Thursday, 5 December 2024

विदुरजी के समझाने से राजा धृतराष्ट्र का कुरुकुल की स्त्रियों के साथ कुरुक्षेत्र की ओर जाना तथा रास्ते में कृपाचार्य आदि से उनकी भेंट होना

जनमेजय ने पुछा_ मुनिवर ! भगवान् व्यास के चले जाने पर राजा धृतराष्ट्र ने क्या किया ?
तथा महामना राजा युधिष्ठिर और कृपाचार्य आदि तीन कौरव महारथियों ने क्या किया ? इसके सिवा संजय ने भी जो कुछ कहा हो, वह मुझे सुनाने की कृपा करें। वैशम्पायनजी बोले_राजन् ! जब दुर्योधन मारा गया और सारी सेना का नाश हो गया तो संजय की दिव्यदृष्टि भी जाती रही और वह राजा धृतराष्ट्र के पास आकर कहने लगा, महाराज ! देश_देश से अनेकों राजा आकर आपके पुत्रों के साथ पितृलोक को प्रस्थान कर गये। इसलिए अब आप अपने पुत्र_पौत्र, चाचा_ताऊ आदि सभी का क्रमशः प्रेत_कर्म कराइये। संजय की यह दु:खमयी वाणी सुनकर राजा धृतराष्ट्र प्राणहीन _से होकर पृथ्वी पर गिर गये। उस समय विदुरजी ने उनसे कहा, 'भरतश्रेष्ठ ! उठाये, इस प्रकार क्यों पड़े हैं ?
शोक न कीजिये। संसार में सब जीवों की अन्त में यही गति होनी है। प्राणी न तो जन्म से पहले होते हैं और न अन्त में ही रहते हैं, केवल बीच में ही उनकी प्रतीति होती है; इसलिये इनके लिये क्या शोक किया जाय ? तथा इस युद्ध में मरे हुए जिन राजाओं के लिये आप शोक करते हैं, वे तो वस्तुत: शोक के योग्य हैंभी नहीं; क्योंकि उन सबने स्वर्गलोक प्राप्त किया है। शूरवीरों को संग्राम में शरीर त्यागने से जैसी स्वर्ग गति प्राप्त होती है, वैसी तो बड़ी_बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञ करने से, तपस्या से और विद्याभ्यास से भी नहीं हो सकती। इन्होंने युद्ध में शत्रुओं का सामना करते हुए प्राण त्यागे हैं, इसलिये इनके लिये क्या शोक ? राजन् !यह बात तो मैंने पहले भी आपसे कहीं थी कि क्षत्रिय के लिये युद्ध से बढ़कर इस लोक में स्वर्गप्राप्ति का और कोई साधन नहीं है। इसलिये आप अपने मन में और शोक करना छोड़िये।' विदुरजी की यह बात सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने रथ जोतने की आज्ञा देकर कहा, 'गान्धारी और भरतवंश की सब स्त्रियों को जल्दी ही ले आओ तथा वधू कुन्ती को साथ लेकर वहां जो दूसरी स्त्रियां हैं उन्हें भी बुला लो।' धर्मज्ञ विदुरजी से वे ऐसा कहकर रथ में सवार हुए। उस समय भी शोक के कारण वे संज्ञाशून्य_से हो रहे थे। गान्धारी का भी पुत्रशोक के कारण बुरा हाल था। पति की आज्ञा पाकर वह कुन्ती तथा दूसरी स्त्रियों के साथ उनके पास आयीं। वहां पहुंचकर वे सब अत्यन्त शोकातुर होकर एक_दूसरे से विदा लेकर आयीं और बड़े जोर से विलाप करने लगीं। इस आर्तनाद ने विदुरजी को यद्यपि उनसे भी अधिक शोकाकुल कर दिया था, तो भी उन्होंने उन्हें धीरज बंधाया और सब स्त्रियों को रथ पर चढ़ाकर नगर से बाहर आये।
शअब तो कुरुवंशियों के सभी घरों में कोलाहल मच गया तथा बूढ़े से लेकर बालक तक सभी शोकाकुल हो गये। जिन स्त्रियों पर पहले कभी देवताओं की भी दृष्टि नहीं पड़ी थी, अब पतियों के मारे जाने पर वे सामान्य पुरुषों के भी सामने आ गयीं। उन्होंने बाल खोल दिये थे, आभूषण उतार दिये थे तथा वे एक साड़ी पहने अनाथा_सी होकर रणभूमि की ओर जा रही थी।पहले जिन्हें अपने सखियों के सामने भी एक साड़ी पहनकर निकलने में संकोच होता था, इस समय वही अपने सास_ससुरों के सामने इस दिन वेष में चल रहीं थीं। ऐसी हजारों स्त्रियों ने रुदन करते हुए राजा धृतराष्ट्र को घेर रखा था। उनके साथ अत्यन्त व्याकुल होकर वे रणक्षेत्र की ओर चले। बाकी आपकी सारी सेना नष्ट हो गयी। इस प्रकार वे हस्तिनापुर से एक ही कोस की दूरी पर पहुंचे होंगे कि उन्हें कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा_ये तीनों महारथी मिले। राजा धृतराष्ट्र को देखते ही उनका हृदय भर आया और आंखों में आंसू भरकर लम्बी_लम्बी सांसें लेकर कहने लगे, ' भरतश्रेष्ठ ! दुर्योधन की सेना में केवल हम तीन ही बचे हैं। बाकी आपकी सारी सेना नष्ट हो गयी।' इसके बाद कृपाचार्य ने गान्धारी से कहा, 'गान्धारी ! तुम्हारे पुत्रों ने निर्भय होकर युद्ध किया है और अनेकों शत्रुओं को रणभूमि में सुलाया है। इस प्रकार अनेकों वीरोचित कर्म करते हुए ही वे संग्राम में काम आए हैं। अब वे तेजोमय शरीर धारण करके स्वर्ग में देवताओं के समान विहार करते हैं। तुम्हारे शूरवीर पुत्रों में से ऐसा कोई भी नहीं था, जो युद्ध से पीठ दिखाते हुए मारा गया हो। हमारे प्राचीन ऋषियों ने शस्त्र से मारना जाना क्षत्रियों के लिये परमगति का कारण बताया है। इसलिये तुम उनके लिये शोक मत करो। एक बात और है, उनके शत्रु पाण्डव लोग चैन से रहे हों_ऐसी बात भी नहीं है। अश्वत्थामा आदि हम तीन महारथियों ने जो काम किया है, वह भी सुन लो। जिस समय हमने सुना कि भीमसेन ने अधर्म पूर्वक तुम्हारे पुत्र दुर्योधन को मारा है तो हम पाण्डवों के नींद में बेहोश हुए शिविर में घुस गये और वहां भीषण मार_काट मचा दी। इस प्रकार हमने धृष्टद्युम्नादि सभीफकंआआअ पांचालों को तथा द्रुपद और द्रौपदी के पुत्रों को मार डाला है। इस तरह तुम्हारे पुत्र के शत्रुओं का संहार करके हम भागे जा रहे हैं, क्योंकि हम तीन ही पाण्डवों के सामने संग्राम में नहीं ठहर सकेंगे। पाण्डव बड़े शूरवीर और महान् धनुर्धर हैं। इस समय अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार पाकर वे क्रोध में भरकर हमारे पैरों के चिह्न देखते हुए इस वैर का बदला चुकाने के लिये बड़ी तेजी से हमारा पीछा करेंगे। उन सबका संहार करके अब हमारी यह हिम्मत नहीं है कि पाण्डवों का सामना कर सकें। इसलिये रानी ! तुम हमें यहां से जाने की आज्ञा दो और अपने मन को शोकाकुल मत करो। राजन् ! आप भी हमें जाने की आज्ञा दीजिये और क्षात्रधर्म पर विचार करके अच्छी तरह धैर्य धारण कीजिये।

राजा धृतराष्ट्र से ऐसा कहकर कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा _तीनों ने बड़ी तेजी से गंगाजी की ओर अपने घोड़े बढ़ाये। कुछ दूर निकल जाने पर वे तीनों महारथी आपस में सलाह करके अलग_अलग रास्तों से चले गये। कृपाचार्य हस्तिनापुर की ओर चल दिये, कृतवर्मा अपने देश की ओर चला गया और अश्वत्थामा ने व्यासाश्रम की राह ली।

इस प्रकार महात्मा पाण्डवों का अपराध करने के कारण भयभीत होकर वे तीनों वीर एक_दूसरे की ओर देखते हुए भिन्न-भिन्न स्थानों को चले गये। इसके कुछ ही देर बाद पाण्डवों ने अश्वत्थामा के पास पहुंचकर उसे अपने पराक्रम से संग्राम में परास्त किया था।

Friday, 15 November 2024

शोकमग्न राजा धृतराष्ट्र को महर्षि व्यास का समझाना

श्री वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! विदुर के ये वचन सुनकर राजा धृतराष्ट्र पुरशोक से व्याकुल हो मूर्छा खाकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उन्हें इस प्रकार अचेत होकर गिरते देख श्रीव्यासजी, विदुर, संजय, सुहृदगण और जो विश्वासपात्र द्वारपाल थे, वे शीतल जल से छींटे देकर ताड़ के पंखों से हवा करने लगे और उनके शरीर पर हाथ फेरने लगे। इस प्रकार उनके बहुत देर तक उपचार करने पर राजा को चेत हुआ और वे पुत्रशोक से व्याकुल होकर विलाप करने लगे.। 'मनुष्यजन्म को धिक्कार है !' इसमें भी विवाह आदि करके परिवार बढ़ाना तो बड़े ही दु:ख की बात है। इसी के कारण बार_बार तरह_तरह के दु:ख पैदा होते हैं। पुत्र, धन, सुहृद् और संबंधियों का नाश होने पर विष और अग्नि के दाह के समान बड़ा ही दु:ख भोगना पड़ता है। उस दु:ख से शरीर में जलन होने लगती है और बुद्धि नष्ट हो जाती है। ऐसी आपत्ति में फंसने पर तो मनुष्य को जीवित रहने की अपेक्षा मौत ही अच्छी मालूम होती है। इसलिए आज मैं भी अपने प्राणों को त्याग दूंगा।'महात्मा व्यासजी से ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र अत्यंत शोकाकुल हो गये और अपने पुत्रों के ही चिन्तन में डूबकर मौन रह गये।तब भगवान् व्यास ने उनसे कहा, 'धृतराष्ट्र ! तुमने सब शास्त्र सुने हैं। तुम बुद्धिमान हो ! तथा धर्म और अर्थ के साधन में कुशल हो। मनुष्यों का जीवन सदा रहनेवाला नहीं है _यह तो तुम नि:संदेह जानते ही हो। यह मर्त्यलोक अनित्य है, परमपद नित्य है और जीवन का पर्यवसआन मरण में ही होता है, यह सब जानकर तुम शोक क्यों करते हो ? इनइस वैर का प्रादुर्भा श्रम एवं व तो तुम्हारे सामने ही हुआ था। तुम्हारे पुत्र को कारण बनाकर काल ने ही इसे अंकुरित किया था। राजन् ! यह कौरवों का विध्वंस तो होना ही था। फिर तुम इन शूरवीरों के लिये क्यों शोक करते हो ? उन सबने तो परमगति प्राप्त कर ली है। पुराने समय की बात है_एक बार मैं इन्द्र की सभा में गया था। वहां मैंने सब देवताओं को इकट्ठे हुए देखा। इस समय एक विशेष प्रयोजन से पृथ्वी उनके पास आयी और उनसे कहने लगी, 'देवगण ! आप लोगों ने मेरा जो काम करने के लिये ब्रह्माजी की सभा में प्रतिज्ञा की थी, उसे अब शीघ्रही पूरा कर दीजिये।'उसकी यह बात सुनकर भगवान् विष्णु ने कहा, 'राजा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में जो सबसे बड़ा दुर्योधन है, वह तेरा काम करेगा। उसके निमित्ति से अनेकों राजा कुरुक्षेत्र में आकर अपने सुदृढ़ शस्त्रों के प्रहार से एक_दूसरे का संहार कर डालेंगे। इस प्रकार उस युद्ध में तेरा सारा भार उतर जायगा। अब तू शीघ्र ही जा और सब लोकों को धारण कर। 'राजन् ! तुम्हारा पुत्र जो दुर्योधन था, उसके रूप में कलि के अंश ने ही गान्धारी के गर्भ से जन्म लिया था।
इसी से वह ऐसा असहनशील, चंचल, क्रोधी और कूटनीति से काम लेनेवाला था। दैवयोग से उसके भाई भी ऐसे ही उत्पन्न हुए और मामा शकुनि तथा परममित्र कर्ण भी ऐसे ही मिल गये। ये सब पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही एक साथ उत्पन्न हुए थे। जैसा राजा होता है, वैसी ही उसकी प्रजा भी होती है। यदि स्वामी धार्मिक हो तो अधर्मी सेवक भी धार्मिक बन जाते हैं। सेवकों की प्रवृति स्वामी के गुण_दोषों के अनुसार होती है_इसमें संदेह नहीं। राजन् ! दुष्ट राजा का संसर्ग होने से ही तुम्हारे और पुत्र भी मारे गये। इस बात को देवर्षि नारद जानते हैं।
आपके पुत्र अपने ही अपराध से मारे गये हैं। तुम उनके लिये शोक मत करो; क्योंकि इस संबंध में शोक करने का कोई कारण नहीं है। पाण्डवों ने तुम्हारा जरा भी अपराध नहीं किया है। वातव में तो तुम्हारे पुत्र ही दुष्ट थे, उन्हीं ने इस देश का नाश कराया है। पहले राजसूय यज्ञ के समय देवर्षि नारद ने राजा युधिष्ठिर की सभा में कहा था कि राजन् ! तुम्हें जो कुछ करना हो वह कर लो। एक समय ऐसा आया कि सारे कौरव_पाण्डव आपस में युद्ध करके नष्ट हो जायेंगे।'नारदजी की यह बात सुनकर उस समय पाण्डवों को बड़ा शोक हुआ था। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह देवसभा का पुरातन गुप्त वृतांत सुनाया है। इसे सुनाने में मेरा यही उद्देश्य है कि किसी प्रकार तुम्हारा शोक दूर हो जाय तथा इस युद्ध को दैवी योजना समझकर तुम पाण्डु पुत्रों से स्नेह करने लगो। यही बात मैंने एकान्त में युधिष्ठिर से भी कहीं थी। इसी से उन्होंने कौरवों के साथ युद्ध रोकने का इतना प्रयत्न किया था।
परन्तु दैव बड़ा प्रबल है। इस जगत् के चराचर प्राणियों के साथ काल का जो सम्बन्ध है, उसे कोई नहीं टाल सकता। राजन् ! तुम तो बड़े धर्मात्मा और बुद्धिमान हो, तुम्हें प्राणियों के जन्म_मरण का रहस्य भी पता है। फिर मोह में क्यों फंसते हो ? राजा युधिष्ठिर को यदि मालूम हो गया कि तुम अत्यंत शोकातुर हो और बार_बार अचेत हो जाते हो तो वे प्राण त्याग देंगे। वीरवर युधिष्ठिर तो सर्वदा पशु_पक्षियों पर भी कृपा करते हैं, फिर तो वे तुम्हारे प्रति दयाभाव क्यों नहीं रखेंगे ? अतः मेरी आज्ञा मानकर और विधि का विधान टल नहीं सकता_ऐसा समझकर तथा पाण्डवों पर करुणा कश्रकए तुम अपने प्राण धारण करो। ऐसा वर्ताव करने से संसार में तुम्हारी कीर्ति होगी
धर्म और अर्थ की प्राप्ति होगी और दीर्घकालिक तपस्या का फल मिलेगा। तुम्हें जो प्रज्ज्वलित अग्नि के समान पुत्रशोक उत्पन्न हुआ है, उसे विचाररूपी जल से सर्वदा शान्त करते रहो।' वैशम्पायनजी कहते हैं_अतुलित तेजस्वी व्यासजी के ये वचन सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने कुछ देर विचार किया, इसके बाद वे बोले, 'दिजवर ! मुझे महान् शोकजाल से सब ओर से जकड़ रखा है। मेरी बुद्धि ठिकानें नहीं है और बार_बार मूर्छा_सी आ जाती है। अब आपका यह उपदेश सुनकर मैं प्राण धारण करता हुआ यथासंभव शोक न करने का प्रयत्न करूंगा।' राजा धृतराष्ट्र के ये वचन सुनकर सत्यवतीनन्दन भगवान् व्यास वहीं अन्तर्धान हो गये।

Thursday, 10 October 2024

विदुरजी का महाराज धृतराष्ट्र के प्रति संसार के स्वरूप, उसकी भयंकरतआ और उससे छूटने के उपाय का वर्णन

