Sunday 12 May 2019

सात्यकि और भूरिश्रवा का भीषण युद्ध तथा सात्यकि द्वारा भूरिश्रवा का वध

संजय कहते हैं___ राजन् ! रणदुर्मद सात्यकि को आते देख भूरिश्रवा क्रोध में भरकर उसकी ओर दौड़ा तथा उससे कहने लगा, ‘ अहा ! आज इस संग्रामभूमि में मेरी बहुत दिनों की इच्छा पूरी हुई। अब यदि तुम मैदान छोड़कर न भागे तो जीवित नहीं बच सकोगे।‘ इस पर सात्यकि ने हँसकर कहा, ‘ कुरुपुत्र ! मुझे युद्ध में तुमसे तनिक भी भय नहीं है। केवल बातें बनाकर मुझको कोई नहीं डरा सकता। इसलिये व्यर्थ बकवाद से क्या लाभ है ? जरा काम करके दिखाओ। वीरवर तुम्हारी गर्जना सुनकर तो मुझे हँसी आती है। मेरा मन तो तुम्हारे साथ दो हाथ करने को बहुत ही उतावला हो रहा है। आज तुम्हें मारे बिना मैं युद्ध के मैदान से पीछे नहीं हटूँगा।‘
इस प्रकार एक_दूसरे को खड़ी_खोटी सुनाकर वे दोनों वीर क्रोध में भरकर युद्ध करने लगे। भूरिश्रवा ने सात्यकि को अपने बाणों से आच्छादित करके उसका काम तमाम करने के विचार से उसे दस बाणों से घायल किया और फिर अनेकों तीखे तीरों की झड़ी लगा दी। किन्तु सात्यकि ने अपने अस्त्रकौशल से उन्हें बीचही में काट डाला। इसके बाद वे आपस में तरह_तरह के शस्त्रों की वर्षा करने लगे। दोनों ही ने दोनों के घोड़ों को मार डाला और धनुषों को काट दिया। इस प्रकार दोनों ही रथहीन हो गये तथा ढ़ाल_तलवार लेकर आपस में पैंतरे बदलने लगे। वे यशस्वी वीर भ्रांत, उद्भ्रांत, आविद्ध, सूर, संभ्रांत और समुदीर्ण आदि अनेकों प्रकार की गतियाँ दिखाते मौका पाकर एक_दूसरे पर तलवारों के वार करने लगे। दोनों ही अपनी शिक्षा, फुर्ती, सफाई और कुशलता का परिचय देकर एक_दूसरे को नीचा दिखाना चाहते थे। अन्त में दोनों ही ने तलवारों की चोटों से एक_दूसरे की ढालें काट डाले और फिर आपस में बाहुयुद्ध करने लगे। दोनों ही मल्लयुद्ध में निष्णात थे, उनकी छातियाँ चौड़ी और भुजाएँ लम्बी थीं। अत: वे अपनी लौददण्ड के समान सुदृढ़ भुजाओं से आपस में गुथ गये। मल्लयुद्ध में दोनों की ही शिक्षा ऊँचे दर्जे की थी और दोनों ही खूब बलसम्पन्न थे। इसलिये उनके खम ठोंकने, लपेट लगाने और हाथ पकड़ने के कौशल को देखकर योद्धाओं को बडी प्रसन्नता होती थी। उस समय संग्रामभूमि में भिड़े हुए उन दोनों वीरों का वज्र और पर्वत की टकराहट के समान बड़ा घोर शब्द हो रहा था। उन्होंने भुजाओं को लपेटकर, सिर से सिर अड़ाकर, पैर खींचकर, तोमर अंकुश और लासन नाम के पेंट दिखाकर, पेट में घुटना टेककर, पृथ्वी पर घुमाकर, आगे_पीछे हटकर, धक्का देकर, गिराकर और ऊपर उछलकर खूब ही युद्ध किया। मल्लयुद्ध के जो बत्तीस दाँव हैं, उन सभी को दिखाते हुए उन्होंने जमकर कुश्ती की।अन्त में सिंह जैसे हाथी को खदेड़ता है, उसी प्रकार कुरुश्रेष्ठ भूरिश्रवा ने सात्यकि को पृथ्वी पर घसीटते हुए एकदम उठाकर पटक दिया। फिर छाती पर वार मारकर उसके बाल पकड़ लिये और म्यानों में से तलवार निकाली।  अब वह सात्यकि के कुण्डलमण्डित मस्तक को काटने की तैयारी में था तथा सात्यकि भी उसके पंजे से छूटने के लिये कुम्हार जैसे डंडे से ताक घुमाता है इसी प्रकार केशों को पकड़ने वाले भूरिश्रवा के हाथों के सहित अपने मस्तक को घुमा रहा था, कि इसी समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा___’महाबाहो ! देखो, तुम्हारा शिष्य सात्यकि इस समय भूरिश्रवा के चंगुल में फँस गया है। यह धनुर्विद्या में तुमसे कम नहीं है। आज यदि भूरिश्रवा सत्यपराक्रमी सात्यकि से बढ़ जाता है तो उसका पराक्रम अयथार्थ माना जायगा।