न होइये।‘ सो अब वे नर_नारायण दोनों ही मनुष्यलोक में जन्म लेंगे, किन्तु मूढ़ पुरुष इन्हें पहचान नहीं सकेंगे। वे शंख_चक्र_गदाधारी वासुदेव संपूर्ण लोकों के महेश्वर हैं। ये, मनुष्य हैं___ऐसा समझकर इनका तिरस्कार नहीं करना चाहिये। ये ही परम गुह्य हैं, ये ही परम पद हैं, ये ही परमब्रह्म हैं, ये ही परम यश हैं और ये ही अक्षर, अव्यक्त एवं सनातन तेज हैं। ये ही पुरुष_नाम से प्रसिद्ध हैं तथा ये ही परम सुख और परम सत्य हैं। अतः अपने सुहृदों को अभय करनेवाले इन किरीट_कौस्तुभधारी श्रीहरि का जो तिरस्कार करेगा, वह भयंकर अंधकार में पड़ेगा।“ भीष्मजी कहते हैं___ देवता और ऋषियों से ऐसा कहकर श्रीब्रह्माजी उन्हें विदा कर अपने लोक को चले गये और वे सब स्वर्ग में चले गये। एक बार कुछ पवित्रात्मा मुनिगण श्रीकृष्ण के विषय में चर्चा कर रहे थे; उन्हीं के मुख से मैंने यह प्राचीन प्रसंग सुना था। यही बात मैंने जमदग्निनन्दन परशुराम, मतिमान् मार्कण्डेय और व्यास तथा नारदजी से भी सुनी है। यह सब जानकर हमारे लिये श्रीकृष्ण वन्दनीय और पूजनीय क्यों नहीं है। हमें तो अवश्य इनका पूजन करना चाहिये। मैंने और अनेकों वेदवेत्ता मुनियों ने भी तुम्हें बार_बार श्रीकृष्ण और पाण्डवों के संसार युद्ध ठाननेसेे रोका था; किन्तु मोहवश तुमने इसका कोई तत्व ही नहीं समझा। मैं तुम्हें कोई क्रूरकर्मा राक्षस ही समझता हूँ; क्योंकि तुम श्रीकृष्ण और अर्जुन से द्वेष करते हो। भला, इन साक्षात् नर और नारायण से कोई दूसरा मनुष्य कैसे द्वेष कर सकता है ? मैं तुमसे ठीक_ठीक कहता हूँ___ये सनातन, अविनाशी, सर्वलोकमय, नित्य, जगदीश्वर और अविकारी हैं। ये ही युद्ध करनेवाले हैं। जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है और जहाँ धर्म है, वहीं जय है। श्रीकृष्ण पाण्डवों की रक्षा करते हैं, इसलिये उन्हीं की जय भी होगी। दुर्योधन ने पूछा___दादाजी ! इन वसुदेवपुत्र को संपूर्ण लोकों में महान् बताया जाता है। अतः मैं इनकी उत्पत्ति और स्थिति के विषय में जानना चाहता हूँ। भीष्मजी बोले___भरतश्रेष्ठ ! वासुदेवनन्दन निःसंदेह महान् हैं। ये सब देवताओं के भी देवता हैं। कमलनयन श्रीकृष्ण से  बड़ा और कोई भी नहीं है। मार्कण्डेयजी इनके विषय में बड़ी अद्भुत बातें कहते हैं। वे सर्वभूतमय और पुरुषोत्तम हैं। सृष्टि के आरम्भ में इन्होंने ही संपूर्ण देवता और ऋषियों को रचा था तथा ये ही सबकी उत्पत्ति और प्रलय के स्थान हैं। ये स्वयं धर्म रूप तथा धर्मज्ञ, वरदायक और संपूर्ण कामनाओं की पूर्ति करनेवाले हैं। ये ही कर्ता, कार्य, आदिदेव और स्वयंप्रभु हैं। भूत, भविष्यत् और वर्तमान की भी इन्होंने कल्पना की है तथा इन्होंने दोनों सन्ध्याओं, दिशाओं, आकाश और नियमों को रचा है। अधिक क्या, ये अविनाशी प्रभु ही संपूर्ण जगत् की रचना करनेवाले हैं। इन परम तेजस्वी प्रभु को केवल वास्तविक से ही जाना जा सकता है।  