Friday 7 September 2018

युधिष्ठिर का विलाप तथा व्यासजी के द्वारा मृत्यु की उत्पत्ति की वर्णन

संजय कहते हैं___ महाराज ! महावीर अभिमन्यु के मारे जाने के पश्चात् सभी पाण्डवयोद्धा रथ छोड़, कवच उतार और धनुष फेंककर राजा युधिष्ठिर के चारों ओर बैठ गये तथा अभिमन्यु को मन_ही_मन याद करते हुए उसके युद्ध का स्मरण करने लगे। भाई का पुत्र अभिमन्यु_जैसा वीर मारा गया, यह सोचकर राजा युधिष्ठिर बहुत दुःखी हो गये और विलाप करने लगे___’जैसे गौओं के झुण्ड में सिंह काड बच्चा प्रवेश कर जाय उसी प्रकार जो केवल मेरा प्रिय करने की इच्छा से द्रोण के दुर्भेद्य व्यूह में जा घुसा, युद्ध में जिसके सामने आकर बड़े_बड़े धनुर्धर और अस्त्र_विद्या में कुशल वीर भी भाग गये, जिसने हमारे कट्टर शत्रु दुःशासन को अपने बाणों से शीघ्र ही मार भगाया था, वह वीर अभिमन्यु द्रोणसेनारूपी महासागर के पार होकर भी दुःशासनकुमार के पास जा मृत्यु को प्राप्त हुआ। सुभद्राकुमार के मारे जाने के बाद अब मैं अर्जुन अथवा सुभद्रा को कैसे मुँह दिखाऊँगा ? हाय ! वह बेचारी अब अपने प्यारे बेटे को नहीं देख सकेगी। श्रीकृष्ण और अर्जुन को यह दुःखद समाचार कैसे सुनाऊँगा ? आह ! मैं कितना निर्दयी हूँ; जिस सुकुमार बालक को भोजन और शयन करने, सवारी पर चलने तथा भूषण_वस्त्र पहनने में आगे रखना चाहिये था, उसे मैंने युद्ध में आगे कर दिया ! अभी तो वह तरुण कुमार युद्ध की कला में पूरा प्रवीण भी नहीं हुआ था, फिर कैसे कुशल से लौटता ?  अर्जुन बुद्धिमान, निर्लोभ, संकोचशील, क्षमावान्, रूपवान्, बलवान्, बड़ों का मान देनेवाले, वीर और सत्यपराक्रमी हैं, जिनके कर्मों की देवतालोग भी प्रशंसा करते हैं, जो अभय चाहनेवाले शत्रु को भी अभयदान देते हैं, उन्हीं के बलवान् पुत्र की भी हमलोग रक्षा न कर सके। बल और पुरुषार्थ में जो सबसे आगे था, उस अर्जुनकुमार को मारा गया देखकर अब विजय से भी मुझे प्रसन्नता न होगी; उसके बिना पृथ्वी का राज्य, अमरत्व अथवा देवताओं के लोक का अधिकार भी मेरे लिये किसी काम का नहीं है।
कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर जब इस प्रकार विलाप कर रहे थे, उसी समय महर्षि वेदव्यासजी वहाँ आ पहुँचे। युधिष्ठिर ने उनका यथोचित सत्कार किया और जब वे आसन पर विराजमान हुए तो अभिमन्यु की मृत्यु के शोक से संतप्त होकर उनसे कहा___’मुनिवर ! सुभद्रानन्दन अभिमन्यु युद्ध कर रहा था, उस समय उसे अनेक अधर्मी महारथियों ने घेरकर मार डाला है। मैंने उससे कहा था, ‘हमलोगों के लिये व्यूह में घुसने का दरवाजा बना दो।‘ उसने वैसा ही किया। जब स्वयं भीतर घुस गया, तब उसके पीछे हमलोग भी घुसने लगे; किन्तु जयद्रथ ने हमें रोक दिया। योद्धाओं को अपने समान वीर से युद्ध करना चाहिये; किन्तु शत्रुओं ने जो उसके साथ व्यवहार किया है, वह नितान्त अनुचित है। इसी कारण मेरे हृदय में बड़ा संताप हो रहा है। बार_बार उसी की चिन्ता होने लगती है, तनिक भी शान्ति नहीं मिलती’।
व्यासजी ने कहा___युधिष्ठिर ! तुम तो महान् बुद्धिमान और समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हो। तुम्हारे जैसे पुरुष संकट पड़ने पर मोहित नहीं होते। अभिमन्यु युद्ध में बहुत_से वीरों को मारकर प्रौढ़ योद्धाओं के समान पराक्रम दिखाकर स्वर्गलोक में गया है। भारत ! विधाता के विधान को कोई टाल नहीं सकता। मृत्यु तो देवता,  गन्धर्व और  दानवों के भी प्राण ले लेती है; फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है ?
