ययाति का भोग और वैराग्य
राजा
ययाति पुरु का यौवन लेकर प्रेम, उत्साह और मौज से समयानुकूल रहने लगे। परन्तु वे धर्म
का उल्लंघन कभी नहीं करते थे। वे इन्द्र के समान प्रजा पालन करते थे। धर्मात्मा ययाति
ने देखा कि अब सहस्त्र वर्ष पूरे हो रहे हैं। तब उन्होंने अपने पुत्र पुरु को बुलाया
और कहा, बेटा, मैने तुम्हारी जवानी इच्छानुसार जी लिया है और मुझे विश्वास हो गया है
कि विषयों के भोग की कामना उसके भोग से शान्त नहीं होती। आग में जितना घी डालो वह बढती
ही जाती है।पृथ्वी में जितना अन्न, सोना, स्त्रियाँ आदि हैं, वे एक कामुक की कामना
पूर्ण करने में भी असमर्थ है। इसलिये सुख उनकी प्राप्ति से नहीं, उनके त्याग से ही
होता है। दुर्बुद्धि लोग तृष्णा
का त्याग नहीं करते। बूढे होने पर भी तृष्णा बूढी नहीं होती। यह एक प्राणान्तक
रोग है। इसे छोड़ने पर ही सुख मिलता है। ऐसा कहने के बाद पुरु ने अपना यौवन ले लिया
और ययाति ने अपना बुढापा। प्रजा ने देखा कि महाराज ययाति अपने बड़े पुत्रों को राज्य
से वंचित करके छोटे पुत्र पुरु का अभिषेक करने जा रहे हैं तो उनलोगों ने धर्म के रक्षा
की बात कही। तब ययाति ने कहा कि इनलोगों ने मेरी आज्ञा नहीं मानी है। जो अपने पिता की आज्ञा नहीं मानता वह
सत्पुरुषों की दृष्टि में पुत्र नहीं है। पुरु ने मेरी आज्ञा मानी इसलिये यही
मेरा उत्तराधिकारी है। प्रजा ने संतुष्ट होकर पुरु का राज्याभिषेक किया।इसके बाद राजा
ययाति वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा लेकर नगर से चले गये। यदु से यदुवंशी, तुर्वुसु से
यवन, दह्यु से भोजों और अनु से म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई। पुरु से ही प्रसिद्ध पौरवंश
चला। राजा ययाति वन में कन्द, मूल, फल का भोजन करते थे। उन्होंने अपने मन को वश में
किया, क्रोध पर विजय प्राप्त की। इस प्रकार वे एक हजार वर्ष बिताये। तीस बर्ष तक वे
अपने मन को अधीन करके केवल जल के आधार पर ही जीवन निर्वाह किया। छः महीने तक एक पैर
पर खड़े होकर केवल वायु-पान ही किया। उनकी पवित्र कीर्ति त्रिलोकी में फैल गयी। शरीर
छूटने पर उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई।
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