Friday 19 June 2015

आदिपर्व-ययाति का देवयानी के साथ विवाह,शुक्राचार्य का शाप और पुरु का यौवन दान

ययाति का देवयानी के साथ विवाह,शुक्राचार्य का शाप और पुरु का यौवन दान

एक दिन की बात है देवयानी अपनी सखियों और शर्मिष्ठा के साथ उसी वन में क्रीड़ा करने के लिये गयी। अभी वह विहार कर ही रही थीं कि नहुषनंदन राजा ययाति भी उधर ही आ निकले। वे खूब थके हुये थे और जल पीना चाहते थे। देवयानी शर्मिष्ठा और दासियों को देखकर उनके मन में जिज्ञासा हो आयी और उन्होंने पूछा, इन दासियों के बीच बैठी आप दोनो कौन हैं। देवयानी ने उत्तर दिया, मैं दैत्यगुरु महर्षि शुक्राचार्य की पुत्री हूँ और यह मेरी सखी दासी है। यह दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री है और मेरी सेवा के लिये सर्वदा मेरे साथ रहती है। इसका नाम शर्मिष्ठा है। मै अपनी सब दासियों और शर्मिष्ठा के साथ आपके अधीन हूँ। आपको मैं अपने सखा और स्वामी के रुप में स्वीकार करती हूँ। आप भी मुझे स्वीकार कीजिये। ययाति ने कहा, शुक्रनंदिनी, तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ। तुम्हारे पिता क्षत्रिय के साथ तुम्हारा विवाह नहीं कर सकते। देवयानी ने कहा, राजन् आपसे पहले किसी ने भी मेरा हाथ नही पकड़ा था। कुएँ से निकालते समय आपने मेरा हाथ पकड़ लिया । इसलिये मैं आपको अपने स्वामी के रुप में वरण करती हूँ। अब भला, दूसरा कोई  पुरुष मेरे हाथ का स्पर्श कैसे कर सकता है। ययाति ने कहा, कल्याणि, जबतक तुम्हारे पिता स्वयं तुम्हे मेरे हाथों सौंप नहीं देते तबतक मैं तुम्हे कैसे स्वीकार कर सकता हूँ। तब देवयानी ने अपनी धाय से पिता के पास संदेश भेजा। उसके मुँह से सब बातें ज्यों-की-त्यों सुनकर शुक्राचार्य राजा ययाति के पास आये। ययाति ने उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हो गये। देवयानी ने कहा, पिताजी, ये नहुषनंदन राजा ययाति हैं। जब मैं कुएँ में गिरा दी गयी थी, तब इन्होंने मेरा हाथ पकड़कर मुझे निकाला था। मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप इनके साथ मेरा विवाह कर दीजिये। मैं इनके अतिरिक्त किसी और को वरण नहीं करुँगी। देवयानी की बात सुनकर शुक्राचार्य ने ययाति से कहा,राजन् मेरी लाडली लड़की ने तुम्हे पतिरुप से वरण किया है। मैं कन्यादान करता हूँ। तुम इसे पटरानी के रुप में स्वीकार करो। ययाति ने कहा, ब्राह्मण्, मैं क्षत्रिय हूँ। ब्राह्मण्-कन्या के साथ विवाह करने से मुझे वर्णसंकरता का दोष लगेगा। आप ऐसी कृपा कीजिेये और वर दीजिये कि वह महान् दोष मेरा स्पर्श न करे। शुक्राचार्य ने कहा, तुम यह संबंध स्वीकार कर लो। किसी प्रकार की चिन्ता मत करो। मैं तुम्हारा पाप नष्ट किये देता हूँ। तुम मेरी पुत्री को पत्नी के रुप में स्वीकार करके धर्म का पालन करो और सुख भोगो। बेटा, वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा का भी तुम उचित सत्कार करना, परन्तु उसे कभी अपनी सेज पर मत बुलाना। तदन्तर शास्त्रोक्त विधि से देवयानी का पाणिग्रहण-संस्कार सम्पन्न हुआ और दासी, शर्मिष्ठा तथा देवयानी को लेकर ययाति ने अपनी राजधानी यात्रा की। ययाति की राजधानी अमरावती के समान थी। वहाँ लौटकर उन्होंने देवयानी को तो अन्तःपुर में रख दिया और शर्मिष्ठा तथा दासियों के लिये देवयानी की सम्मति से अशोकवाटिका के पास एक स्थान बनवा दिया तथा अन्न-वस्त्र की समुचित व्यवस्था कर दी। राजोचित भोग में बहुत दिन बीत गये। समय पर देवयानी को पुत्र हुआ। एक बार संयोगवश राजा ययाति अशोकवाटिका के पास जा निकले और वहीं  शर्मिष्ठा को देखकर कुछ रुक गये। राजा को एकान्त में पाकर शर्मिष्ठा उनके पास गयी और हाथ जोड़कर बोली--- जैसे चन्द्रमा, इन्द्र, विष्णु, यम और वरुण