Friday 12 October 2018

अर्जुन का विवाद और जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा

संजय कहते हैं___महाराज ! उस दिन जब सूर्यनारायण अस्त हो गये, प्राणियों का घोर संहार बंद हुआ तथा सभी सैनिक अपनी_अपनी छावनी को जाने लगे, उसी समय अर्जुन भी अपने दिव्य अस्त्रों से संशप्तकों का वध करके रथ पर बैठ शिविर की ओर चले। चलते_चलते ही वे भगवान् श्रीकृष्ण से बोले____’ केशव !  न जाने क्यों आज मेरा हृदय धड़क रहा है। कोई अनिष्ट अवश्य हुआ है, यह बात हृदय से निकलती ही नहीं। पृथ्वी पर तथा संपूर्ण दिशाओं में होनेवाले भयंकर उत्पात मुझे डरा रहे हैं। कहिये, मेरे पूज्य भ्राता राजा युधिष्ठिर अपने मंत्रियोंसहित सकुशल तो होंगे ?’
श्रीकृष्ण ने कहा___शोक न करो, मंत्रियोंसहित तुम्हारे भाई का तो कल्याण ही होगा। इस अपशकुन के अनुसार कोई दूसरा ही अनिष्ट हुआ होगा।
तदनन्तर दोनों वीरों ने संध्योपासना की और फिर रथ पर बैठकर युद्ध_संबंधी बातें करते हुए आगे बढ़े। जब छावनी के पास पहुँचे तो उसे आनन्दरहित और श्रीहीन देखा। वे चिन्तित होकर श्रीकृष्ण से कहने लगे___’जनार्दन ! आज इस शिविर में मांगलिक बाजे नहीं बज रहे हैं। न दुंदुभि का निनाद है, न शंख का ध्वनि। आज वीणा भी नहीं बजती, मंगलगीत नहीं गाये जाते। बंदीगन न स्तुति करते हैं, न पाठ। मेरे सैनिक मुझे देखकर मुँह नीचे किये चल देते हैं। इन स्वजनों को व्याकुल देखकर मेरे हृदय का खटका नहीं मिटता। आज प्रतिदिन की,भाँति सुभद्राकुमार अभिमन्यु भाइयोंसहित हँसती हुआ मेरी अगवानी करने नहीं आ रहा है।‘ इस प्रकार बातें करते हुए दोनों ने शिविर में पहुँचकर देखा कि पाण्डव अत्यन्त व्याकुल और हतोत्साह हो रहे हैं। भाइयों तथा पुत्रों को इस अवस्था में देख और सुभद्रानन्दन अभिमन्यु को वहाँ न पाकर अर्जुन बहुत दुःखी होकर बोले, ‘आज आप सब लोगों के मुँह पर अप्रसन्नता दिखायी दे रही है। इधर मैं अभिमन्यु को नहीं देखता और आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक बोलते नहीं; इसका क्या कारण है ? मैंने सुना था, आचार्य द्रोण ने चक्रव्यूह की रचना की थी, आपलोगों में से बालक अभिमन्यु के सिवा दूसरा कोई उस व्यूह का भेदन नहीं कर सकता था। अभिमन्यु को भी मैंने उस व्यूह से निकलने का ढंग अभी नहीं बताया था। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि आपलोगों ने उस बालक को शत्रु के व्यूह में भेज दिया हो ? सुभद्रानन्दन उस व्यूह को अनेकों बार तोड़कर युद्ध में मारा तो नहीं गया ? वह सुभद्रा और द्रौपदी का प्यारा तथा माता कुन्ती और श्रीकृष्ण का दुलारा था; बताइये तो काल के वश में पड़ा हुआ ऐसा कौन है, जिसने उसका वध किया है। हा ! वह कैसे हँस_हँसकर बातें करता था और सदा बड़ों की आज्ञा में रहता था। बचपन में भी उसके पराक्रम की कहीं तुलना रहीं थी। कितनी प्यारी_प्यारी