‘ श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर महाबाहु अर्जुन ने मन_ही_मन भूरिश्रवा के पराक्रम की प्रशंसा की और फिर श्रीवसुदेवनन्दन से कहा, ‘माधव ! इस समय मेरी दृष्टि जयद्रथ पर लगी हुई है, इसलिये मैं सात्यकि को नहीं देख रहा हूँ। तो भी इस यदुश्रेष्ठ की रक्षा के लिये मैं एक दुष्कर कर्म करता हूँ।‘ ऐसा कहकर श्रीकृष्ण की बात मानते हुए उन्होंने गाण्डीव धनुष पर एक पैना बाण चढ़ाया और उससे भूरिश्रवा का उस भुजा को काट डाला, जिसमें वह तलवार लिये हुए था। यह देखकर सभी प्राणियों को बड़ा दुःख हुआ। भूरिश्रवा सात्यकि को छोड़कर अलग खड़ा हो गया और अर्जुन की निंदा करने लगा। उसने कहा, ‘ अर्जुन ! मैं दूसरे से युद्ध करने में लगा हुआ था, तुम्हारी ओर तो मेरी दृष्टि भी नहीं थी। ऐसी स्थिति में मेरा हाथ काटकर तुमने बड़ा ही क्रूर कर्म किया है। जब धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर पूछेंगे, तो क्या तुम उनसे यही कहोगे कि ‘मैंने संग्रामभूमि में सात्यकि के साथ युद्ध करने में लगे हुए भूरिश्रवा को मार डाला है ?’ तुम्हें यह अस्त्रनीति साक्षात् इन्द्र ने सिखायी है या महादेवजी अथवा द्रोणाचार्य ने ? तुम तो संसार में अस्त्रधर्म के सबसे बड़े ज्ञाता माने जाते हो। फिर भला,  दूसरे के साथ युद्ध करते समय तुमने मुझपर क्यों प्रहार किया ? मनस्वी लोग मतवाले, डरे हुए, रथहीन, प्राणों की भिक्षा माँगनेवाले या दुःख में पड़े हुए पुरुष पर कभी वार नहीं करते। फिर तुमने यह नीच पुरुषों के योग्य अत्यन्त दुष्कर पापकर्म क्यों किया ? सत्पुरुष तो ऐसा कभी नहीं करते। सत्पुरुषों के लिये तो उन्ही कामों का करना आसान बताया गया है, जिन्हें भले आदमी किया करते हैं; उनसे दुष्टों द्वारा किये जानेवाले काम होने तो कठिन ही हैं। मनुष्य जहाँ_जहाँ जिन_जिन लोगों की संगति में बैठता है, उसपर उन्हीं का रंग बहुत जल्द चढ़ जाता है। यही बात तुममें भी देखी जाती है। तुम राजवंश में और विशेषतः कुरुवंश में उत्पन्न हुए हो, साथ ही सदाचारी भी हो; फिर भी इस समय क्षात्रधर्म से कैसे डिग गये ? अवश्य ही तुमने यह काम श्रीकृष्ण की सम्मति से किया होगा; सो तुम्हें ऐसा करना उचित नहीं था।
अर्जुन ने कहा___राजन् ! सचमुच बूढ़े होने के साथ मनुष्य की बुद्धि भी बुढ़िया जाती है। इसी से आपने  ये सब बिना सिर_पैरकी बातें कही हैं। आप श्रीकृष्ण को अच्छी तरह जानते हैं, फिर भी उनकी और मेरी निंदा कर रहे हैं। आप युद्धधर्म को जाननेवाले और समस्त शास्त्रों के मर्मज्ञ हैं तथा मैं भी कोई अधर्म नहीं कर सकता___ यह बात जानकर भी आप ऐसी बहकी_ बहकी बातें क्यों कर रहे हैं ? क्षत्रिय लोग  अपने भाई, पिता, पुत्र संबंधी एवं बन्धु_बान्धवों के सहित ही संग्राम किया करते हैं। ऐसी स्थिति में मैं अपने शिष्य और संबंधी सात्यकि की रक्षा क्यों न करता ? यह तो मेरे दायें हाथ के समान है और अपने प्राणों की भी परवा न करके हमारे लिये जूझ रहा है। संग्रामभूमि में केवल अपनी ही रक्षा नहीं करनी चाहिये; बल्कि जिसके लिये जो लड़ रहा है; उसे उसकी रक्षा का ध्यान भी अवश्य रखना चाहिये। उसकी रक्षा होने से संग्राम में राजा की ही रक्षा होती है। यदि मैं संग्रामभूमि में सात्यकि को अपने सामने मरते देखता तो मुझे मुझे पाप लगता; इसी से मैंने उसकी रक्षा की है। आप जो यह कहकर मेरी निंदा करते हैं कि दूसरों के साथ युद्ध में लगे होने पर मैंने आपको धोखा दिया है, सो यह आपका बुद्धिभ्रम ही है। जिस समय अपने और पराये पक्ष के सब योद्धा लड़ रहे थे और आप सात्यकि से भिड़ गये थे, उसी समय तो मैंने यह काम क्या है। भला इस