Sunday 17 December 2017

छठे दिन के दोपहर तक का युद्ध

  संजय ने कहा___महाराज ! तब सब योद्धा अपने_अपने शिविरों में चले गये। रात्रि में सबने विश्राम किया और एक_दूसरे का यथायोग्य सत्कार किया तथा दूसरे दिन फिर युद्ध करने के लिये तैयार हो गये। इस समय आपके पुत्र दुर्योधननेे अत्यन्त चिन्ताग्रस्त होकर पितामह भीष्म से पूछा, ‘दादाजी ! आपकी सेना बड़ी भयानक है। इसकी व्यूहरचना भी बड़ी सावधानी से की जाती है फिर भी पाण्डवपक्ष के महारथी उसे तोड़कर हमारे वीरों को मार डालते हैं। वे हमारे वीरों को चक्कर में डालकर बड़ी कीर्ति पा रहे हैं। उन्होंने वज्र के समान सुदृढ़ मकरव्यूह को भी तोड़ डाला और उसके भीतर रुककर भीमसेन ने अपने मृत्युदंड के समान प्रचण्ड बाणों से मुझे घायल कर दिया। भीम की रोषपूर्ण मूर्ति को देखकर तो मेरे सारे होश_हवास उड़ गये थे। अभी तक मेरा चित्त शान्त नहीं हो पाया है। महात्मन् ! आपकी सहायता से तो मैं युद्ध में जय प्राप्त करके पाण्डवों का काम तमाम कर देना चाहता हूँ।‘ दुर्योधन की यह बात सुनकर महात्मा भीष्म मुसकराये और उससे इस प्रकार कहने लगे, ‘राजकुमार ! मैं तो अधिक_से_अधिक प्रयत्न करके  पाण्डवों की सेना में घुसता हूँ। आगे भी मैं अपने प्राणों की बाजी लगाकर सारी शक्ति से पाण्डवसेना के साथ संग्राम करूँगा।  तुम्हारे लिये मैं, यह शत्रुसेना तो क्या, सारे देवता और दैत्यों को मारने में भी नहीं चूकूँगा। मैं पूरी शक्ति से पाण्डवों के साथ युद्ध करूँगा और तुम्हारा सब प्रकार से प्रिय करूँगा। पितामह की यह बात सुनकर दुर्योधन बड़ा प्रसन्न हुआ। प्रातःकाल होते ही भीष्मजी ने स्वयं व्यूहरचना की। उन्होंने तरह_तरह से सुसज्जित कौरवसेना को मण्डलव्यूह की विधि से खड़ा किया। उसमें प्रधान_प्रधान वीर, गजारोही, पदाति और रथियों को यथास्थान नियुक्त किया। इस प्रकार भीष्मजी की अध्यक्षता में मौर्चेबन्दी से खड़ी होकर आपकी सेना युद्ध के लिये तैयार हो गयी। वे युद्धोत्सुक राजालोग ऐसे जान पड़ते थे, मानो सब_के_सब भीष्मजी की ही रक्षा कर रहे हैं और भीष्मजी उनकी रक्षा में तत्पर हैं। यह मण्डलव्यूह बड़ा ही दुर्भेद्य था और इसका मुख पश्चिम की ओर रखा गया था।   इस परम दुर्जय मण्डलव्यूह को देखकर राजा युधिष्ठिर ने अपनी सेना का वज्रव्यूह बनाया। इस प्रकार जब व्यूहबद्ध होकर दोनों सेनाएँ अपने_अपने स्थानों पर खड़ी हो गयीं तो समस्त रथी और अश्वारोही सिंहनाद करने लगे और युद्ध के लिये उतावले होकर व्यूह तोड़ने के लिये आगे बढ़े। द्रोणाचार्यजी विराट के सामने, अश्त्थामा शिखण्डी के आगे और स्वयं राजा दुर्योधन धृष्टधुम्न के सामने आये। नकुल और सहदेव ने मद्रराज शल्य पर और अवन्तिनरेश विन्द और अनुविन्द ने इरावान् पर धावा किया। और सब राजा अर्जुन से युद्ध करने लगे। भीमसेन ने युद्ध के लिये बढ़ते हुए कृतवर्मा को तथा चित्रसेन, विकर्ण और दुर्मर्षण को