Sunday 29 October 2023

पाण्डवों का युधिष्ठिर के शिविर में आकर उसपर अधिकार करना, अर्जुन के रथ का दाह

धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! दुर्योधन को भीमसेन के द्वारा मारा गया देख पाण्डवों और सृंजयों ने क्या किया ? संजय ने कहा_महाराज ! आपके पुत्र के मारे जाने पर श्रीकृष्णसहित पाण्डवों, पाण्डवों तथा सृंजयों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपने दुपट्टे उछाल_उछालकर सिंहनाद करने लगे। किसी ने धनुष टंकारा तो कोई शंख बजाने लगा। किसी_किसी ने ढ़िंढ़ोरा पीटना शुरू किया बहुतेरे तो हंसने और खेलने लगे। कुछ लोग भीमसेन से बारंबार यों कहने लगे_'दुर्योधन ने गदायुद्ध में बड़ा परिश्रम किया था, उसको मारकर आपने बहुत बड़ा पराक्रम दिखाया ! भला नाना प्रकार के पैंतरे बदलते और सब तरह की मण्डल आकार गतियों से चलते हुए शूरवीर दुर्योधन भीमसेन के सिवा दूसरा कौन मार सकता था ? भीम ! आपने शत्रुओं को परास्त करके दुर्योधन का वध करने के कारण इस पृथ्वी पर अपना महान् यश फैलाया है। यह बड़े सौभाग्य की बात है।'  इस प्रकार जहां _तहां कुछ आदमी इकट्ठे होकर भीमसेन की प्रशंसा कर रहे थे। पांचाल और पाण्डव भी प्रसन्न होकर उनके सम्बन्ध में अलौकिक बातें सुना रहे थे। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा_'राजाओं ! मरे हुए शत्रु को अपनी कठोर बातों से फिर मारना उचित नहीं है। यह पापी तो उसी समय मर चुका था, जब लज्जा को तिलांजलि दे लोभ में फंसा और पापियों की सहायता लेकर हित चाहनेवाले सुहृदों की आज्ञा का उल्लंघन करने लगा। विदुर, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म और सृंजयों ने अनेकों बार अनुरोध किया; तो भी इसने पाण्डवों को उनकी पैतृक संपत्ति नहीं दी।  अब तो यह न तो मित्र कहने योग्य है, न शत्रु; यह महानीच है। काठ के समान जड़ है। इसे वचनरूपई बाणों से बेधने में कोई लाभ नहीं है। सब लोग रथों पर बैठो, अब छावनी में चलें। श्रीकृष्ण की बात सुनकर सब नरेश अपने _अपने शंख बजाते हुए शिविर की ओर चल दिये। आगे_आगे पाण्डव थे; उनके पीछे सात्यकि, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, द्रौपदी के पुत्र तथा दूसरे_दूसरे धनुर्धर योद्धा चल रहे थे। सब लोग पर ले दुर्योधन की छावनी में गये, जो राजा के न होने से श्रीहीन दिखायी दे रहे थे। वहां कुछ बूढ़े मंत्री और हिजड़े बैठे हुए थे। बाकी लोग रानियों के साथ राजधानी चले गये थे। पाण्डवों के पहुंचने पर उनकी सेवा में दुर्योधन के सेवक हाथ जोड़े मैले कपड़े पहने उपस्थित हुए। पाण्डव भी दुर्योधन की छावनी में जाकर अपने_अपने रथों से उतर गये। अन्त में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा_'तुम स्वयं उतरकर अपने अक्षय तरकस और धनुष भी रथ से उतार लो, इसके बाद मैं उतरूंगा। ऐसा करने में ही तुम्हारी भलाई है।' अर्जुन ने वैसा ही किया। फिर भगवान ने घोड़ों की बागडोर छोड़ दी और स्वयं भी रथ से उतर पड़े। समस्त प्राणियों के ईश्वर श्रीकृष्ण के उतरते ही उस स्थान पर बैठा हुआ दिव्य कपि अन्तर्धान हो गया; फिर वह विशाल रथ, जो द्रोणाचार्य और कर्ण के दिव्यास्त्रों से दग्ध_सा ही हो चुका था, बिना आग लगाये ही प्रज्वलित हो उठा। उसके सारे उपकरण, जूआ, धूरी, राम