राजर्षि शान्तनु का गंगा
से विवाह और उनके पुत्र भीष्म का युवराज होना
इक्ष्वाकुवंश में महाभिष नाम के एक राजा थे। वे बड़े
सत्यिष्ठ एवं सच्चे वीर थे। उन्होंने बड़े-बड़े राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ करके स्वर्ग
प्राप्त किया। एक दिन बहुत से देवता और राजर्षि, जिनमें महाभिष भी थे, ब्रह्माजी की
सेवा में उपस्थित थे। उसी समय श्रीगंगाजी भी वहाँ आयीं। वायु ने उनके श्वेत वस्त्र
को शरीर पर से कुछ खिसका दिया। तब वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने अपनी आँखें नीची कर लीं,
परन्तु राजर्षि महाभिष उन्हें निःशंक देखते रहे। तब ब्रह्माजी ने कहा, महाभिष, अब तुम
मृत्युलोक में जाओ। जिस गंगाजी को तुम देखते रहे हो, वह तुम्हारा अप्रिय करेगी और तुम
जब उसपर क्रोध करोगे तो शाप से मुक्त हो जाओगे। महाभिष ने ब्रह्माजी का आज्ञा शिरोधार्य
कर यह निश्चय किया कि मैं पुरुवंशी राजा प्रतीप का पुत्र बनूँ। गंगाजी जब वहाँ
से लौटी, तब रास्ते में वसुओं से उनकी भेंट हुई। वे भी वसिष्ठ के शाप से श्रीहीन हो
रहे थे। उन्हें शाप हो चुका था कि तुमलोग मनुष्य-योनि में जन्म लो। गंगाजी ने उनसे
बात-चीत करने के बाद यह स्वीकार कर लिया कि मैं तुम-लोगों को अपने गर्भ में धारण करुँगी
और तत्काल मनुष्य योनि से मुक्त कर दूँगी। उन आठों वसुओं ने भी अपने-अपने अष्टमांश
से एक पुत्र मत्र्यलोक में छोड़ दने की प्रतिज्ञा की और यह भी कह दिया कि वह अपुत्र
रहेगा। इधर पुरुवंश के राजा प्रतीप अपनी पत्नी के साथ गंगाद्वार पर तपस्या कर रहे थे।
एक दिन भगवती गंगा मनोहर मूर्ति धारण करके उनके पास आयीं। बातचीत होने के बाद यह निश्चय
हुआ कि वे राजा प्रतीप के भावी पुत्र की पत्नी बनें। गंगाजी ने प्रतीप की बात स्वीकार
कर ली और राजा प्रतीप ने अपनी पत्नी के सहित पुत्र प्राप्ति के लिये बड़ी तपस्या की।
वृद्धावस्था में उनके यहाँ महाभिष ने पुत्ररुप में जन्म लिया। उस समय राजा प्रतीप शान्त
हो रहे थे अथवा उनका वंश शान्त हो रहा था। ऐसी अवस्था में उनका नाम शान्तनु पड़ा। जब
शान्तनु जवान हुए तो पिता ने कहा कि तुम्हारे पास एक दिव्य स्त्री पुत्र की अभिलाषा
से आवेगी। तुम उसकी कोई जाँच पड़ताल मत करना। वह जो कुछ करे, उनसे कुछ कहना मत। ऐसा कहकर उन्होंने अपने पुत्र
शान्तनु को राजगद्दी पर बैठाया और स्वयं वन में चले गये। एक बार राजर्षि शान्तनु शिकार
खेलते-खेलते गंगा तट पर पहुँचे। उन्होंने वहाँ एक परम सुन्दरी स्त्री देखी। वह दूसरी
लक्ष्मी के समान जान पड़ती थी। उसकी रुप संपत्ति देखकर शान्तनु विस्मित हो गये।सारे
शरीर में रोमांच हो आया। उस दिव्य स्त्री के मन में भी उनके प्रति प्रेम उमर आया। शान्तनु
ने उसका परिचय पूछते हुए याचना की , तुम मुझे पति रुप में स्वीकार कर लो। देवी ने कहा,
राजन् मुझे आपकी रानी होना स्वीकार है। शर्त यह है कि मैं अच्छा-बुरा जो कुछ करुँ,
आप मुझे रोकियेगा नहीं। कुछ कहियेगा भी मत।जबतक आप मेरी यह शर्त पूरी करोगे,
तबतक मैं आपके पास रहूँगी। जिस दिन आप मुझे रोकोगे या कड़ी बात कहोगे, उसी दिन मैं आपको
छोड़कर चली जाऊँगी। राजा ने उसकी बात स्वीकार कर ली। गंगादेवी को बड़ी प्रसन्नता हुई।
