Monday 8 October 2018

राजा गय, रन्तिदेव, भरत और पृथु की कथा और युधिष्ठिर की शोक_निवृति

नारदजी कहते हैं____राजा अमूर्तरय के पुत्र हर की भी मृत्यु सुनी गयी है। उन्होंने सौ वर्ष तक अग्निहोत्र किया था और प्रतिदिन होमवशिष्ट अन्न का ही वे भोजन किया करते थे। इससे अग्निदेव ने प्रसन्न होकर राजा को वर माँगने के लिये कहा। तब हर ने यह वरदान माँगा___’मैं तप, ब्रह्मचर्य,  व्रत, नियम और गुरुजनों की कृपा से वेदों का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। दूसरों को कष्ट पहुँचाये बिना अपने धर्म के अनुसार चलकर अक्षय धन पाना चाहता हूँ। प्रतिदिन ब्राह्मणों को दान दूँ और इस काम में मेरी अधिकाधिक श्रद्धा बढ़े। अपने वर्ण की कन्या से मेरा विवाह हो, वह पतिव्रता रहे और उसी के गर्भ से मेरे पुत्र उत्पन्न हो। अन्नदान में मेरी श्रद्धा बढ़े तथा धर्म में ही मन लगा रहे। मेरे धर्मकार्य में कभी कोई विघ्न न आवे।‘ ‘ऐसा ही होगा’ यह कहकर अग्निदेव अन्तर्धान हो गये। राजा गय को उनकी सभी अभीष्ट वस्तुएँ प्राप्त हुईं और उन्होंने धर्म से ही शत्रुओं पर विजय पायी। सौ वर्ष तक बड़ी श्रद्धा के साथ दर्श, पौर्णमास, आग्रयण तथा चातुर्मास्य आदि नाना प्रकार के यज्ञ किये और उनमें प्रचुर दक्षिणा दी। वे प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर एक लाख साठ हजार गौ, दस हजार घोड़े तथा एक लाख अशर्फियाँ दान करते थे। उन्होंने अश्वमेध यज्ञ में मणिमय रेतवाली सोने का पृथ्वी बनाकर ब्राह्मणों को दान की थी। समुद्र, नदी, नद, वन, द्वीप, नगर, राष्ट्र आकाश तथा स्वर्ग में जो नाना प्रकार के प्राणी रहते हैं, वे सब उस यज्ञ की सम्पत्ति से तृप्त होकर कहते थे____’राजा गय के समान दूसरे किसी का यज्ञ नहीं हुआ है।‘ उन्होंने छत्तीस योजन लम्बी और तीस योजन चौड़ी चौबीस सुवर्णमयी वेदियाँ बनवायी थीं। ये पूर्व से पश्चिम के क्रम में बनी थीं। वेदियों पर मोती और हीरे बिछे हुए थे। ये सब वस्त्र और आभूषणों के साथ ब्राह्मणों को दान की गयीं। यज्ञ के अन्त में भोजन से बचे हुए अन्न के पच्चीस पर्वत शेष रह गये थे। यज्ञ में रस की नदियाँ बहती थीं। कहीं वस्त्रों के ढेर लगे थे तो कहीं आभूषणों के। सुगंधित पदार्थों की राशि भी देखी जाती थी। उस यज्ञ के प्रभाव से राजा गय तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गये। साथ ही पुण्य को अक्षय करनेवाला अक्षयवट तथा पवित्र तीर्थ ब्रह्मसर भी उनके कारण विख्यात हो गये। सृंजय ! वे राजा गय तुमसे और तुम्हारे पुत्र से सर्वथा बढ़_चढ़कर थे; जब वे भी जीवित नहीं रह सके तो तुम भी पुत्र के लिये शोक मत करो।
सुना है, संकृति के पुत्र रन्तिदेव भी जीवित नहीं रहे। उनके यहाँ दो लाख रसोइये थे, जो घरपर आये हुए अतिथि ब्राह्मणों को सुधा के समान मीठी, कच्ची और पक्की रसोई तैयार करके जिमाते थे। राजा रन्तिदेव प्रत्येक पक्ष में सुवर्ण के साथ हजारों बैल दान करते थे। एक_एक बैल के साथ सौ_सौ गौएँ होती थीं। साथ ही आठ_आठ सौ स्वर्णमुद्राएँ दी जाती थीं। इनके साथ यज्ञ और अग्निहोत्र के सामान भी होते थे। यह नियम उन्होंने सौ वर्ष तक चलाया था। वे ऋषियों को कमण्डलु, घड़े, बटलोई, पिठर, शैय्या, आसन, सवारी, महल, मकान, वृक्ष तथा अन्न_धन दिया करते थे। वे सब वस्तुएँ सोने की होती थीं। रन्तिदेव की वह अलौकिक समृद्धि देखकर पुराणवेत्ताओं ने इस प्रकार उनका यशोगान किया है___'हमने कुबेर के घरों में भी रन्तिदेव के समान धन का भरा_पूरा भण्डार नहीं देखा, फिर मनुष्यों के यहाँ तो हो ही कैसे सकता ?’ उनके यहाँ जो कुछ था सब सोने का ही था। उसे भी उन्होंने यज्ञ में ब्राह्मणों को दान कर दिया। उनके दिये हुए भव्य और कव्य को देवता तथा पितर प्रत्यक्ष ग्रहण करते थे। ब्राह्मणों की सब कामनाएँ उनके यहाँ पूर्ण होती थीं। सृंजय ! वे भी तुमसे और तुम्हारे पुत्र से श्रेष्ठ थे;  जब उनकी भी मृत्यु हो गयी तो तुम्हें अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। सुना है, दुष्यन्त के पुत्र भरत भू मृत्यु को प्राप्त हुए थे। भरत ने वन में रहकर बचपन में ही ऐसा पराक्रम दिखाया था, जो दूसरों के लिये कठिन है। जब वे बच्चे थे, बड़े_बड़े सिंहों को वेग से दबाकर बाँध लेते और उन्हें घसीटते रहते थे। अजगरों के दाँत तोड़ लेते और भागते हुए हाथियों के दाँत पकड़कर उन्हें अपने वश में कर लेते थे। सौ_सौ सिंहों को एक साथ घसीटते थे। उन्हें सब दावों का इस प्रकार दमन करते देख ब्राह्मणों ने इनका नाम ‘सर्वदमन’ रख दिया। राजा भरत ने यमुना_तट पर सौ, सरस्वती के कूल पर तीन सौ और गंगा के किनारे चार सौ अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ किये थे, जिनमें उत्तम दक्षिणा दी गयी थी। फिर अग्निष्ठोम, अतिरात्र और विश्वजीत याग करके दस लाख बाजपेय यज्ञों का अनुष्ठान किया। शकुन्तलानन्दन ने इन सब यज्ञों में ब्राह्मणों को बहुत_सा धन देकर संतुष्ट किया। सृंजय ! भरत भी तुमसे और तुम्हारे पुत्र से सर्वथा श्रेष्ठ थे; जब वे भी मर गये; तो तुम्हें अपने पुत्र के लिये संताप नहीं करना चाहिये। महर्षियों में राजसूय यज्ञ में जिन्हें ‘सम्राट’ पद पर अभिषिक्त किया था, वे महाराज पृथु भी मृत्यु को प्राप्त हुए। उन्होंने बड़े रत्न से इस पृथ्वी को खेती के योग्य बनाकर प्रथित ( प्रसिद्ध )  किया, इसलिये उनका नाम ‘पृथु’ हो गया।  पृथु के लिये यह पृथ्वी कामधेनु बन गयी थी, इस पर बिना बोये ही खेती होती थी। उस समय सभी गौएँ कामधेनु के समान थीं। पत्ते_पत्ते से मधु की वर्षा होती थी। कुश सुवर्णमय होते थे, साथ ही सुखद और कोमल भी। इसलिये प्रजा उनके ही वस्त्र बुुनकर पहनती और उन्हीं पर शयन भी करती थी। वृक्षों के फल अमृत के समान मधुर और स्वादिष्ट होते थे। प्रजा इनका ही आहार करती। कोई भी भूखे नहीं रहता था। सभी नीरोग थे, सबकी इच्छाएँ पूर्ण होती थीं और किसी को कहीं से भी भय नहीं था। इसलिये लोग अपने रुचि के अनुसार पेड़ों के नीचे या गुफाओं में निवास करते थे। उस समय राष्ट्रों और नगरों का विभाग नहीं था। सभी मनुष्य सुखी, सम्पन्न और प्रसन्न थे। राजा पृथु जब समुद्र में यात्रा करते तो पानी थम जाता था और पर्वत उन्हें मार्ग देते थे। उनके रथ की ध्वजा कभी नहीं टूटी। एक बार उनके पास वनस्पति, पर्वत, देवता, असुर, मनुष्य, सर्प, सप्तर्षि, यक्ष, गन्धर्व, अप्सरा और पितरों ने आकर कहा___’महाराज ! आप ही हमारे सम्राट हैं, आप ही हमें कष्ट से बचानेवाले हैं तथा आप ही हमारे राजा, रक्षक और पिता हैं। आप हमें अभीष्ट वरदान दें, जिससे हमलोग अनन्तकाल तक तृप्ति और सुख का अनुभव करें।‘ यह सुनकर राजा ने कहा___’ऐसा ही होगा।‘ तदनन्तर राजा पृथु ने नाना प्रकार के यज्ञ किये और मनोवांछित भोगों के द्वारा प्राणियों की कामनाएँ पूर्ण कर उन्हें तृप्त किया। पृथ्वी पर जो कुछ पदार्थ है, उनके ही आकार के सुवर्ण के पदार्थ बनवाकर राजा ने अश्वमेध यज्ञ में उन्हें ब्राह्मणों को दान दिया। उन्होंने छाछठ हजार सोने के हाथी बनवाकर ब्राह्मणों को दान किये थे। सोने की पृथ्वी भी बनवाया और उसे मणियों से विभूषित करके दान कर दिया। सृंजय ! वे तुमसे और तुम्हारे पुत्र से श्रेष्ठ थे; किन्तु जब वे भी मृत्यु से नहीं बच सके तो तुम्हें भी अपने पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये।