राजा धृतराष्ट्र ने कहा_परम बुद्धिमान विदुरजी ! तुम्हारे  शुभ संभाषण को सुन मेरा शोक नष्ट हो गया है। अभी मैं तुम्हारी सारगर्भित वाले और भी बातें सुनना चाहता हूं। विदुरजी बोले_महाराज ! विचार करने पर यह सारा जगत् अनित्य ही जान पड़ता है। यह केले के खंभे के समान सारहीन है, इसमें सार कुछ भी नहीं है। मनुष्य जैसे नये या पुराने वस्त्र को उतारकर दूसरा वस्त्र पहन लेता है, उसी प्रकार वह नये_नये शरीर भी धारण करता रहता है। जीव अपने पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार जन्म लेते हैं और नष्ट भी हो जाते हैं। इस प्रकार जब लोक का स्वरूप स्वभाव से ही आगमापायी ( आने_जानेवाला )है तो आप किसके लिये शोक करते हैं। इस लोक में लोग बुद्धिमान, सत्वगुण से युक्त, सबका हित चानेवाले और प्राणियों के समागम को कर्मानुसार जाननेवाले हैं, वे ही परमगति प्राप्त करते हैं। राजा धृतराष्ट्र ने पूछा_विदुरजी ! संसार का स्वरूप बड़ा गहन है। अतः मैं यह सुनना चाहता हूं कि इसे किस प्रकार जाना जा सकता है। सो तुम इसी का वर्णन करो। विदुरजी बोले_ महाराज! जब गर्भाशय में वीर्य और रज का संयोग होता है, तभी से जीवों की क्रियाएं दिखने लगती हैं। आरंभ में जीव कलाल ( वीर्य और रज के संयोग) में रहता है; फिर कुछ दिन बाद पांचवां महीना बीतने पर वह चैतन्य रूप में प्रकट होकर पिण्ड में निवास करने लगता है।इसके बाद वह गर्भस्थ पिण्ड सर्वांगपूर्ण हो जाता है। इस समय उसे मांस और रुधिर से भरे हुए अत्यन्त अपवित्र गर्भाशय में रहना पड़ता है। फिर वायु के वेग से उसके पैर ऊपर की ओर हो जाते हैं और सिर नीचे की ओर। इस स्थिति में योनि द्वार के समीप आ जाने से उसे बड़े दु:ख सहने पड़ते हैं। फिर वह योनिमार्ग से पीड़ित होकर उससे बाहर आ जाता है और संसार में आकर अन्यान्य प्रकार के उपद्रवों का सामना करता है, अब वह जैसे_जैसे बढ़ने लगता है वैसे _वैसे इसे नयी_नयी व्याधियां भी घेरने लगती हैं। इसइस प्रकार अपने कर्मों से पीड़ित होकर यह जीवन व्यतीत करता रहता है। जिनमें आसक्ति होने से ही रस की प्रतीति होती है, वे विषय इसे घेरे रहते हैं तथा उनके कारण यह इन्द्रिय रूप पाशों से बंधा रहता है। एसी स्थिति में इसे तरह_तरह के व्यसन घेर लेते हैं। उससे बंध जाने पर तो इसे तृप्ति भी नहीं मिलती। उस समय भले_बुरे कर्म करने पर इसे उनका कुछ ज्ञान प्राप्त नहीं होता। केवल ध्याननिष्ठ पुरुष ही अपने चित्त को कुमार्ग में फंसने से बचा सकते हैं। साधारण जीवन तो यमलोक के द्वार पर पहुंचकर भी उसे पहचान नहीं पाता। इतने में ही काल उसे मृत्यु के मुख में डाल देता है और यमदूत शरीर से बाहर खींच लेते हैं। इसे बोलने की शक्ति नहीं रहती। इस समय इसका जो कुछ पाप या पुण्य किया होता है वह सामने आ जाता है; किन्तु देहबंधन में बंध जाने पर यह फिर अपने उद्धार का प्रयत्न नहीं करता है। हाय ! लोभ के पंजे में फंसकर संसार स्वयं ही ठगा जा रहा है। यह लोभ,क्रोध और भय में पागल होकर अपनी सुधि ही नहीं लेता। यदि यह कुलीन होता है तो अकुलीनों को हेय दृष्टि से देखता हुआ अपनी उस कुलीनता में ही मस्त रहता है और धनी होने पर भी धन के घमंड में भरकर निर्धनों की निंदा करता है। यह दूसरों को तो मूर्ख बताता है परन्तु अपनी ओर कभी नहीं देखता। इसी तरह दूसरों के दोषों की तो निंदा करता रहता है, किन्तु अपने को काबू में रखने का कभी विचारंदं भी नहीं करता। जब बुद्विमान और मूर्ख, धनी और निर्धन, कुलीन और अकुलीन तथा प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित_सभी श्मशानभूमि में जाकर वस्त्रहीन अवस्था में पड़ते हैं पड़ते हैं, तब किसी भी व्यक्ति को उनमें कोई ऐसा अन्तर दिखाई नहीं देता, जिससे वे उनके कुल या रूप की विशेषता का पता लगा सके। जब मरने के पश्चात् सभी जीव समान भाव से पृथ्वी की गोद में सोते हैं तो ये मूर्ख एक_ दूसरे को धोखा क्यों देते हैं ? इस नाशवान् लोक में जो पुरुष इस वेदोक्त उपदेश को साक्षात् या किसी के द्वारा सुनकर जन्म से ही धर्म का आचरण करता है, वह अवश्य परमगति को प्राप्त होता है। राजा धृतराष्ट्र ने कहा_ विदुर ! धर्म के इस गूढ़ रहस्य का ज्ञान बुद्धि से ही हो सकता है। अतः तुम मेरे आगे विस्तारपूर्वक इस बुद्धि मार्ग को कहो।
विदुरजी कहने लगे_ राजन्! भगवान् स्वआयम्भू को नमस्कार करके मैं इस संसाररूप गहन वन के उस स्वरूप का वर्णन करता हूं जिसका निरूपण महर्षियों ने किया है। एक ब्राह्मण किसी विशाल वन में जा रहा था। वह एक दुर्गम स्थान में जा पहुंचा। उसे सिंह, व्याघ्र, हाथी और रीछ आदि भयंकर जन्तुओं से भरा देखकर उसका हृदय बहुत ही घबरा उठा; उसे रोमांच हो आया और मन में बड़ी उथल_पुथल होने लगी। उस वन में इधर_उधर दौड़कर उसने बहुत ढ़ूंढ़कर कि कहीं कोई सुरक्षित स्थान मिल जाय। परन्तु वह न तो वन से निकलकर दूर ही जा सका और न उन जंगली जीवों से त्राण ही पा सका। इतने में उसने देखा कि वह भीषण वन सब ओर से जाल से घिरा हुआ है। एक अत्यंत भयानक स्त्री ने उसे अपनी भुजाओं से घेर लिया है तथा पर्वत के समान ऊंचे पांच सिर वाले नाग भी उसे सब ओर से घेरे हुए हैं। उस जंगल के बीच में झाड़ _झंखाड़ों से भरा हुआ एक गहरा कुआं था। वह ब्राह्मण इधर_उधर भटकता उसी में गिर गया। किन्तु लताजाल में फंसकर वह ऊपर को पैर और नीचे को सिर किये बीच में ही लटक गया।इतने ही में कुएं के भीतर उसे एक बड़ा भारी सर्प दिखायी दिया और ऊपर की ओर किनारे पर एक विशालकाय हाथी दिखा। उसके शरीर का रंग काला था तथा उसके छह मुंह और बारह पैर थे। वह धीरे-धीरे उस कूएं की ओर ही आ रहा था। कुएं के किनारे पर जो वृक्ष था, उसकी शाखाओं पर तरह_तरह की मधुमक्खियों ने छत्ता बना रखा था। उससे मधु की की धाराएं गिर रही थीं। मधु तो स्वभाव से ही सब लोगों को प्रिय है । अतः वह कुएं में लटका हुआ पुरुष इन मधु की धाराओं को ही पीता रहता था। इस संकट के समय भी उन्हें पीते_पीते उसकी तृष्णा शान्त नहीं हुई और न उसे न अपने ऐसे जीवन के प्रति वैराग्य ही हुआ। जिस वृक्ष के सहारे वह लटका हुआ था, उसे रात_दिन काले और सफेद चूहे काट रहे थे। इस प्रकार इस स्थिति में उसे की प्रकार के भयों ने घेर रखा था। वन की सीमा के पास हिंसक पशुओं से और अत्यंत उग्र रूपा स्त्री से भय था, कूंए के नीचे नाग से और ऊपर हाथी से आशंका थी, पांचवां भय चूहों के काट देने पर वृक्ष से गिरने का भय था और छठा भय मधु के लोभ के कारण मधुमक्खियों से भी था।
इस प्रकार संसार सागर में पड़कर भी वह वहीं डटा हुआ था तथा जीवन की आशा बनी रहने से उसे उससे वैराग्य भी नहीं होता था। महाराज! मोक्ष तत्व के विद्वानों ने यह एक दृष्टांत कहा है। इसे समझकर धर्म का आचरण करने से मनुष्य परलोक में सुख पा सकता है। यह जो विशाल वन कहा गया है, वह यह विस्तृत संसार ही है। 
इसमें जो दुर्गम जंगल बताया है, वह इस संसार की ही गहनता है। इसमें जो बड़े _बड़े हिंसक जीव बताये गये हैं, वह तरह_तरह की व्याधियां हैं तथा इसकी सीमा पर जो बड़े डील_डौलवाली स्त्री है, वह वृद्धावस्था है, जो मनुष्य के रूप_रंग को बिगाड़ देती है। उस वन में जो कुआं है, वह मनुष्य देह है। उसमें नीचे की ओर जो नाग बैठा हुआ है, वह स्वयं काल ही है। वह समस्त देहधारियों को नष्ट कर देनेवाला और सर्वस्व को हड़प जानेवाला है। कुएं के भीतर जो लता है, जिसके तन्तउओं में यह मनुष्य लटका हुआ है, वह इसके जीवन की आशा है तथा ऊपर की ओर जो छ: मुंहवाला हाथी है वह संवत्सर है। छः ऋतुएं उसके मुख हैं तथा बारह महीने पैर हैं। उस वृक्ष को जो चूहे काट रहे हैं उन्हें रात_दिन कहा गया है। तथा मनुष्य की तरह_तरह की जो कामनाएं हैं, वे मधुमक्खियां हैं। मधुमक्खियों के छत्ते से जो मधु की धाराएं धाएं चू रही हैं, उन्हें भोगों से प्राप्त होने वाले रस समझो, जिनमें कि अधिकांश मनुष्य डूबे रहते हैं। बुद्धिमान लोग संसार के चक्र की गति को ऐसा ही समझते हैं। तभी वे वैराग्य रूपी तलवार से इसके पाशों को काटते हैं। धृतराष्ट्र ने कहा_विदुर ! तुम बड़े तत्वदर्शी हो। तुमने मुझे बड़ा सुन्दर आख्यान सुनाया है। तुम्हारे अमृतमय वचनों को सुनकर मुझे बड़ा हर्ष होता है। विदुरजी बोले_ महाराज! सुनिये; अब मैं विस्तारपूर्वक उस मार्ग का विवरण सुनाता हूं, जिसे सुनकर बुद्धिमान लोग संसार के दु:खों से छूट जाते हैं। राजन् ! जिस प्रकार किसी लम्बे रास्ते पर चलने वाला पुरुष थक जाने पर बीच_बीच में विश्राम कर लेता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोगों को इस संसार यात्रा में चलते हुए बीच_बीच में गर्भ में रहकर विश्राम कर लेना होता है। इस संसार से मुक्त तो विवेकी पुरुष ही होते हैं। अतः शास्त्रों ने गर्भवास को मिर्गी का रूपक दिया है और गहन संसार को वन बताया है। यही मनुष्यों तथा चराचर प्राणियों का संसार चक्र है। विवेकी पुरुष को इसमें आसक्त नहीं होना चाहिये। मनुष्य की जो प्रत्यक्ष और परोक्ष शारीरिक तथा मानसिक व्याधियां हैं, उन्हीं को विद्वानों ने हिंसक जीव बताया है। मन्दमति पुरुष  इन व्याधियों से तरह_तरह के क्लेश और आपत्तियां उठाने पर भी संसार से विरक्त नहीं होते। यदि किसी प्रकार मनुष्य इन व्याधियों के पंजे से निकल भी जाय तो अन्त में इसे वृद्धावस्था घेर ही लेती है। इसी से वह तरह_तरह के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धों से घिरकर मज्छआ और मांस रूप कीचड़ से भरे हुए आश्रयहीन देहरूप गड्ढे में पड़ा रहता है। वर्ष, मांस, पक्ष औरदिन_रात की संधियां _ये क्रमशः इनके रूप और आयु का नाश किया करते हैं। ये सब काल के ही प्रतिनिधि हैं, इस बात को मूढ़ पुरुष नहीं जानते। किन्तु विद्वानों का कथन है कि प्राणियों के शरीर रथ के समान है, सत्व ( सत्वगुण प्रधान बुद्धि) सारथि है, इन्द्रियां घोड़े हैं और मन लगाम है। जो पुरुष स्वेच्छापूर्वक दौड़ते हुए उन घोड़ों के पीछे लगा रहता है, वह तो इस संसार चक्र में पहिये के समान घूमता रहता है। किन्तु जो बुद्धिपूर्वक उन्हें अपने काबू में कर लेता है, उसे इस संसार में नहीं आना पड़ता। अतः बुद्धिमान पुरुष को संसार की निवृत्ति का ही प्रयत्न करना चाहिये। इस ओर से लापरवाही नहीं करनी चाहिये। जो पुरुष इन्द्रियों को वश में रखता है, क्रोध और लोभ से छूटा हुआ है तथा संतुष्ट और सत्यवादी है, वह शान्ति प्राप्त करता है। मनुष्य को चाहिए कि अपने मन को काबू में करके ब्रह्मज्ञानरूप महौषधि प्राप्त करें और उसके द्वारा इस संसार दु:ख स्वरूप महारोग को नष्ट कर दें। इस दु:ख से संयमी चित्त के द्वारा जैसा छुटकारा मिल सकता है_वैसा पराक्रम, धन, मित्र या हितू, किसी की भी सहायता नहीं मिल सकता। इसलिये मनुष्य को दयाभाव में स्थित रहकर शील प्राप्त करना चाहिये। दम, त्याग और अप्रमाद_ये तीन परमात्मा के धाम ले जानेवाले घोड़े हैं। जो पुरुष शीलरूप लगाम पकड़कर इन घोड़ों से जीते हुए मनरूप रथ पर सवार रहता है, वह मृत्यु के भय से छूटकर ब्रह्मलोक में जाता है। जो व्यक्ति समस्त प्राणियों को अभयदान करता है, वह भगवान् विष्णु के निर्विकार परम पद को प्राप्त होता है। अभयदान से पुरुष को जो फल प्राप्त होता है, वह हजारों यज्ञ और नित्यप्रति उपवास करने से भी नहीं मिल सकता। यह बात निर्विवाद है कि प्राणियों को अपने आत्मा से प्रिय कोई वस्तु नहीं है; क्योंकि मरण किसी को भी इष्ट नहीं है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष को सभी जीवों पर दया करनी चाहिए। जो बुद्धिहीन पुरुष तरह_तरह के माया मोह में फंसे हुए हैं और जिन्हें बुद्धि के जाल ने बांध रखा है, वे भिन्न_भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं। सूक्ष्मदृष्टि महापुरुष तो सनातन ब्रह्म को ही प्राप्त कर लेते हैं।

Friday, 23 August 2024

स्त्रीपर्व_ शोकाकुल धृतराष्ट्र को संजय और विदुर का समझाना

नारायणं नमस्यकृत्यं नरंचैव नरोत्तम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं तो जयमुदीययेत्।।_अर्थ_ अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, उनके नित्य सखा नरस्वरूप नवरत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियों पर विजयप्राप्तिपूर्वक अन्त:करण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिए।

राजा जनमेजय ने पूछा _मुनिवर ! दुर्योधन और उसकी सारी सेना का संहार हो जाने पर इस समाचार को सुनकर राजा धृतराष्ट्र ने क्या किया ? इसी प्रकार कुराज युधिष्ठिर और कृपाचार्य आदि तीनों महारथियों ने भी इसके बाद क्या किया ? वैशम्पायनजी बोले_राजन् ! अपने सौ पुत्रों का संहार हो जाने से महाराज धृतराष्ट्र बड़े दु:खी हुए; पुत्रशोक से उनका हृदय जलने लगा और वे चिंता में डूब गये।  उस समय संजय ने उनके पास जाकर कहा, 'महाराज ! आप चिंता क्यों करते हैं ? शोक को कोई बंटा तो सकता नहीं। राजन् ! इस युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना मारी गयी, यह पृथ्वी निर्जन होकर सूनी हो गयी है। अब आप क्रमश: अपने चाचा_ताऊ, बेटों_पोतों, संबंधियों _सुहृदों और गुरुजनों की प्रेतक्रिया कराइये।' संजय की यह दु:खमयी वाणी सुनकर राजा धृतराष्ट्र बेटे_पोतों के वध से व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर सावधान होने पर वे बोले, 'मेरे पुत्र, मंत्री और सभी सुहृदजन मर चुके हैं। अब तो इस पृथ्वी पर भटक_भटककर मेरे लिये दु:ख ही उठाना बाकी रह गया है। ऐसी जिंदगी से pmला, मुझे क्या लाभ है  मेरा राज्य नष्ट हो गया, भाई_बन्धु सब युद्ध में काम आ गये और आंखें तो पहले ही से नहीं हैं। हाय ! मैंने अपने हितैषी परशुरामजी, नारदजी और भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन की बात नहीं सुनी। श्रीकृष्ण ने सारी सभा के बीच में मेरे भले के लिये ही कहा था कि 'राजन् ! व्यर्थ वैर मत बांधो, अपने बेटे को रोको।'किन्तु मैं ऐसा मूर्ख हूं कि मैंने उनकी बात हीं मानी।  इसी से आज बुरी तरह पछताना पड़ रहा है। संजय ! इस जन्म में किया हुआ कोई ऐसा पाप आज याद तो नहीं आता, जिसके कारण मुझे यह फल भोगना चाहिये था। अवश्य ही पूर्वजन्मों में मुझसे कोई बड़ा अपराध हुआ है। इसी से विधाता ने मुझे इन दु:खमय कर्मों में नियुक्त कर दिया। अब मेरी आयु ढल चुकी है, सब भाई_बन्धु समाप्त हो चुके हैं। भला, अब संसार में मुझसे बढ़कर दु:खी और कौन होगा? अतः पाण्डव लोग मुझे आज ही ब्रह्मलोक के खुले हुए मार्ग पर बढ़ते देखें।' इस प्रकार  राजा धृतराष्ट्र ने अत्यंत शोक प्रकट करते हुए अनेकों बातें कही। तब संजय ने राजा के शोक को शान्त करने के लिये ये शब्द कहे, राजन् ! आपका पुत।र दुर्योधन बड़ी ही खोटी बुद्धिवाला था। दु:शासन, शकुनि, कर्ण, चित्रसेन और शल्य, जिन्होंने सारे संसार को कण्टकाकीर्ण कर दिये थे_ये सब उसके सलाहकार थे। अरे ! उसने पितामह भीष्म, माता गांधारी, चाचा विदुर, गुरु द्रोण, आचार्य कृत, और महामति नारदजी की बात भी नहीं सुनी। यहां तक कि उसने दूसरे_दूसरे ऋषि और अतुलित तेजस्वी व्यासजी का भी कहा नहीं किया। उसे सदा युद्ध की ही लगन रही। इसकै कारण उसने कभी आदरपूर्वक धर्मानुष्ठान नहीं किया और न कभी क्षत्रियों के ही किसी धर्म का आदर किया। उसने तो व्यर्थ ही क्षत्रियों का संहार कराया। आपमें सब प्रकार की सामर्थ्य थी, तथापि इस विषय में आपने भी कुछ नहीं कहा। आपकी बात कोई टाल नहीं सकता था, तथापि आपने निष्पक्ष होकर दोनों ओर के बोझे को तराजू पर नहीं तौला। मनुष्य को यथाशक्ति पहले ही ऐसा काम करना चाहिए जिसमें अपने पिछले कर्म के लिये उसे पछताना न पड़े। आपने तो पुत्र स्नेह में फंसकर उसी का प्रिय करना चाहा, इसी से अब आपको पश्चाताप करना पड़ रहा है; अतः इसके लिये कोई शोक नहीं करना चाहिये। शोक करने से जन तो धन मिलता है, न फल प्राप्त होता है, न ऐश्वर्य मिलता है और न परमात्मा की ही प्राप्ति होती है। जो पुरुष स्वयं अग्नि पैदा करके उसे कपड़े में लपेटकर जलने गया है और फिर पछतावा करने बैठता है, वह बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता।
इस समय आपके पुत्रों और आपने ही पाण्डव रूप अग्नि को अपने वाक्य रूप वायु से सुलगाया था और उसमें लोभरूप घृत छोड़कर प्रज्वलित किया था। जब वह आग धधक उठी तो उसमें आपके पुत्र पतंगों की तरह गिरने लगे और उसकी बाणरूप ज्वालाओं में लेकर भष्म हो गये। अतः आपको उनके लिए शोक नहीं करना चाहिये। इस समय अश्रुपात के कारण आपका मुख अत्यन्त मलिन हो गया है। शास्त्र दृष्टि से ऐसा होना अच्छा नहीं है और समझदार लोग इसे अच्छा भी नहीं कहते। ये शोक के आंसू आग की चिनगारियों के समान मनुष्य को जलाया करते हैं। आप बुद्धि के द्वारा मन को सावधान करके रोष और शोक को छोड़ दीजिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं _ इस प्रकार महात्मा संजय ने राजा धृतराष्ट्र को धैर्य बंधाया। इसके बाद विदुरजी अपने अमृत के समान मीठे वाक्यों से उन्हें शान्त्वना देते हुए कहने लगे, 'राजन् ! आप पृथ्वी पर क्यों पड़े हैं ; उठकर बैठ जाइये और विचारपूर्वक मन को सावधान कीजिये।  संसार में सब जीवों की अन्त में यही तो गति होती है। जितने संजय हैं, उनका पर
अवसान क्षय में ही होगा, सारी भौतिक उन्नतियों का अन्त पतन में ही होना है; सारे संयोग वियोग में ही समाप्त होने वाले हैं। इसी प्रकार जीवन का अन्त भी मरण में ही होना है।जब यमराज शूरवीर और डरपोक दोनों ही को अपनी ओर खींचते हैं तब वे क्षत्रिय युद्ध क्यों न करते । राजन् ! समय आने पर कोई बच नहीं सकता। जो युद्ध नहीं करता, वह भी मरता ही है और कभी-कभी युद्ध करनेवाला भी बच ही जाता है।मृत्यु आने पर तो कोई नहीं जी सकता। जितने प्राणी हैं आरम्भ में वे नहीं थे और अन्त में भी नहीं रहेंगे, केवल बीच में ही दिखाई देते हैं। इसलिये उनके वलिये शोक करने की आवश्यकता नहीं है। शोक करने से मनुष्य न तो मरनेवाले के साथ जा सकता है और न मर ही सकता है।। इस प्रकार जब लोक की यही स्वाभाविक स्थिति है तो आप किसलिए शोक करते हैं ? 'इसके सिवा राजन् !  युद्ध में मारे जानेवाले वीरों के लिये तो आपको शोक करना ही नहीं चाहिये। यदि शास्त्र ठीक है तो उन सभी ने परम गति पायी है। इस युद्ध में मरनेवाले सभी वीर स्वाध्यायशील और सदाचारी थे तथा वे सभी शत्रु के सामने डटे रहकर वीरगति को प्राप्त हुए हैं। इसलिए उनके लिए शोक का अवसर ही कहां है ? जन्म से पूर्व ये सभी लोग अदृश्य थे और सब फिर अदृश्य हो गये हैं। न तो वे आपके थे और न आप ही उनके हैं। फिर इसमें शोक करने का क्या कारण है ? युद्ध में जो_जो मनुष्य मारा जाता है, उसे स्वर्ग मिलता है और जो मारता है उसे कीर्ति मिलती है। इस प्रकार हमारी दृष्टि से तो दोनों ही प्रकार का बड़ा भारी लाभ है, युद्ध में निष्फलता तो है ही नहीं। मनुष्य दक्षिणायुक्त यज्ञ और तपस्या से भी उतनी सुगमता से स्वर्ग नहीं प्राप्त कर सकते जैसे कि युद्ध में मारे जाने पर शूरवीर लोग प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार क्षत्रिय के लिये तो इस लोक में धर्मयुग से बढ़कर और कोई साधन नहीं हैं। अतः आप अपने मन को शान्त करके शोक छोड़िये। इस प्रकार शोकाकुल होकर आपको अपने शरीर का त्याग नहीं कर देना चाहिये। संसार में बार_बार जन्म लेकर आप हजारों माता_पिता और स्त्री_पुत्रादि का संग कर चुके हैं। परंतु वास्तव में किसके वे हुए और किसके हम। शोक के हजारों स्थान हैं और भय के भी सैकड़ों स्थान हैं। किन्तु इनका सर्वदा मूर्ख पुरुषों पर ही प्रभाव पड़ता है बुद्धिमानों पर नहीं। 'कुरुश्रेष्ठ ! काल का तो न कोई प्रिय है न अप्रिय और न किसी के प्रति उसका उदासीन भाव ही है। वह तो सभी को मृत्यु की ओर खींचकर ले जाता है। काल ही प्राणियों को बूढ़ा करता है और काल ही उन्हें नष्ट कर देता है। जब सब जीव सो जाते हैं, उस समय भी काल जागता रहता है। नि:संदेह काल से पार पाना बड़ा ही कठिन है। यौवन, रूप, जीवन, धन का संग्रह, आरोग्य और प्रियजनों का सहवास _ये सभी अनित्य हैं। बुद्धिमान पुरुष को इसमें फंसना नहीं चाहिये। यह दु:ख तो सारे ही देश से संबंध रखता है। इसके लिये आप अकेले शोक
यद्यपि प्रियजनों का अभाव होने पर दु:ख दबाता ही है। तथापि शोक करने से वह दूर नहीं होता; क्योंकि चिंतन करने पर दु:ख कभी नहीं घटता, इससे तो वह और भी बढ़ जाता है। जो लोग थोड़ी बुद्धिवाले होते हैं, वे ही अनिष्ट की प्राप्ति और इष्ट का वियोग होने पर मानसिक दु:ख से जला करते हैं। है। तथापि शोक करने से वह दूर नहीं होता; क्योंकि चिंतन करने पर दु:ख कभी नहीं घटता, इससे तो वह और भी बढ़ जाता है। जो लोग थोड़ी बुद्धिवाले होते हैं, वे ही अनिष्ट की प्राप्ति और इष्ट का वियोग होने पर मानसिक दु:ख से जला करते हैं। शोक करने से मनुष्य कर्तव्यविमूढ़ हो जाता है तथा अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्ग से भी वंचित रहता है। भिन्न _भिन्न धार्मिक स्थितियों में पड़ने पर असंतोषी पुरुष तो घबरा जाते हैं किन्तु विचारवानों को सभी अवस्थाओं में संतोष रहता है। मनुष्य को चाहिए कि मानसिक दु:ख को विचार से और शारीरिक कष्ट को औषधियों से दूर करें। इसे ही विज्ञान का बल कहते हैं। उसे मूर्खों का_सा व्यवहार नहीं करना चाहिए। मनुष्य का पूर्वकृत कर्म उसके सोने पर सो जाता है, उठने पर उठ बैठता है और दौड़ने पर भी उसके साथ लगा रहता है। वह जिस_जिस अवस्था में जैसा_जैसा भी शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसी_उसी अवस्था में उसका फल भी पा लेता है। मनुष्य आप ही अपना बंधु है, आप ही अपना शत्रु है और आप ही अपने पाप_पुण्य का साक्षी है। वह शुभ कर्म से सुख पाता है और पाप से दु:ख भोगता है। इस प्रकार सर्वदा किये हुए कर्म का फल मिलता है, बिना किये का नहीं।