रोका। अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु आपके पुत्रों से भिड़ गया, प्राग्यज्योतिषनरेश भगदत्त ने घतोत्कच पर आक्रमण किया, राक्षस अलम्बुष  रणोन्मत्त सात्यकि और उसकी सेना पर टूट पड़ा तथा भूरिश्रवा धृष्टकेतू के साथ युद्ध करने लगा। धर्मपुत्र युधिष्ठिर राजा श्रुतायु से, चेकितान कृपाचार्य से तथा अन्य सब वीर भीष्मजी से ही लड़ने लगे। आपके पक्ष के कई राजाओं ने तरह_तरह के शस्त्र लेकर चारों ओर से अर्जुन को घेर लिया। तब अर्जुन ने उन पर बाण बरसाना आरम्भ किया। दूसरी ओर से राजालोग भी अर्जुन पर बाणों की वर्षा करने लगे। इस समय श्रीकृष्ण और अर्जुन की ऐसी स्थिति देखकर देवता, देवर्षि, गन्धर्व और नागों को बड़ा विस्मय हुआ। तब अर्जुन ने क्रोध में भरकर  ऐन्द्रास्त्र छोड़ा और अपने बाणों से शत्रुओं की सारी बाणवर्षा को रोक दिया। अर्जुन के इस पराक्रम ने सभी को चकित कर दिया। उनके सामने जितने राजा, घुड़सवार और गजारोही आये उनमें से कोई भी घायल हुए बिना न रहा। तब उन सबने भीष्मजी की शरण ली। उस समय अर्जुन के बलरूपी अगाध जल में डूबते हुए उन वीरों के  भीष्मजी ही जहाज हुए। उनके इस प्रकार भाग आने से आपकी सेना छिन्न_भिन्न हो गयी और आँधी चलने से जैसे समुद्र में क्षोभ होने लगता है, उसी प्रकार उसमें खलबली पड़ गयी। अब भीष्मजी बड़ी फुर्ती से अर्जुन के सामने आये और उनसे युद्ध करने लगे। इधर द्रोणाचार्य ने बाण मारकर मत्स्यराज विराट को घायल कर दिया तथा एक बाण से उनकी ध्वजा को और दूसरे से धनुष को काट डाला। सेनानायक विराट ने तुरंत ही दूसरा धनुष ले लिया और कई चमचमाते हुए बाण लिये। फिर उन्होंने तीन बाणों से आचार्य को बींध दिया, चार से उनके घोड़ों को मार डाला, एक से ध्वजा काट डाली, पाँच से सारथि को मार गिराया और एक से धनुष काट डाला। इससे द्रोणाचार्यजी बड़े कुपित हुए। उन्होंने आठ बाणों से विराट के घोड़ों को नष्ट कर दिया और एक से उनके सारथि को मार डाला। विराट रथ से कूद पड़े और अपने पुत्र के रथ पर चढ़ गये। तब वे पिता_पुत्र दोनों ही भीषण बाणवर्षा करके बलात् आचार्य को रोकने का प्रयत्न करने लगे। इससे चिढ़कर  आचार्य ने राजकुमार शंख पर एक सर्प के समान विषैला बाण छोड़ा। वह बाण शंख के हृदय को बेधकर उसके खून में लथपथ होकर पृथ्वी पर जा पड़ा। शंख के हाथ का धनुष उसके पिता के ही पास गिर गया और वह स्वयं रणभूमि में सो गया। पुत्र को मरा हुआ देखकर विराट डर गये और द्रोणाचार्य को छोड़कर युद्धक्षेत्र से चले गये। तब द्रोणाचार्यजी ने पाण्डवों की विशाल वाहिनी को सैकड़ों_हजारों भागों में विभक्त कर दिया। शिखण्डी ने अश्त्थामा के सामने आकर तीन बाणों से उसकी भृकुटि के बीच में चोट की। इससे क्रोध में भरकर अश्त्थामा ने बहुत से बाण बरसाकर आधे निमेष में ही शिखण्डी की ध्वजा, सारथि, घोड़ों और हथियारों को काटकर गिरा दिया। घोड़ों के मारे जाने पर वह रथ से कूद पड़ा और हाथ में ढ़ाल_तलवार लेकर बाज के समान बड़े क्रोध से झपटा। रणांगण में तलवार लेकर घूमते हुए शिखण्डी पर वार करने का अश्त्थामा को अवसर तक नहीं मिला। फिर उन्होंने उस पर सहस्त्रों बाण छोड़े। शिखण्डी ने उन सारे बाणों को अपने तलवार से ही काट दिया। तब तो अश्त्थामा ने उसकी ढ़ाल और तलवार को ही टुकड़े_टुकड़े कर दिया और अपने फौलादी बाणों से शिखण्डी को भी बींध दिया। अब शिखण्डी जल्दी से सात्यकि के रथ पर चढ़ गया। इधर सात्यकि ने अपने पैने बाणों से राक्षस अलम्बुष को घायल कर दिया। इस पर अलम्बुष ने भी अर्धचन्द्राकार बाण छोड़कर सात्यकि का धनुष काट दिया और उसे भी अनेकों बाणों से घायल कर दिया। फिर अपनी राक्षसी माया करके उस पर बाणों की झड़ी लगा दी। इस समय सात्यकि का बड़ा ही अद्भुत पराक्रम देखने में आया। क्योंकि ऐसे तीखे_तीखे बाणों की चोट खाने पर भी उसे रणभूमि में तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उसने अर्जुन से मिला हुआ ऐन्द्रास्त्र चढ़ाया, उससे वह राक्षसी माया तत्काल भष्म हो गयी। फिर उसने अनेकों बाण बरसाकर अलम्बुष को ढ़क दिया। इस प्रकार सात्यकि के द्वारा पीड़ित होने पर वह राक्षस उसका सामना छोड़कर रणभूमि से भाग गया। सत्यपराक्रम सात्यकि ने अपने तीखे बाणों से आपके पुत्रों पर भी प्रहार किया और वे भी भयभीत होकर भाग गये। इसी समय द्रुपद के पुत्र महाबली धृष्टधुम्न ने अपने तीखे तीरों से आपके पुत्र राजा दुर्योधन को ढक दिया। किन्तु इससे दुर्योधन को कोई घबराहट नहीं हुई और बड़ी फुर्ती से उसने नब्बे बाण छोड़कर धृष्टधुम्न को बींध दिया। तब धृष्टधुम्न कुपित होकर उसका धनुष काट डाला, चारों घोड़ों को मार गिराया और सात तीखे बाणों से स्वयं भी उसे घायल कर दिया। घोड़ों के मारे जाने पर दुर्योधन रथ से कूद पड़ा और तलवार लेकर पैदल ही धृष्टधुम्न की ओर दौड़ा। इतने में शकुनि ने आकर उसे अपने रथ में बैठा लिया। इस प्रकार दुर्योधन को परास्त कर धृष्टधुम्न ने आपकी सेना का संहार करना आरम्भ किया। इसी समय महारथी कृतवर्मा ने भीमसेन को बाणों से आच्छादित कर दिया। तब भीमसेन ने भी हँसकर कृतवर्मा पर बाणों की झड़ी लगा दी। उन्होंने उसके चारों घोड़ों को मारकर ध्वजा और सारथि को भी गिरा दिया तथा कृतवर्मा को भी बहुत से बाणों से घायल कर दिया। घोड़ों के मारे जाने पर कृतवर्मा बड़ी फुर्ती से आपके साले वृषक के रथ पर चढ़ गया। फिर भीमसेन अत्यन्त क्रोध में भरकर दण्डपाणि यमराज के समान आपकी सेना का संहार करने लगे। महाराज ! अभी दोपहर नहीं हुआ था कि अवन्तिनरेश विन्द और अनुविन्द इरावान् को आते देखकर उसके सामने आ गये। बस, उनका बड़ा रोमांचकारी युद्ध छिड़ गया। इरावान् ने क्रोध में भरकर उन दोनों भाइयों को अपने तीखे बाणों से बींध दिया। बदले में उन्होंने भी इरावान् को अपने बाणों से घायल कर दिया। फिर इरावान् ने चार बाणों से अनुविन्द के