और घोड़े _सब जलकर खाक हो गये। वह राख की ढेर होकर धरती पर बिखर गया। यह देख पाण्डवों को बड़ा आश्चर्य हुआ। अर्जुन ने हाथ जोड़कर भगवान् के चरणों में प्रणाम करके पूछा_'गोविन्द ! यह क्या आश्चर्यजनक घटना हो गयी ? एकाएक रथ क्यों जल गया ? यदि मेरे सुनने योग्य हो तो इसका कारण बताइये।' श्रीकृष्ण ने कहा_अर्जुन ! लड़ाई में नाना प्रकार के अस्त्रों के आघात से यह रथ तो पहले ही जल चुका था, सिर्फ मेरे बैठे रहने के कारण भस्म नहीं हुआ था। जब तुम्हारा सारा काम पूरा हो गया है, तब अभी_अभी इस रथ को मैंने छोड़ा है; इसलिये यह अब भष्म हुआ है। यों तो ब्रह्मास्त्र के तेज से यह पहले ही दग्ध हो चुका था। इसके बाद भगवान् ने किंचित् मुस्कराकर राजा युधिष्ठिर को हृदय से लगाया और कहा _'कुन्तीनन्दन ! आपके शत्रु परास्त हुए और आपकी विजय हुई _यह बड़े सौभाग्य की बात है। अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव तथा स्वयं आप इस विनाशकारी संग्राम से कुशलपूर्वक बच गये_यह और भी खुशी की बात है। अब आपको आगे क्या करना है, इसका शीघ्र विचार कीजिये। उपलव्य में जब मैं अर्जुन के साथ आपके पास आया था, उस समय आपने मुझे मधउपर्क देकर कहा था_'कृष्ण ! अर्जुन तुम्हारा भाई और मित्रों, इसी हर आफत से बचाना।' उस दिन मैंने 'हां' कहकर आपकी आज्ञा स्वीकार की थी।आपके उस अर्जुन की मैंने हर तरह से रक्षा की है, यह भाइयों सहित विजयी होकर इस रोमांचकारी संग्राम से छुटकारा पा गया।' श्रीकृष्ण की बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर को रोमांच हो आया, वे कहने लगे_'जनार्दन ! द्रोण और कर्ण ने जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था, उसे आपके सिवा दूसरा कौन सही सकता था ? वज्र धारी इन्द्र भी उसका सामना नहीं कर सकते थे । आपकी ही कृपा से संशप्तक परास्त हुए हैं। अर्जुन ने इस महासमर में कभी पीठ नहीं दिखायी_ यह भी आपके ही अनुग्रह का फल है। आपके द्वारा अनेकों बार हमारे कार्य सिद्ध हुए हैं। उपलव्य में महर्षि व्यास ने मुझसे पहले ही कहा था_जहां धर्म है, वहां श्रीकृष्ण हैं; और जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है।' तदनन्तर, उन सभी वीरों ने आपकी छावनी में घुसकर खजाना, रत्नों की ढ़ेरी तथा भंडार_घर पर अधिकार कर लिया। चांदी, सोना, मोती, मणि, अच्छे_अच्छे आभूषण, बढ़िया कम्बल, मऋगचर्म तथा राज्य के बहुत_से सामान उनके हाथ लगे। साथ ही असंख्य दास_दासियों को भी उन्होंने अपने अधीन किया। महाराज ! उस समय आपके अक्षय धन का भण्डार पाकर पाण्डव खुशी के मारे उछल पड़े, किलकारियां मारने लगे। इसके बाद अपने वाहनों को खोलकर वे वहीं विश्राम करने लगे। विश्राम के समय श्रीकृष्ण ने कहा_' आज की रात हमलोगों को अपने मंगल के लिए छावनी के बाहर ही रहना चाहिए।' 'बहुत अच्छा' कहकर पाण्डव श्रीकृष्ण और सात्यकि के साथ छावनी से बाहर निकल गये। उन्होंने परम पवित्र ओघवतई नदी के किनारे वह रात व्यतीत की। उस समय राजा युधिष्ठिर ने समयोचित कर्तव्य का विचार करके कहा_'माधव ! एक बार क्रोध में भरी हुई गान्धारी देवी को शान्त करने के लिये आपको हस्तिनापुर जाना चाहिये, यही उचित  जान पड़ता है।'


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