बातें करता था। ईर्ष्या_द्वेष तो,उसे छू नहीं गया था। वह महान् उत्साही था। उसकी भुजाएँ बड़ी_बड़ी  और आँखें कमल के समान विशाल थीं। अपने सेवकों पर उसकी बड़ी दया थी, कभी नीच पुरुषों की संगति नहीं करता था। वह कृतज्ञ, ज्ञानी और अस्त्रविद्या में कुशल था; युद्ध में पीछे पैर नहीं हटाता था। युद्ध का तो वह अभिनन्दन करता था, शत्रु उसे देखते ही भयभीत हो जाते थे। वह आत्मीय जनों का प्रिय करनेवाला और पितृवर्ग की विजय चाहनेवाला था। शत्रु पर पहले कभी नहीं प्रहार करता था और युद्ध में सदा निर्भीक रहता था। रथियों की गणना होते समय जिसे महारथी गिना गया था, उस वीर अभिमन्यु का मुख देखे बिना अब मेरे हृदय को क्या शान्ति मिलेगी ? अपने से अधिक दुःख तो सुभद्रा के लिये हो रहा है, वह बेचारी बेटे की मृत्यु सुनते ही शोक से पीड़ित होकर प्राण त्याग देगी। अभिमन्यु को न देखकर सुभद्रा और द्रौपदी मुझसे क्या कहेंगी ? उन दोनों को,मैं क्या जवाब दूँगा ? सचमुच मेरा हृदय वज्र का बना हुआ है, तभी तो पुत्रवधू उत्तरा के रोने_बिलखने का ध्यान आते ही इसके हजारों टुकड़े नहीं जो जाते।‘ इस प्रकार अर्जुन को पुत्रशोक से पीड़ित और उसी की याद में आँसू बहाते देख भगवान् कृष्ण ने उन्हें पकड़कर संभाला और कहा___’मित्र ! इतने व्याकुल न होओ। जो युद्ध में पीठ नहीं दिखाते, उन सभी शूरवीरों को एक दिन इसी मार्ग से जाना पड़ता है। जिनकी युद्ध से ही जीविका चलती है, उन क्षत्रियों का तो विशेषतः यही मार्ग है; उनके लिये संपूर्ण शास्त्रज्ञों ने यही गति निश्चित की है। युद्ध में शत्रु का सामना करते हुए मृत्यु हो जाय___ ऐसा तो सभी शूरवीर चाहते हैं। अभिमन्यु ने बड़े_बड़े वीर एवं महाबली राजकुमारों को युद्ध में मारा है और शत्रु के सामने डटे रहकर वीरों के लिये वांछनीय मृत्यु प्राप्त की है। तुम्हें शोक करते देख ये तुम्हारे भाई और मित्र अधिक दुःखी हो रहे हैं। इन्हें सान्त्वनाभरी बातों से आश्वासन दो। तुम तो जाननेयोग्य तत्व को जान चुके हो; तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।‘ भगवान् कृष्ण के इस प्रकार समझाने पर अर्जुन ने अपने भाइयों से कहा___’मैं अभिमन्यु की मृत्यु का वृतांत आरम्भ से ही सुनना चाहता हूँ। आप सबलोग अस्त्रविद्या में कुशल हैं, हाथों में शस्त्र लिये वहाँ खड़े थे। ऐसे समय में वह यदि इन्द्र से भी युद्ध करता हो तो भी नहीं मारा जाना चाहिये; फिर आपके रह के कैसे उसकी मृत्यु हुई ? यदि मैं जानता कि पाण्डव और पांचाल मेरे बेटे की रक्षा करने में असमर्थ हैं तो स्वयं ही उपस्थित होकर उसकी रक्षा करता।