श्रीहरि ही वराह, नृसिंह और भगवान् त्रिविक्रम हैं। ये ही समस्त प्राणियों के माता_पिता हैं। इन श्रीनयनकमल भगवान् से बढ़कर कोई दूसरा तत्व न कभी था, न होगा ही। इन्होंने अपने मुख से ब्राह्मणों को, भुजाओं से क्षत्रियों को, जंघाओं से वैश्यों को और पैरों से शूद्रों को उत्पन्न किया है। ये ही संपूर्ण भूतों के आश्रय हैं। जो पुरुष पूर्णिमा और अमावस्या के दिन इनका पूजन करता है, वह परम पद प्राप्त करता है। ये परम तेजस्वरूप और समस्त लोकों के पितामह हैं। मुनिजन इन्हें हृषिकेश कहते हैं। ये ही सबके सच्चे आचार्य, पिता और गुरु हैं। जिस पर ये प्रसन्न हैं, उसने मानो सभी अक्षयलोक जीत लिये हैं। जो राजन् ! पूर्वकाल में ब्रह्मर्षि और देवताओं ने इनका जो ब्रह्मांड स्रोत कहा है, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ; सुनो___'नारदजी ने कहा है___ आप साध्यगण और देवताओं के भी देवाधिदेव हैं तथा सम्पूर्ण लोकों में विचरनेवाला और उनके अंतःकरण के साक्षी हैं। मार्कण्डेयजी ने कहा है___आप ही भूत, भविष्यफल और वर्तमान हैं तथा आप ही यज्ञों के यज्ञ और तपों के तप हैं। भृगुजी कहते हैं___ आप इन्द्र को भी स्थापित करनेवाले और देवताओं के परम देव हैं। देवल मुनि कहते हैं___अव्यक्त आपके शरीर से हुआ है, व्यक्त आपके मन में स्थित है और सब देवता भी आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। अगस्त मुनि का कथन है___आपके सिर से स्वर्गलोक व्याप्त है और आपदाओं से पृथ्वी तथा आपके उदर में तीनों लोक हैं। आप सनातन पुरुष हैं। तपःशुद्ध महात्मालोग आपको ऐसे ही समझते हैं तथा आत्मतृप्त ऋषियों की दृष्टि में भी आप सर्वोत्कृष्ट सत्य हैं। मधुसूदन ! जो संपूर्ण धर्मों में अग्रगण्य और संग्राम से पीछे हटनेवाले नहीं है, उन उदारहृदय राजर्षियों के परमाश्रय भी आप ही हैं। योगवेत्ताओं में श्रेष्ठ सनत्कुमारादि इसी प्रकार श्रीपुरुषोत्तम भगवान् का सदा पूजन और स्तवन करते हैं। राजन् ! इस तरह विस्तार और संक्षेप से मैंने तुम्हें श्रीकृष्ण का स्वरूप सुना दिया। अब तुम प्रसन्नचित्त से उनका भजन करो। संजय कहते है__महाराज ! भीष्मजी के मुख से यह पवित्र आख्यान सुनकर तुम्हारे पुत्र के हृदय मंगलमय श्रीकृष्ण और पाण्डवों के प्रति बड़ा आदरभाव हो गया। फिर उससे पितामह कहने लगे, ‘राजन् ! तुमने महात्मा श्रीकृष्ण की महिमा सुनी तथा अर्जुन का वास्तविक स्वरूप भी जान लिया। तुम्हें यह भी मालूम हो गया कि इन नर_नारायण ऋषियों ने किस उद्देश्य से अवतार लिया है। ये युद्ध में अजेय और अवध्य हैं तथा पाण्डवलोग भी युद्ध में किसी के द्वारा मारे नहीं जा सकते; क्योंकि श्रीकृष्ण पर इनका बड़ा सुदृढ़ अनुराग है।  इसलिये मेरा तो यही कहना है कि तुम्हें पाण्डवों के साथ सन्धि कर लेना चाहिये। ऐसा करके तुम आनन्द से अपने भाइयों के सहित राज्य भोगो। नहीं तो इन नर_नारायण भगवान् की अवज्ञा करके तुम जीवित नहीं रह सकोगे।‘ राजन् ! ऐसा कहकर आपके पितृव्य भीष्मजी मौन हो गये और दुर्योधन को विदा करके शैय्या पर लेट गये। दुर्योधन भी उन्हें प्रणाम करके अपने शिविर में चला आया और अपने शुभ्र_शय्या पर सो गया।

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