Thursday 2 July 2015

आदिपर्व-पाण्डवों की पांचाल-यात्रा और अर्जुन के हाथों चित्ररथ गन्धर्व की पराजय

पाण्डवों की पांचाल-यात्रा और अर्जुन के हाथों चित्ररथ गन्धर्व की पराजय

पाण्डवों ने बड़ी प्रसन्नता से अपनी माता को आगे करके पांचाल देश की यात्रा की।वे लोग उत्तर की ओर बढ़ने लगे। एक दिन-रात यात्रा करने के बाद वे गंगातट के सोमाश्रयायन तीर्थ पर पहुँचे। उस समय उनके आगे-आगे अर्जुन मसाल लिये चल रहे थे। उस तीर्थ के पास स्वच्छ और एकान्त गंगाजल में गंधर्वराज चित्ररथ स्त्रियों के साथ विहार कर रहा था। उसने उनलोगों के पैरों की धमक और नदी की ओर बढना देख-सुनकर बड़ा क्रोध प्रकट किया और अपने धनुष को टंकारकर पाण्डवों से बोला, अजी दिन के अंत में जब लालिमामयी सन्ध्या होती है, उसके बाद चालीस निमेष के अतिरिक्त सारा समय गन्धर्व, यक्ष और राक्षसों के लिये है। दिन का सारा समय तो मनुष्यों के लिये है ही। जो मनुष्य लोभवश हमलोगों के समय में इधर आते हैं, उन्हें हम और राक्षस कैद कर लेते हैं। इसी से रात के समय में जल में प्रवेश करना निषिद्ध है। खबरदार, दूर ही रहो। क्या तुमलोगों को पता नहीं है कि मैं गन्धर्वराज चित्ररथ इस समय गंगाजल में विहार कर रहा हूँ। मेरे भय से यह वन प्रसिद्ध है। मैं गंगा के तट पर चाहे कहीं भी मौज सेविहार कर सकता हूँ। इस समय यहाँ कोई नहीं आ सकता। तुम क्यों आ रहे हो। अर्जुन ने कहा, अरे मूर्ख समुद्र, हिमालय की तराई और गंगानदी के स्थान रात, दिन अथवा स्ध्या के समय किसके लिये सुरक्षित है। भूखे-नंगे, अमीर-गरीब सभी के लिये रात-दिन गंगा-माई का द्वार खुला है, यहाँ आने का कोई समय नहीं। यदि मान भी लें कि तुम्हारी बात ठीक है तो भी शक्ति-सम्पन्न हैं, बिना समय भी तुम्हे पीस सकते हैं। कमजोर नपुंसक ही तुम्हारी पूजा करते हैं। देवनदी गंगा कल्याणजननी एवं सबके लिये बेरोक-टोक है। तुम जो इसमें रोक-टोक करना चाहते हो वह सनातन धर्म के विरुद्ध है। क्या केवल तुम्हारी बन्दर घुड़की से डरकर हम गंगाजल का स्पर्श न करें। यह नहीं हो सकता। अर्जुन की बात सुनकर चित्ररथ ने धनुष खींचकर जहरीले वाण छोड़ने प्रारंभ किये। अर्जुन ने अपनी मशाल और ढाल का ऐसा हाथ घुमाया, जिससे सारे वाण व्यर्थ हो गये। अर्जुन ने कहा, अरे गन्धर्व अस्त्र के मर्मज्ञों के सामने धमकी से काम नहीं चलता। ले, मैं तुझसे मायायुद्ध नहीं करता, दिव्य अस्त्र चलाता हूँ। अर्जुन ने अपनी मशाल और ढाल का ऐसा हाथ घुमाया,जिससे सारे वाण व्यर्थ हो गये। अर्जुन ने कहा, अरे गन्धर्व अस्त्र के मर्मज्ञों के सामने धमकी से काम नहीं चलता। ले, मैं तुझसे मायायुद्ध नहीं करता, दिव्य अस्त्र चलाता हूँ। यह आग्नेयास्त्र वृहस्पति ने भारद्वाज को, भारद्वाज ने अग्निवेश्य को और अग्निवेश्य ने मेरे गुरु द्रोणाचार्य और उन्होंने मुझे दिया है। ऐसा कहकर अर्जुन ने आग्नेयास्त्र छोड़ा। चित्ररथ का रथ जल जानने के कारण दग्धरथ हो गया। वह अस्त्र के तेज से इतना चकरा गया कि रथ से कूदकर मुँह के बल लुढकने लगा। अर्जुन ने झपटकर उसके केश