Tuesday 30 October 2018

श्रीकृष्ण का आश्वासन, सुभद्रा का विलाप तथा दारुक से श्रीकृष्ण का वार्तालाप

संजय कहते हैं____ तदनन्तर अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा, ‘भगवन् ! अब आप सुभद्रा और उत्तरा को जाकर समझाइये; जैसे भी हो, उनका शोक दूर कीजिये।‘ तब श्रीकृष्ण बहुत उदास होकर अर्जुन के शिविर में गये और पुत्रशोक से पीड़ित अपनी दुःखी बहिन को समझाने लगे। उन्होंने कहा___ ‘बहिन ! तुम और बहू उत्तरा___ दोनों ही शोक न करो। काल के द्वारा सब प्राणियों की एक दिन यही स्थिति होती है। तुम्हारा पुत्र उच्च वंश में उत्पन्न, धीर, वीर और क्षत्रिय था; वह मृत्यु उसके योग्य ही हुई है, इसलिये शोक त्याग दो। देखो ! बड़े_बड़े संत पुरुष तपस्या, ब्रह्मचर्य, शास्त्रज्ञान और सद्बुद्धि के द्वारा जिस गति को प्राप्त करना चाहते हैं, वही गति तुम्हारे पुत्र को मिली है। तुम वीरमाता, वीरपत्नी, वीरकन्या तथा वीर की बहिन हो; कल्याणी ! तुम्हारे पुत्र को बहुत उत्तम गति प्राप्त हुई है, तुम उसके लिये शोक न करो। बालक की हत्या करनेवाला पापी जयद्रथ यदि अमरावती में जाकर छिपे तो भी अब अर्जुन के हाथ से उसका छुटकारा नहीं हो सकता।
कल ही तुम सुनेगा कि जयद्रथ का मस्तक कटकर समन्तपंचक से बाहर जा गिरा है। शूरवीर अभिमन्यु ने क्षत्रियधर्म का पालन करके सत्पुरुषों की गति पाया है, जिसे हमलोग तथा दूसरे शस्त्रधारी क्षत्रिय भी पाना चाहते हैं। रानी बहिन ! चिंता छोड़ो और बहू को धीरज बँधाओ। अर्जुन ने जैसी प्रतिज्ञा की है, वह ठीक ही होगी; उसे कोई पलट नहीं सकता। तुम्हारे स्वामी जो कुछ करना चाहते हैं, वह भविष्यफल नहीं होता। यदि मनुष्य, नाग, पिशाच, राक्छस, पक्षी, देवता और असुर भी युद्ध में जयद्रथ की सहायता करें तो,भी वह कल जीवित नहीं रह सकता।‘ श्रीकृष्ण की बात सुनकर सुभद्रा का पुत्रशोक उमड़ पड़ा और वह बहुत दुःखी होकर विलाप करने लगी___ ‘हा पुत्र !  तुम्हारे बिना आज मैं मन्दभागिनी हो गयी। बेटा ! तुम तो अपने पिता के समान पराक्रमी थे, फिर युद्ध में जाकर मारे कैसे गये ? पाण्डव, वृष्णिवंशी तथा पांचालवीरों के जीते_जी तुम्हें किसने अनाथ की भाँति मार डाला। हाय ! तुम्हें देखने के लिये तरसती ही रह गयी। आज भीमसेन के बल को धिक्कार है ! अर्जुन के धनुष_धारण को और वृष्णि तथा पांचाल_ वीरों के पराक्रम को भी धिक्कार है ! केकय, चेदि, मत्स्य और सृंजयों को भी बारम्बार धिक्कार है, जो ये युद्ध में होने पर तुम्हारी रक्षा न कर सके। आज सारी पृथ्वी सूनी और श्रीहीन दिखायी देती है। मेरी शोकाकुल आँखें अभिमन्यु को ढूँढती हैं, पर देख नहीं पातीं। हाय ! श्रीकृष्ण के भानजे और गाण्डीवधारी अर्जुन के अतिरथी पुत्र होकर भी तुम रणभूमि में पड़े हो, मैं कैसे तुम्हें देख सकूँगी ?
बेटा ! तुम असमय ही चले गये; तुम्हारी यह तरुणी पत्नी शोक में डूबी हुई है, इसे कैसे धीरज बँधाऊँगी ? निश्चय ही काल की गति को जानना विद्वानों के लिये भी कठिन है; तभी तो श्रीकृष्ण_जैसे सहायक के जीते_जी तुम अनाथ की भाँति मारे गये। वत्स ! यज्ञ और दान करनेवाले आत्मज्ञानी ब्राह्मण, ब्रह्मचारी, पुण्यतीर्थों में स्नान करनेवाले, कृतज्ञ, उदार, गुरुसेवक तथा सहस्त्रों गोदाम करनेवाले जिस गति को प्राप्त होते हैं, वही तुम्हें भी प्राप्त हो। बेटा ! आपत्ति और संकट के समय भी जो धैर्यपूर्वक अपने को संभाले रहते हैं, सदा माता_ पिता की सेवा करते हैं और अपनी ही स्त्री से संतुष्ट रहते हैं, उनकी जो गति होती है, वही तुम्हारी भी हो। जो मात्सर्य से रहित सब प्राणियों को सान्त्वनापूर्ण दृष्टि से देखते हैं, क्षमाभाव रखते हैं, किसी को चोट पहुँचानेवाले बात नहीं करते, जो मद्य, माँस, मद, दम्भ और मिथ्या से दूर रहते हैं, दूसरों को कष्ट नहीं पहुँचाते, जिनका स्वभाव संकोची है, जो संपूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता, ज्ञानानंद से परिपूर्ण और जितेन्द्रिय हैं, उन साधु पुरुषों की जो गति होती है, वही तुम्हारी भी हो।