Thursday 18 June 2015

आदिपर्व -सर्पयज्ञ का निश्चय एवं आरंभ

सर्पयज्ञ का निश्चय एवं आरंभ

जन्मेजय ने यह कहानी सुनकर कहा कि यदि तक्षक धन देकर कश्यप को लौटा न दिया होता तो मेरे पिता की जान बच जाती। मैं उसको इसका दण्ड दूँगा। पिता की मृत्यु का इतिहास सुनकर जनमेजय को बड़ा दुःख हुआ। वे दुःख शोक और क्रोध से भरकर आँसू बहाते हुए शास्त्रोक्त विधि से हाथ में जल लेकर बोले---जिसके कारण मेरे पिता की मृत्यु हुई है, उस दुरात्मा तक्षक से बदला लेने का मैने पक्का निश्चय कर लिया है। ऐसा कहकर उन्होंने राजपुरोहित और ऋषिजनों से कहा--आपलोग ऐसा उपाय बताइये जिससे मैं बदला ले सकूँ। क्या आपलोग ऐसा कर्म जानते हैं जिससे मैं उस क्रूर सर्प को धधकती आग में झोंक सकूँ। ऋषियों ने कहा---राजन्,देवताओं ने आपके लिये पहले ही एक महायज्ञ का निर्माण कर रखा है। राजा ने कहा,मैं यह यज्ञ करुँगा।आपलोग सामग्री संग्रह कीजिये। यज्ञशाला के लिये श्रेष्ठ मंडप तैयार कराया गया।इसी समय एक विचित्र घटना घटित हुई। किसी कला-कौशल के पारंगत विद्वान,अनुभवी और बुद्धिमान सूत ने कहा---जिस स्थान और समय में यज्ञ-मंडप मापने की क्रिया प्रारंभ हुई है, उसे देखकर यह मालूम होता है कि किसी ब्राह्मण के कारण यह यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकेगा।राजा जनमेजय ने यह सुनकर द्वारपाल से कह दिया कि मुझसे सूचना कराये बिना कोई मनुष्य यज्ञ मंडप में न आने पावे। अब सर्पयज्ञ की विधि से कार्य प्रारंभ हुआ। ऋत्विज अपने-अपने काम में लग गये। ऋत्विजों की आँखें धुएँ के कारण लाल-लाल हो रहे थे।वे काले-काले वस्त्र पहनकर मन्त्रोचारणपूर्वक हवन कर रहे थे। उस समय सभी सर्प मन ही मन काँपने लगे। अब बेचारे सर्प तड़पते,पुकारते,उछलते,लम्बी साँस लेते,पूँछ और फनों को एक दूसरे से लपेटते आग में गिरने लगे। नाम ले-लेकर आहुति देने से बड़े-बड़े भयानक सर्प अग्निकुण्ड में गिर जाते थे। बड़ी तीखी दुर्गन्ध चारों ओर फैल गयी तथा सर्पों की चिल्लाहट से आकाश गूँज उठा। यह समाचार तक्षक ने सुना।वह भयभीत होकर देवराज इन्द्र की शरण में गया।उसने कहा, देवराज, मैं अपराधी हूँ। भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये। इन्द्र ने प्रसन्न होकर कहा कि, मैने तुम्हारी रक्षा के लिये पहले से ही ब्रह्माजी से अभय वचन ले लिया है। तुम्हे सर्प यज्ञ से कोई भय नहीं।तुम दुःखी मत होओ। इन्द्र की बात सुककर तक्षक आनन्द से इन्द्रभवन में रहने लगा।   

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