‘ इतना कहकर अर्जुन चुप हो गये। उस संयम युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण के सिवा, दूसरा कोई भी उनकी ओर देखने या बोलने का साहस नहीं कर सका। युधिष्ठिर ने कहा___’महाबाहो ! जब तुम संशप्तकों की सेना से लड़ने चले गये, उसी समय द्रोणाचार्य ने मुझे पकड़ने का घोर प्रयत्न किया, वे रथों की सेना की व्यूह बनाकर बारम्बार उद्योग करते थे और हमलोग व्यूहाकार में संगठित हो उनके आक्रमण को व्यर्थ कर रहे थे। किन्तु द्रोणाचार्य तीखे बाणों से हमें बहुत पीड़ा देने लगे। उस समय व्यूह_भेदन करना तो दूर की बात है, हम उनकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति आ जाने पर हम सबने अभिमन्यु को कहा___’बेटा ! तुम व्यूह तोड़ डालो।‘ हमारे कहने से ही उसने इस असह्य भार को भी वहन करना स्वीकार किया और तुम्हारी दी हुई शिक्षा के अनुसार वह व्यूह तोड़कर उसमें घुस गया। हम भी उसके बनाये हुए मार्ग से व्यूह में प्रवेश करने को जब पीछे_पीछे चले तो नीच जयद्रथ ने शंकरजी के दिये हुए वरदान के बल से हमें रोक लिया। तदनन्तर द्रोण, कृप, कर्ण, अश्त्थामा, बृहद्वल और कृतवर्मा___इन छः महारथियों ने उसे सब ओर से घेर लिया। घिरे होने पर भी उस बालक ने अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें जीतने का पूर्ण प्रयास किया, किन्तु उन सबने मिलकर उसे रथहीन कर दिया। जब वह अकेला और असहाय हो गया तो दुःशासन के पुत्र ने संकटापन्न अवस्था में उसे मार डाला। उसने पहले एक हजार हाथी, घोड़े, रथी और मनुष्यों को मारा; फिर आठ हजार रथी और नौ सौ हाथियों का संहार किया; तत्पश्चात् दो हजार राजकुमारों तथा अन्य बहुत_से अज्ञातवीरों को मारकर राजा बृहद्वल को भी स्वर्गलोक का अतिथि बनाया। इसके बाद वह स्वयं मरा है और यही हमलोगों के लिये सबसे बढ़कर शोक की बात हुई है।‘ धर्मराज की यह बात सुनकर अर्जुन ‘ हा पुत्र !’ कहते हुए करुण उच्छवास लेने लगे और अत्यन्त व्यथा से पीड़ित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय सबके मुख पर विषाद छा गया, सभी अर्जुन को घेरकर बैठ गये और निर्निमेष नेत्रों से एक_दूसरे को देखने लगे। थोड़ी देर बाद अर्जुन को होश हुआ, तब वे क्रोध में भरकर बोले____’मैं आपलोगों के सामने यह सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि जयद्रथ कौरवों का आश्रय छोड़कर भाग नहीं गया या हमलोगों की, भगवान् श्रीकृष्ण की अथवा महाराज युधिष्ठिर की शरण में नहीं आ गया तो कल उसे अवश्य मार डालूँगा। अगर कल उसे न मारूँ तो माता_पिता की हत्या करनेवाले, गुरुस्त्रीगामी, चुगलखोर, साधुनिन्दक, दूसरों पर कलंक लगानेवाले, धरोहर को हड़प लेनेवाले और विश्वासघाती पुरुषों की जो गति होती है वही मेरी भी हो। जो वेदाध्ययन करनेवाले उत्तम ब्राह्मणों का तथा बड़े_बूढ़ों, साधुओं और गुरुजनों का अनादर करते हैं, ब्राह्मण, गौ और अग्नि का चरणों से स्पर्श करते हैं और जल में मल_मूत्र या थूक डालते हैं, उन्हें जो दुर्गति प्राप्त होती है वही कल जयद्रथ को न मारने पर मेरी भी हो। नंगे नहानेवाले, अतिथि को निराश