Tuesday 25 September 2018

भगीरथ, दिलीप, मान्धाता, ययाति, अम्बरीष और शाशबिन्दु की मृत्यु का दृष्टांत

नारदजी ने पुनः कहा___सृंजय ! राजा भगीरथ की मृत्यु होने की बात सुनी गयी है। उन्होंने यज्ञ करते समय गंगा के दोनों किनारों पर सोने की ईंटों के घाट बनवाये थे तथा सोने के आभूषणों से विभूषित दस लाख कन्याएँ ब्राह्मणों को दान की थीं। सभी कन्याएँ रथों में बैठी थीं, सभी रथों में चार_चार घोड़े जुते थे। प्रत्येक रथ के पीछे सौ_सौ हाथी सुवर्ण का मालाएँ  पहने चलते थे। एक_एक हाथी के पीछे हजार_हजार  घोड़े, प्रत्येक घोड़े के साथ सौ_सौ गौएँ और गौओं के पीछे बकरी और भेडों के झुण्ड थे। इस प्रकार उन्होंने बहुत_सी दक्षिणा दी थी। गंगाजी भीड़_ भाड़ से घबराकर ‘मेरी रक्षा करो’ कहती हुई भगीरथ के गोद में जा बैठीं। इससे वे उनकी पुत्री हुईं और उनका नाम भागीरथी पड़ा। गंगादेवी ने भी उन्हें पिता कहकर पुकारा था। जिस ब्राह्मण ने जब_जब जिस_जिस अभीष्ट वस्तु की इच्छा की, जितेन्द्रिय राजा ने प्रसन्नतापूर्वक वह_वह वस्तु उसे तत्काल अर्पण की। राजा भगीरथ ब्राह्मणों की कृपा से ब्रह्मलोक को प्राप्त हुए। सृंजय ! वे तुमसे और तुम्हारे पुत्र से सर्वथा बढ़े_ चढ़े थे। जब वे भी यहाँ नहीं रहे तो औरों की तो बात ही क्या है ? इसलिये तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। राजा दिलीप भी मरे थे जिनके सौ यज्ञों में लाखों तत्वज्ञानी एवं याग्यिक ब्राह्मण नियुक्त हुए थे। उन्होंने यज्ञ करते समय धन_धान्य से सम्पन्न यह सारी पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी थी। राजा दिलीप के यज्ञों में सोने की सड़कें बनायी गयी थीं। इन्द्र आदि देवता उन्हें धर्म के समान मानकर उनके यज्ञ में पधारे थे। उनका सुवर्णमय सभाभवन सदा देदीप्यमान रहता था।  अन्न के पहाड़ लगे हुए थे। सोने के बने हुए हजारों यूप थे। वहाँ गन्धर्वराज विश्वावसु बड़ी प्रसन्नता के साथ वीणा बजाते थे। सभी प्राणी उन सत्यवादी राजा का सम्मान करते थे। एक बात उनके यहाँ सबसे अद्भुत थी, जो अन्य राजाओं के यहाँ नहीं है____राजा दिलीप जल में भी जाते तो उनके रथ के पहिये नहीं डूबते थे। उन सत्यवादी तथा उदार नरेश का जो दर्शन कर लेते थे, वे भी स्वर्गलोककेे अधिकारी हो जाते थे। खद्वांग ( दिलीप ) के घर ये पाँच प्रकार के शब्द कभी बन्द नहीं होते थे___ स्वाध्याय की आवाज, धनुष की टंकार और अतिथियों के लिये ‘ खाओ, पीओ तथा भिक्षा ग्रहण करो'___ये तीन वाक्यों की घोषणा। सृंजय ! वे राजा तुमसे और तुम्हारे पुत्र से बहुत बढ़_चढ़कर थे, किन्तु वे भी जीवित न रह सके। फिर तुम अपने पुत्र के लिये क्यों शोक करते हो ? युवनाश्र्व के पुत्र मान्धाता की भी मृत्यु सुनी गयी है। वे देवता, असुर और मनुष्य___ तीनों लोकों में विजयी थे। एक समय की बात है, राजा युवनाश्र्व वन में शिकार खेलने गये। वहाँ उनका घोड़ा थक गया और उन्हें भी बहुत प्यास लगी। इतने में उन्हें दूर से धुआँ दिखायी पड़ा, उसी को लक्ष्य करके ले यज्ञमण्डप में जा पहुँचे। वहाँ एक पात्र में घृतमिश्रित जल रखा हुआ था; राजा ने उसे पी लिया। पेट में जाते ही वह मन्त्रपूत जल बालक के रूप में परिणत हो गया। इसके लिये वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमार बुलाये गये। उन्होंने उस गर्भ से बालक को निकाला। वह देवता के समान तेजस्वी था। उसे अपने पिता की गोद में शयन करते देख देवताओं ने आपस में कहा___’यह किसका दूध पियेगा ?’ यह सुनकर इन्द्र ने सबसे पहले कहा___’मां धाता___मेरा दूध पियेगा।‘ उसी समय इन्द्र की अंगुलियों से घी और दूध की धारा बहने लगी। चूँकि इन्द्र ने दयावशीभूत होकर ‘मां धाता’ कहा था, इसलिये उसका नाम मान्धाता पड़ गया। इन्द्र के हाथ से घी और दूध पीकर वह प्रतिदिन बढ़ने लगा। बारह दिनों में ही वह बालक बारह वर्ष का हो गया। राजा होने पर मान्धाता ने संपूर्ण पृथ्वी को एक ही दिन में जीत लिया था। वे धर्मात्मा, धैर्यवान्, वीर, सत्यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे। उन्होंने जन्मेजय, सुधन्वा,  गय, पूरु, बृहद्रथ, असित और  नृग को भी जीत लिया था। सूर्य जहाँ से उदय होते थे और जहाँ जाकर अस्त होते थे, वह सब_का_सब क्षेत्र मान्धाता का राज्य कहलाता था। मान्धाता ने सौ अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ किये थे। उन्होंने सौ योजनों के विस्तार का मत्स्यदेश ब्राह्मणों को दे दिया था। उनके यज्ञ में मधु तथा दूध बहानेवाली नदियाँ अन्न के पर्वतों को चारों ओर से घेरकर बहती थीं। उन नदियों के भीतर घी के कई कुण्ड थे। दही उनके फेन_सा दिखायी देता था। गुड़ का रस ही उनका जल था। उस राजा के यज्ञ में देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व, सर्प, पक्षी, ऋषि तथा श्रेष्ठ ब्राह्मण पधारे थे। मूर्ख तो वहाँ एक भी नहीं था। उन्होंने धन_धान्य से सम्पन्न समुद्रतक की पृथ्वी ब्राह्मणों के अधीन कर दी थी और फिर समय आने पर स्वयं ही इस लोक से अस्त हो गये थे। सम्पूर्ण दिशाओं में अपना सुयश फैलाकर वे पुण्यवानों के लोक में पहुँच गये। सृंजय ! वे भी तुमसे और तुम्हारे पुत्र से सर्वथा श्रेष्ठ थे। जब वे भी मृत्यु से नहीं बच सके तो दूसरों की क्या बात है ! अतः तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।
नहुषनन्दन ययाति की मृत्यु भी सुनी गयी है। उन्होंने सौ राजसूय, सौ अश्वमेध, हजार पुण्डरीक  याग तथा चातुर्मास्य और अग्निष्ठोम आदि नाना प्रकार के यज्ञ किये थे और इनमें ब्राह्मणों को बहुत दक्षिणा दी थी। परम पवित्र सरस्वती नदी ने, समुद्रों ने तथा पर्वतों सहित अन्यान्य सरिताओं ने यज्ञ करनेवाले ययाति को घी और दूध प्रदान किया था। नाना प्रकार के यज्ञों से परमात्मा का पूजन करके उन्होंने पृथ्वी के चार भाग किये और उन्हें ऋत्विज, अध्वर्यु, होता तथा उद्गाता___ इन चारों को बाँट दिया। फिर देवयानी और शर्मिष्ठा से उत्तम संतानें उत्पन्न की। जब भोगों से उन्हें शान्ति नहीं मिली तो निम्नांग्कित गाथा का जानकर उन्होंने अपनी धर्मपत्नी के साथ वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया। वह गाथा इस प्रकार है___’इस पृथ्वी पर जितने भी धान, जौ, सुवर्ण, पशु  आदि भोग्य पदार्थ हैं, वे सब एक मनुष्य को भी संतोष कराने के लिये पर्याप्त नहीं हैं___ऐसा विचारकर मन को शान्त करना चाहिये।‘