व्यासजी कहते हैं____ युधिष्ठिर ! इन राजाओं का उपाख्यान सुनकर सृंजय कुछ भी नहीं बोला, मौन रह गया। उसे इस प्रकार चुपचाप बैठे देख नारदजी ने कहा, ‘राजन् ! मैंने जो कुछ कहा, उसे सुना न ?  कुछ समझ में आया या नहीं ? जैसे शूद्र जाति का स्त्री से सम्बन्ध रखनेवाले ब्राह्मण को कराया हुआ श्राद्ध_भोजन नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मेरा यह सारा कहना व्यर्थ तो नहीं हो गया ?’  उनके ऐसा कहने पर सृंजय ने हाथ जोड़कर कहा___'मुने ! प्राचीन राजर्षियों का यह उत्तम उपाख्यान सुनकर मेरा संपूर्ण शोक दूर हो गया। अब मेरे हृदय में तनिक भी व्यथा नहीं है। बताइये, अब मैं आपकी किस आज्ञा का पालन करूँ ?’ नारदजी ने कहा___बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा शोक दूर हो गया; अब तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो। सृंजय मे कहा___आप मुझपर प्रसन्न हैं, इतने से ही मुझे पूरा संतोष है। जिस पर आप प्रसन्न हों, उसके लिये इस जगत् में कोई वस्तु दुर्लभ नहीं है। नारदजी ने कहा___लुटेरों ने तुम्हारे पुत्र को पशु की भाँति व्यर्थ ही मार डाला है; अतः मैं उसे नरक से निकालकर तुम्हें पुनः वापस दे रहा हूँ। व्यासजी ने कहा___इतना कहते ही, वह अद्भुत कान्तिवाला सृंजय का पुत्र वहाँ प्रकट हो गया। उससे मिलकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। सृंजय का पुत्र अपने धर्म के पालन द्वारा कृतार्थ नहीं हुआ था, उसने डरते_डरते प्राण त्याग किया था; इसलिये नारदजी ने उसे पुनः जीवित कर दिया। परंतु अभिमन्यु तो शूरवीर और कृतार्थ था; उसने रणांगण में हजारों शत्रुओं को मौत के घाट उतारकर सामना करते हुए प्राणत्याग किया है। योगी, निष्काम भाव से यज्ञ करनेवाले और तपस्वी पुरुष जिस उत्तम गति को पाते हैं, तुम्हारे पुत्र ने वही अक्षय गति प्राप्त की है।
अभिमन्यु चन्द्रमा के स्वरूप को प्राप्त हुआ है, वह वीर अपनी अमृतमयी किरणों से प्रकाशमान हो रहा है; उसके लिये शोक करना उचित नहीं है। इस प्रकार सोच_समझकर तुम धैर्य धारण करो। शोक करने से तो दुःख ही बढ़ता है; इसलिये बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह शोक का परित्याग करके  अपने कल्याण के लिये प्रयत्न करे। तुमने मृत्यु की उत्पत्ति और उसकी अनुपम तपस्या का बात सुनी ही है। मृत्यु के लिये सब प्राणी एक_से हैं। ऐश्वर्य चंचल है। यह बात सृंजयकेे पुत्र के मरण और पुनरुजीवन की कथा से स्पष्ट हो जाती है। इसलिये राजा युधिष्ठिर ! अब तुम शोक न करो।
यह कहकर भगवान् व्यास वहाँ से अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर, राजा युधिष्ठिर ने प्राचीन राजाओं की यज्ञसम्पत्ति सुनकर मन_ही_मन उनकी प्रशंसा की और शोक त्याग दिया। फिर यह सोचकर कि ‘अर्जुन से मैं क्या कहूँगा ?’ चिन्ता में पड़ गये।

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