राजा ने भी कुछ पूछ-ताछ नहीं की। राजर्षि शान्तनु गंगाजी के शील, सदाचार,रूप, सौन्दर्य,
उदारता आदि सद्गुण और सेवा से बहुत ही आनंदित हुए। गंगादेवी के साथ इस प्रकार आसक्त
हो गये कि उन्हें बहुत से वर्ष बीत जाने का पता तक नहीं चला। अबतक गंगाजी के गर्भ से
सात पुत्र उत्पन्न हो चुके थे। परन्तु ज्यों ही पुत्र होता त्यों ही गंगाजी-मैं
तेरी प्रसन्नता का कार्य करती हूँ-ऐसा कहकर उसे गंगा की धारा में डाल देती थीं। राजा
शान्तनु को यह बात बहुत अप्रिय मालूम होती, परन्तु वे इस भय से बोलते नहीं कि कहीं
यह मुझे छोड़कर चली न जाय। सातों पुत्रों की यही गति हुई। आठवाँ पुत्र होने पर भी हँस
रही थीं। राजा शान्तनु को इससे बड़ा दुःख हुआ और उनके मन में इच्छा हुई कि वह पुत्र
मुझे मिल जाय। उन्होंने कहा, अरे तू कौन, किसकी पुत्री है। इन बच्चों को क्यों मार
डालती है। यह तो महान् पाप है। गंगादेवी ने कहा, ओ पुत्र के इच्छुक, लो मैं तुम्हारे
इस लाडले को नहीं मारती।अब शर्त के अनुसार मेरा यहाँ रहना नहीं हो सकता। देखो, मैं
जह्नु की कन्या गंगा हूँ। बड़े-बड़े महर्षि मेरा सेवन करते हैं। देवताओं के कार्यसिद्धि
के लिये ही मैं तुम्हारे पास इतने दिनों तक रही। मेरे ये आठों पुत्र अष्टवसु हैं। वसिष्ठ
के शाप से इन्हें मनुष्य-योनि में जन्म लेना पड़ा था। उन्हें मनुष्यलोक में तुम्हारे-जैसे
पिता और मेरी जैसी माँ नहीं मिल सकती थी। वसुओं के पिता होने के कारण तुम्हे अक्षय
लोक मिलेंगे। मैने उन्हें तुरन्त मुक्त कर देने की प्रतिज्ञा कर ली थी, इसी से ऐसा
किया। अब वे शाप से मुक्त हो गये, मैं जा रही हूँ। यह पुत्र वसुओं का अष्टमांश है।
इसकी तुम रक्षा करो। शान्तनु
ने कहा, वसिष्ठ ऋषि कौन थे, उन्होंने वसुओं को शाप क्यों दिया, इस शिशु ने ऐसा कौन
सा कर्म किया है, जिससे यह मनुष्य-लोक में रहेगा, वसुओं ने मनुष्य-योनि में जन्म ही
क्यों लिया, ये सब बातें मुझे बताओ। गंगादेवी ने कहा, विश्वविख्यात वसिष्ठ मुनि वरुण
के पुत्र हैं। मेरु पर्वत के पास ही उनका बड़ा पवित्र सुन्दर और सुखकर आश्रम है।वे
वहीं तपस्या करते हैं। कामधेनु की पुत्री नंदिनी उन्हें यज्ञ का हविष्य देने के लिये
वहीं रहती है। एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ उस वन में आये। एक वसुपत्नी
की दृष्टि समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाली नन्दिनी पर पड़ गयी। उसने उसे अपने धौ नामक
वसु को दिखाया। वसु ने कहा, यह सर्वोत्तम गौ वसिष्ठ मुनि की है। यदि कोई मनुष्य इसका
दूध पी ले तो दस हजार वर्ष तक जीवित और जवान रहे। वसुपत्नी ने कहा, मैं अपनी सखी के
लिये यह गाय चाहती हूँ। तुम इसे हर ले चलो। अपनी पत्नी की बात मानकर धौ ने अपने भाइयों
को बुलाया और वह गौ हर ले गये। वसु को इस बात का ध्यान ही न रहा कि ऋषि बड़े तपस्वी
हैं और वे हमें श्राप देकर देवयोनि से च्युत कर सकते हैं। जब महर्षि वसिष्ठ फल-फूल
लेकर अपने आश्रम लौटे, तब सारे वन में ढूँढने पर भी उन्हें नन्दिनी न मिली। उन्होंने
दिव्यदृष्टि से देखकर वसुओंको श्राप दिया, वसुओं ने मेरी गाय हर ली है, इसलिये मनुष्य-योनि