इस प्रकार राजा ययाति ने धैर्य के साथ कामनाओं का त्याग किया और अपने पुत्र पुरु को राजसिंहासन पर बिठाकर वे वन में चले गये। सृंजय ! वे भी तुमसे और तुम्हारे पुत्र से बढ़े_चढ़े थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हें भी अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।
सुना है, नाभाग के पुत्र अम्बरीष भी मृत्यु को प्राप्त हुए थे। उन्होंने अकेले ही दस लाख योद्धाओं से युद्ध किया था। एक समय की बात है, राजा के शत्रुओं ने उन्हें युद्ध में जीतने की इच्छा से आकर चारों ओर ये घेर लिया। वे सब_के_सब अस्त्रयुद्ध के ज्ञाता थे और राजा के प्रति अशुभ वचनों का प्रयोग कर रहे थे। तब अम्बरीष ने अपने शरीरबल, अस्त्रबल, हस्तलाघव और युद्ध संबंधी शिक्षा के द्वारा शत्रुओं के छत्र, आयुध, ध्वजा और रथों के टुकड़े_टुकड़े कर डाले। फिर तो वे अपने प्राण बचाने के लिये प्रार्थना करने लगे और ‘हम आपकी शरण में हैं’ ऐसा कहते हुए उनके शरणागत हो गये। इस प्रकार उन शत्रुओं को वशीभूत करके संपूर्ण पृथ्वी पर विजय पाकर शास्त्रविधि के अनुसार उन्होंने सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया। उन यज्ञों में श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा दूसरे लोग भी सब प्रकार से सम्पन्न उत्तम अन्न भोजन करके अत्यंत तृप्त हुए थे तथा राजा ने भी सबका बहुत सत्कार किया था। साथ ही उन्होंने बहुत अधिक मात्रा में दक्षिणा दी थी। अनेकों मूर्धाभिषिक्त राजाओं और सैकड़ों राजकुमारों को दण्ड तथा कोषसहित उन्होंने ब्राह्मणों के अधीन कर दिया था। महर्षिलोग उन पर प्रसन्न होकर कहते थे कि ‘असंख्य दक्षिणा देनेवाले राजा अम्बरीष जैसा यज्ञ करते हैं, वैसा न तो पहले के राजाओं ने किया और न आगे कोई करेंगे।‘ सृंजय ! वे तुमसे और तुम्हारे पुत्र से बहुत बढ़_चढ़कर थे; जब वे भी मृत्यु के वश में पड़ गये, तो तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। सुना है, जिन्होंने नाना प्रकार के यज्ञ किये थे, वे राजा शशबिन्दु भी मर गये। उनके एक लाख स्त्रियाँ थीं और प्रत्येक स्त्री के गर्भ से एक_एक हजार संतानें उत्पन्न हुई थीं। सभी राजकुमार पराक्रमी, वेदों के विद्वान् और उत्तम धनुष धारण करनेवाले थे। सबने यज्ञ किये थे। राजा शशबिन्दु ने अपने उन कुमारों को अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को दे दिया था। प्रत्येक राजपुत्र के पीछे स्वर्णभूषित सौ_सौ कन्याएँ थीं, एक_एक कन्या के पीछे सौ_सौ हाथी, प्रत्येक हाथी के पीछे सौ_सौ रथ, हर एक रथ के साथ, सौ_सौ घोड़े, प्रत्येक घोड़े कै पीछे हजार_हजार गौएँ तथा प्रत्येक गौ के पीछे पचास_पचास भेड़ें थीं। यह अपार धन राजा शशबिन्दु ने अपने महायज्ञ में ब्राह्मणों को दान दिया था। उस यज्ञ में कोसों तक पर्वतों के समान अन्न के ढेर लगे थे। राजा का अश्वमेध यज्ञ पूरा हो जाने पर अन्न के तेरह पर्वत बच गये थे। उनके राज्यकाल में इस पृथ्वी पर हृष्ट_पुष्ट मनुष्य रहते थे, यहाँ कोई विघ्न नहीं था, कोई रोग नहीं था। बहुत समय तक राज्य का उपभोग करके अन्त में वे दिव्यलोक को प्राप्त हुए। सृंजय ! वे तुमसे और तुम्हारे पुत्र से बहुत बढ़_चढ़कर थे; जब वे भी नहीं रह सके तो तुम्हें  अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।

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