युधिष्ठिर ने कहा___मुने ! ये शूरवीर राजकुमार शत्रुओं के वश में पड़कर विनाश के मुख में चले गये। कहते हैं, ये मर गये; किन्तु मुझे संदेह होता है कि इन्हे ‘मर गये'  ऐसा क्यों कहा जाता है। मृत्यु किसकी होती है ? क्यों होती है ?  और वह किस प्रकार प्रजा का संहार करती है ? तथा कैसे यह जीव को परलोक में ले जाती है ? पितामह !  ये सब बातें मुझे बताइये।
व्यासजी ने कहा___ राजन् ! जानकार लोग इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का दृष्टान्त दिया करते हैं। इसको सुनकर तुम स्नेहबंधन के कारण होनेवाले दुःख से छूट जाओगे। यह उपख्यान समस्त पापों को नष्ट करनेवाला, आयु बढ़ानेवाला, शोकनाशक, अत्यन्त मंगलकारी तथा वेदाध्ययन के समान पवित्र है। आयुष्मान् पुत्र, राज्य और लक्ष्मी चाहनेवाले द्विजों को प्रतिदिन प्रातःकाल इस आख्यान की श्रवण करना चाहिये।
प्राचीन काल की बात है। सतयुग में एक अकम्पन नाम के राजा थे। उन पर शत्रुओं ने आक्रमण किया। राजा के एक पुत्र था, जिसका नाम था हरि। वह बल में नारायण के समान था और युद्ध में इन्द्र के समान। उस युद्ध में दुष्कर पराक्रम दिखाकर अन्त में वह शत्रुओं के हाथ से मारा गया। इससे राजा को बड़ा शोक हुआ। उसके पुत्र_शोक का समाचार सुनकर देवर्षि नारद आये। राजा वे उनका यथोचित पूजन करके बैठने के पश्चात् उनसे कहा___”भगवन् ! मेरा पुत्र इन्द्र और विष्णु के समान कान्तिमान् एवं महाबली था। उसको बहुत से शत्रुओं ने मिलकर युद्ध में मार डाला है। अब मैं यह ठीक_ठीक जानना और सुनना चाहता हूँ कि ‘यह मृत्यु क्या है ? इसका वीर्य, बल और पौरुष कैसा है ?”
