Sunday 23 September 2018

व्यासजी के द्वारा सृंजय_पुत्र, मरुत, सहोत्र, शिबि और राम के परलोकगमन का वर्णन

युधिष्ठिर ने कहा___मुनिवर ! प्राचीन काल के पुण्यात्मा, सत्यवादी एवं गौरवशाली राजर्षियों के कर्मों का वर्णन करते हुए पुनः अपने यथार्थ वचनों से मुझे शान्त्वना दीजिये। व्यासजी बोले___पूर्वकाल में एक शैव्य नामक राजा थे, उनके पुत्र का नाम था सृंजय। जब सृंजय राजा हुआ तो उसकी देवर्षि नारद और पर्वत___दोनो ऋषियों से मित्रता हो गया। एक समय की बात है, वे दोनों ऋषि राजा सृंजय से मिलने के लिये उसके घर आये। राजा ने  उनका विधिवत् आथिथ्य_सत्कार किया और वे बड़ी प्रसन्नता के साथ सुखपूर्वक वहाँ रहने लगे। सृंजय को पुत्र की अभिलाषा थी, उसने अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मणों की बड़ी सेवा की। वे ब्राह्मण वेद_ वेदांग के ज्ञाता तथा तप और स्वाध्याय में लगे रहनेवाले थे। राजा की सुश्रुषा से प्रसन्न होकर उन ब्राह्मणों ने नारदजी से कहा___’भगवन् !  आप राजा सृंजय को उनकी इच्छा के अनुसार पुत्र प्रदान करें।‘ नारदजी ने ‘तथास्तु’ कहकर सृंजय से कहा___’राजर्षे ! ब्राह्मणलोग आपपर प्रसन्न हैं और आपको पुत्र देना चाहते हैं। अतः आपका कल्याण हो, आप जैसा पुत्र चाहते हो, उसके लिये वर माँग ले।‘ नारदजी के ऐसा कहने पर राजा ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भगवन् ! मैं ऐसा पुत्र चाहता हूँ, जो यशस्वी, तेजस्वी और शत्रुओं को दबानेवाला हो तथा जिसके मल, मूत्र, थूक और पसीने भी सुवर्णमय हों।‘ राजा को ऐसा ही पुत्र हुआ। उसका नाम पड़ा सुवर्णष्ठीवी। उक्त वरदान से राजा के घर निरंतर धन बढ़ने लगा। उन्होंने अपने महल, चहारदिवारी, किले, ब्राह्मणों के घर, पलंग, बिछौने,रथ और भोजनपात्र आदि सभी आवश्यक सामग्रियों को सोने का बनवा लिया। कुछ काल के पश्चात् राजा के महल में लुटेरे घुसने और राजकुमार सुवर्णष्ठीवी को बलपूर्वक पकड़कर जंगल में ले गये। सुवर्ण पाने का उपाय तो उन्हें ज्ञात नहीं था, इसलिये उन मूर्खों ने राजकुमार को मार डाला। फिर उसका शरीर फाड़कर देखा, किन्तु कुछ भी धन नहीं मिला। जब उसके प्राण निकल गये तो वह धन प्राप्त करनेवाला वरदान भी नष्ट हो गया। बेवकूफ डाकू उस अद्भुत राजकुमार को मारकर स्वयं भी आपस में लड़_भिड़कर नष्ट हो गये। अन्त में वे पापी असम्भाव्य नामक नरक में पड़े। राजा अपने मरे हुए पुत्र को देखकर बहुत दुःखी हुआ और बड़ी करुणा के साथ विलाप करने लगा। यह समाचार पाकर देवर्षि नारद ने वहाँ दर्शन दिया और कहा___’सृंजय ! अपनी अपूर्ण कामनाएँ लिये तुम भी तो एक दिन मरोगे, फिर दूसरे के लिये इतना शोक क्यों ? औरों की तो बात ही क्या है, अविक्षित् के पुत्र राजा मरुत भी जीवित नहीं रह सके। बृहस्पति से लागडाँट होने के कारण संवर्त ने राजा मरुत से यज्ञ कराया था। भगवान् शंकर ने राजर्षि मरुत को सुवर्ण का एक गिरिशिखर प्रदान किया था। इनकी यज्ञशाला में इन्द्र आदि देवता, बृहस्पति तथा समस्त प्रजापतिगण विराजमान थे। यज्ञ का सारा सामान सोने का बना हुआ था। इनके यज्ञों में ब्राह्मणों को दूध, दही, घी, मधु, रुचिकर भक्ष्यभोज्य तथा इच्छानुसार वस्त्र और आभूषण भी दिये जाते थे। मरुत के घर में मरुत् ( पवन ) देवता रसोई परोसने का काम करते थे और विश्वेदेव सभासद् थे। उन्होंने देवता, ऋषि और पितरों को हविष्य, श्राद्ध तथा सुवर्णराशि____यह अपार धन उन्होंने ब्राह्मणों को स्वेच्छा से दान