Saturday, 27 July 2024

पाण्डवों का द्रौपदी के पास आकर उसे मणि देना तथा श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिर को अश्वत्थामा के अद्भुत पराक्रम का रहस्य बताना

वैशम्पायनजी कहते हैं_राजन् ! उसके बाद अश्वत्थामा पाण्डवों को मणि देकर उन सब के सामने ही उदास मन से वन में चला गया।   इधर पाण्डव भी श्रीकृष्ण, नारद और व्यासजी को आगे करके बड़ी तेजी से मनस्विनि के पास आये जो इस समय अन्न त्याग किये बैठी थी। वहां वे सब उसे चारों ओर से घेरकर बैठ गये।  फिर राजा युधिष्ठिर की आज्ञा से भीमसेन ने द्रौपदी को वह दिव्य मणि दी और उससे कहा, 'भद्रे ! लो यह मणि है, तुम्हारे पुत्रों का वध करनेवाले को हमने जीत लिया है। अब उठो और शोक त्यागकर क्षात्रधर्म का विचार करो। जिस समय श्रीकृष्ण संधि के लिये कौरवों के पास जा रहे थे, उस समय तुमने इनसे कहा था कि 'केशव ! आज पाण्डव लोग मेरे अपमान की बात भूलकर शत्रुओं के साथ मेल करना चाहते हैं, इससे मैं समझती हूं कि मेरे न तो पति हैं, न पुत्र हैं और न भाई ही है तथा न तुम ही मेरे हो।' सो आज अपने उन क्षत्रिय_धर्मोचित वाक्यों को याद करो। पापी दुर्योधन मारा गया, मैंने तड़पते हुए दु:शासन का रक्तपान भी कर लिया तथा द्रोणपुत्र को तो हमने जीत लिया; ब्राह्मण और गुरुपुत्र समझकर ही उसे जीता छोड़ दिया है। उसका सारा यश मिट्टी में मिल चुका है। हमने उसकी मणि छीन ली है और अस्त्र पृथ्वी पर डलवा लिये हैं।' यह सुनकर द्रौपदी ने कहा_'गुरुपुत्र तो मेरे लिये गुरु ही के समान है, मैं तो उससे केवल अपने अनिष्ट का बदला ही लेना चाहती थी। अब इस मणि को महाराज अपने मस्तक पर धारण करें। तब राजा युधिष्ठिर ने उस मणि को गुरुजी का प्रसाद समझकर द्रौपदी के कहने से उसी समय अपने मस्तक पर धारण कर लिया। उसके बाद पुत्रशोकातुरा द्रौपदी उठकर अपने स्थान पर चली गयी। राजन् ! अब महाराज युधिष्ठिर ने, रात के समय जो वीर मारे गये थे, उनके लिये शोकातुर होकर श्रीकृष्ण से कहा, 'कृष्ण ! अश्वत्थामा तो शस्त्रविद्या में विशेष कुशल भी नहीं था; फिर उसने मेरे सभी महारथी पुत्र और हजारों योद्धाओं के साथ अकेले ही लोहा लेने वाले शस्त्रविद्या विशारद द्रुपद पुत्रों को कैसे मार डाला ? उसने ऐसा कौन पुण्यकर्म किया था, जिसके प्रभाव से उसने अकेले ही हमारे सब सैनिकों को नष्ट कर दिया ? श्रीकृष्ण ने कहा_अश्त्थामा ने अवश्य ही ईश्वरों के ईश्वर देवाधिदेव अविनाशी भगवान् शिव की शरण ली थी, इसी से उसने अकेले ही अनेकों योद्धाओं को मार डाला। महादेवजी तो प्रसन्न होने पर अमरता भी दे सकते हैं और इतना पराक्रम भी देते हैं, जिससे इन्द्र को भी नष्ट किया जा सकता है। भरतश्रेष्ठ! महादेवजी के स्वरूप का मुझे अच्छी तरह ज्ञान है तथा उसके जो अनेकों प्राचीन कर्म हैं, उन्हें भी मैं जानता हूं। वे संपूर्ण भूतों के आदि मध्य और अन्त हैं। यह सारा जगत् उन्हीं के प्रभाव से चेष्टा कर रहा है। वे महान् वीर्यशाली महादेवजी ही अश्वत्थामा पर प्रसन्न हो गये थे। इसी से उसने आपके महारथी पुत्रों को और पांचालराज के अनेकों अनुयायियों को धराशायी कर दिया। अब आप उसके विषय में कोई विचार न करें। अश्वत्थामा ने यह काम महादेवजी के कृपा से ही किया है। आप तो अब आगे जो काम करना हो उसे कीजिये।

सौप्तिक पर्व समाप्त

Tuesday, 16 July 2024

अश्वत्थामा और अर्जुन का एक_दूसरे पर ब्रह्मास्त्र छोड़ना तथा नारद और व्यासजी का उन्हें शान्त करना देना


वैशम्पायनजी कहते हैं _राजन् ऐसा कहकर श्रीकृष्ण सब प्रकार के अस्त्र_शस्त्रों से सुसज्जित एक श्रेष्ठ रथ पर चढ़े। उस रथ का रंग उदय होते हुए सूर्य के समान लाल था। उसके दाहिने धुरे में शैब्य और बायें में सुग्रीव नाम का घोड़ा जुता हुआ था तथा उसे अगल_बगल से मेघपुष्प औरबलआहक नाम के घोड़े खींचते थे।उस रथ पर विश्वकर्मा का बनाया हुआ रत्न और धातुओं से विभूषित ध्वजा का डंडा उठी हुई माया भीके समान जान पड़ता था। उसकी ध्वजा पर पक्षीराज गरुड़ विराजमान थे।इस अद्भुत रथ पर भगवान् श्रीकृष्ण बैठ गये और उनके बैठने पर अर्जुन तथा राजा युधिष्ठिर उसपर सवार हो गये। उनके चढ़ जाने पर श्रीकृष्ण ने अपने तेज घोड़ों को चाबुक से हांका। घोड़े बड़ी तेजी से भीमसेन के पीछे चल दिये और तुरंत ही उनके पास पहुंच गये।इस समय भीमसेन क्रोधातुर होकर शत्रु का संहार करने के लिये तुले हुए थे; इसलिये इन महारथियों के रोकने पर भी वे रुके नहीं। वे इनके देखते_देखते अपने घोड़े दौड़ाते श्रीगंगाजी के तट पर पहुंच गये, जहां उन्होंने अश्वत्थामा को बैठा सुना था। किन्तु उस स्थान पर पहुंचकर उन्होंने गंगाजी के धार के पास ही परम यशस्वी व्यासजी को अनेकों ऋषियों के साथ बैठे देखा।उनके पास ही क्रूरकर्मा अश्वत्थामा भी मौजूद था। उसने अपने शरीर में घृत लगा रखा था और वह कुशा के वस्त्र पहने हुए था। कुन्तिनन्दन भीमसेन उसे देखते ही 'अरे ! खड़ा तो रह, इस प्रकार चिल्लाते हुए धनुष_बाण लेकर उसकी ओर दौड़े।द्रोणपुत्र अश्वत्थामा यह देखकर कि धनुर्धर भीम तथा उसके पीछे राजा युधिष्ठिर और अर्जुन भी मेरी ओर आ रहे हैं, बहुत डर गया और उसने निश्चय किया कि अब ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का समय आ गया है।तुरंत ही अपने उस दिव्य अस्त्र का चिंतन किया और अपने बायें हाथ में एक सींक उखाड़ ली; फिर ऐसा संकल्प करके कि 'पृथ्वी पाण्डव हीन हो जाय' उसने क्रोध में भरकर संपूर्ण लोकों को मोह में डालने के लिये प्रचंड अस्त्र छोड़ दिया। इससे उस सींक में आग पैदा हो गयी और वह प्रलयकाल की अग्नि के समान मानो तीनों लोकों को भस्म करने लगी।श्रीकृष्ण अश्वत्थामा की चेष्टा देखकर ही उसके मन के भाव को ताड़ गये थे। उन्होंने अर्जुन से कहा, 'अर्जुन ! अर्जुन! आचार्य द्रोण का सिखाया हुआ दिव्य अस्त्र तो तुम्हारे हृदय में विद्यमान है, अब उसके प्रयोग का समय आ गया है। अपनी और अपने भाइयों की रक्षा के लिये तुम भी इस समय उसी का प्रयोग करो क्योंकि ब्रह्मास्त्र को ब्रह्मास्त्र के द्वारा ही रोका जा सकता है।'श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहते ही अर्जुन धनुष_बाण लेकर तुरंत रथ से कूद पड़े । उन्होंने पहले 'आचार्यपुत्र का मंगल हो' और फिर 'मेरा और मेरे भाइयों का मंगल हो' ऐसा कहकर देवता और गुरुजनों को नमस्कार किया। उसके बाद ' इस ब्रह्मास्त्र से शत्रु का ब्रह्मास्त्र शान्त हो जाय' ऐसा संकल्प करके संपूर्ण लोक के मंगल की कामना से अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया।तब वह अर्जुन का छोड़ा हुआ अस्त्र रयआनल के समान अग्नि की बड़ी _बड़ी शालाओं से प्रज्वलित हो उठा।इसी प्रकार महातेजस्वी अश्वत्थामा का अस्त्र भी तेजोमंडल से घिरकर आग की भीषण लपटें उगलने लगा। उनके आपस में टकराने से बड़ी भारी गर्जना होने लगी और सभी प्राणियों को बड़ा भय मालूम होने लगा। आकाश में बड़ा शब्द होने लगा और सर्वत्र अग्नि की लपटें फैल गयी तथा पर्वत, वन और वृक्षों के सहित सारी पृथ्वी डगमगाने लगी।इस प्रकार उन दोनों अस्त्रों के तेज समस्त लोकों को संतप्त करने लगे। यह देख अर्जुन और अश्वत्थामा को शान्त करने के लिये वहां देवर्षि नारद और महर्षि व्यास ने एक साथ दर्शन दिया।  दोनों मुनिश्रेष्ठ देवता और मनुष्यों के पूजनीय और अत्यन्त यशस्वी हैं। ये संपूर्ण लोकों के हित की कामना से उन दोनों अस्त्रों को शान्त कराने के लिये उनके बीच में आकर खड़े हो गये और कहने लगे, 'पूर्वकाल में जो तरह _तरह शस्त्रों को जाननेवाले महारथी हो गये हैं, उन्होंने इन अस्त्रों का प्रयोग मनुष्यों पर कभी नहीं किया। फिर वीरों ! तुम दोनों ने यह महान् अनिष्टकारी साहस क्यों किया है ?'उन अग्नि के समान तेजस्वी महर्षियों को देखते ही अर्जुन बड़ी फुर्ती से अपना दिव्य अस्त्र लौटाने लगा।फिर उसने हाथ जोड़कर कहा, 'भगवन् ! मैंने तो इसी उद्देश्य से यह अस्त्र छोड़ा था कि इसके द्वारा शत्रु का छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र शान्त हो जाय। अब इस अस्त्र के लौटा लेने पर तो पापी अश्वत्थामा अवश्य ही अपने अस्त्र के प्रभाव से हम सबको भष्म कर देगा। इसलिये जैसा करने से हमारा और सब लोगों का हित हो, उसी के लिये आप हमें सलाह दें।'ऐसा कहकर अर्जुन ने उस ब्रह्मास्त्र को वापस लौटा लिया। उसे लौटा लेना तो देवताओं के लिये भी कठिन था। संग्राम में एक बार छोड़ देने पर उसे लौटाने में तो अर्जुन के सिवा स्वयं इन्द्र भी समर्थ नहीं था। वह अस्त्र ब्राह्मतेज से प्रकट हुआ था। असंयमी पुरुष उसे छोड़ तो सकता था किन्तु उसे लौटाने का सामर्थ्य ब्रह्मचारी के सिवा और किसी में नहीं था।यदि कोई ब्रह्मचर्य हीन पुरुष उसे एक बार छोड़कर फिर लौटाने का प्रयत्न करता तो वह अस्त्र कुटुम्बभर उस व्यक्ति का सिर ही काट लेता था। अर्जुन ब्रह्मचारी और व्रती था; उसने दुष्प्राप्य होने पर भी यह परमास्र प्राप्त कर लिया था। परंतु बड़ी भारी विपत्ति पड़ने के सिवा और किसी समय वह इसका प्रयोग नहीं करता था। अर्जुन सत्यवादी, शूरवीर, ब्रह्मचारी और गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला था। इसलिये उसने फिर भी उसे लौटा दिया। अश्वत्थामा ने भी जब उन ऋषियों को अपने अस्त्र के सामने खड़े देखा तो उसे लौटाने का बड़ा प्रयत्न किया, किन्तु वह वैसा कर न सका। तब वह मन में अत्यन्त व्याकुल होकर श्री व्यासजी से कहने लगा, 'मुने ! मैं भीमसेन के भय से बहुत बड़ी आपत्ति में पड़ गया था, तब अपने प्राणों को बचाने के लिये ही मैंने यह अस्त्र छोड़ा है। भीमसेन ने दुर्योधन का वध करने के उद्देश्य से संग्रामभूमि में नियम विरुद्ध आचरण करके अधर्म किया था। इसी से संयमी न होने पर भी मैंने यह अस्त्र छोड़ दिया है। अब इसे लौटाने में तो मैं समर्थ नहीं हूं।
मैंने अग्निमंत्र से अभिमंत्रित करके यह दउर्दम्य दिव्य अस्त्र पाण्डवों का नाश करने के लिये छोड़ा है। अतः आज यह सभी पाण्डवों का प्राण ले लेगा। इस प्रकार क्रोध में भरकर पाण्डवों के वध के लिये यह अस्त्र छोड़कर अवश्य ही मैंने बड़ा पाप किया है।' व्यासजी ने कहा_भैया ! ब्रह्मास्त्र का ज्ञान तो अर्जुन को भी प्राप्त है। किन्तु उसने क्रोध में भरकर या तुम्हें मारने के लिये उसे नहीं छोड़ा है। उसने तो अपने ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे ब्रह्मास्त्र को शान्त करने के लिये ही उसका प्रयोग किया है और अब उसे लौटा दिया है।ब्रह्मास्त्र को पाकर भी तुम्हारे पिताजी का उपदेश मानकर महाबाहु अर्जुन क्षात्रधर्म से विचलित नहीं हुआ। यह ऐसा धीर, वीर, साधु और सब प्रकार के अस्त्र_शस्त्र को जाननेवाला है; फिर भी तुम्हें इसे भाइयों के सहित मार डालने की कुबुद्धि क्यों हुई है ? देखो, जिस देश में एक ब्रह्मास्त्र को दूसरे ब्रह्मास्त्र को दबा दिया जाता है, वहां बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होती। इसी से प्रजा का हित करने के लिये अर्जुन ने तुम्हारे ब्रह्मास्त्र को नष्ट नहीं किया है। तुम्हें पाण्डवों की, अपनी और राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिये। इसलिये अब तुम इस दिव्य अस्त्र को लौटा लो। अब तुम्हारा क्रोध शान्त हो जाना चाहिये और पाण्डवों को भी स्वस्थ रहने चाहिये। राजर्षि युधिष्ठिर किसी को अधर्म से जीतना नहीं चाहते। तुम्हारे सिर में जो मणि है, वह तुम इन्हें दे दो और उसे लेकर पाण्डव लोग तुम्हें प्राणदान दे दें। अश्वत्थामा बोला_पाण्डवों ने कौरवों का जितना धन और जो_जो रन प्राप्त किये हैं, मेरी यह मणि उन सबसे कीमती है। इसे बांध लेने पर शस्त्र_व्याधि या क्षुधा से अथवा देवता, दानव, नाग, राक्षस या चोरों से होनेवाला किसी भी प्रकार का भय नहीं रहअद्भुत प्रभाव है, इसलिये मुझे इसका त्याग तो किसी भी प्रकार नहीं करना चाहिये। तो भी आपने जो कुछ आदेश मुझे दिया है वह तो मुझे करना ही होगा। किन्तु मेरा छोड़ा हुआ यह दिव्य अस्त्र व्यर्थ तो नहीं हो सकता। इसे एक बार छोड़कर फिर लौटाने की मुझे सामर्थ्य नहीं है। इसलिये अब मैं इस अस्त्र को उत्तरा के गर्भ पर छोड़ता हूं। आपकी आज्ञा का मैं कभी उल्लंघन न करता; परन्तु क्या करूं, इसे लौटाना तो मेरे वश की बात नहीं है। व्यासजी बोले_अच्छा ऐसा ही करो; चित्त में और किसी प्रकार का विचार मत रखो, इस अस्त्र को पाण्डवों के गर्भ पर छोड़कर शान्त हो जाओ।वैशम्पायनजी कहते हैं _ तब अश्वत्थामा ने वह अस्त्र उत्तरा के गर्भ पर छोड़ दिया। यह देखकर भगवान् कृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने अश्वत्थामा से कहा, 'कुछ दिन हुए विराट पुत्री उत्तरा से, जब वह उपलव्य नगर में थी, एक तपस्वी ब्राह्मण ने कहा था कि कौरवों का परिचय होने पर एक बालक होगा। उस ब्राह्मण का वह वचन सत्य होगा। वह परिक्षित ही इन पाण्डवों के वंश को चलानेवाला बालक होगा।'
श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अश्वत्थामा ने क्रोध में भरकर कहा, 'केशव ! तुम पाण्डवों का पक्ष लेकर जो बात कह रहे हो, वह कभी नहीं हो सकती। मेरा वाक्य झूठा नहीं होगा। मेरा यह भयानक अस्त्र अवश्य ही उसके गर्भ पर गिरेगा।      
 श्रीभगवान् ने कहा_ इस दिव्य अस्त्र का वार तो अवश्य अमोघ ही होगा। किन्तु वह गर्भ मरा हुआ उत्पन्न होने पर भी फिर दीर्घ जीवन प्राप्त करेगा।हां, तुम्हें अवश्य सभी समझदार, पापी और कायर ही समझते हैं; क्योंकि तुम बार_बार पाप ही बटोरते हो और बालकों की हत्या करते हो।इसीलिए तुम्हें इस पाप का फल भोगना ही पड़ेगा। तुम तीन हजार वर्ष तक इस पृथ्वी में भटकते रहोगे और किसी भी जगह किसी पुरुष से तुम्हारी बातचीत नहीं हो सकेगी। तुम्हारे शरीर में से पीब और लहू की गन्ध निकलेगी। इसलिये तुम मनुष्यों के बीच में नहीं रह सकोगे। दुर्गम वनों में ही पड़े रहोगे। परिक्षित तो दीर्घायु प्राप्त करके वेदव्रत धारण करेगा और फिर आचार्य कृप से सब प्रकार के अस्त्र_शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करेगा। इस प्रकार उत्तम_उत्तम अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके वह क्षात्रधर्म का अनुसरण करते हुए साठ वर्षों तक पृथ्वी का राज्य करेगा। दुरात्मन् ! देखना, यह परीक्षित नाम का राजा तुम्हारी आंखों के सामने ही कुरुवंश की गद्दी पर बैठेगा।। वह तुम्हारे शस्त्र की ज्वाला से जल अवश्य जायगा, परन्तु मैं उसे पुनः जीवित कर दूंगा। नराधम ! उस समय तुम मेरे तप और सत्य का प्रभाव देख लेना।
व्यासजी कहने लगे_द्रोणपुत्र ! तुमने मेरी भी बात न मानकर ऐसा क्रूर कर्म किया है और ब्राह्मण होकर भी तुम्हारा आचरण ऐसा खोटा है इसलिये देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने जो बात कही है, वह अवश्य ठीक होगी, क्योंकि इस समय तुमने स्वधर्म को छोड़कर क्षात्रधर्म स्वीकार कर रखा है।
अश्वत्थामा बोला_ब्रह्मन् ! भगवान् कृष्ण की बात ठीक हो। अब मैं मनुष्यों में केवल आपके ही साथ रहूंगा।