करनेवाले, सूदखोर, मिथ्यावादी, ठग, आत्मवंचक, दूसरों पर झूठे दोष लगानेवाले तथा परिवारवालों को दिये बिना अकेले ही मिठाई उड़ानेवाले लोगों को जो दुर्गति भोगनी पड़ती है, वही जयद्रथ का वध न करने पर मेरी भी हो। जो शरण में आये हुए का त्याग करता है तथा कहने के अनुसार चलनेवाले सज्जनपुरुष का पालन_पोषण नहीं करता, उपकारी की निंदा करता है, पड़ोस में रहनेवाले सुयोग्य व्यक्ति को श्राद्ध का दान न देकर अयोग्य व्यक्तियों को देता है और शूद्र जाति की स्त्री से सम्बन्ध रखनेवालों को श्राद्धान्न जिमाता है तथा जो शराबी, मर्यादा भंग करनेवाला, कृतध्न और स्वामी का निन्दक है, उस पुरुष की जो दुर्गति होती है वही जयद्रथ को न मारने पर मेरी भी हो। जो बायें हाथ से भोजन करते, गोद में रखकर खाते, पलाश के पत्ते पर बैठते और तेंदूकी दातून करते हैं, जिन्होंने धर्म का त्याग किया है, जो प्रातःकाल सोते हैं, ब्राह्मण होकर शीत से और क्षत्रिय होकर युद्ध से डरते हैं, शास्त्र की निंदा करते हैं, दिन में नींद लेते या मैथुन करते हैं, घर में आग लगाते, अग्निहोत्र और अतिथिसत्कार से विमुख रहते तथा गौओं के पानी पीने में विघ्न डालते हैं, जो रजस्वला से संसर्ग करते हैं, कीमत लेकर कन्या को बेचते हैं, बहुत लोगों की पुरोहिती करते हैं, ब्राह्मण होकर दासवृति से जीविका चलाते हैं, तथा जो ब्राह्मण का संकल्प करके फिर लोभवश नहीं देते, उन सबकी जो दुःखदायिनी गति होती है, वही जयद्रथ को न मारने पर मेरी भी हो। ऊपर जिन पापियों का नाम मैंने दिखाया है तथा जिनका नाम नहीं गिनाया है, उनको जो दुर्गति प्राप्त होती है वही मेरी भी हो___यदि कल जयद्रथ का वध न कर सकूँ।
अब मेरी यह दूसरी प्रतिज्ञा भी सुनिये___यदि कल सूर्य अस्त होने के पहले पापी जयद्रथ नहीं,मारा गया तो मैं स्वयं ही जल की हुई आग में प्रवेश कर जाऊँगा। देवता, असुर, मनुष्य, पक्षी, नाग, पितर, राक्षस, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, यह चराचरजगत् तथा इसके परे जो कुछ है, वह भी___ये सब मिलकर भी मेरे शत्रु की रक्षा नहीं कर सकते। यदि जयद्रथ पाताल में घुस जायगा या उससे आगे बढ़ जायगा अथवा अंतरिक्ष में, देवताओं के,नगर में या दैत्यों की पुरी में,भागकर छिपेगा तो भी मैं कल अपने सैकड़ों बाणों से अभिमन्यु के उस शत्रु का सिर उतारूँगा ही। यह कहकर अर्जुन ने गाण्डीव धनुष की टंकार की, उसकी ध्वनि आकाश में गूँज उठी। अर्जुन की वह प्रतिज्ञा सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपना पांचजन्य शंख बजाया और कुपित हुए अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख की ध्वनि फैलायी। वह शंखनाद सुनकर आकाश_पातालसहित सम्पूर्ण जगत् काँप उठा। उस समय शिविर में युद्ध के बाजे बज उठे और पाण्डव सिंहनाद करने लगे।

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