कर दिया था। इन्द्र भी उनका भला चाहते थे, उनके राज्य में प्रजा को रोग_ व्याधि नहीं सताती थी। वे बड़े श्रद्धालु थे और शुभकर्मों से जीते हुए अक्षय पुण्यलोकों को प्राप्त हुए थे। राजा मरुत ने तरुणावस्था में रहकर प्रजा, मंत्री, धर्मपत्नी, पुत्र और भाइयों के साथ एक हजार वर्ष तक राज्य शासन किया था। सृंजय ! ऐसे प्रतापी राजा भी, जो तुमसे और तुम्हारे पुत्र से बहुत बढ़_चढ़कर थे, यदि मृत्यु से नहीं बच सके तो तुम्हें भी अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।‘
नारदजी ने पुनः कहा___राजा सुहोत्र की भी मृत्यु सुनी गयी है। वे अपने समय के अद्वितीय वीर थे, देवता भी उनकी ओर आँख उठाकर नहीं देख सकते थे। वे प्रजा के पालन, धर्म, दान, यज्ञ और शत्रुओं पर विजय पाना___ इन सबको कल्याणकारी समझते थे। धर्म से देवताओं की अराधना करते, बाणों से शत्रुओं पर विजय पाते और  अपने गुणों से समस्त प्रजा को प्रसन्न रखते थे। उन्होंने म्लेच्छ और लुटेरों का नाश करके इस संपूर्ण पृथ्वी का राज्य किया था। उनकी प्रसन्नता के लिये बादलों ने अनेकों वर्षों तक उनके राज्य में सुवर्ण की वर्षा की थी। वहाँ सुवर्णरस की नदियाँ बहती थीं। उसमें सोने के मगर और मछलियाँ रहती थीं। मेघ अभीष्ट वस्तुओं की वर्षा करते थे। राज्य में एक_एक कोस की लम्बी_चौड़ी बावलियाँ थीं, उनमें भी सुवर्णमय मगर और कछुए थे। उन सबको देखकर राजा को आश्चर्य होता था। उन्होंने कुरुजांगल देश में यज्ञ किया और वह अपार सुवर्णराशि ब्राह्मणों को बाँट दी। राजा सुहोत्र ने एक हजार अश्वमेध, सौ राजसूय तथा बहुत_सी दक्षिणावाले अनेकों क्षत्रिय यज्ञों और नित्य_नैमित्तिक यज्ञों का अनुष्ठान किया था। सृंजय ! वे सुहोत्र भी तुमसे और तुम्हारे पुत्र से सर्वथा श्रेष्ठ थे, किन्तु मृत्यु ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। ऐसा सोचकर तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।
नारदजी फिर कहने लगे___राजन् ! जिन्होंने संपूर्ण पृथ्वी को चमड़े की भाँति लपेट लिया था, वे उशीनरपुत्र राजा शिबि भी मरे थे। उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी को जीतकर अनेकों अश्वमेध यज्ञ किये थे। उन्होंने दस अरब अशर्फियाँ दान की थीं। साथ ही हाथी, घोड़े, पशु, धान्य, मृग, गौ, बकरे, भेंड आदि के सहित अनेकों भूखंड ब्राह्मणों के अधीन किये थे। बरसते हुए मेघ से जितनी धाराएँ गिरती हैं, आकाश में जितने नक्षत्र दिखायी देते हैं, गंगा के किनारे जितने बालू के कण हैं, मेरुपर्वत पर जितने शिलाओं के टुकड़े हैं और समुद्र में जितने रत्न एवं जल चल जीव हैं, उतनी गौएँ शिबि ने ब्राह्मणों को दान में दी थीं। प्रजापति ने भी शिबि के समान महान् कार्यभार को वहन करनेवाला कोई दूसरा महापुरुष भूत, भविष्य और वर्तमान में नहीं देखा। उन्होंने कई यज्ञ किये, जिनमें प्रार्थियों की संपूर्ण कामनाएँ पूर्ण की जाती थीं। उन यज्ञों में यज्ञस्तंभ, आसन, गृह, चहारदिवारी और बाहरी दरवाजा___ ये सब वस्तुएँ सुवर्ण की बनी थीं। यज्ञ के बाड़ेमें दूध_दही के बड़े_बड़े कुण्ड भरे रहते थे तथा नदियाँ बहती रहती थीं। शुद्ध अन्न के पर्वतों के समान ढेर लगे रहते थे। वहाँ सबके लिये घोषणा की जाती थी कि ‘ सज्जनों ! स्नान करो और जिसका जैसी रुचि हो, उसके अनुसार अन्नपान लेकर खाओ, पीओ।‘ भगवान् शिव ने राजा शिबि के पुण्यकर्म से प्रसन्न होकर यह वर दिया था___’ राजन् !  सदा दान करते रहने पर भी तुम्हारा धन क्षीण नहीं होगा। इसी प्रकार तुम्हारी श्रद्धा, सुयश और पुण्यकर्म अक्षय होंगे। तुम्हारे कहने के अनुसार ही सभी प्राणी तुमसे प्रेम करेंगे और अंत में तुम्हें उत्तम लोक की प्राप्ति होगी।