सैन्य_ समुद्र में एक योद्धा का एक ही के साथ संग्राम होना कैसे संभव है ? आपको तो अपनी ही निंदा करनी चाहिये; क्योंकि जब आप अपनी ही रक्षा नहीं कर सकते तो अपने आश्रितों की कैसे करेंगे? अर्जुन के ऐसा कहने पर भूरिश्रवा ने सात्यकि को छोड़कर मरणपर्यन्त उपवास करने का नियम ले लिया। उसने बायें हाथ से बाण बिछाकर ब्रह्मलोक में जाने की इच्छा से प्राणों को वायु में, नेत्रों को सूर्य में और मन को स्वच्छ जल में होम दिया तथा महोपनिषद्संग्यक ब्रह्म का ध्यान करते हुए योगमुक्त होकर उन्होंने मुनिव्रत धारण कर लिया। इस समय सेना के सब लोग श्रीकृष्ण और अर्जुन की निंदा करने लगे, किन्तु उन्होंने बदले में कोई कड़वी बात नहीं कही। यद्यपि अर्जुन को उनकी और भूरिश्रवा की बातें सहन न हुईं। उन्होंने किसी प्रकार का क्रोध प्रकट न करते हुए कहा, ‘ मेरे इस व्रत को यहाँ सभी राजालोग जानते हैं कि यदि कोई हमारे पक्ष का मनुष्य मेरे बाण के पहुँच के अन्दर होगा, तो कोई पुरुष उसे मार न सकेगा। भूरिश्रवाजी ! मेरे इस नियम पर विचार करके आपको मेरी निंदा नहीं करनी चाहिये। धर्म का मर्म बिना समझे ही दूसरे की निंदा करना अच्छी बात नहीं है। मैंने आपकी सशस्त्र भुजा को काटकर कोई अधर्म नहीं किया है। बालक अभिमन्यु के पास तो कोई भी हथियार नहीं था और उसके रथ और कवच भी टूट चुके थे; फिर भी आपलोगों ने उसे मिलकर मार डाला। इस कर्म को कौन धर्मात्मा पुरुष अच्छा कहेगा ?’ अर्जुन की यह बात सुनकर भूरिश्रवा ने अपना सिर पृथ्वी से लगाया और मुख नीचा किये चुपचाप बैठा रहा।
तब अर्जुन ने कहा___मेरा जो प्रेम धर्मराज, महाबली भीमसेन और नकुल_सहदेव के प्रति है, वही आपमें भी है। मैं और महात्मा श्रीकृष्ण आपको आज्ञा देते हैं कि आप उशीनर के पुत्र शिवि के समान पुण्यलोकों को प्राप्त हों।श्रीकृष्ण ने कहा___राजन् ! तुम निरन्तर अग्निहोत्र करने वाले हो। जो लोक सर्वदा प्रकाशमान हैं तथा ब्रह्मादि देवगण भी जिनके लिये लालायित रहते हैं, उनमें तुम मेरे ही समान गरुड़ पर चढ़कर जाओ।
इसी समय सात्यकि उठा और उसने निर्दोष भूरिश्रवा की सिर काटने के लिये तलवार उठायी। उसे श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, युधामन्यु, उत्तमौजा, अश्त्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, वृषसेन और जयद्रथ___ सभी ने रोका। किन्तु सबके चिल्लाते रहने पर भी उसने अनशन_ व्रतधारी भूरिश्रवा का मस्तक काट डाला। फिर उसने अपनी निंदा करनेवालों कौरवों को ललकारकर कहा, ‘ अरे धर्मिष्ठता का ढोंग रचनेवाले पापियों ! तुम जो धर्म की दुहाई देकर मुझसे कह रहे हो कि मुझे भूरिश्रवा को नहीं मारना चाहिये था, सो जिस समय तुमलोगों ने सुभद्रा के पुत्र शस्त्रहीन बालक अभिमन्यु की हत्या की थी उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था। मेरी तो यह प्रतिज्ञा है कि यदि कोई पुरुष संग्राम में मेरा तिरस्कार करके मुझे जमीन पर घसीटकर जीवित अवस्था में ही लात मारेगा वह फिर मुनिव्रत धारण करके ही क्यों न बैठ जाय, उसे मैं अवश्य मार डालूँगा।‘
राजन् ! सात्यकि के ऐसा कहने पर फिर कौरवों में से किसी ने कुछ नहीं कहा। परन्तु मुनियों के समान वनवासी यशस्वी भूरिश्रवा का इस प्रकार वध करना किसी को अच्छा नहीं लगा। भूरिश्रवा ने अपने जीवन में सहस्त्रों दान दिया था और उसका कई बार मन्त्रपूत जल से अभिषेक हुआ था। अतः वह देह त्यागकर परम पुण्य के तेज से संपूर्ण पृथ्वी और आकाश को आलोकित करता ऊर्ध्वलोकों में चला गया।

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