चारों घोड़ों को धराशायी कर दिया तथा दो तीक्ष्ण बाणों से उसके धनुष और ध्वजा को काट गिराया। तब अनुविन्द अपने रथ से उतरकर विन्द के रथ पर चढ़ गया। फिर उन दोनों वीरों ने एक ही रथ पर बैठकर इरावान् पर बड़ी फुर्ती से बाण बरसाना आरम्भ किया। इसी प्रकार इरावान् ने भी क्रोध में भरकर उन दोनों भाइयों पर बाणों की झड़ी लगा दी तथा उनके सारथि को मारकर गिरा दिया। तब उनके घोड़े भय से चौंककर उनके रथ को लेकर इधर_उधर भागने लगे। इस प्रकार उन दोनों वीरों को जीतकर इरावान् अपना पुरुषार्थ दिखाते हुए बड़ी तेजी से आपकी सेना को ध्वंस करने लगा। इस समय राक्षसराज घतोत्कच रथ पर चढ़कर भगदत्त के साथ युद्ध कर रहा था। उसने बाणों की झड़ी लगाकर भगदत्त को बिलकुल ढ़क दिया। तब उन्होंने उन सब बाणों को काटकर बड़ी फुर्ती से घतोत्कच के मर्मस्थानों पर वार किया। किन्तु अनेकों बाणों से घायल होने पर भी वह घबराया नहीं। इससे कुपित होकर प्राग्यज्योतिषनरेश ने चौदह तोमर छोड़े, किन्तु घतोत्कच ने उन्हें तत्काल काट डाला  और सत्तर बाणों से भगदत्त पर वार किया। तब भगदत्त ने उसके चारों घोडों को मार डाला। घतोत्कच ने अश्वहीन रथ में से ही उन पर बड़े वेग से शक्ति छोड़ी। किन्तु भगदत्त ने उसके तीन टुकड़े कर दिये और वह बीच में ही पृथ्वी पर गिर गयी। शक्ति को व्यर्थ हुई देखकर घतोत्कच भयभीत होकर रणांगण से भाग गया। घतोत्कच का बल_पराक्रम सर्वत्र विख्यात था, उसे संग्रामभूमि में सहसा यमराज और वरुण भी नहीं जीत सकते थे। उसी को इस प्रकार परास्त करके राजा भगदत्त अपने हाथी पर चढ़े पाण्डवों की सेना का संहार करने लगे। इधर मद्रराज शल्य अपनी बहिन के युगलपुत्र नकुल और सहदेव से युद्ध कर रहे थे। उन्होंने उन दोनों को अपने बाणों से एकदम ढ़क दिया। तब सहदेव ने भी बाण बरसाकर उनकी प्रगति को रोक दिया। सहदेव के बाणों से आच्छादित होने पर शल्य उसके पराक्रम से बड़े प्रसन्न हुए तथा अपनी माता के सम्बन्ध से उन दोनों भाइयों को भी अपने मामा का जौहर देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। इतने में ही महारथी शल्य ने चार बाण छोड़कर नकुल के चारों घोड़ों को यमराज के घर भेज दिया। नकुल तुरंत ही रथ से कूदकर अपने भाई के रथ पर चढ़ गया। इस प्रकार उन दोनों भाइयों ने एक ही रथ में बैठकर बड़ी फुर्ती से बाण बरसाकर मद्रराज को ढक दिया। इसी समय सहदेव ने कुपित होकर मद्रराज पर एक बाण छोड़ा। वह उनके शरीर को छोड़कर पृथ्वी पर जा पड़ा। उसकी चोट से मद्रराज व्याकुल होकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये और उसकी वेदना से अचेत हो गये। उन्हें संज्ञाशून्य देखकर सारथि रथ को रणक्षेत्र से बाहर ले गया। यह देखकर आपकी सेना के सब वीर उदास हो गये कथा महारथी नकुल  और सहदेव अपने,मामा को परास्त करके हर्षध्वनि और शंखनाद करने लगे।

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