Sunday, 16 June 2024

श्रीकृष्ण का अश्वत्थामा के संबंध में एक पूर्व प्रसंग सुनाना

वैशम्पायनजी कहते हैं_जन्मेजय ! भीमसेन के चले जाने पर यदुश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण ने धर्मराज से कह, 'राजन् ! आपके भाई भीमसेन पुत्र शोक के कारण अश्वत्थामा को संग्राम में मारने के लिये अकेले ही जा रहे थे। ये आपको अपने सब भाइयों से अधिक प्रिय हैं। फिर इस कठिनाई के समय आप उनकी सहायता का उद्योग क्यों नहीं करते ? आचार्य द्रोण ने अपने पुत्र को जिस ब्रह्मास्त्र की शिक्षा दी है, वह सारी पृथ्वी को भी भष्म कर सकता है। वहीं परमास्र उन्होंने प्रसन्न होकर अर्जुन को भी दिया है। अश्वत्थामा बड़ा असहनशील है। उसने तो अकेले अपने आप को ही इसे सिखाने की प्रार्थना की थी। आचार्य इसकी चपलता ताड़ गये थे और उन्होंने इसे आदेश दिया था कि 'भैया ! बहुत बड़ी आपत्ति में पड़ जाने पर भी तुम इसका प्रयोग मत करना। विशेषतः मनुष्यों पर तो तुम इसे छोड़ना ही मत; क्योंकि मैं देखता हूं तुम सत्पुरुषों के मार्ग पर स्थिर रहनेवाले नहीं हो।' पिता के ये वचन सुनकर दुरात्मा अश्वत्थामा सब प्रकार के सुख की आशा छोड़कर बड़े शोक से पृथ्वी पर विचरने लगा। एक बार जिस समय आप लोग वन में थे, वह द्वारका में आकर वृष्णिवंशियों के साथ रहा था और उन्होंने इसका बड़ा सत्कार किया था। एक दिन इसने एकान्त में मेरे पास अकेले ही आकर कहा, 'कृष्ण ! मेरे पिताजी ने बड़ी भीषण तपस्या करके अगस्त्य जी से जो ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया था, वह इस समय जैसा उनके पास है वैसा ही मेरे पास भी है। सो यदुश्रेष्ठ ! आप मुझसे वह दिव्य अस्त्र लेकर अपना चक्र मुझे दे दीजिये।'तब मैंने कहा, ' देखो ! ये मेरे धनुष, शक्ति, चक्कर और गंद पड़े हैं। तुम इनमें से जो_जो अस्त्र लेना चाहो, वहीं मैं तुम्हें देता हूं। तुम जिसे उठा सको और जिसका युद्ध में प्रयोग कर सको, वहीं अस्त्र ले लो और मुझे जो देना चाहते हो, वह भी मत दो।' तब इसने मेरे साथ स्पर्धा रखते हुए एक हजार अरोंवाला और वज्र के नाभिवाला मेरा लोहे का चक्र लेना चाहा। मैंने कहा_' ले लो।' इसने उछलकर बायें हाथ से ही उसे उठाने का प्रयत्न किया। किन्तु उस स्थान से उसे टस_से_मस भी नहीं कर सका। फिर उसने दायें हाथ से उठाने की चेष्टा करने लगा। किन्तु पूरा_पूरा प्रयत्न करने पर भी जब वह उसे उठाने और चलाने में समर्थ न हुआ तो अत्यंत उदास होकर हट गया।जब अपने उद्देश्य में असफल होकर यह निराश हो गया और इसे बहुत खेद हुआ तो मैंने पास बुलाकर कहा, 'जिसकी ध्वजा में वानर का चिन्ह सुशोभित है वह गाण्डीवधारी अर्जुन देवता और मनुष्य_सभी में सम्मानित है। उसने द्वन्द्वयुद्ध में देवाधिदेव नीलकंठ उमापति भगवान शंकर को भी संतुष्ट कर दिया था। उससे बढ़कर संसार में मुझे कोई भी पुरुष प्रिय नहीं है। किन्तु जैसा तुम कह रहे हो, वैसी बात तो कभी उसने भी मुंह से नहीं निकाली। मैंने बारह वर्ष तक कठोर ब्रह्मचर्य_व्रत का पालन करते हुए हिमालय में भीषण तपस्या करके यह अस्त्र पाया था। साक्षात् सनत्कुमारजी ही प्रद्युम्नरूप से मेरी सहधर्मिणी रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं।किन्तु जिस चक्र को तुम मांग रहे हो, उसे तो कभी उन्होंने भी नहीं मांगा। महाबली बलरामजी तथा गंद और साम्ब ने भी इसे लेने की इच्छा कभी प्रकट नहीं की। तुम भरतवंश के आचार्य द्रोण के पुत्र हो और सभी यादव तुम्हारा सम्मान करते हैं।क्षफिर इस चक्र को लेकर तुम किसके साथ युद्ध करना चाहते हो ? मैंने इस प्रकार कहा तो अश्वत्थामा कहने लग, 'कृष्ण ! मैं आपका पूजन करके फिर आपके ही साथ युद्ध करूंगा। भगवन् ! मैं सच कहता हूं, मैंने आपके इस देवता और दानवों से पूजित चक्र को इसलिये मांगा है जिससे मैं अजेय हो जाऊं। किन्तु  अब मैं अपनी दुर्लभ कामना को पूर्ण किये बिना ही यहां से चला जाऊंगा, आप केवल इतना कह दीजिये कि 'तेरा कल्याण हो'।  इस भयंकर चक्र को वीर शिरोमणि आपही ने धारण कर रखा है। इसके समान संसार में कोई दूसरा चक्र नहीं हैऔर इसे धारण करने की शक्ति भी आपके सिवा और किसी में नहीं है।' ऐसा कहकर अश्वत्थामा मुझसे रथ में जोतने योग्य घोड़े और तरह_तरह के रत्न लेकर चला गया। यह बड़ा क्रोधी, दुष्ट चंचल और क्रूर स्वभाववाला है तथा इसे ब्रह्मास्त्र का भी ज्ञान है। इसलिये इस समय भीमसेन की रक्षा करना बहुत आवश्यक है।

Wednesday, 29 May 2024

राजा युधिष्ठिर और द्रौपदी का मृत पुत्रों के लिये शोक तथा द्रौपदी की प्रेरणा से भीमसेन का अश्वत्थामा को मारने के लिये जाना

वैशम्पायनजी कहते हैं_वह रात बीतने पर धृष्टद्युम्न के सारथि ने राजा युधिष्ठिर को शिविर सोये हुए वीरों के संहार की सूचना दी। उसने कहा, 'महाराज ! महाराजा द्रुपद के पुत्रों सहित सब द्रौपदी पुत्र शिविर में निश्चिंत होकर बेखबर सोये हुए थे। वे सभी मार डाले गये। आज रात्रि में क्रूर कृतवर्मा, कृपाचार्य और पापी अश्वत्थामा ने आपके सारे शिविर को नष्ट कर डाला है।  इन्होंने प्रास, शक्ति और‌ फरसों से हजारों योद्धा तथा हाथी_घोड़े को काटकर आपकी सेना का संहार कर डाला है। कृतवर्मा कुछ व्यग्रचित्त था, इसलिये सारी सेना में से एक मैं ही किसी प्रकार बचकर निकल आया हूं।' सारथि की यह अमंगल वाणी सुनकर कुन्तिनन्दन युधिष्ठिर पुत्र शोक से व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय सात्यकि, भीमसेन, अर्जुन और नकुल_सहदेव ने उसे संभाला। चेत होने पर वे विलाप करते हुए कहने लगे, 'हाय ! हम तो शत्रुओं को जीत चुके थे, किन्तु आज उन्होंने हमें जीत लिया। हमने भाई, समवयस्क, पिता, पुत्र, मित्र, बंधु, मंत्री और पौत्रों की हत्या करके तो जय प्राप्त की; किन्तु इस प्रकार जीतकर भी आज हम जीत लिये गये। कभी_कभी अनर्थ अर्थ सा जान पड़ता है और अर्थ_सी दिखाई देनेवाली वस्तु अनर्थ के रूप में परिणत हो जाती है। इसी प्रकार हमारी यह विजय पराजय_सी हो गयी है और शत्रुओं की पराजय भी विजय_सी हो गयी। इस मनुष्य लोक में प्रमाद से बढ़कर मनुष्य की कोई और मृत्यु नहीं है। प्रमादी मनुष्य को अर्थ सब प्रकार त्याग देते हैं तथा उसे अनर्थ सब ओर से घेर लेते हैं। वह विद्या, तप, वैभव और यश किसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार कोई व्यापारियों का बेड़ा समुद्र को पार करके किसी छोटी_सी नदी में डूब जाय उसी प्रकार आज हमारे प्रमाद से ही ये इन्द्र के तुल्य राजाओं के पुत्र_पौत्र सहज ही में मारे गये हैं। शत्रुओं ने अधर्म वश जिसे सोते हुए ही मार डाला है वे तो नि:संदेह स्वर्ग सिधार गये हैं। परन्तु मुझे तो द्रौपदी की चिन्ता है; क्योंकि जिस समय वह अपने भाइयों, पुत्रों और बूढ़े पिता पांचालों द्रुपद की मृत्युओं का समाचार सुनेगी उस समय उनके शोकजनित दु:ख को कैसे सह सकेगी ? उसके हृदय में तो आग_सी लग जायगी।'इस प्रकार अत्यन्त दीनता से विलाप करते _करते वे नकुल से कहने लगे_'भैया ! तुम जाओ और मन्दभागिनि द्रौपदी को उसके मातृ पक्ष की स्त्रियों सहित यहां लिवा लाओ।' धर्मराज की आज्ञा पाकर नकुल रथ पर सवार हो उस डेरे की ओर गया जहां पांचालराज की महिलाएं और महारानी द्रौपदी थी। नकुल को भेजकर महाराज युधिष्ठिर शोकाकुल सुहृदों के सहित रोते_रोते उस स्थान पर गये जहां उनके पुत्र मरे पड़े थे। उस भीषण स्थान में पहुंचकर उन्होंने अपने खून में लथपथ सुहृदों और सखाओं को पृथ्वी पर पड़े देखा। उनके अंग_प्रत्यंग कटे हुए थे और बहुतों के सिर भी काट लिये गये थे। उन्हें देखकर महाराज युधिष्ठिर बहुत ही खिन्न हुए और फूट_फूटकर रोने लगे। अपने पुत्र, पौत्र और मित्रों को संग्राम में मरे देखकर वे अत्यंत दु:खातुर हो गये। उनके आंखों में आंसुओं की बाढ़ _सी आ गयी, शरीर कांपने लगा और बार_बार मूर्छा आने लगी। तब उनके सुहृदगण अत्यंत उदास होकर उन्हें धीरज बंधाने लगे। इसी समय शोकाकुल द्रौपदी को रथ में लेकर वहां नकुल पहुंचा। वह उपलव्य नामक स्थान में गयी हुई थी। जिस समय उसने अपने पुत्रों के मारे जाने का अशुभ समाचार सुना, वह तो बहुत ही दु:खी हुई। उसका मुख शोक से बिलकुल फीका पड़ गया और वह राजा युधिष्ठिर के पास पहुंचकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। द्रौपदी को गिरते देख महापराक्रमी भीमसेन ने लपककर अपनी दोनों भुजाओं में पकड़ लिया और उसे ढ़ाढ़स बंधाया। वह रो_रोकर राजा युधिष्ठिर से कहने लगी 'राजन् ! अपने वीर पुत्रों को क्षात्रधर्म के अनुसार मारा गया सुनकर आप तो उपलव्य नगर में मेरे साथ रहकर याद भी नहीं करेंगे। परन्तु पापी अश्वत्थामा ने उन्हें सोते हुए ही मार डाला_यह सुनकर मुझे तो उनका शोक आग की तरह जला रहा है। यदि आप आज ही साथियों के सहित उस पापी के जीवन का अंत नहीं कर देंगे और वह कुकर्म का फल नहीं पायेगा तो याद रखिये मैं यहीं आजीवन अनशन व्रत आरंभ कर दूंगी।' ऐसा कहकर यशस्विनी द्रौपदी महाराज युधिष्ठिर के समीप ही बैठ गयी। तब धर्मराज ने अपनी प्रिया को पास ही बैठे देखकर कहा, 'धर्मज्ञे ! तुम्हारे पुत्र और भाई धर्मपूर्वक युद्ध करके वीरगति को प्राप्त हुए हैं। तुम्हें उनके लिये शोक नहीं करना चाहिये। अश्वत्थामा तो यहां से बहुत दूर दुर्गम वन में चला गया है। उसे मार भी डाला जाय तो तुम्हें यह बात कैसे मालूम होगी ?द्रौपदी ने कहा_'राजन् ! मैंने सुना है कि अश्वत्थामा के सिर में जन्म के साथ उत्पन्न हुई एक मणि है। सो संग्राम में उस पापी का वध करके उस मणि को ले आना चाहिए। मेरा यही विचार है कि उसे आपके सिर पर धारण कराकर ही मैं जीवन धारण करूंगी। धर्मराज से ऐसा कहकर फिर द्रौपदी ने भीमसेन के पास आकर कहा, 'भीमसेन ! आप क्षात्रधर्म देखकर मेरी रक्षा करें। इन्द्र ने जैसे शम्बरासुर को मारा था, उसी प्रकार आप उस पापी का वध करें। यहां आपके समान पराक्रमी और कोई पुरुष नहीं है। वारणावत में जब पाण्डवों पर बड़ा संकट आ पड़ा था, तब आप ही ने इन्हें सहारा दिया था। हिडिम्बासुर से पाला पड़ने पर आपसी इनके रक्षक हुए थे। विराटनगर में जब कीचक ने मुझे बहुत तंग किया था, तब भी आपही ने मुझे उस दु:ख से उद्धार किया था। आपने जिस प्रकार ये बड़े _बड़े काम किये हैं, उसी प्रकार इस द्रोणपुत्र को मारकर भी प्रसन्न होइये। द्रौपदी का यह तरह_यरह का विलाप और भीषण दु:ख देखकर भीमसेन सह न पाये। वे अश्वत्थामा को मारने का निश्चय कर एक सुन्दर धनुष लेकर रथ पर सवार हो गये तथा नकुल को अपना सारथि बनाया। उन्होंने बाण चढ़ाकर धनुष की टंकार की और शीघ्र ही घोड़े को हंकवा दिया। छावनी से निकलकर उन्होंने अश्वत्थामा के रथ का चिह्न देखते हुए बड़ी तेजी से उसका पीछा किया।

