Wednesday 17 June 2015

आदिपर्व-शेषनाग के वर-प्राप्ति और माता के श्राप से बचने के लिये सर्पों की बातचीत

शेषनाग के वर-प्राप्ति और माता के श्राप से बचने के
लिये सर्पों की बातचीत

उन सर्पों में एक शेषनाग भी थे। उन्होंने कद्रू और अन्य सर्पों का साथ छोड़कर कठिन तपस्या प्रारंभ की।वे अपनी इन्द्रियों को वश में करके गन्धमादन,वदरिकाश्रम,गोकर्ण और हिमालय आदि की तराई में एकान्तवास करते और पवित्र तीर्थों की यात्रा भी करते थे।ब्रह्माजी ने देखा कि शेषनाग के शरीर का माँस,त्वचा और नाड़ियाँ सूख गयी हैं। उनका सच्चा धैर्य और तपस्या देखकर वे उनके पास आये और बोले,शेष,तुम अपनी तीव्र तपस्या से प्रजा को संतप्त क्यों कर रहे हो।इस घोर तपस्या का उद्देश्य क्या है।कोई प्रजा के हित का काम क्यों नही करते।बतलाओ तुम्हारी क्या इच्छा है। शेषजी ने कहा,भगवन्,मेरे सब भाई मूर्ख हैं।इसलिये मैं उनके साथ नहीं रहना चाहता। आप मेरी इस इच्छा का अनुमोदन कीजिये। वे परस्पर एक-दूसरे से शत्रु के समान डाह करते हैं,विनता और उसके पुत्र गरुड़ तथा अरुण से द्वेष करते हैं। इसलिये मैं उनसे ऊबकर तपस्या कर रहा हूँ। विनतानंदन गरुड़ निसंदेह हमारे भाई हैं। अब मैं तपस्या करके यह शरीर छोड़ दूँगा। मुझे चिन्ता है तो इस बात की कि मरने के बाद भी उन दुष्टों का संग न हो।ब्रह्माजी ने कहा,शेष,मुझसे तुम्हारे भाईयों की करतूत छिपी नहीं है। माता की आज्ञा का उल्लंघन करने के कारण वे स्वयं बड़ी विपत्ति में पड़गये हैं। अस्तु,मैने उसका परिहार भी बना रखा है। अब तुम उनकी चिन्ता छोड़कर जो चाहो वर माँग लो। शेषजी ने कहा,पितामह,मैं यही वर चाहता हूँ कि मेरी बुद्धि धर्म,तपस्या और शान्ति में संलग्न रहे। ब्रह्माजी ने कहा,शेष,मैं तुम्हारे इन्द्रियों और मन के संयम से बहुत प्रसन्न हूँ। मेरी आज्ञा से तुम प्रजा के हित के लिये एक काम करो।यह सारी पृथ्वीपर्वत,वन,सागर,ग्राम और नगरों के साथ हिलती-डोलती रहती है।तुम इसे इस प्रकार धारण करो,जिससे यह अचल हो जाये।शेषजी ने कहा,मैं आपकी आज्ञा का पालन करुँगा।आप पृथ्वी को मेरे सिर पर रख दीजिये। ब्रह्माजी के आज्ञानुसार शेषनाग भू-विवर में प्रवेश करके नीचे चले गये और समुद्र से घिरी पृथ्वी को चारों ओर से पकड़कर सिर पर उठा लिया।वे तभी से स्थिरभाव से स्थित हैं।ब्रह्माजी उनके धर्म,धैर्य और शान्ति की प्रशंसा करके लौट गये। अधर्म का आश्रय लेने से तो सारे जगत का ही सत्यानाश हो जायगा। कुछ नागों ने कहा,हम बादल बनकर यज्ञ की आग बझा देंगे। कुछ बोले ,हम यज्ञ की सामग्री ही चुरा लेंगे।कुछ ने कहा,हम लाखों आदमियों को डस लेंगे।वासुकि ने कहा,हमें तुमलोगों के विचार ठीक नहीं जँच रहे हैं।चलो,हमलोग अपने पिता महात्मा कश्यप को प्रसन्न करें और उनके आज्ञानुसार काम करें। अधर्म का आश्रय लेने से तो सारे जगत का ही सत्यानाश हो जायगा।