में उनका जन्म होगा। जब परम तपस्वी और प्रभावशाली ब्रम्हर्षि वसिष्ठ ने वसुओं को शाप
दे दिया, तब उन्हें यह बात मालूम हुई, तब वे उन्हें प्रसन्न करने के लिये नन्दिनीसहित
उनके आश्रम पर आये। वसिष्ठ ने कहा, और सब तो एक-एक वर्ष में ही मनुष्य-योनि से छुटकारा
पा जायेंगे परन्तु यह धौ नामक वसु अपना कर्म भोगने के लिये बहुत दिनों तक मर्त्यलोक
में रहेगा। मेरे मुँह से निकली बात कभी झूठी नहीं हो सकती। यह वसु भी मर्त्यलोक में
संतान उत्पन्न नहीं करेगा। साथ ही अपने पिता की प्रसन्नता और भलाई के लिये किसी स्त्री
के स्पर्श से भी दूर रहेगा। वसिष्ठजी की बात सुनकर सब-के-सब मेरे पास आये और प्रार्थना
की कि हमें जन्म लेते ही तुम अपने जल में फेंक देना। मैने स्वीकार कर लिया और वैसा
ही किया। यह अन्तिम शिशु वही धौ नामक वसु है। यह चिरकालतक मनुष्य-लोक में रहेगा।यह
कहकर गंगाजी उस कुमार के साथ ही अन्तर्ध्यान हो गयीं। राजा शान्तनु बड़े मेघावी,धर्मात्मा
और सत्यनिष्ठ थे।उनके सभी सुखी थे। उनकी राजधानी हस्तिनापुर थी। वहीं से वे सारी पृथ्वी
पर राज करते थे। उस समय सबकी वाणी सत्य के आश्रित थी और सबका मन दान के लिये उत्साहित
था। छत्तीस वर्ष तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का निर्वाह करते हुए राजा ने वनवासी जैसा जीवन
व्यतीत किया। एक दिन राजा शान्तनु गंगा नदी के तट पर विचर रहे थे। उन्होंने देखा कि
गंगाजी में बहुत थोड़ा जल रह गया है। वे बड़े विस्मित और चिन्तित हुए कि आज देवनदी गंगा
बह क्यों नही रही है। आगे बढकर उन्होंने खोज की,तब पता चला कि एक बड़ा मनस्वी,सुन्दर
और विशालकाय कुमार दिव्य अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है और और उसने अपने वाणों के प्रभाव
से गंगाजी की धारा रोक दी है। यह अलौकिक कर्म देखकर वे अत्यंत विस्मित हो गये। उन्होंने
अपने पुत्र को पैदा होने के समय ही देखा था इसलिये पहचान नहीं सके। उस कुमार ने राजर्षि
शान्तनु को माया से मोहित कर दिया और स्वयं अंतर्ध्यान हो गया। अब राजर्षि शान्तनु ने गंगाजी से कहा कि उस कुमार को
दिखाओ। गंगाजी सुन्दर रुप धारण करके अपने पुत्र का दाहिना हाथ पकड़े उनके सामने आयीं।
उनका अनुपम सौन्दर्य,दिव्य आभूषण और निर्मल वस्त्र देखकर राजर्षि शान्तनु उन्हें पहचान
न सके। गंगाजी ने कहा, महाराज, यह आपका आठवाँ पुत्र है, जो मुझसे पैदा हुआ था। आप इसे
स्वीकार कजिये और अपनी राजधानी ले जाइये। इसने वसिष्ठ ऋषि से सांगोपांग वेदों का अध्ययन
कर लिया है, अस्त्रों का अभ्यास भी पूरा हो चुका है। देवता और असुर, सभी इसका सम्मान
करते हैं। दैत्यगुरु शुक्राचार्य और देवगुरु वृहस्पति जो कुछ जानते हैं वह सब इसे मालूम
है। आप इस धर्मार्थनिपुण धनुर्धर वीर को अपनी राजधानी में ले जाइये। मैं
इसे सौंप रही हूँ। राजर्षि शान्तनु अपने पुत्र
को राजधानी लाकर बहुत सुखी हुए और शीघ्र ही उसे युवराज-पद पर अभिषेक कर दिया। गंगानंदन
देवव्रत ने अपने शील और सदाचार से सारे देश को प्रसन्न कर लिया। इस प्रकार बड़े आनंद
सेचार वर्ष और बीत गये।
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