Friday, 10 May 2024

अश्वत्थामादि का दुर्योधन को सब समाचार सुना तथा दुर्योधन की मृत्यु

संजय ने कहा_राजन् ! वे तीनों वीर संपूर्ण पांचालवीरों और द्रौपदी के पुत्रों को मारकर जहां राजा दुर्योधन मरणासन्न अवस्था में पड़ा था, उस स्थान पर आये। उन्होंने जाकर देखा तो इस समय उसमें कुछ ही प्राण शेष था। वह जैसे_तैसे अपने प्राण बचाये हुए था। उसके मुंह से रक्त का वमन होता था तथा उसे चारों ओर से अनेकों भेड़िये और दूसरे हिंसक जीव घेरे हुए थे। वे सब उसे चट कर जाना चाहते थे और वह बड़ी कठिनता से उन्हें रोक रहा था। इस समय उसे बड़ी ही वेदना हो रही थी। दुर्योधन को इस प्रकार अनुचित रीति से पृथ्वी पर पड़े देखकर उन तीनों वीरों को असह्य कष्ट हुआ और वे फूट_फूटकर रोने लगे। उन्होंने अपने हाथों से दुर्योधन के मुंह का खून पोंछा और फिर दीन होकर विलाप करने लगे। कृपाचार्य ने कहा_हाय ! विधाता के लिये कोई भी काम कठिन नहीं है। आज ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन इस प्रकार खून से लथपथ हुआ पृथ्वी पर पड़ा है। महलों में जिस प्रकार महारानी शयन करती थी, उसी प्रकार वह सोने के पत्थर से मढ़ी हुई गदा वीर दुर्योधन के साथ सोयी हुई है। काल की कुटिलता तो देखो_ जो शत्रुसूदन सम्राट किसी समय राजाओं के आगे_आगे चलता था, आज वही भूमि पर पड़ा धूल फांक रहा है। जिसके आगे सैकड़ों राजा लोग भय से सिर झुकाते थे, वही आज वीर शैय्या पर पड़ा हुआ है, पहलेजिसे अनेकों ब्राह्मण अर्थ प्राप्ति के लिये घेरे रहते थे, उसी को आज मांस के लोभ से मांसाहारी प्राणियों ने घेर रखा है। अश्वत्थामा बोला_राजश्रेष्ठ ! आपको समस्त धनुर्धरों में श्रेष्ठ कहा जाता था। आप साक्षात् भगवान संकर्षण के शिष्य और युद्ध में कुबेर के समान थे, तो भी भीमसेन को किस प्रकार आपपर प्रहार करने का अवसर मिल गया ? आप सब धर्मों के जाननेवाले हैं। क्षुद्र और पापी भीमसेन ने किस प्रकार आपको धोखे से घायल कर दिया ? अवश्य ही काल की गति से पार पाना कठिन है। भीमसेन ने आपको धर्मयुद्ध के लिये बुलाया था, फिर अधर्म पूर्वक गदा से आपकी जांघें तोड़ डालीं। इस प्रकार अधर्म से मारकर जब भीमसेन ने आपको ठुकराया, तब भी कृष्ण और युधिष्ठिर ने उस क्षुद्र से कुछ नहीं कहा ! धिक्कार है उन्हें ! भीम ने आपको कपट से गिराया है। इसलिए जबतक प्राणियों की स्थिति रहेगी, तब तक योद्धालोग उसकी निंदा ही करेंगें। महर्षियों ने क्षत्रियों के लिये जो उत्तम गति बतायी है, युद्ध में मारे जाने के कारण आपने वह प्राप्त कर ली है।
राजन् ! आपके लिये मुझे चिंता नहीं है; मुझे तो आपके पिता और माता गांधारी के लिये खेद है, जिनके सभी पुत्र काल के गाल में चले गये हैं। हाय ! अब वे भिखारी बनकर दर_दर भटकेंगे और हर समय उन्हें पुत्रों का शोक सताता रहेगा। वृष्णिवंशी कृष्ण और दुष्टबुद्धि अर्जुन को धिक्कार है जिन्होंने मारते समय कोई रोक_टोक नहीं की। ये निर्लज्ज पाण्डव भी किस प्रकार कहेंगे कि हमने ऐसे ऐसे दुर्योधन को मारा था।
गान्धारीनन्दन ! आप धन्य है जो युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। महारथी कृपाचार्य, कृतवर्मा और मुझे धिक्कार है, जो आप_जैसे महाराज के साथ स्वर्ग नहीं सिधार रहे हैं। हम जो आपका अनुकरण नहीं कर रहे हैं_इससे यही जान पड़ता है कि एक दिन आपके सुकृत्यों का स्मरण करते_करते हम यों ही मर जायेंगे, स्वर्ग या अर्थ _इनमें से कोई भी हमारे हाथ नहीं लगेगा। न जाने हमारा ऐसा कौन सा कर्म है, जो हमें आपका साथ देने से रोक रहा है। तब तो नि: संदेह हमें बड़े दु:ख से इस पृथ्वी पर अपने दिन काटने पड़ेंगे।राजन् ! आपके न रहने पर हमें शान्ति और सुख कैसे मिल सकते हैं ? आप स्वर्ग सिधार रहे हैं। वहां सब महारथियों से आपकी भेंट होगी ही। उन सबकी ज्येष्ठता और श्रेष्ठता के अनुसार आप मेरी ओर से पूजा करें। पहले आप समस्त धनुर्धरों के ध्वजआरूप आचार्य जी का पूजन करें और उन्हें सूचना दें कि आज अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को मार डाला है। फिर महाराज बाह्लीक, महारथी जयद्रथ, सोमदत्त, भूरिश्रवा तथा और भी जो_जो वीर पहले स्वग पहुंच चुके हैं, उनका मेरी ओर से आलिंगन करें और कुशल पूछें। राजन् ! यदि आपमें कुछ प्राणशक्ति मौजूद हो तो मेरी एक बात सुनिये। इससे आपके कानों को बड़ा आनन्द मिलेगा। अब पाण्डवों के पक्ष में वे पांचों भाई, श्रीकृष्ण और सात्यकि_ये सात वीर बचे हैं और मैं, कृतवर्मा और आचार्य कृप_ये तीन बाकी हैं। द्रौपदी के सब पुत्र, धृष्टद्युम्न के बच्चे तथा समस्त पांचाल और युद्ध से बचें हुए मत्स्य वीरों का सफाया कर दिया गया है। पाण्डवों को जो बदला चुकाया गया है, उसपर ध्यान दीजिये। अब उनके वे बच्चे भी मार दिये गये हैं। आज उनके शिविर में जितने योद्धा और हाथी_घोड़े थे, उन सभी को मैंने तहस_नहस कर दिया है। आज पापी धृष्टद्युम्न को मैंने पशु की तरह पीट_पीटकर मार डाला है। दुर्योधन ने जब अश्वत्थामा की यह मन को प्यारी लगने वाली बात सुनी तो उसे कुछ चेत हो गया और वह कहने लगा, 'भाई ! आज आचार्य कृप और कृतवर्मा के सहित जो काम तुमने किया है वह तो भीष्म, कर्ण और तुम्हारे पिताजी भी नहीं कर सके। तुमने शिखण्डी के सहित सेनापति धृष्टद्युम्न को मार डाला, इससे आज निश्चय ही मैं अपने को इन्द्र के समान समझता हूं। तुम्हारा भला हो, अब स्वर्ग में ही हमारी_तुम्हारी भेंट होगी। ऐसा कहकर मनस्वी दुर्योधन चुप हो गया और अपने सुहृदों को दुख में छोड़कर उसने अपने प्राण त्याग दिये। उसने स्वयं पुण्यधाम स्वर्गलोक में प्रवेश किया और उसका शरीर पृथ्वी पर पड़ा रहा। राजन् ! इस प्रकार आपके पुत्र दुर्योधन की मृत्यु हुई। वह रणांगण में सबसे पहले गया था और सबसे पीछे शत्रुओं द्वारा मारा गया‌। मरने के पहले दुर्योधन ने तीनों वीरों को गले लगाया और उन्होंने भी उनका आलिंगन किया। अश्वत्थामा के मुख से यह करुणाजनक संवाद सुनकर मैं शोकाकुल होकर दिन निकलते ही नगर में चला गया। इस प्रकार आपकी ही  खोटी सलाह से यह पांडवों और कौरवों का भीषण संहार हुआ है। आपके पुत्र का स्वर्गवास होने से मैं अत्यन्त शोकार्त हो गया हूं। अब व्यासजी की कृपा से प्राप्त मेरी दिव्यदृष्टि नष्ट हो गयी है। वैशम्पायनजी कहते हैं _राजन् ! महाराज धृतराष्ट्र इस प्रकार पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर एकदम चिंता में डूबा गये और लम्बे _लम्बे गर्म सांस लेने लगे।

Wednesday, 24 April 2024

अश्वत्थामा द्वारा पाण्डव और पांचाल वीरों का संहार

संजय कहते हैं_राजन् ! अब द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने शिविर में प्रवेश किया तथा कृपाचार्य और कृतवर्मा दरवाजे पर खड़े हो गये। उन्हें अपना साथ देने के लिए तैयार देखकर अश्वत्थामा को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उनसे धीरे-से कहा, 'आप दोनों यदि तैयार हो जायं तो सभी क्षत्रियों का संहार कर सकते हैं, फिर निद्रा में पड़े हुए इन बचे_खुचे योद्धाओं की तो बात ही क्या है ? मैं शिविर के भीतर जाऊंगा और काल के समान मार_काट मचा दूंगा। आप लोग ऐसा करें, जिससे कोई भी आपके हाथों से जीवित बचकर न जा सके।'ऐसा कहकर द्रोणपुत्र पाण्डवों के उस विशाल शिविर में द्वार से न जाकर बीच ही से घुस गया।उसे अपने लक्ष्य धृष्टद्युम्न के तंबू का पता था, इसलिये वह चुपचाप वहीं पहुंच गया। वहां उसने देखा कि सब योद्धा थक जाने के कारण अचेत होकर सोये पड़े हैं। उनके पास ही एक रेशमी शय्या पर उसे धृष्टद्युम्न सोता दिखाई दिया। तब अश्वत्थामा ने उसे पैर से ठुकराकर जगाया। पैर लगते ही रणोन्मत्त धृष्टद्युम्न जग पड़ा और महारथी अश्वत्थामा को आया देख ज्योंहि वह पलंग से उठने लगा कि उस वीर ने उसके बाल पकड़कर पृथ्वी पर पटक दिया।इस समय धृष्टद्युम्न भय और निद्रा से दबा हुआ था, साथ ही अश्वत्थामा ने उसे जोर की पटक भी लगायी थी; इसलिये वह निरुपाय हो गया। अश्वत्थामा ने उसकी छाती और गले पर दोनों घुटने टेक दिये। धृष्टद्युम्न बहुतेरा चिल्लाया और छटपटाया, किन्तु अश्वत्थामा उसे पशु की तरह पीटता रहा। अंत में उसने अश्वत्थामा को नखों से बकोटते हुए लड़खड़ाती जबान में कहा, 'आचार्यपुत्र ! व्यर्थ देरी मत करो, मुझे हथियार से मार डालो।' उसने इतना कहा ही था कि अश्वत्थामा ने उसे जोर से दबाया और उसकी अस्पष्ट वाणी सुनकर कहा, 'रे कुलकलंक ! अपने आचार्य की हत्या करनेवाले को पुण्य लोक नहीं मिल सकते। इसलिये तुझे शस्त्र से मारना उचित नहीं है।'ऐसा कहकर कुपित होकर उसने अपने पैरों की चोट से धृष्टद्युम्न के मर्मस्थानों पर प्रहार किया। इस समय धृष्टद्युम्न की चइल्लआहट से घर की स्त्रियां और रखवाले भी जग पड़े। उन्होंने एक अलौकिक पराक्रम वाले पुरुष को प्रहार करते देखकर उसे कोई भूत समझा। इसलिये भय के कारण उनमें से कोई भी बोल न सका।अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को इसी प्रकार पशु की तरह पीट_पीटकर मार डाला। इसके बाद वह उस तंबू से बाहर आया और रथ पर चढ़कर सारी छावनी में चक्कर लगाने लगा। पांचाल राज धृष्टद्युम्न को मरा देखकर उसकी रानियां और रखवाले शोकाकुल होकर विलाप करने लगे। उनके कोलाहल से आसपास के क्षत्रिय वीर चौंककर कहने लगे, 'क्या हुआ ?' क्या हुआ ?' तब स्त्रियों ने बड़ी दीन वाणी से कहा, 'अरे ! जल्दी दौड़ो ! जल्दी दौड़ो! हमारी तो समझ में नहीं आता यह कोई राक्षस है या मनुष्य है। देखो, इसने पांचाल राज को मार डाला और अब इधर_उधर घूम रहा है।' यह सुनकर उन योद्धाओं ने एक साथ अश्वत्थामा को घेर लिया। किन्तु पास आते ही अश्वत्थामा ने उन्हें रुद्रास्त्र से मार डाला।इसके बाद उसने बराबर के तंबू में उत्तमौजा को पलंग पर सोते देखा। उसके भी कंठ और छाती को उसने पैरों से दबा लिया। उत्तमौजा चिल्लाने लगा किन्तु अश्वत्थामा ने उसे पशु की तरह पीट_पीटकर मार डाला। युधामन्यु ने समझा कि उत्तमौजा को किसी राक्षस ने मारा है। इसलिये वह गदा लेकर दौड़ा और उससे अश्वत्थामा की छाती पर चोट की। अश्वत्थामा ने लपककर उसे पकड़ लिया और फिर पृथ्वी पर पटक दिया। युधामन्यु ने छूटने के लिये बहुतेरे हाथ_पैर पटके, किन्तु अश्वत्थामा ने उसे भी पशु की तरह मार डाला।
इसी प्रकार उसने नींद में पड़े हुए अन्य महारथियों पर भी आक्रमण किया। वे सब भय से कांपने लगे , किन्तु अश्वत्थामा ने उन सभी को तलवार से मौत के घाट उतार दिया। शिविर के विभिन्न भागों में उसने मध्यम श्रेणी के सैनिकों को भी निद्रा में बेहोश देखा और उन सबको भी एक क्षण में ही तलवार से तहस_नहस कर डाला। इसी तरह अनेकों योद्धा, घोड़े और हाथियों को उस तलवार की भेंट चढ़ा दिया। इससे उसका सारा शरीर खून में लथपथ हो गया और वह साक्षात् काल के समान दिखाई देने लगा। उस समय जिन योद्धाओं की नींद टूटती थी, वे ही अश्वत्थामा का शब्द सुनकर भौंचक्के_से रह जाते थे और उसे राक्षस समझकर आंख मूंद लेते थे। इस प्रकार भयंकर रूप धारण किये वह सारी छावनी में चक्कर लगा रहा था। जब द्रोपदी के पुत्रों ने धृष्टद्युम्न के मारे जाने का समाचार सुना तो वे निर्भय होकर अश्वत्थामा पर बाण बरसाने लगे। अश्वत्थामा अपनी दिव्य तलवार लेकर उनपर टूट पड़ा और उससे प्रतिविन्ध्य की कोख फाड़ डाली। इससे वह प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सुतसोम ने पहले तो प्रस से चोट की। फिर वह भी तलवार लेकर द्रोणपुत्र की ओर चला। अश्वत्थामा ने तलवार के सहित उसकी वह भुजा काट डाली। और फिर उसकी पहली पर प्रहार किया। इससे हृदय फट जाने के कारण वह पृथ्वी पर गिर गया। इसी समय नकुल के पुत्र शतआनईक ने एक रथ का पहिया उठाकर बड़े जोर से अश्वत्थामा की छाती पर मारा। अश्वत्थामा ने भी तुरंत ही उसपर चोट की। उससे वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर अश्वत्थामा ने उसका सिर काट डाला। अब श्रुतशर्मा परिघ लेकर अश्वत्थामा की ओर चला और उसके बायें गाल पर चोट की। किन्तु अश्वत्थामा ने अपनी तीखी तलवार से उसके मुंह पर ऐसा वार किया कि जिससे उसका चेहरा बिगड़ गया और वह बेहोश होकर पृथ्वी पर जा पड़ा। उसका शब्द सुनकर महारथी श्रुतकीर्ति अश्वत्थामा के सामने आया और उसपर बाणों की वर्षा करने लगा। किन्तु अश्वत्थामा के सामने आया और उसपर बाणों की वर्षा करने लगा। किन्तु अश्वत्थामा ने उसकी बाणवर्षा को ढाल पर रोक लिया और उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद उसने तरह_तरह के शस्त्रों से शिखण्डी और प्रभद्रक वीरों को मारना आरम्भ किया। उसने एक वाण से शिखण्डी की भृकुटियों के बीच में चोट की और फिर पास जाकर तलवार के एक ही हाथ से उसके दो टुकड़े कर दिये। इस प्रकार शिखण्डी को मारकर वह अत्यन्त क्रोध में भर गया और बड़े वेग से प्रभद्रकों पर टूट पड़ा। राजा विराट की जो कुछ सेना बची थी, उसे उसने एकदम कुचल डाला तथा राजा द्रुपद के पुत्र, पौत्र और सम्बन्धियों को खोज_खोजकर मौत के घाट उतार दिया। अश्वत्थामा का सिंहनाद सुनकर पाण्डवों की सेना में सैकड़ों_हजारों वीर जाग पड़े। उसने उनमें से किसी के पैर, किसी की जांघें और किसी की पसलियां काट डालीं। उन सभी को बहुत अधिक कुचल दिया गया था, इससे वे भयानक चित्कार कर रहे थे। इसी प्रकार घोड़े और हाथियों के बिगड़ जाने से भी अनेकों योद्धा पिस गये थे। उन सभी के लोगों से सारी रणभूमि पट गयी थी। घायल वीर 'यह क्या है ? कौन है ? किसका शब्द है? यह क्या कर डाला ?' इस प्रकार चिल्ला रहे थे। उनके लिये अश्वत्थामा प्राणान्तक काल के समान हो रहा था। पाण्डव और संजय वीरों में जो शस्त्र और कवचों से रहित थे और जिन्होंने कवच धारण कर लिये थे, उन सभी को अश्वत्थामा ने यमलोक भेज दिया। जो लोग नींद के कारण अंधे और अचेत_से हो रहे थे, वे उसके शब्द से चौंककर उछल पड़े, किन्तु फिर भयभीत होकर जहां_तहां छिप गये। डर के मारे उनकी घिग्घी बंध गयी और वे एक_दूसरे से लिपटकर बैठ गये। इसके बाद अश्वत्थामा फिर अपने रथ पर सवार हुआ और हाथ में धनुष लेकर दूसरे योद्धाओं को यमराज के हवाले कर दिया। फिर वह हाथ में ढाल तलवार लेकर उस सारी छावनी में चक्कर लगाने लगा। अश्वत्थामा का सिंहनाद सुनकर योद्धालोग चौंक पड़ते थे; किन्तु निद्रा और भय से व्याकुल होने के कारण अचेत_से होकर इधर_उधर भाग जाते थे। उनमें से कोई बुरी तरह चिल्लाने लगते थे और कोई अनेकों उटपटांग बातें करने लगते थे। उनके बाल बिखरे हुए थे। इसलिए आपस में एक_दूसरे को पहचान भी नहीं पाते थे। कोई इधर_उधर भागने में थककर गिर गये थे। किन्हीं को चक्कर आ रहा था। किन्हीं का मल_मूत्र निकल गया था। हाथी और घोड़े रस्से तुड़ाकर सब ओर गड़बड़ी करते दौड़ रहे थे। कोई डर के मारे पृथ्वी पर पड़कर छिप रहते थे; किन्तु हाथी_घोड़े उन्हें पैरों से खूंद डालते थे। इस प्रकार बड़ी ही गड़बड़ी मची हुई थी। लोगों के इधर_उधर दौड़ने से बड़ी धूल छा गयी, जिससे उस रात्रि के समय शिविर में दूना अंधकार हो गया। उस समय पिता पुत्रों को और भाई भाइयों को नहीं पहचान पाते थे। हाथी हाथियों पर और बिना सवार के घोड़े घोड़ों पर टूट पड़े तथा एक_दूसरे पर चोटें करते घायल होकर पृथ्वी पर लोटने लगे। बहुत_से लोग निद्रा में अचेत पड़े थे, वे अंधेरे में उठकर आपस में ही आघात करके एक_दूसरे को गिराने लगे। दैववश उनकी बुद्धि नष्ट हो गयी थी। 'हा तात ! हा पुत्र !' इस प्रकार चिल्लाते हुए अपने बन्धु_बान्धवों को छोड़कर इधर_उधर भागने लगे। बहुत से तो हाय_हाय करके पृथ्वी पर गिर गये। अनेकों वीर यन्त्र और कवचों के बिना ही शिविर से बाहर जाना चाहते थे। उनके बाल खुले हुए थे और वे हाथ जोड़े भय से थर_थर कांप रहे थे; तो भी कृपाचार्य और कृतवर्मा ने शिविर से बाहर निकलने पर किसी को जीवित नहीं छोड़ा। इन दोनों ने अश्वत्थामा को प्रसन्न करने के लिये शिविर के तीन ओर आग लगा दी। इससे सारी छावनी में उजाला हो गया और उसकी सहायता से अश्वत्थामा हाथ में तलवार लेकर सब ओर घूमने लगा। इस समय उसने अपने सामने आनेवाले और पीठ दिखाकर भागनेवाले दोनों ही प्रकार के योद्धाओं को तलवार से मौत के घाट उतार दिया। किन्हीं किन्ही को उसने तिल के पौधे के समान बीच ही से दो करके गिरा दिया। इसी प्रकार उसने किन्हीं के शस्त्रसहित भुजदण्डों को, किन्हीं के सिरों को, किन्हीं की जंघाओं को, किन्हीं के पैरों को, किन्हीं के पीठ को और किन्हीं की पसलियों को तलवार से उड़ा दिया। इसी प्रकार उसने किसी का मुंह फेर दिया, किसी को कर्णहीन कर डाला, किन्हीं के कंधे पर चोट करके उनका सिर शरीर में घुसेड़ दिया। इस प्रकार वह अनेकों वीरों का संहार करता शिविर में घूमने लगा। उस समय अंधकार के कारण रात बड़ी भयावनी हो रही थी। हजारों मरे और अधमरे मनुष्यों से तथा अनेकों हाथी_घोड़े से पटी हुई पृथ्वी को देखकर हृदय कांप उठता था। 
लोग हाहाकार करते हुए आपस में कह रहे थे, 'भाई ! आज पाण्डवों के पास न रहने से ही हमारी यह दुर्गति हुई है। अर्जुन को तो असुर, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस _कोई भी नहीं जीत सकता; क्योंकि साक्षात् श्रीकृष्ण उनके रक्षक हैं।' दो घड़ी के बाद वह सारा कोलाहल शान्त हो गया। सारी भूमि खून से तह हो गयी थी। इसलिए एक क्षण में ही वह भयानक धूल दब गयी। अश्वत्थामा ने क्रोध में भरकर ऐसे हजारों वीरों को मार डाला, जो किसी प्रकार प्राण बचाने के प्रयत्न में लगे हुए थे, घबराये हुए थे और जिनमें तनिक भी उत्साह नहीं था। जो एक_दूसरे से लिपटकर पड़ गये थे, शिविर छोड़कर भाग रहे थे, छिपे हुए थे अथवा किसी प्रकार लड़ रहे थे उनमें से भी किसी को उसने जीवित नहीं छोड़ा। जो लोग आग में झुलसे जाते थे और आपस में ही मार_काट कर रहे थे, उन्हें भी उसने यमराज के हवाले कर दिया। राजन् ! इस प्रकार उस आधीरात के समय द्रोणपुत्र ने पाण्डवों की उस विशाल सेना को बात_की_बात में यमलोक पहुंचा दिया। पौ फटते ही अश्वत्थामा ने शिविर से बाहर आने का विचार किया। उस समय नर रक्त से सुनकर वह तलवार इस प्रकार उसके हाथ से चिपक गयी मानो वह उसी का एक अंग हो। इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वह कठोर कर्म करके अश्वत्थामा पिता के ऋण से मुक्त होकर निश्चिंत हो गया। वह छावनी से बाहर आया और कृपाचार्य और कृतवर्मा से मिलकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अपनी सारी करतूत सुनाकर आनंदित हुआ। वे भी अश्वत्थामा का ही प्रिय करने में लगे हुए थे। अतः उन्होंने भी यह सुनकर कि हमने यहां रहकर हजारों पांचाल एवं संजय वीरों का संहार किया है, उसे प्रसन्न किया।
राजा धृतराष्ट्र पूछते हैं_संजय ! अश्वत्थामा तो मेरे पुत्र के विजय के लिये ही कमर कसे हुए था। फिर उसने ऐसा महान् कर्म पहले क्यों नहीं किया ?
संजय ने कहा_राजन् ! अश्वत्थामा को पाण्डव, श्रीकृष्ण और सात्यकि से खटका रहता था। इसी से वह अबतक ऐसा नहीं कर सका। इस समय इनके पास न रहने से ही उसने कर्म कर डाला। इसके बाद अश्वत्थामा ने आचार्य कृप और कृतवर्मा को गले लगाया और उन्होंने उसका अभिनन्दन किया। फिर उसने हर्ष में भरकर कहा, 'मैंने समस्त पांचालों को, द्रौपदी के पांचों पुत्रों को और संग्राम में बचे हुए सभी मत्स्य एवं सओमक वीरों को नष्ट कर डाला है। अब हमारा काम पूरा हो गया। इसलिये जहां राजा दुर्योधन है, वहीं चलना चाहिये। यदि वे जीवित हैं तो उन्हें भी यह समाचार सुना दिया जाय।'