पकड़ लिये और घसीटकर अपने भाइयों के पास ले आये। गन्धर्वपत्नी कुंभीनसी अपने पतिदेव की रक्षा के लिये युधिष्ठिर की शरण में आयी। उसकी शरणागति और रक्षा प्रार्थना से द्रवित होकर युधिष्ठिर ने अर्जुन को उसे छोड़ने की आज्ञा दी। गन्धर्व ने कहा, मैं हार गया। मैं अर्जुन को गंधर्वों की माया सिखा देता हूँ। यह आग्नेयास्त्र वृहस्पति ने भारद्वाज को, भारद्वाज ने अग्निवेश्य को और अग्निवेश्य ने मेरे गुरु द्रोणाचार्य और उन्होंने मुझे दिया है। ऐसा कहकर अर्जुन ने आग्नेयास्त्र छोड़ा। चित्ररथ का रथ जल जानने के कारण दग्धरथ हो गया। वह अस्त्र के तेज से इतना चकरा गया कि रथ से कूदकर मुँह के बल लुढकने लगा। अर्जुन ने झपटकर उसके केश पकड़ लिये और घसीटकर अपने भाइयों के पास ले आये। गन्धर्वपत्नी कुंभीनसी अपने पतिदेव की रक्षा के लिये युधिष्ठिर की शरण में आयी। उसकी शरणागति और रक्षा प्रार्थना से द्रवित होकर युधिष्ठिर ने अर्जुन को उसे छोड़ने की आज्ञा दी। गन्धर्व ने कहा, मैं हार गया। मैं अर्जुन से मित्रता करके उन्हें गन्धर्वों की माया सिखा देना चाहता हूँ।इस विद्या का नाम चाक्षुषी है। इसे मनु ने सोम को, सोम ने विश्रवावसु को और विश्रवावसु ने मुझे दिया है। इस विद्या का प्रभाव यह है कि इसके बल से जगत् की कोई भी वस्तु, चाहे वह जितनी सूक्ष्म हो, नेत्र के द्वारा प्रत्यक्ष देख सकते हैं। जो छः महीने तक एक पैर से खड़ा रहे, वह इसका अधिकारी है। इसी विद्या के कारण हम गन्धर्व मनुष्यों से श्रेष्ठ माने जाते हैं। मैं आप सब भाइयों को गन्धर्वों के दिव्य वेगशाली और दुबले होने पर भी कभी न थकनेवाले सौ-सौ घोड़े देता हूँ। वे चाहते ही आ जाते हैं, चाहते ही चाहे जहाँ चले जाते हैं और चाहते ही अपना रंग बदल लेते हैं। अर्जुन ने कहा, गन्धर्वराज, मैंने मृत्यु से तुम्हे बचा लिया है इसलिये मुझे कुछ देना चाहते हो तो मैं लेना पसंद नहीं करता। गन्धर्व बोला, जब सत्पुरुष इकट्ठे होते हैं तो उनका परस्पर प्रेम-भाव बढता ही है। मैंआपको प्रेमवश यह भेंट करता हूँ। आप भी मुझ आप्रेय अस्त्र दीजिये। अर्जुन ने कहा, मित्र यह बात ठीक है। हमारी दोस्ती अनंत हो। तुम्हे किसी क भय हो तो बतलाओ। एक बात और बतलाओ कि तुमने हमलोगों पर आक्रमण किस कारण से किया। गन्धर्व ने कहा, मै आपको नहीं जानता था।आपका यशस्वी वंश सभी को मालूम है। मैं आपके आचार्य पिता और गुरुजनों से भी परिचित हूँ। आपलोगों के विशुद्ध अंतःकरण, उत्तम विचार एवं श्रेष्ठ संकल्प को जानकर भी मैने आक्रमण किया। एक तो स्त्रियों के सामने अपमान नहीं सहा जाता, दूसरे रात के समय बल अधिक बढ जाने से क्रोध भी अधिक आता है। परंतु आप श्रेष्ठ धर्म और ब्रह्मचर्य के सच्चे पुजारी हैं। आपके ब्रह्मचर्य के कारण ही मुझे हारना पड़ा। कोई ब्रह्मचर्यहीन क्षत्रिय रात्रि में मेरा सामना करता तो उसे मरना ही पड़ता। मनुष्य को चाहिये कि अभिलाषित कल्याण की प्राप्ति के लिये अवश्य ही जितेन्द्रिय पुरोहित को कर्म में नियुक्त करे। 

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