‘ इस प्रकार शोक से दुर्बल एवं दीन भाव से विलाप करती हुई सुभद्रा के पास द्रौपदी और उत्तरा भी आ पहुँचीं। अब तो उनके दुःख की सीमा न रही। सब फूट_फूटकर रोने लगीं और उन्मत्त की तरह पृथ्वी पर गिरकर बेहोश हो गयीं। उनकी यह दशा देख भगवान् श्रीकृष्ण बहुत दुःखी हुए और उन्हें होश में लाने की तरकीब करने लगे। उन्होंने जल छिड़ककर उन्हें सचेत किया और कहा___’ सुभद्रे ! अब पुत्र के लिये शोक न करो। द्रौपदी ! तुम उत्तरा को धीरज बँधाओ। अभिमन्यु को बड़ी उत्तम गति प्राप्त हुई है। हम तो यह चाहते हैं कि हमारे वंश में जो श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे सब यशस्वी अभिमन्यु की ही गति प्राप्त करें। तुम्हारे महारथी पुत्र ने अकेले जो काम कर दिखाया है, वही हम और हमारे सुहृद् भी करें। सुभद्रा, द्रौपदी और उत्तरा को इस प्रकार आश्वासन देकर भगवान् कृष्ण पुनः अर्जुन के पास गये और मुस्कराते हुए बोले____’अर्जुन ! तुम्हारा कल्याण हो, अब जाकर सो रहो। मैं भी जाता हूँ।‘ यह कहकर उन्होंने अर्जुन के शिविर पर द्वारपालों को खड़ा किया और कई शस्त्रधारी रक्षक तैनात कर दिये। फिर वे दारुक को साथ ले अपनी छावनी में गये और बहुत से कार्यों के विषय में विचार करके हुए शय्या पर लेट गये। आधी रात के समय ही उनकी नींद टूट गयी; तब वे अर्जुन की प्रतिज्ञा का स्मरण करके दारुक से बोले___’पुत्रशोक से व्यथित होने के कारण अर्जुन ने यह प्रतिज्ञा कर डाली है कि ‘मैं कल जयद्रथ का वध करूँगा।‘ किन्तु द्रोण की रक्षा में रहनेवाले पुरुष को इन्द्र भी नहीं मार सकते। इसलिये कल मैं ऐसी व्यवस्था करूँगा, जिससे अर्जुन सूर्य अस्त होने के पहले ही जयद्रथ को मार डाले। दारुक ! मेरे लिये स्त्री, मित्र अथवा भाई_बन्धु___ कोई भी अर्जुन से बढ़कर प्रिय नहीं है। इस संसार को अर्जुन के बिना मैं एक क्षण भी नहीं देख सकता। ऐसा हो ही नहीं सकता। अर्जुन के लिये मैं कर्ण, दुर्योधन आदि सभी महारथियों को उनके घोड़े और हाथियों सहित मार डालूँगा। कल सारी दुनिया इस बात का परिचय पा जायगी कि मैं अर्जुन का मित्र हूँ। जो उनसे द्वेष रखता है, वह मुझसे भी रखता है; जो उनके अनुकूल है, वह मेरे भी अनुकूल है। तुम अपनी बुद्धि में इस बात का निश्चय कर लो कि अर्जुन मेरा आधा शरीर है। सबेरा होते ही मेरा रथ सजाकर तैयार कर देना। उसमें सुदर्शन चक्र, कौमोदकी गदा, दिव्य शक्ति और शांर्ग धनुष के साथ ही सभी आवश्यक सामग्री रख लेना। घोड़े रोककर प्रतीक्षा करना; ज्यों ही मेरे पांचजन्य की ध्वनि हो, बड़े वेग से मेरे रास रथ ले आना। मैं आशा करता हूँ___ अर्जुन जिस_जिस वीर के वध का प्रयत्न करेंगे, वहाँ_वहाँ उनकी अवश्य विजय होगी।‘
दारुक ने कहा___पुरुषोत्तम ! आप जिसके सारथि हैं उसकी विजय तो निश्चित है, पराजय हो ही कैसे सकती है ? अर्जुन की विजय के लिये आप मुझे जो कुछ करने की आज्ञा दे रहे हैं, उसे सबेरे होते ही मैं पूर्ण करूँगा।

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