Saturday, 30 March 2024

अश्वत्थामा का श्रीमहादेवजी पर प्रहार, उसका प्रभाव और फिर आत्मसमर्पण करके उनसे खड्ग प्राप्त करना

संजय कहते हैं _महाराज ! कृपाचार्य जी से ऐसा कहकर द्रोणपुत्र अकेला ही अपने घोड़ों को जोतकर शत्रुओं पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगा। तब उससे कृपाचार्य और कृतवर्मा ने पूछा, 'तुम रथ किसलिये तैयार कर रहे हो, तुम्हारा क्या करने का विचार है ? हम भी तो तुम्हारे साथ ही हैं और सुख_दु:ख में तुम्हारे साथ ही रहेंगे।'यह सुनकर अश्वत्थामा ने जो कुछ वह करना चाहता था उन्हें साफ_साफ सुना दिया। वह बोला, 'धृष्टधुम्न ने मेरे पिताजी को उस स्थिति में मारा था, जब उन्होंने अपने शस्त्र रख दिये थे। अतः आज उस पापी पांचाल पुत्र को मैं भी उसी तरह पाप कर्म करके कवचहीन अवस्था में मारूंगा। मेरा यही विचार है कि उसे शस्त्रों द्वारा प्राप्त होने वाले लोक नहीं मिलने चाहिये। आप दोनों भी जल्दी ही कवच धारण कर लें, खड्ग तथा धनुष लेकर तैयार हो जायं और मेरे साथ रहकर अवसर की प्रतीक्षा करें।' ऐसा कहकर अश्वत्थामा रथ पर सवार हुआ और शत्रुओं की ओर चल दिया। उसके पीछे-पीछे कृपाचार्य और कृतवर्मा भी चले। वह रात्रि में ही, जबकि सब लोग सोये हुए थे, पाण्डवों के शिविर में पहुंचा और उसके द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। वहां उसने चन्द्रमा और सूर्य के समान तेजस्वी एक विशालकाय पुरुष को दरवाजे पर खड़ा देखा। उस महापुरुष को देखकर शरीर में रोमांच हो जाता था। वह व्याघ्रचर्म धारण किये था, ऊपर से मृगचर्म ओढ़े था तथा सर्पों का यज्ञोपवीत पहने हुए था। उसकी विशाल भुजाओं  में तरह_तरह के शस्त्र सुशोभित थे, बाजूबंदों के स्थान में तरह_तरह के सर्प बंधे हुए थे तथा मुख से अग्नि की ज्वालाएं निकल रही थीं। उसके मुख, नाक, कान और हजारों नेत्रों से भी बड़ी_बड़ी लपटें निकल रही थीं। उसके तेज की किरणों से शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले सैकड़ों _हजारों विष्णु प्रकट हो जाते थे। समस्त लोकों को भयभीत करनेवाले उस अद्भुत पुरुष को देखकर भी अश्वत्थामा घबराया नहीं, बल्कि उसपर अनेकों दिव्य अस्त्रों की वर्षा_सी करने लगा। वह देव अश्वत्थामा के छोड़े हुए समस्त शस्त्रों को निगल गया। यह देखकर उसने एक अग्नि के समान देदीप्यमान रथशक्ति छोड़ी। परन्तु वह भी उससे टकराकर टूट गयी। तब अश्वत्थामा ने उसपर एक चमचमाती हुई तलवार चलायी। वह भी उसके शरीर में लीन हो गयी। इसपर उसने कुपित होकर एक गदा छोड़ी, किन्तु वह उसे भी लील गया। इस प्रकार जब अश्वत्थामा के सब शस्त्र समाप्त हो गये तो उसने इधर_उधर दृष्टि डाली। इस समय उसने देखा कि सारा आकाश वइष्णउओं से भरा हुआ है। शस्त्रहीन अश्वत्थामा यह अत्यंत अद्भुत दृश्य देखकर बड़ा ही दु:खी हुआ और आचार्य कृकप के वचन याद करके कहने लगा, जो पुरुष अप्रिय किन्तु हित की बात कहने वाले अपने सुहृदों की सीख नहीं सुनता, वह मेरी ही तरह आपत्ति में पड़कर शोक करता है । जो मूर्ख शास्त्र जाननेवालों की बात का तिरस्कार करके युद्ध में प्रवृत होता है, वह धर्म मार्ग से भ्रष्ट होकर कुमार्ग में जाने से उल्टे मुंह की खाता है। मनुष्य को गौ, ब्राह्मण, राजा, स्त्री, मित्र, माता, गुरु, दुर्बल, मूर्ख, कन्धे, सोये हुए, डरे हुए, नींद से उठे हुए, मतवाले, उन्मत्त और असावधान पुरुषों पर हथियार नहीं चलाना चाहिये। गुरुजनों ने पहले ही से सब पुरुषों को ऐसी शिक्षा दे रखी है। किन्तु मैं उस शास्त्रीय सनातन मार्ग का उल्लंघन करके उल्टे रास्ते से चलने लगा था। इसी से इस घोर आपत्ति में पड़ गया हूं। जब मनुष्य किसी काम को आरम्भ करके भय के कारण उसे बीच में ही छोड़ देता है तो बुद्धिमान लोग इसे उसकी मूर्खता ही कहते हैं। इस समय इस काम को करते हुए मेरे आगे भी ऐसा ही भय उपस्थित हो गया है। यों तो द्रोणपुत्र किसी प्रकार युद्ध से पीछे हटने वाला नहीं है। परन्तु यह महआभूत तो मेरे आगे विधाता के दण्ड के समान आकर खड़ा हो गया है। मैं बहुत सोचने पर भी इसे कुछ समझ नहीं पाता हूं। निश्चय ही मेरी बुद्धि जो अधर्म से कलुषित हो गयी है, उसका दमन करने के लिये ही यह भयंकर परिणाम सामने आया है। नि:संदेह इस समय मुझे जो युद्ध से हटना पड़ रहा है वह दैव का ही विधान है। सचमुच दैव की अनुकूलता के बिना आरम्भ किया हुआ मनुष्य का कोई भी काम सफल नहीं हो सकता। अतः: अब मैं भगवान शंकर की शरण लेता हूं, जो जटाजूटधारी, देवताओं के भी वंदनीय, उमापति, सर्वपापापहारी और त्रिशूल धारण करनेवाले हैं, वे ही इस भयानक दैवी विघ्न को नष्ट करेंगे।' ऐसा सोचकर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा रथ से उतर पड़ा और देवाधिदेव श्रीमहादेवजी के शरणागत होकर इस प्रकार स्तुति करने लगा, 'आप उग्र हैं, अचल हैं, करुणामय है, रुद्र हैं, शर्व हैं, सकल विद्याओं के अधीश्वर हैं, परमेश्वर हैं, पर्वत पर शयन करनेवाले हैं, वरदायक हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, वरदायक हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, देव हैं, संसार को उत्पन्न करनेवाले हैं, जगदीश्वर हैं, नीलकंठ हैं, अजन्मा हैं, शुक्र हैं, दक्ष यज्ञ का विनाश करनेवाले हैं, सर्वसंहारक हैं, विश्वरूप हैं, भयानक नेत्रों वाले हैं, बहुरूप हैं, उमापति हैं, श्मशान में निवास करनेवाले हैं, गर्वीले हैं, महान् गणाध्यक्ष हैं, व्यापक हैं, खड्गवान् धारण करनेवाले हैं। आप रुद्र नाम से प्रसिद्ध हैं, आपके मस्तक पर जटा सुशोभित है, आप ब्रह्मचारी हैं और त्रिपुरासुर का वध करनेवाले हैं। मैं अत्यन्त शुद्ध हृदय से आत्मसमर्पण करके आपका यजन करता हूं। सभी ने आपकी स्तुति की है, सभी के आप स्तुत्य हैं और सभी आपकी स्तुति करते हैं। आप भक्तों के सभी संकल्पों को पूर्ण करनेवाले हैं, गजराज के चर्म से सुशोभित हैं, रक्तवर्ण हैं, नीलग्रीव हैं, असह्य हैं, शत्रुओं के लिये दुर्जय हैं, इन्द्र और ब्रह्मा की भी रचना करनेवाले हैं, साक्षात् परमब्रह्म हैं, व्रतधारी हैं, तपोनिष्ठ हैं, अनन्त है । तपस्वियों के आश्रय हैं, अनेक रूप हैं, गणपति हैं, त्रिनयन हैं, अपने पार्षदों के प्रिय हैं, धनेश्वर हैं, पृथ्वी के मुखस्वरूप हैं, पार्वती जी के प्राणेश्वर हैं, स्वामि कार्तिकेय के पिता है, पीत वर्ण हैं, वृषवाहना हैं, दिगम्बर हैं। आपका वेष बड़ा ही उग्र है; आप पार्वती जी को विभूषित करने में तत्पर हैं, ब्रह्मादि से श्रेष्ठ हैं, परात्पर हैं तथा आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं हैं।आप उत्तम धनुष धारण करनेवाले हैं, संपूर्ण दिशाओं की अन्तिम सीमा हैं, सब देशों के रक्षक हैं, सउवर्णमय कवच धारण करनेवाले हैं, आपका स्वरूप दिव्य है तथा आप अपने मस्तक पर आभूषण के रूप में चन्द्रकला को धारण करनेवाले हैं, मैं अत्यन्त समाहित होकर आपकी शरण लेता हूं। यदि आज मैं इस दुस्तर आपत्ति के पार हो गया तो समस्त भूतों के संघआतरूप इस शरीर की बलि देकर आपका यजन करूंगा।' इस प्रकार अश्वत्थामा का दृढ़ निश्चय देखकर उसके सामने एक सुवर्णमय वेदी प्रकट हुई। उस वेदी में अग्नि प्रज्वलित हो गयी। उससे बहुत _से गुण प्रकट हुए। उनके मुख और नेत्र देदीप्यमान थे; वे अनेकों सिर पैर और हाथों वाले थे; उनकी भुजाओं में तरह_तरह के रत्न जटित आभूषण सुशोभित थे तथा वे ऊपर की ओर हाथ उठाये हुए थे। उनके शरीर द्वीप और पर्वतों के समान विशाल थे, वे सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्रों के सहित संपूर्ण ध्यउलओक को धराशायी करने की शक्ति रखते थे तथा उनमें जरायुज, अंडज, स्वेदज और उद्भिज_चारों प्रकार के प्राणियों का संहार करने की शक्ति थी। उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं था, वे इच्छानुसार आचरण करनेवाले थे तथा तीनों लोकों के ईश्वरों के भी ईश्वर थे। वे सर्वदा आनन्द मग्न रहते थे, वाणी के अधीश्वर थे मत्सरहीन थे तथा ऐश्वर्य पाकर भी उन्हें अभिमान नहीं था। उनके अद्भुत कर्मों से सर्वदा भगवान् शंकर भी चकित रहते थे तथा वे मन, वाणी और कर्मों द्वारा सर्वदा अपने पुत्रों के समान उनकी रक्षा करते थे। ये सब भूत बड़े ही भयंकर थे। इनको देखने से तीनों लोक भयभीत हो सकते थे। तथापि महाबली अश्वत्थामा इन्हें देखकर डरा नहीं। अब उसने स्वयं अपने आप को ही बलिरूप से समर्पित करना चाहा।
इस कर्म को सम्पन्न करने के लिये उसने धनुष को समिधा, बाणों को दर्भ और अपने शरीर को ही हवि बनाया। उसने सोमदेवता का मंत्र पढ़ कर अग्नि में अपनी आहुति देनी चाही। उस समय वह हाथ जोड़कर भगवान् रुद्र की इस प्रकार स्तुति करने लगा, 'विश्वात्मन् ! इस आपत्ति के समय आपके प्रति अत्यन्त भक्तिभाव से समाहित होकर यह भेंट समर्पण करता हूं। आप इसे स्वीकार कीजिये। समस्त भूत आपमें स्थित है, आप संपूर्ण भूतों में स्थित हैं तथा आपसी में मुख्य _मुख्य गुणों की एकता होती है। विभो ! आप समस्त भूतों के आश्रय हैं; यदि इन शत्रुओं का पराभव मेरे द्वारा नहीं हो सकता तो आप हविष्यरूप से अर्पण किये हुए इस शरीर को स्वीकार कीजिये।' द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ऐसा कह उस अग्नि से देदीप्यमान वेदी पर चढ़ गया और अपने प्राणों का मोह छोड़कर आगे के बीच में आसन लगाकर बैठ गया। उसे हवइरूप से ऊध्वर्बाहु होकर निष्चेष्ट बैठे देखकर भगवान् शंकर ने हंसकर कहा, 'श्रीकृष्ण ने सत्य, शौच, सरलता, त्याग, तपस्या, नियम, क्षमा, भक्ति, धैर्य, बुद्धि और वाणी के द्वारा मेरी यथोचित अराधना की है। इसलिये उनसे बढ़कर मुझे कोई भी प्रिय नहीं है। पांचालों की रक्षा करके भी मैंने उन्हीं का सम्मान किया है; किन्तु कारणवश अब ये निस्तेज हो गये हैं, अब इनका जीवन शेष नहीं है।' ऐसा कहकर भगवान् शंकर ने अश्वत्थामा को एक तेज तलवार दी और अपने_आप को उसी के शरीर में लीन कर दिया। इस प्रकार उनसे अवशिष्ट होकर अश्वत्थामा अत्यन्त तेजस्वी हो गया।