कुछ नागों ने कहा,हम बादल बनकर यज्ञ की आग बझा देंगे। कुछ बोले ,हम यज्ञ की सामग्री ही चुरा लेंगे। कुछ ने कहा,हम लाखों आदमियों को डस लेंगे। वासुकि ने कहा,हमें तुमलोगों के विचार ठीक नहीं जँच रहे हैं। चलो,हमलोग अपने पिता महात्मा कश्यप को प्रसन्न करें और उनके आज्ञानुसार काम करें। उनमें एक एलापत्र नाम का नाग था। उसने सब सर्पों और वासुकि की सम्मति सुनकर कहा कि भाइयों,उस यज्ञ का रुकना और जन्मेजय का मान जाना संभव नहीं है। अपने भाग्य के अपराध को भाग्य पर ही छोड़ देना चाहिये।दू सरे के आश्रय से काम नहीं चलता।इस विपत्ति से बचने के लिये मै जो कहता हूँ,उसे आपलोग ध्यानपूर्वक सुनिये।जिस समय माता ने यह शाप दिया था,उस समय मैं डरकर उसी की गोद में छुप गया था। वह क्रूर शाप सुनकर देवताओं ने ब्रह्माजी के पास जाकर कहा ,भगवन्,कठोर हृदया कद्रू को छोड़कर ऐसी कौन सी स्त्री होगी,जो अपने मुँह से अपनी संतान को शाप दे डाले। स्वयं आपने भी उसके शाप का अनुमोदन ही किया,निषेध नहीं किया। इसका क्या कारण है। ब्रह्माजी ने कहा,देवताओं,इस समय जगत् में सर्प बहुत बढ गये हैं।वे बड़े क्रोधी,डरावने और विषैले हैं। प्रजा के हित के लिये मैने कद्रू को रोका नहीं।इस शाप से क्षुद्र,पापी और जहरीले सर्पों का ही नाश होगा।धर्मात्मा सर्प सुरक्षित रहेंगे। और यह बात भी है कि यायावर वंश में जरत्कारु नाम के एक ऋषि होंगे। उनके पुत्र का नाम होगा आस्तिक। वही जनमेजय का सर्प-यज्ञ बंद करा सकेंगे। तब जाकर धार्मिक सर्पों का छुटकारा होगा ।देवताओं के पूछनेपर ब्रह्माजी ने और भी बतलाया कि जरत्कारु की पत्नी का नाम भी जरत्कारु ही होगा। वह सर्पराज बासुकी की बहिन होगी। उससे आस्तिक का जन्म होगा और वही सर्पों को मुक्त करेगा। इस प्रकार बातचीत करके देवतालोग तथा ब्रह्माजी अपने लोक चले गये। सो,सर्पराज वासुके,मेरे विचार से आपकी बहिन जरत्कारु का विवाह उस जरत्कारु ऋषि से ही होना चाहिये। वे जिस समय भिक्षा के समान पत्नी की याचना करें,उसी समय आप उन्हें अपनी बहन दे दें। यही इस विपत्ति से रक्षा का उपाय है। एलापत्र की बात सुनकर सभी सर्पों ने प्रसन्नचित्त से कहा---ठीक है,ठीक है। उसके थोड़े दिनों बाद ही समुद्र-मंथन हुआ। जिसमें वासुकि नाग की रस्सी बनायी गयी। इसलिये देवताओं ने वासुकि नाग को ब्रह्माजी के पास ले जाकर फिर से वही बात कहला दी,जो एलापत्र नाग ने कही थी। वासुकी ने सर्पों को जरत्कारु ऋषि की खोज में नियुक्त कर दिया और उनसे कह दिया कि जिस समय जरत्कारु ऋषि विवाह करना चाहें,उसी समय शीघ्र-से-शीघ्र आकर मझे सूचित करना। हमलोगों के कल्याण का यही सुनिश्चित उपाय है।

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