राजा की बात सुनकर नारदजी ने कहा___ राजन् ! आदि में सृष्टि के समय पितामह ब्रह्माजी ने जब संपूर्ण प्रजा की सृष्टि की तो उसका संहार न होता देख उसके लिये वे विचार करने लगे। सोचते_सोचते जब कुछ समझ में न आया तो उन्हें क्रोध आ गया। उनके उस क्रोध के कारण आकाश से अग्नि प्रकट हुई और वह संपूर्ण दिशाओं में फैल गयी। भगवान् ब्रह्मा ने उसी अग्नि से पृथ्वी, आकाश एवं संपूर्ण चराचर जगत् को जलाना आरम्भ किया। यह देख रुद्रदेवता ब्रह्माजी का शरण में गये। शंकरजी के आने पर प्रजा के हित के लिये ब्रह्माजी ने कहा___’बेटा ! तुम अपनी इच्छा से उत्पन्न हुए हो और मुझसे अभीष्ट वस्तु पाने के योग्य हो। बताओ, तुम्हारी कौन_सी कामना पूर्ण करूँ ? तुम्हें जो भी अभीष्ट होगा, उसे पूर्ण करूँगा।‘
रुद्र ने कहा___ प्रभो ! आपने नाना प्रकार के प्राणियों की सृष्टि की है, किन्तु वे सभी आज आपकी क्रोधाग्नि से दग्ध हो रहे हैं। उनकी दशा देखकर मुझे दया आती है। भगवन् ! अब तो उन पर प्रसन्न होइये।
ब्रह्माजी ने कहा___पृथ्वीदेवी जगत् के भार से पीड़ित हो रही थी, इसी ने मुझे संहार के लिये प्रेरित किया। इस विषय में बहुत विचार करने पर भी जब कोई उपाय न सूझा तो मुझे बहुत क्रोध चढ़ आया।
रुद्र ने कहा___भगवन् ! संहार के लिये आप क्रोध न करें। प्रजा पर प्रसन्न हों। आपके क्रोध से प्रकट हुई आग पर्वत, वृक्ष, नदी, जलाशय, तृण, घास आदि संपूर्ण स्थावर_जंगमरूप जगत् को जला रही है। अब आपका क्रोध शान्त हो जाय___यही वरदान मुझे दीजिये। प्रजा के हित के लिये कोई ऐसा उपाय सोचिये, जिससे इन प्राणियों की जान बचे।
नारदजी कहते हैं_____ शंकरजी की बात सुनकर ब्रह्माजी ने प्रजा का कल्याण करने के लिये उस अग्नि को पुनः अपने में लीन कर लिया। उसे लीन करते समय उनकी सब इन्द्रियों से एक स्त्री प्रकट हुई। उसका रंग था काला, लाल और पीला। उसकी जिह्वा, मुख और नेत्र भी लाल थे। ब्रह्माजी ने उसे ‘मृत्यु’ कहकर पुकारा और बताया कि ‘मैंने लोकों का संहार करने की इच्छा से क्रोध किया था, उसी से तुम्हारी उत्पत्ति हुई है; अत: तुम मेरी आज्ञा से संपूर्ण चराचर जगत् का नाश करो। इसी से तुम्हारा कल्याण होगा।‘
ब्रह्माजी की ऐसी आज्ञा सुनकर वह स्त्री अत्यन्त सोच में पड़ गयी और फूट_फूटकर रोने लगी। उसकी आँखों से जो आँसू झड़ रहे थे, उसे ब्रह्माजी ने हाथों में ले लिया और उसे भी शान्त्वना दी। तब मृत्यु ने कहा___’ भगवन् ! आपने मुझे ऐसा स्त्री क्यों बनाया ? क्या मैं जान_बूझकर मैं यह अहितकारक कठोर कर्म करूँ ?  मैं भी पाप से डरती हूँ। मेरे सताये हुए लोग रोयेंगे; उन दुःखियों के आँसुओं से मुझे बड़ा भय हो रहा है, इसलिये मैं आपकी शरण में आयी हूँ। मुझे वर दीजिये, मैं आज से धेनुकाश्रम में जाकर आपकी ही अराधना में संलग्न हो तीव्र तपस्या करूँगी। रोते_बिलखते लोगों के प्राण लेने की काम मुझसे नहीं हो सकेगा। मुझे इस पाप से बचाइये।‘
ब्रह्माजी ने कहा___मृत्यो ! प्रजा का संहार करने के लिये ही तुम्हारी सृष्टि हुई है। जाओ, सब प्रजा का नाश करती रहो।  इसमें कुछ विचार करने का आवश्यकता नहीं है। ऐसा ही होगा, इसमें कभी परिवर्तन नहीं हो सकता। तुम मेरी आज्ञा का पालन करो। इसमें तुम्हारी निंदा नहीं होगी।