इन उत्तम वरों को प्राप्त करके राजा शिबि समय आने पर मर्त्यलोक तो चले गये। वे तुमसे और तुम्हारे पुत्र से भू बढ़कर पुण्यात्मा थे। जब वे भू मृत्यु से नहीं बच सके तो तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।
सृंजय ! जो प्रजा पर पुत्र के समान प्रेम रखते थे, वे दशरथनन्दन राम भी परमधाम को चले गये। वे अत्यन्त तेजस्वी थे और उनमें असंख्य गुण थे। अपने पिता की आज्ञा से उन्होंने धर्मपत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ चौदह वर्ष तक वनवास किया था। जनस्थान में रहकर तपस्वी मुनियों की रक्षा के लिये उन्होंने चौदह हजार राक्षसों का वध किया। वहाँ रहते समय ही लक्ष्मणसहित राम को मोह में डालकर रावण नामक राक्षस ने उनकी पत्नी सीता को हर लिया। यद्यपि रावण देवता और दैत्यों से भी अवध्य था, फिर भी साथ ही ब्राह्मण और देवताओं के लिये कण्टकरूप था, किन्तु राम ने उसे उसके साथियोंसहित मार डाला। देवताओं ने उनकी स्तुति की, सारे संसार में उनकी कीर्ति फैल गयी, देवता और ऋषि उनकी सेवा में रहने लगे। उन्होंने विशाल साम्राज्य पाकर संपूर्ण प्राणियों पर दया की। धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए अश्वमेध नामक महायज्ञ का अनुष्ठान किया।
श्रीरामचन्द्रजी ने भूख और प्यास को जीत लिया था। संपूर्ण देहधारियों के रोगों को नष्ट कर दिया था। वे कल्याणप्रद गुणों से संपन्न थे और सदा अपने तेज से प्रकाशमान रहते थे। सब प्राणियों से अधिक तेजस्वी थे। राम के शासनकाल में इस पृथ्वी पर देवता, ऋषि और मनुष्य एक साथ रहते थे। उनके राज्य में प्राणियों के प्राण क्षीण नहीं होते थे। उस समय सबकी आयु बड़ी होती थी। कोई नौजवान नहीं मरता था। देवता और पितर वेदों की विधियों से प्रसन्न होकर हव्य_ कव्य को ग्रहण करते थे। राम के राज्य में डाँस_मच्छरों का नाम नहीं था। जहरीले साँप नष्ट हो चुके थे। न कोई पानी में डूबकर मरता था और न असमय में आग ही किसी को जलाती था। उस समय के लोग अधर्म में रुचि रखनेवाले, लोभी और मूर्ख नहीं होते थे। सभी वर्णों के लोग शिष्ट, बुद्धिमान् और अपने कर्तव्य का पालन करनेवाले थे।
जनस्थान में राक्षसों ने जो पितरों और देवताओं की पूजा नष्ट कर दी थी, उसे भगवान् राम ने राक्षसों को मारकर पुनः प्रचलित किया। उस समय एक_एक मनुष्य के हजार_हजार  संतानें होती थीं और उनकी आयु भी एक_एक सहस्त्र वर्ष की हुआ करती थी। बड़ों को अपने से छोटे की श्राद्ध नहीं करना पड़ता था। भगवान् राम की श्याम_सुन्दर छवि, तरुण अवस्था और कुछ अरुणाई लिये विशाल आँखें थीं। भुजाएँ सुन्दर तथा घुटनों तक लम्बी थीं। सिंह के समान कंधे थे। उनकी झाँकी भी जीवों का मन मोहनेवाली थीं। उन्होंने ग्यारह हजार वर्ष तक राज्य किया था। उस समय के लोगों के जबान पर केवल राम का ही नाम था। अन्त में अपने और भाइयों के अंशरूप दो_दो पुत्रों के द्वारा आठ प्रकार के राजेश की स्थापना करके उन्होंने चारों वर्णों की प्रजा को साथ ले सदेह परमधाम को गमन किया। सृंजय ! तुमसे और तुम्हारे पुत्र से सर्वथा श्रेष्ठ वे राम भी यदि यहाँ नहीं रह सके तो तुम अपने पुत्र के लिये क्यों शोक करते हो ?

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