Tuesday, 12 March 2024

कृपाचार्य और अश्वत्थामा का संवाद


तब कृपाचार्य ने कहा_महाबाहो ! तुमने जो बात कहीं, वह मैंने सुन ली; अब कुछ मेरी भी बात सुन लो। सभी मनुष्य दैव और पुरुषार्थ_दो प्रकार के कर्मों से बंधे हुए हैं। इन दो के सिवा और कुछ नहीं है। अकेले दैव या पुरुषार्थ से कार्यसिद्धि नहीं होती। सफलता के लिये दोनों का सहयोग आवश्यक है। इन दोनों में दैव ही फल का निश्चय करके स्वयं उसे देने के लिये प्रवृत होता है, तो भी बुद्धिमान लोग कुशलतापूर्वक पुरुषार्थ में लगे रहते हैं। मनुष्यों के संपूर्ण कार्य और प्रयोजन इन्हीं दोनों से सिद्ध हो जाते हैं।उनके किये हुए पुरुषार्थ की सिद्धि भी दैव के ही अधीन है और दैव की अनुकूलता से ही उन्हें फल की प्राप्ति होती है। कार्यकुशल मनुष्य दैव के अनुकूल न होने पर जो कार्य में हाथ लेते हैं, बहुत सावधानी से करने पर भी उसका कोई फल नहीं होता। इसके विपरीत जो लोग आलसी और अमनस्वी होते हैं, उन्हें तो किसी काम को आरम्भ करना ही अच्छा नहीं लगता। किन्तु बुद्धिमानों को यह बात नहीं रुचती; क्योंकि संसार में कोई भी कर्म प्रायः निष्फल नहीं देखा जाता, परंतु कर्म न करने पर तो दु:ख ही दिखायी देता है।जो प्रयत्न न करने पर भी दैव योग से ही सब प्रकार के फल प्राप्त कर लेते हैं अथवा जिन्हें चेष्टा करने पर भी कोई फल न मिलता_ऐसे लोग तो विरले ही होते हैं।तथापि तत्परता पूर्वक कार्य में लगे हुए मनुष्य आनंद से जीवन व्यतीत कर सकते हैं और आलसियों को कभी सुख नहीं मिलता। इस जीवनलोक में प्रायः तत्परता के साथ कर्म करनेवाले ही अपना हित साधन करते देखे जाते हैं।यदि उन्हें कार्य आरम्भ करने पर भी कोई फल नहीं मिलता तो उनकी किसी प्रकार से निंदा नहीं की जा सकती। परन्तु जो बिना कुछ किये ही फल पा लेता है, उसकी लोक में निंदा होती है और प्रायः लोग उससे द्वेष करने लगते हैं।इस प्रकार जो पुरुष दैव और पुरुषार्थ दोनों के सहयोग को न मानकर केवल दैव या पुरुषार्थ के भरोसे ही पड़ा रहता है, वह अपना अनर्थ ही करता है_यही बुद्धिमानों का निश्चय है।बार बार उद्योग करने पर भी जो फल नहीं मिलता, उसमें पुरुषार्थ की न्यूनता और दैव_ये दो कारण हैं। परन्तु पुरुषार्थ न करने पर तो कोई कर्म सिद्ध हो ही नहीं सकता। अतः: जो पुरुष वृद्धों की सेवा करता है, उनसे अपने कल्याण का साधन पूछता है और उनके बताये हुए हितकारी वचनों का पालन करता है, उसका यह आचरण ठीक माना जाता है। कार्य का आरम्भ कर देने पर वृद्धजनों द्वारा सम्मानित पुरुषों से बार_बार सलाह लेनी चाहिये।कार्य की सफलता में वे परम कारण माने जाते हैं तथा सिद्धि उन्हीं के आश्रित कहीं जाती है। जो पुरुष वृद्धों की बात सुनकर कार्य आरम्भ करता है, उसे अपने कार्य का फल बहुत जल्द प्राप्त हो जाता है। किन्तु जो पुरुष राग, क्रोध, भय या लोभ से किसी कार्य में प्रवृत होता है वह उसमें सफलता पाने में असमर्थ रहता है और तुरंत ही ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है। दुर्योधन भी लोभी और ओछी बुद्धि का पुरुष था। उसने असमर्थ होने पर भी मूर्खता के कारण बिना विचार किये अपने हितैषियों का अनादर करके दुष्टजनों की सलाह से यह कार्य आरम्भ किया था।पाण्डव_लोग गुणों में उससे बढ़े_चढ़े थे, तथापि बहुत रोकने पर भी उसने उससे वैर ठाना।वह पहले से भी बड़ा दुष्ट स्वभाव का था इसलिये धीरज धारण न कर सका और न उसने अपने मित्रों की ही बात सुनी। इसी से अपने प्रयास में विफल होकर उसे पश्चाताप करना पड़ा।हमलोगों ने उस पापी का पक्ष लिया था इसलिये हमें भी यह महान् अनर्थ भोगना पड़ा। मैं बहुत सोचता हूं, तथापि इस कष्ट से संतप्त होने के कारण मेरी बुद्धि को तो आज भी कोई हित की बात नहीं सूझती। मनुष्य स्वयं जब हिताहित का विचार करने में असमर्थ हो जाय तो अपने सुहृदों से सलाह लेनी चाहिये।वहीं इसे बुद्धि और विनय की प्राप्ति हो सकती है और वहीं इसे अपने हित का साधन भी मिल सकता है। पूछने पर वे लोग जैसी सलाह दें, वही इसे करना चाहिए।
अतः हमलोगों को राजा धृतराष्ट्र, गान्धारी और महामणि विदुर जी से मिलकर सलाह लें और हमारे पूछने पर जैसा वे कहें, वही हम करें_मेरी बुद्धि तो यही निश्चय करती है। यह बात तो निश्चित ही है कि कार्य आरम्भ किये बिना सफलता कभी नहीं मिलती तथा जिनका काम उद्योग करने पर भी सिद्ध नहीं होता, उनका तो प्रारब्ध ही खोटा समझना चाहिए।अतः हमलोगों को राजा धृतराष्ट्र, गान्धारी और महामणि विदुर जी से मिलकर सलाह लें और हमारे पूछने पर जैसा वे कहें, वही हम करें_मेरी बुद्धि तो यही निश्चय करती है। यह बात तो निश्चित ही है कि कार्य आरम्भ किये बिना सफलता कभी नहीं मिलती तथा जिनका काम उद्योग करने पर भी सिद्ध नहीं होता, उनका तो प्रारब्ध ही खोटा समझना चाहिए।
फिर उसने मन को कड़ा करके कृत और कृतवर्मा दोनों से कहा_प्रत्येक मनुष्य में जो बुद्धि होती है उसी से वे संतुष्ट रहते हैं। सब लोग अपने को ही विशेष बुद्धिमान समझते हैं।सबको अपनी ही समझ अच्छी जान पड़ती है। वे बार_बार दूसरों की बुद्धि की निंदा और अपनी बुद्धि की बड़ाई करते हैं।यदि किसी कारणवश किन्हीं का विचार बहुत _से मनुष्यों से मिल जाता है तो वे एक_दूसरे से संतुष्ट रहते हैं और बार_बार एक_दूसरे का सम्मान करते हैं परन्तु समय के फेर से फिर उन्हीं मनुष्यों की बुद्धि विपरीत होकर एक_दूसरे से विरुद्ध हो जाती है।मनुष्यों के चित्त प्रायः भिन्न_भिन्न प्रकार के होते हैं। अतः उनके विभिन्न चित्तों के परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियां पैदा होती हैं। एक मनुष्य युवावस्था में एक प्रकार की बुद्धि से मुग्ध_सा हो जाता है, मध्यम अवस्था में दूसरे प्रकार की बुद्धि सवार होती है और वृद्धावस्था में उसे अन्य ही प्रकार की बुद्धि अच्छी लगने लगती है।मनुष्यों के चित्त प्रायः भिन्न_भिन्न प्रकार के होते हैं। अतः उनके विभिन्न चित्तों के परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियां पैदा होती हैं। एक मनुष्य युवावस्था में एक प्रकार की बुद्धि से मुग्ध_सा हो जाता है, मध्यम अवस्था में दूसरे प्रकार की बुद्धि सवार होती है और वृद्धावस्था में उसे अन्य ही प्रकार की बुद्धि अच्छी लगने लगती है।सब लोग अपनी ही बुद्धि एवं समझ का आश्रय लेकर तरह_तरह की चेष्टाएं करते हैं और उन्हीं में अपना हित मानते हैं।आज आपत्तियों में पड़कर मुझे जो बुद्धि पैदा हुई है, वह मैं आपको सुनाता हूं। इससे अवश्य ही मेरे शोक का नाश हो जायगा। प्रजापति प्रथाओं को उत्पन्न करने के लिये कर्म का विधान करता है और प्रत्येक वर्ण को एक_एक विशेष गुण देता है।वह ब्राह्मण को सर्वोत्तम वेद_विद्या, क्षत्रिय को उत्तम तेज, वैश्य को व्यापार_कौशल और शूद्र को समस्त वर्णों के अनुकूल रहने की योग्यता देता है। संयमहीन ब्राह्मण बुरा है, तेजोहीन क्षत्रिय निकम्मा है, अकुशल वैद्य निंदनीय है और अन्य वणों के प्रतिकूल आचरण करनेवाला शूद्र अधम है। मैं तो ब्राह्मणों के अत्यन्त पूजनीय उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ हूं। मन्द भाग्य होने से ही इस क्षात्रधर्म का अनुष्ठान कर रहा हूं। यदि क्षारधर्म को जानकर भी मैं ब्राह्मणत्व की ओट लेकर इस महान् कर्म को न करूं तो मेरा आचरण सत्पुरुषों को अच्छा नहीं लगेगा।मैं रणक्षेत्र में दिव्य धनुष और दिव्य शस्र धारण करता हूं। ऐसी स्थिति में पिताजी को युद्ध में मारा गया देखकर अब मैं किस मुंह से सभा में बोलूंगा ? अतः आज मैं क्षात्रधर्म का आश्रय लेकर अपने पिता और राजा दुर्योधन के ही मार्ग का अनुसरण करूंगा।आज विजयश्री ने देदीप्यमान पांचाल-वीर बड़े हर्ष से कवच उतारकर बेखटके सो रहे होंगे। अतः उन सोते हुओं पर ही मैं धावा करूंगा और नींद में बेहोश पड़े उन शत्रुओं को शिविर के भीतर ही तहस_नहस कर डालूंगा।तभी मुझे चैन पड़ेगा। दुर्योधन, कर्ण और जयद्रथ ने जो दुर्गम मार्ग पकड़ा है उसी से आंच मैं पांचालों को भी भेजकर छोड़ूंगा।आज रात्रि में ही मैं पशु के समान बलात् पांचाल राज धृष्टद्युम्न का सिर कुचल डालूंगा। आज रात्रि में ही मैं अपनी तीखी तलवार से सोये हुए पांचाल और पांडव_वीरों के सिर उड़ा दूंगा और रात्रि में ही मैं सोती हुई पांचाल_सेना को नष्ट करके सुखी और सफल मनोरथ होऊंगा।कृपाचार्य बोले_भैया ! तुम अपनी टेक से चलनेवाले नहीं हो। आज पाण्डवों से बदला लेने के लिये तुम्हारा ऐसा विचार हुआ है, सो ठीक ही है। कल सवेरा होने पर हमलोग भी तुम्हारे साथ चलेंगे।आज तुम बहुत देर तक जगते रहे, इसलिये आज की रात सो लो। इससे तुम्हें कुछ विश्राम मिल जायगा, तुम्हारी नींद पूरी हो जायेगी और तुम्हारा चित्त भी ठिकाने पर आ जायगा। इसके बाद यदि तुम शत्रुओं का सामना करोगे तो अवश्य ही उनका वध कर सकोगे।हमलोग भी रातभर सोकर नींद और थकान से छूट जायं। रात बीतने पर हम शत्रुओं का सामना करेंगे, उन्हें हम तीनों मिलकर मारेंगे। जब संग्रामभूमि में मेरा और तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारी रक्षा करेगा तो साक्षात् इन्द्र भी हमारे पराक्रम को सहन नहीं कर सकेगा।आज तुम बहुत देर तक जगते रहे, इसलिये आज की रात सो लो। इससे तुम्हें कुछ विश्राम मिल जायगा, तुम्हारी नींद पूरी हो जायेगी और तुम्हारा चित्त भी ठिकाने पर आ जायगा। इसके बाद यदि तुम शत्रुओं का सामना करोगे तो अवश्य ही उनका वध कर सकोगे।हमलोग भी रातभर सोकर नींद और थकान से छूट जायं। रात बीतने पर हम शत्रुओं का सामना करेंगे, उन्हें हम तीनों मिलकर मारेंगे। जब संग्रामभूमि में मेरा और तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारा साथ होगा और कृतवर्मा भी तुम्हारी रक्षा करेगा तो साक्षात् इन्द्र भी हमारे पराक्रम को सहन नहीं कर सकेगा।भैया ! तुम अपनी टेक से चलनेवाले नहीं हो। आज पाण्डवों से बदला लेने के लिये तुम्हारा ऐसा विचार हुआ है, सो ठीक ही है। कल सवेरा होने पर हम दोनों भी तुम्हारे साथ चलेंगे। आज तुम बहुत देर तक जगते रहे हो, इसलिए आज की रात तो सो लो।मामा कृपाचार्यजी के इस प्रकार हित की बात कहने पर अश्वत्थामा ने क्रोध से आंखें लाल करके कहा, 'जो पुरुष दु:खी है, क्रोध से भरा हुआ है, किसी अर्थ के चिंतन में लगा हुआ है अथवा किसी कार्यसिद्धि की उधेड़बुन में व्यस्त हैं, उसे नींद कैसे आ सकती है।आप विचार कीजिये, आज ये चारों बातें मुझे घेरे हुए हैं। मेरी नींद को तो क्रोध ने ही हराम कर दिया है। इन पापियों ने जिस प्रकार मेरे पिताजी का वध किया है, वह बात रात_दिन मेरे हृदय को जलाती रहती है।उसके कारण मुझे तनिक भी चैन नहीं है। आपने तो यह सब प्रत्यक्ष ही देखा था। उससे हर समय मेरे मर्म स्थान में पीड़ा होती रहती है। हाय ! मेरे जैसा व्यक्ति इस लोक में एक मुहूर्त भी किस प्रकार जी रहा है ?मैंने पांचालों के मुख से 'द्रोण मारे गये' यह शब्द सुना था। इसलिये आज मैं धृष्टद्युम्न को मारे बिना जीवित नहीं रह सकता। राजा दुर्योधन की जंघाएं टूट गयीं। उनकी ये दु:खभरी बातें सुनकर ऐसा कौन कठोरचित्त है, जिसकी आंखों से आंसू नहीं निकलेंगे।मेरे जीवित रहते मेरी मित्र मण्डली की ऐसी दुर्दशा हुई, इससे मेरा शोक बहुत ही बढ़ गया है। आजकल मेरा मन एकत्र होकर इसी उधेड़बुन में लगा रहता है। ऐसी स्थिति में मुझे नींद कैसे आ सकती है? और सुख भी कैसे मिल सकता है ?
जिस समय दूतों ने मुझे मित्रों की पराजय और पाण्डवों की विजय का समाचार सुनाया था उसी समय मेरे हृदय में आग_सी लग गयी थी। इसलिये मैं तो आज ही सोये हुए शत्रुओं का संहार करके विश्राम लूंगा और तभी निश्चिंत होकर सोऊंगा।'कृपाचार्य ने कहा_अश्त्थामा ! मेरा विचार है कि जिस मनुष्य की बुद्धि ठीक नहीं है, वह धर्म और अर्थ को पूरी तरह से नहीं जान सकता। इसी प्रकार मेधावी होने पर भी जिसने विनय नहीं सीखी, वह भी धर्म और अर्थ का निर्णय कुछ समझ नहीं सकता। मूर्ख योद्धा बहुत समय तक पण्डितों की सेवा में रहने पर भी धर्म का रहस्य नहीं जान सकता, जिस प्रकार करती दाल का स्वाद नहीं चख सकती; किन्तु जैसे जीभ दाल का स्वाद तुरंत जान लेती है, उसी तरह बुद्धिमान पुरुष एक मुहूर्त भी पण्डितों के पास रहकर तत्काल धर्म को पहचान लेता हैं।जो पुरुष धर्मश्रवण की इच्छा वाला, बुद्धिमान संयंत्रइय होता है वह सब शास्त्रों को समझ लेता है।परंतु जो दुरात्मा और पापी मनुष्य बतलाये हुए अच्छे काम को छोड़कर दु:खरूप फल देने वाले कर्मों को किया करता है उसे किसी प्रकार उस कर्म से नहीं रोका जा सकता।जो सनाथ होता है उसको सउहऋदगण ऐसे कर्म करने से रोका करते हैं। पर उसके प्रारब्ध में यदि सुख मिलना होता है तो वह उस कर्म से रुक जाता है नहीं तो नहीं। जिस प्रकार विक्षिप्तचित्त पुरुष को भला_बुरा कहकर काबू में किया जाता है, उसी प्रकार सुहृदगण भी समझा_बुझाकर और डांट_डपटकर उसे वश में कर सकते हैं, नहीं तो वह वश में नहीं आ सकता और उसे दु:ख ही उठाना पड़ता है।तात ! तुम भी मन को काबू में करके उसे कल्याण साधन में लगाओ और मेरी बात मानो, जिससे तुम्हें पश्चाताप न करना पड़े। जो सोये हुए हों, जिन्होंने शस्त्र रख दिये हों, रथ और घोड़े खोल दिये हों, जो 'मैं आपका ही हूं' ऐसा कह रहे हों, जो शरणागत हों, जिनके बाल खुले हुए हों और जिनके वाहन नष्ट हो गये हों, लोक में उन लोगों का वध करना धर्मत: अच्छा नहीं समझा जाता।इस समय रात्रि में सब पांचाल वीर निश्चितता पूर्वक कवच उतारकर निद्रा में अचेत पड़े होंगे। जो पुरुष उनसे इस स्थिति में द्रोह करेगा, वह अवश्य ही बिना नौका के अगाध नरक में डूबे जायगा। लोक में तुम समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कहे जाते हो। अभी तक संसार में तुम्हारा कोई छोटे_से_छोटा दोष भी देखने में नहीं आया। तुम सूर्य के समान तेजस्वी हो। अतः कल जब सूर्य उदित हो तो सब प्राणियों के सामने अपने शत्रुओं को संग्राम में परास्त करना।अश्वत्थामा बोला_ मामाजी ! आप जैसा कहते हैं, नि:संदेह वह ठीक ही है। परंतु इस धर्म मर्यादा के तो पाण्डवों ने पहले ही सैकड़ों टुकड़े कर डाले हैं। धृष्टद्युम्न ने प्रत्यक्ष ही आपके और समस्त राजाओं के सामने मेरे शस्त्रहीन पिताजी का वध किया था।रथियों में श्रेष्ठ कर्ण को जब उनका पहिया फंस गया था और वे बड़े संकट में पड़ गये थे, उसी समय अर्जुन ने मार डाला था। भीष्म पितामह को भी शइखण्डई की ओट लेकर अर्जुन ने उसी समय मारा था, जब उन्होंने शस्त्र डाल दिये थे और वे सर्वथा निरायुध हो गये थे।वीरवर भूरिश्रवा तो रणक्षेत्र में अनशन व्रत लेकर बैठ गये थे।; परन्तु सात्यकि ने सब राजाओं के चिल्लाते रहने पर भी इसी स्थिति में उन्हें मार डाला। महाराज दुर्योधन भी भीमसेन के साथ गदा युद्ध में भिड़कर सब राजाओं के सामने अधर्म पूर्वक ही गिराये गये हैं।इसलिये भले ही मुझे कीट_पतंगों की योनि में शंजाना पड़े, मैं भी अपने पिता का वध करनेवाले इन पांचालों को रात में सोते हुए ही मार डालूंगा। मैंने जो काम करने का विचार किया है, उसके लिये मुझे बड़ी उतावली हो रही है। इस जल्दबाजी में मुझे नींद कैसे आ सकती है और चैन भी कैसे पर सकता है? संसार में न तो कोई ऐसा पुरुष जन्मा है और न जन्मेगा ही, जो पांचालों के वध के लिये किये हुए मेरे इस विचार को बदल सके।

Saturday, 27 January 2024

सौप्तिक पर्व___तीन महारथियों का एक वन में विश्राम करना और अश्वत्थामा का पाण्डवों को कपटपूर्ण मारने का निश्चय करके कृपाचार्य और कृतवर्मा से सलाह लेना


नमस्कृत्यं नरं चैव नरोत्तम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं जयमुदीरयेत्।।_अर्थ_अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा
 नरस्वरूप नरररत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रगट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्ति पूर्वक अन्त:करन को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिये।