यह सुनकर मृत्यु ने ब्रह्माजी के चरणों में मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा, ‘प्रभो ! यदि यह कार्य मेरे बिना नहीं हो सकता तो आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। अब एक बार कहती हूँ, उसे सुनिये। लोभ, क्रोध, असूया, ईर्ष्या, द्रोह, मोह, निर्लज्जता तथा परस्पर कटु वचन बोलना___ये नाना प्रकार के दोष ही प्राणियों की देह का नाश करें।‘ ब्रह्माजी ने कहा___’मृत्यो ! ऐसा ही होगा। तुम्हारे आँसुओं की बूँदें, जिन्हें मैंने हाथ में ले लिया था, व्याधि बनकर गतायु प्राणियों का नाश करेगी। तुम्हें पाप नहीं लगेगा। अतः डरो मत ! तुम कामना और क्रोध का त्याग करके संपूर्ण जीवों के प्राणों का अपहरण करो। ऐसा करने से तुम्हें अक्षय धर्म की प्राप्ति होगी। जो मिथ्या के आवरण से ढके हुए हैं, उन जीवों को अधर्म ही मारेगा। असत्य से ही प्राणी अपने को पापपंक में डुबाते हैं।‘
नारदजी कहते हैं____उस मृत्युनामधारिणी स्त्री ने ब्रह्माजी के उपदेश से तथा विशेषतः उनके शाप के भय से ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। तबसे वह काम और क्रोध को त्यागकर अनासक्त भाव से प्राणियों का अंतकाल उपस्थित होने पर उनके प्राणों को हर लेती है। यही प्राणियों की मृत्यु है, इसी से व्याधियों की उत्पत्ति हुई है। व्याधि कहते हैं रोग को, जिससे जीव रुग्ण हो जाता है। अन्तकाल आने पर सभी प्राणियों की मृत्यु होती है, इसलिये राजन् ! तुम व्यर्थ शोक न करो। मरण के पश्चात् सभी प्राणी परलोक में जाते हैं और वहाँ से इन्द्रियों तथा वृत्तियों के साथ ही यहाँ लौट आते हैं। देवता भी परलोक में अपने कर्मभोग पूर्ण करके फिर इस मर्त्यलोक में जन्म लेते हैं। इसलिये तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। वह वीरों को प्राप्त होने योग्य रमणीय लोकों में पहुँचकर वहाँ स्वर्गीय आनन्द का उपभोग करता है। ब्रह्माजी ने मृत्यु को प्रजा का संहार करने के लिये स्वयं ही उत्पन्न किया है; अतः वह समय आने पर सबका संहार करती ही है। यह सारी सृष्टि विधाता की बनायी हुई है, वे स्वेच्छानुसार इसका उपसंहार करते हैं, इसलिये तुम अपने मरे हुए पुत्र का शोक शीघ्र ही त्याग दो।
व्यासजी कहते हैं___नारदजी की यह अर्थभरी बात सुनकर राजा अकम्पन ने उनसे कहा___’भगवन् ! मेरा शोक दूर हुआ, अब मैं प्रसन्न हूँ। आपके मुँह से यह इतिहास सुनकर मैं कृतार्थ हो गया, आपको प्रणाम है।‘  राजा की ऐसी  वाणी सुनकर देवर्षि नारद तुरंत नन्दनवन को चले गये। राजा युधिष्ठिर !  इस उपाख्यान को सुनने_सुनाने से पुण्य, यश, आयु, धन तथा स्वर्ग की प्राप्ति होती है। महारथी अभिमन्यु युद्ध में धनुष, तलवार, गदा तथा शक्ति से प्रहार करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हुआ है। इसलिये तुम धैर्य धारण करो और प्रमाद त्यागकर भाइयों के साथ ले शीघ्र ही युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।



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