Tuesday 30 June 2015

आदिपर्व-बकासुर का वध


बकासुर का वध

कुछ रात बीत जाने पर भीमसेन राक्षस का भोजन लेकर बकासुर के वन में गये और वहाँ उसका नाम ले-लेकर पुकारने लगे। वह राक्षस विशालकाय, वेगवान् और बलशाली था। उसकी आँखें लाल, दाढी-मूँछ लाल, कान नुकीले, मुँह कान तक फटा था। देखकर डर लगता था। भीमसेन की आवाज सुनकर वह तमतमा उठा। वह भौंहें टेढी करके दाँत पीसता हुआ इस प्रकार भीमसेन की ओर दौड़ा मानो धरती फाड़ डालेगा। उसने वहाँ आकर देखा तो भीमसेन उसके भाग का अन्न खा रहे हैं। वह क्रोध से आग-बबूला हो आँखें फाड़कर बोला, अरे यह दुर्बुद्धि कौन है, जो मेरे सामने ही मेरा अन्न निगलता जा रहा है। क्या यह यमपुरी जाना चाहता है। भीमसेन हँस पड़े। उसकी कुछ भी परवा न करके मुँह फेर लिया और खाते रहे। वह दोनो हाथ उठाकर भयंकर नाद करता हुआ उन्हें मार डालने के लिये टूट पड़ा। फिर भी भीमसेन उसका तिरस्कार कर खाते ही रहे। उसने भीमसेन की पीठ पर दोनो हाथों से दो घूँसे कसकर जमाये। फिर भी वे खाते ही रहे। अब बकासुर और भी क्रोधित हो एक वृक्ष उखारकर उनपर झपटा। भीमसेन धीरे-धीरे खा-पीकर, हाथ-मुँह धोकर हँसते हुये डटकर खड़े हो गये। राक्षस ने उनपर जो वृक्ष चलाया, उसे उ्होंने बाँयें हाथ से पकड़ लिया।अब दोनो ओर से वृक्षों की मार होने लगी। घमासान लड़ाई हुई। वन के वृक्षों का विनाश सा हो गया। बक ने दौड़कर भीमसेन को पकड़ा। वे उसे हाथों में कसकर घसीटने लगे। जब वह थक गया तब भीमसेन ने जमीन में पटककर घुटनों से रगड़ने लगे। उसकी गर्दन पकड़कर दबा दी और उसकी कमर तोड़ डाली। उसके मुँह से खून गिरने लगा तथा हड्डी-पसली टूट जाने से प्राण-पखेरू उड़ गये। बकासुर की चिल्लाहट से उसके परिवार के राक्षस डर गये और अपने सेवकों के साथ बाहर निकल आये। भीमसेन ने उन्हें डर से अचेत देखकर ढाढस बँधाया और उनसे यह शर्त करायी कि अब तुमलोग कभी मनुष्य को न सताना। यदि भूल से भी ऐसा किया तो इसी प्रकार तुम्हे भी मरना पड़ेगा। राक्षसों ने भीमसेन की बात स्वीकार कर ली। भीमसेन बकासुर की लाश लेकर नगर के द्वार पर आये और वहाँ उसे पटक-कर चुपचाप चले गये। तभी से नागरिकों को कभी राक्षसों के उपद्रव का अनुभव नहीं हुआ। बकासुर के परिवारवाले भी इधर-उधर भाग गये। भीमसेन ने ब्राह्मण के घर जाकर युधिष्ठिर से वहाँ की सब घटना कह दी। इधर नगरवासी प्रातःकाल उठकर बाहर निकले तो देखते हैं कि वह पहाड़ के समान राक्षस खून से लथपथ होकर जमीन पर पड़ा है। उसे देखकर सबके रोंगटे खड़े हो गये। बात-की-बात में यह समाचार चारों ओर फैल गया। हजारों नागरिक जिसमें बड़े-बूढे और स्त्रियाँ भी थीं, उसे देखने के लिये आये। सबने यह अलौकिक कर्म देखकर आश्चर्य प्रकट किया। लोगों ने पता लगाया कि आज किसकी बारी थी। फिर ब्राह्मण के पास जाकर पूछताछ की। ब्राह्मण ने यह घटना छिपाते हुए कहा, आज मेरी बारी थी। इसलिये मैं अपने परिवार के साथ रो रहा था। तभी एक मंत्रसिद्ध ब्राह्मण ने मेरे दुःख का कारण पूछा और प्रसन्नतापूर्वक मुझे विश्वास दिलाकर बोला कि मैं उस राक्षस को अन्न पहुँचा दूँगा। वे ही राक्षस का भोजन लेकर गये थे। अवश्य ही यह उन्हीं का काम है। सभी इस घटना से प्रसन्न होकर सुख से निवास करने लगे।      

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