तब अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा_ये तीनों
 वीर दक्षिण की ओर चले और सूर्यास्त के समय शिविर के पास पहुंच गये। इतने में ही विजयाभिलाषी पाण्डव वीरों का भीषण नाद सुनायी दिया; अत: उनकी चढ़ाई की आशंका से वे भयभीत होकर पूर्व की ओर भागे कुछ दूर जाकर उन्होंने मुहूर्त भर विश्राम किया। राजा धृतराष्ट्र ने कहा_संजय ! मेरे पुत्र दुर्योधन में दस हजार हाथियों का बल था। उसे भीमसेन  की मृत्यु का संवाद सुनकर भी मार डाला_इस बात पर एकाएक विश्वास नहीं होता।
मेरे पुत्र का शरीर वज्र के समान कठोर था। उसे भी पाण्डवों ने संग्रामभूमि में नष्ट कर दिया। इससे निश्चय होता है कि प्रारब्ध से पार पाना किसी प्रकार संभव नहीं है। भैया संजय ! मेरा हृदय अवश्य ही फौलाद का बना हुआ है जो अपने सौ पुत्रों के मृत्यु का संवाद सुनकर भी इसके हजारों टुकड़े नहीं हुए। भला, अब पुत्रहीन होकर हम बूढ़े _बुढ़िया कैसे जीवित रहेंगे ? मैं एक राजा का पिता और स्वयं राजा ही था। सो अब पाण्डवों का दास बनकर किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करूंगा ? ओह ! जिसने अकेले ही मेरे सौ_के_सौ पुत्रों का वध कर डाला और मेरी जिंदगी के आखिरी दिन दु:समय कर दिये, उस भीमसेन की बातों को मैं कैसे सुन सकूंगा ? अच्छा संजय ! यह तो बताओ कि इस प्रकार बेटा दुर्योधन के अधर्म पूर्वक मारे जाने पर कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा ने क्या किया ?संजय ने कहा_'राजन् ! आपके पक्ष के ये तीनों वीर थोड़ी ही दूर गये थे कि इन्होंने तरह_तरह के वृक्ष और लताओं से भरा हुआ एक भयंकर वन देखा। वहां थोड़ी देर विश्राम करके उन्होंने घोड़ों को पानी पिलाया और थकावट दूर हो जाने के बाद उस सघन वन में प्रवेश किया। वहां चारों ओर दृष्टि डालने पर उन्हें एक विशाल वट_वृक्ष दिखायी दिया। वहां चारों ओर दृष्टि डालने पर उन्हें एक विशाल वट_वृक्ष दिखायी दिया, जिसकी हज़ारों शाखाएं सब ओर फैली हुईं थीं। उस वट के पास पहुंचकर वे महारथी अपने रथों से उतर गये और स्नानादि करके संध्यावन्दन करने लगे। इतने में ही भगवान भास्कर अस्ताचल के शिखर पर पहुंच गये और संपूर्ण संसार में निशादेवी का आधिपत्य हो गया। सब ओर छिटके हुए ग्रह, नक्षत्र और तारों से सुशोभित गगनमण्डल दर्शनीय विज्ञान के समान शोभा पाने लगा। अभी रात्रि का आरम्भ काल ही था। कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा दु:ख और शोक में डूबे हुए उस वटवृक्ष के निकट पास_ही पास बैठ गये और कौरवों तथा पाण्डवों के विगत   संहार के लिये शोक प्रकट करने लगे। अत्यन्त थके होने के कारण नींद ने उन्हें धर दबाया। इससे आचार्य कृप और कृतवर्मा सो गये। यद्यपि ये महामूल्य पलंगों पर सोनेवाले, सब प्रकार की सुख_सामग्रियों से सम्पन्न और दु:ख के अनभ्यासी थे, तो भी वे अनाथों की तरह पृथ्वी पर ही पड़ गये। किन्तु अश्वत्थामा इस समय अत्यन्त क्रोध और रोष में भरा हुआ था। इसलिये उसे नींद नहीं आयी। उसने चारों ओर वन में दृष्टि डाली तो उसे उसे उस वटवृक्ष पर बहुत _से कौए दिखायी दिये। उस रात हजारों कौओं ने उस वृक्ष पर बसेरा लिया था और वे आनंद से अलग_अलग घोंसलों में सोये हुए थे। इसी समय उसे एक भयानक उल्लू उस ओर आता दिखाई दिया। वह धीरे-धीरे गुनगुनाता वट की एक शाखा पर कूदा और उसपर सोये हुए अनेकों कौओं को मारने लगा। उसने अपने पंजों से किन्हीं कौओं के पर नोच डाले, किन्हीं के सिर काट लिये और किन्हीं के पैर तोड़ दिये। इस प्रकार अपनी आंखों के सामने आये हुए अनेकों कौओं को उसने बात_की_बात में मार डाला। इससे वह सारा वट_वृक्ष कौवों के शरीर के अंगावयवओं से भर गया। रात्रि के समय उल्लू का यह कपटपूर्ण व्यवहार देखकर अश्वत्थामा ने भी वैसा ही करने का संकल्प लिया। उस एकान्त देश में वह विचारने लगा, 'इस पक्षी ने अवश्य ही मुझे संग्राम करने की युक्ति का उपदेश किया है। यह समय भी इसी के योग्य है। पाण्डव_लोग विजय पाकर बड़े तेजस्वी, बलवआन् और उत्साही हो रहे हैं। इस समय मैं अपनी शक्ति से तो उन्हें मार नहीं सकता और राजा दुर्योधन के सामने उनका वध करने की प्रतिज्ञा कर चुका हूं। अब यदि मैं न्यायानुसार युद्ध करूंगा तो नि:संदेह मुझे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा। हां, कपट से और सफलता हो सकती है और शत्रुओं का भी खूब संहार हो सकता है। पाण्डवों ने भी तो पद_पदपर अनेकों निंदनीय और कुत्सित कर्म किये हैं। युद्ध के अनुभवी लोगों का ऐसा कथन भी है कि जो सेना नींद में आधी रात के समय बेहोश हो, जिसका नायक नष्ट हो चुका हो, जिसके योद्धा छिन्न-भिन्न हो गये हों और जिसमें मतभेद पैदा हो गया हो, उसपर भी शत्रु को प्रहार करना चाहिये।' इस प्रकार विचार करके द्रोणपुत्र ने रात्रि के समय सोये हुए पाण्डव और पांचाल-वीरों को नष्ट करने का निश्चय किया। फिर उसने कृतवर्मा और कृपाचार्य को जगाकर अपना निश्चय सुनाया। वे दोनों महावीर अश्वत्थामा की बात सुनकर बड़े लज्जित हुए और उन्हें उसका कोई उत्तर न सूझा। तब अश्वत्थामा ने एक मुहूर्त तक विचार करके अश्रुगद्गद् होकर कहा, 'महाराज दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे। उन्हें अनेकों क्षुद्र योद्धाओं ने मिलकर भीमसेन के हाथ से मरवा दिया। पापी भीम ने एक मूर्धाभिषिक्त सम्राट के मस्तक पर लात मारी_यह उसका कितना खोटा काम था। हाय ! पाण्डवों ने कौरवों का कैसा भीषण संहार किया है कि आज हम इस महान् संहार से हम तीन ही बच पाये हैं। मैं तो इस सबको समय का फेर ही समझता हूं। यदि मोहवश आप दोनों की बुद्धि नष्ट नहीं हुई है तो इस घोर संकट के समय हमारा क्या कर्तव्य है, यह बताने की कृपा करें।'

Sunday, 7 January 2024

दुर्योधन का विलाप तथा अश्वत्थामा का विषाद, प्रतिज्ञा और सेनापति के पद पर अभिषेक

धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! मेरा पुत्र बड़ा क्रोधी था, पाण्डवों से वैर रखने के कारण उसपर बड़ा भारी संकट आ पहुंचा। बताओ, जब जांघें टूट जाने से वह पृथ्वी पर गिरा और भीमसेन ने उसके सिर पर पैर रखा, उसके बाद उसने क्या कहा ? संजय ने कहा_महाराज ! जांघ टूट जाने पर जब दुर्योधन धरती पर गिरा तो धूल में सन गया। फिर बिखरे हुए बालों को समेटता हुआ वह दसों दिशाओं की ओर देखने लगा। तत्पश्चात् बड़ी कोशिश किसी तरह बालों बांधकर उसने आंसू भरे नेत्रों से मेरी ओर देखा और अपनी दोनों भुजाओं को धरती पर पैर रखकर उच्छवास लेते हुए कहा_'ओह ! भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, शकुनि जैसे वीर मेरे रक्षक थे; तो भी मैं इस दशा को आ पहुंचा ! निश्चय ही काल का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता।
जो एक दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेना का स्वामी था, उसकी आज यह अवस्था ! संजय ! मेरे पक्ष के योद्धाओं में जो लोग जीवित हैं, उनसे कहना कि 'भीमसेन ने गदायुद्ध के नियम को तोड़कर दुर्योधन को मारा है। क्रूर कर्म करनेवाले पाण्डवों ने भीष्म, द्रोण, भूरिश्रवा और कर्ण को कपटपूर्वक मारने के पश्चात् मेरे साथ छल करके एक और कलंक का टीका लगा लिया। मुझे विश्वास है, उन्हें इस कुकर्म के कारण सत्पुरुषों के समाज में पछताना पड़ेगा। कौन ऐसा विद्वान होगा, जो मर्यादा का भंग करने वाले मनुष्य के प्रति सम्मान प्रकट करेगा ? आज पापी भीमसेन जैसा खुश हो रहा है, अधर्म से विजय पाने पर दूसरा कौन बुद्धिमान पुरुष ऐसी खुशी मनायेगा ? मेरी जांघें टूट गयी हैं; ऐसी दशा में भीम ने जो मेरे सिर को पैरों से दबाया है, इससे ज्यादा आश्चर्य की बात और क्या होगी ? आज पापी भीमसेन जैसा खुश हो रहा है, अधर्म से विजय पाने पर दूसरा कौन बुद्धिमान पुरुष ऐसी खुशी मनायेगा ? मेरी जांघें टूट गयीं है; ऐसी दशा में भीम ने जो मेरे सिर को पैरों से दबाया है, इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या होगी ?मेरे माता_पिता बहुत दु:खी होंगे, उनसे यह संदेश कहना__मैंने यज्ञ किये, जो भरण_पोषण करने योग्य थे, उनका पालन किया और समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर अच्छी तरह शासन किया। शत्रु जीवित थे, तो भी उनके मस्तक पर पैर रखा और शक्ति के अनुसार मित्रों का प्रिय किया। अपने बन्धु_बान्धवों का आदर तथा वश में रहनेवालों का सत्कार किया। धर्म, अर्थ तथा काम का सेवन किया; दूसरे राष्ट्रों पर आक्रमण करके जीता और दास की भांति राजाओं पर हुक्म चलाया। जो अपने प्रिय व्यक्ति थे, उनकी सदा ही भलाई की। फिर मुझसे अच्छा अन्त किसका हुआ होगा ? विधिवत् वेदों का स्वाध्याय किया, नाना प्रकार के दान दिये और आयउभर में मुझे कभी कोई रोग नहीं हुआ ! मैंने अपने धर्म से लोकों पर विजय पायी है तथा धर्मात्मा क्षत्रिय जैसी मृत्यु चाहते हैं, वही मुझे प्राप्त हो गयी। इससे अच्छा अन्त किसका होगा ?  संतोष की बात है कि मैं पीठ दिखाकर भागा नहीं, मेरे मन में कोई दुर्विचार नहीं उत्पन्न हुआ। तो भी सोये अथवा पागल हुए मनुष्य को जहर देकर मार डाला जाय, उसी तरह उस पापी ने युद्ध धर्म का उल्लंघन करके मेरा वध किया है। तत्पश्चात् आपके पुत्र ने संदेशवाहकों से कहा_'अश्त्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य से मेरी बात कह देना_अनेकों बार युद्ध के नियमों को भंग करके पाप में प्रवृत हुए इन पाण्डवों का आपलोग कभी भी विश्वास न कीजियेगा। मैं भीम के द्वारा अधर्म पूर्वक मारा गया हूं। जो मेरे ही लिये स्वर्ग में गये हैं उन आचार्य द्रोण, कर्ण, शल्य, वृषसेन, शकुनि, जलसन्धि, भगदत्त, भूरिश्रवा, जयद्रथ तथा दु:शासन कुमार और अन्य हजारों राजाओं के पीछे अब मैं भी स्वर्गलोक में चला जाऊंगा। चिंता यही है कि अपने भाइयों और पति की मृत्यु का समाचार सुनकर मेरी दु:खाना बहिन दु:शीला की क्या हालत होगी। पुत्र और पौत्रों की बिलखती हुई बहुओं के साथ मेरे माता-पिता किस अवस्था में पहुंचेंगे ! बेटे और पति की मृत्यु सुनकर बेचारी लक्ष्मण की माता भी तुरंत प्राण दे देगी। व्याख्यान देने में कुशल और संन्यासी के वेष में चारों ओर घूमने _फिरनेवाले चार्वाक को यदि मेरी हालत मालूम हो जायगी तो अवश्य ही वे मेरे वैर का बदला लेंगे। मैं तो त्रिभुवन में प्रसिद्ध इस पवित्र तीर्थ समन्तपंचक में प्राण त्याग कर रहा हूं, इसलिये मुझे अक्षय लोकों की प्राप्ति होगी।' राजन् ! आपके पुत्र का यह विलाप सुनकर हजारों मनुष्यों की आंखों में आंसू भर आये। वे व्याकुल होकर वहां से इधर_उधर हट गये। दूतों ने आकर अश्वत्थामा से गदायुद्ध की सारी बातें तथा राजा को अन्यायपूर्वक गिराये जाने का समाचार भी कह सुनाया। इसके बाद वहां थोड़ी देर विचार करने के पश्चात् वे जहां से आये थे, वहीं लौट गये। संदेशवाहकों के मुख से दुर्योधन के मारे जाने का समाचार सुनकर बचे हुए कौरव महारथी अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा कृतवर्मा_जो स्वयं भी तीखे बाण, गंदा, तोमर और शक्तियों के प्रहार से विशेष घायल हो चुके थे_तेज चलनेवाले घोड़े से जीते हुए रथ पर सवार होकर तुरंत युद्धभूमि में गया । वहां पहुंचकर देखा कि दुर्योधन धरती पर गिरा हुआ छटपटा रहा है और उसका सारा शरीर खून से भींगा हुआ है। क्रोध के मारे उसकी भौंहें तनी और आंखें चढ़ी हुई थीं, वह अमर्ष से भरा दिखाई देता था। अपने राजा को इस अवस्था में पड़ा देख कृपाचार्य आदि को बड़ा मोह हुआ। वे रथों से उतरकर दुर्योधन के पास ही जमीन पर बैठ गये। उस समय अश्वत्थामा की आंखों में आंसू भर आये, वह सिसकता हुआ कहने लगा_'राजन् ! निश्चय ही इस मनुष्यलोक में कुछ भी सत्य नहीं है, जहां तुम्हारे_जैसा राजा धूल लोट रहा है। अन्यथा जो एक दिन समस्त भूमण्डल का स्वामी था, जिसने सबपर हुक्म चलाया, वहीं आज इस निर्जन वन में अकेला कैसे पड़ा हुआ है। आज मुझे दु:शासन नहीं दिखाई देता, महारथी कर्ण तथा संपूर्ण हितैषी मित्रों का भी दर्शन नहीं होता_यह क्या बात है ?
वास्तव में काल की गति को जानना बड़ा कठिन है। जरा समय का उलट_फेर तो देखो, तुम मूर्धाभिषिक्त एकराजाओं के अग्रगण्य होकर भी आज तिनकों सहित धूल में लोट रहे हो ! महाराज ! तुम्हारा वह श्वेत क्षत्र कहां है? चंवर कहां है ? और वह विशाल सेना कहां चली गयी ? किस कारण से कौन_सा काम होगा, इसको समझना बड़ा मुश्किल है; क्योंकि तुम समस्त प्रजा के माननीय राजा होकर भी आज इस दशा को पहुंच गये। तुम तो इन्द्र से भी भिड़ने का हौसला रखते थे; जब तुमपर भी यह विपत्ति आ गयी तो यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है किसी भी मनुष्य की सम्पत्ति स्थिर नहीं होती।' अत्यन्त दु:खी हुए अश्वत्थामा की बात सुनकर दुर्योधन की आंखों में शोक के आंसू उमड़ आये। उसने दोनों हाथों से नेत्रों को पोंछा और कृपाचार्य आदि से यह समयोचित वचन कहा_'मित्रों ! इस मर्र्त्यलोक का ऐसा ही नियम है, यह विधाता का बनाया हुआ धर्म है; इसलिये कालक्रम से एक_न_एक दिन समस्त प्राणियों का मरण होता है। वहीं आज मुझे भी प्राप्त हुआ है, जिसे आपलोग अपनी आंखों से देख रहे हैं।एक दिन मैं इस भूमण्डल का पालन करनेवाला राजा था और आज इस अवस्था को पहुंचा हुआ हूं। तो भी मुझे इस बात की खुशी है कि युद्ध में बड़ी _से_बड़ी विपत्ति आने पर भी कभी पीछे नहीं हटा। पापियों ने मुझे मारा भी तो छल से। मैंने युद्ध में सदा ही उत्साह दिखाया है और अपने बंधु_बांधवों के मारे जाने पर भी स्वयं भी युद्ध में ही प्राण त्याग रहा हूं, इससे मुझे विशेष संतोष है। सौभाग्य की बात है कि आप लोगों को इस नरसंहार से मुक्त देख रहा हूं। साथ ही आपलोग सकुशल एवं कुछ करने में समर्थ हैं_यह मेरे लिये भी प्रसन्नता की बात है। आप लोगों का मुझपर स्वाभाविक स्नेह है; इसलिये मेरे मरने से दु:खी हो रहे हैं; किन्तु चिंता करने की कोई बात नहीं है। यदि वेद प्रमाण भूत है, तो मैंने अक्षय लोकों पर अधिकार प्राप्त किया है; इसलिये मैं कदापि शोक के योग्य नहीं हूं। आपलोगों ने अपने स्वरूप के अनुरूप पराक्रम दिखाया और सदा ही विजय दिलाने का प्रयत्न किया है; किन्तु दैव के विधान का कौन उल्लंघन कर सकता है ?' महाराज ! इतना कहते-कहते दुर्योधन की आंखों में फिर से आंसू उमड़ आये तथा वह शरीर की पीड़ा से भी अत्यन्त व्याकुल हो गया; इसलिये अब आगे कुछ न बोल सका, चुप हो रहा। राजा की यह दशा देख अश्वत्थामा की आंखें भर आयीं, उसे बड़ा दु:ख हुआ। साथ ही शत्रुओं पर अमर्ष भी हुआ। वह क्रोध से आगबबूला हो गया और हाथ से हाथ दबाता हुआ कहने लगा, 'राजन् ! उन पापियों ने क्रूरकर्म करके मेरे पिता को भी मारा था। किन्तु उसका मुझे उतना संताप नहीं है, जितना आज तुम्हारी दशा देखकर हो रहा है। अच्छा, अब मेरी बात सुनो_'मैंने जो यज्ञ किये, कुएं तालाब आदि बनवाये तथा और जो दान, धर्म एवं पुण्य किये हैं, उन सबको तथा सत्य की भी शपथ खाकर कहता हूं_आज मैं श्रीकृष्ण के देखते_देखते हरेक उपाय से काम लेकर पांचालों को यमलोक भेज दूंगा। इसके लिये तुम आज्ञा दे दो।अश्वत्थामा की बात सुनकर दुर्योधन मन_ही_मन प्रसन्न हुआ और कृपाचार्य से बोला_'आचार्य ! आप शीघ्र ही जल से भरा हुआ कलश ले आइये।' कृपाचार्य ने ऐसा ही किया। जब कलश लेकर वे राजा के निकट आये, तो उसने कहा_'विप्रवर ! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं, तो द्रोण कुमार को सेनापति के पद पर अभिषेक कर दीजिये; आपका भला होगा। राजा की आज्ञा से कृपाचार्य ने अश्वत्थामा का अभिषेक किया। इसके बाद वह दुर्योधन को हृदय से लगाकर संपूर्ण दिशाओं को सिंहनाद से प्रतिध्वनित करता हुआ वहां से चल दिया। दुर्योधन खून में डूबा हुआ रात_भर वहीं पड़ा रहा। युद्धभूमि से दूर जाकर वे तीनों महारथी आगे के कार्यक्रम पर विचार करने लगे।

शल्य पर्व समाप्त