द्रौपदी के स्वयंवर का समाचार तथा धृष्टधुम्न और द्रौपदी के जन्म की कथा
बकासुर
को मारने के बाद पश्चात् पाण्डव वेदाध्ययन करते हुए उसी ब्राह्मण के घर में निवास करने
लगे।कुछ दिनों के बाद उसके यहाँ एक सदाचारी ब्राह्मण आया। बड़े आदर-सत्कार से उसे स्थान
दिया गया। कुन्ती और पाँचों पाण्डव भी उसकी सेवा सत्कार में लग रहे थे। ब्राह्मण ने
देश-काल की बात करते-करते द्रुपद की कथा छेड़ दी तथा द्रौपदी स्वयंवर की बात भी कही।
पाण्डवों ने विस्तारपूर्वक द्रौपदी की जन्म-कथा सुननी चाही इसपर वह द्रुपद का पूर्व-चरित्र
सुनाकर कहने लगा--जबसे द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के द्वारा द्रुपद को पराजित करवाया,
तबसे घड़ी-दो-घड़ी के लिेये भी द्रुपद को चैन नहीं मिला। वे चिन्तित रहने के कारण दुर्बल
पड़ गये और द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिये आश्रमों में घूमने लगे। वे शोकातुर होकर
यही सोचते रहते कि मुझे श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति कैसे हो।किन्तु किसी भी प्रकार द्रोणाचार्य के प्रभाव, विनय, शिक्षा और चरित्र
को नीचा दिखाने में समर्थ न हुए। राजा द्रुपद गंगातट पर घूमते-घूमते कल्माषी नगरी के
पास एक ब्राह्मण बस्ती में गये। उस बस्ती में ऐसा कोई नहीं था जो ब्रह्मचर्य का विधिवत्
पालन करनेवाला या स्नातक न हो। उसमें दो बड़े ही शान्त तपस्वी थे। उनके नाम थे याज और
उपयाज। द्रुपद ने पहले छोटे भाई उपयाज के पास जाकर उन्हें प्रसन्न किया और प्रार्थना
की कि आप कोई ऐसा कर्म कराइये जिससे मेरे यहाँद्रोण को मारनेवाले पुत्र का जन्म हो।
मैं आपको दस करोड़ गाय दूँगा। यही नहीं आपकी जो इच्छा होगी, मैं पूर्ण करूँगा। उपयाज
ने कहा, मैं ऐसा नहीं कर सकता। द्रुपद ने फिर भी एक वर्ष तक उनकी सेवा की। उपयाज ने
कहा, राजन्, मरे बड़े भाई याज एक दिन वन में विचर रहे थे। उन्होंने जमीन पर पड़े एक ऐसे
फल को उठा लिया जिसकी शुद्धि-अशुद्धि के संबंध में कुछ पता नहीं था। मैने उनका यह काम
देख लिया और सोचा कि किसी वस्तु के ग्रहण में शुद्धि-अशुद्धि का विचार नहीं करते। तुम
उनके पास जाओ वे तुम्हारा यज्ञ करा देंगे। उन्होंने याज की सेवा-सुश्रूषा करके उन्हें
प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि मैं द्रोण से श्रेष्ठ और उनको युद्ध में मारनेवाला
पुत्र चाहता हूँ। आप वैसा यज्ञ मुझसे कराइये। मैं आपको दस करोड़ गौ दूँगा। याज ने स्वीकार
कर लिया।याज की सम्मति से द्रुपद का यज्ञ-कार्य सम्पन्न हुआ और अग्निकुण्ड से एक दिव्य
कुमार प्रकट हुआ। उसके शरीर का रंग धधकती आग के समान था। सिर पर मुकुट और शरीर पर कवच
था। उसके हाथ में धनुष-वाण और खड्ग थे। वह बार-बार गर्जना कर रहा था। अग्निकुण्ड से
निकलते ही वह दिव्य कुमार रथ पर सवार होकर इधर-उधर विचरने लगा।सभी पांचालवासी हर्षित
होकर, साधु-साधु का उद्घोष करने लगे। इसी समय आकाशवाणी हुई----इस पुत्र के जन्म से
द्रुपद का सारा शोक मिट जायगा। यह कुमार द्रोण को मारने के लिये ही पैदा हुआ है। उसी
वेदी से कुमारी पांचाली का भी जन्म हुआ। वह सर्वांगसुन्दरी,कमल के समान विशाल नेत्रोंवाली
और श्याम वर्ण की थी। उसके नीले-नीले घुँघराले बाल, लाल-लाल ऊँचे नख, उभरी छाती और
टेढी भौंहें बड़ी मनोहर थीं। उसके शरीर से तुरंत के खिले नीलकमल के समान सुन्दर गंध
दूर तक फैल रही थी। उसके जन्म लेने पर भी आकाशवाणी ने कहा, यह रमणीरत्न कृष्णा है।
देवताओं का प्रयोजन सिद्ध करने के लिये क्षत्रियों के संहार के उद्देश्य से इसका जन्म
हुआ है। इसके कारण कौरवों को बड़ा भय होगा। इस दिव्य कुमार और कुमारी को देखकर द्रुपदराज
की रानी याज के पास आयीं और प्रार्थना करने लगी कि ये दोनो मेरे अतिरिक्त और किसी को अपना माँ न
जाने। याज ने राजा की प्रसन्नता के लिये एवमस्तु कहा। इन दिव्य कुमार और कुमारी का
नामकरण किया गया। वे बोले, यह कुमार बड़ा धृष्ट और असहिष्णु है। इसका नाम होना चाहिये,
धृष्टधुम्न। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की है ,इसलिये इसका नाम कृष्णा होगा। यज्ञ समाप्त
होने के बाद द्रोणाचार्य धृष्टधुम्न को अपने घर ले आये और उसे अस्त्र-शस्त्र की विशिष्ट
शिक्षा दी। बुद्धिमान द्रोणाचार्य यह जानते थे कि कुछ ऐसा होना है जो होकर रहेगा। इसलिये
उन्होंने अपने कीर्ति के अनुरुप उस शत्रु को भी अस्त्र शिक्षा दी, जिसके हाथों उनका
मरना निश्चित था।
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