के महल में कोई स्त्री सुरक्षित रह सकती है, वैसे ही मैं आपके यहाँ सुरक्षित हूँ। शर्मिष्ठा कुछ कथन का औचित्य समझकर राजा ने स्वीकार किया। राजा को देवयानी से दो पुत्र हुये मनु और तुर्वसु, और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र हुये द्रह्यु, अनु और पुरू। इस प्रकार बहुत समय बीत गया। एक दिन देवयानी राजा ययाति के साथ अशोकवाटिका में गयी। वहाँ देवयानी ने देखा कि देवताओं के समान सुन्दर तीन सुकुमार कुमार खेल रहे हैं। उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उसने पूछा, आर्यपुत्र, ये सुन्दर कुमार किसके हैं। इनका सौन्दर्य तो आप जैसा ही मालूम पड़ता है। फिर देवयानी ने उन बच्चों से पूछा, तुमलोगों के नाम क्या हैं, किस वंश के हो, तुम्हारे माँ-बाप कौन हैं, ठीक ठीक बताओ। बच्चों ने अंगुलियों से राजा की ओर संकेत किया और कहा, हमारी माँ है शर्मिष्ठा। और बड़े प्रेम से राजा के पास दौड़ गये। उस समय देवयानी साथ थी, इसलिये राजा ने उन्हें गोद में नहीं लिया। वे उदास होकर रोते-रोते शर्मिष्ठा के पास चले गये। राजा कुछ लज्जित से हो गये। देवयानी सारा रहस्य समझ गयी। उसने शर्मिष्ठा के पास जाकर कहा, शर्मिष्ठे, तू मेरी दासी है। तूने मेरा अप्रिय क्यों किया। तेरा आसुर स्वभाव मिटा नहीं। तू मुझसे डरती नहीं। शर्मिष्ठा ने कहा, मैने राजर्षि के साथ जो किया है वह धर्म और न्याय के अनुसार है। फिर मैं डरूँ क्यों। मैने तुम्हारे साथ उन्हें अपना पति मान लिया था। तुम - ब्राह्मण कन्या होने के कारण मुझसे श्रेष्ठ हो। परन्तु ये राजर्षि तो तुम्हारी अपेक्षा मेरे अधिक प्रिय हैं। देवयानी क्रोधित होकर राजा से कहने लगी, आपने मेरा अप्रिय किया। वह आँखों में आँसू भरकर अपने पिता के घर चल पड़ी। ययाति दुःखी हुये और साथ ही भयभीत भी। वे उसके पीछे-पीछे चलकर उसे बहुत समझाते-बुझाते रहे, परन्तु उसने एक न सुनी। दोनो शुक्राचार्य के पास पहुँचे। प्रणाम के पश्चात् देवयानी ने कहा, पिताजी, धर्म को अधर्म ने जीत लिया। शर्मिष्ठा मुझसे आगे बढ गयी। उसके तीन पुत्र हुए हैं मेरे इन महाराज से ही। धर्मज्ञ होकर भी इन्होंने धर्म-मर्यादा का उल्लंघन किया है। शुक्राचार्य ने कहा, राजन्, तुमने जान-बूझकर धर्म मर्यादा का उल्लंघन किया है इसलिये मैं तुम्हे शाप देता हूँ कि तुम बूढे हो जाओ। शुक्राचार्य के शाप देते ही राजा ययाति बूढे हो गये। अब उन्होंने शुक्राचार्य से प्रार्थना की और कहा, आप हम दोनो पर कृपा कीजिये जिससे मैं बूढा न होऊँ। आचार्य ने कहा, मेरी बात झूठी नहीं हो सकती। हाँ, तुम्हे इतनी छूट देता हूँ कि तुम अपना यह बुढापा किसी दूसरे को दे सकते हो। ययाति ने कहा, ब्रह्मण्, आप ऐसी आज्ञा दीजिये कि जो पुत्र मुझे अपनी जवानी देकर बुढापा ले ले वही राज्य, पुण्य और यश का भागी हो। आचार्य ने कहा, ठीक है, श्रद्धापूर्वक मेरा चिन्तन करने पर तुम्हारा बुढापा दूसरे पर चला जायगा और जो पुत्र तुम्हे जवानी देगा, वही राजा, आयुष्मान्, यशस्वी और तुम्हारे कुल का वंशधर होगा। राजा ययाति अपनी राजधानी में आये। पहले उन्होंने यदु को बुलाकर कहा--मैं बूढा हो गया हूँ परन्तु मैं अपनी जवानी से तृप्त नहीं हुआ हूँ। तुम मेरा बुढापा लेकर अपनी जवानी दे दो। एक हजार वर्ष पूरे होने पर मैं तुम्हारी जवानी फिर तुम्हे लौटा दूँगा। यदु ने कहा--बुढापे में अनेकों दोष हैं। मैं आपका बुढापा नहीं ले सकता। ययाति ने कहा, अजी तुम मेरे हृदय से उत्पन्न हुए हो फिर भी मुझे अपनी जवानी नहीं देते। जाओ तुम्हारी सन्तान को राज्य का हक नहीं मिलेगा। फिर उन्होंने अपने दूसरे पुत्र तुर्वसु को बुलाकर भी वही बात कही परन्तु उसने भी बुढापा लेने से इन्कार कर दिया। ययाति ने उसे भी शाप देते हुए कहा, तेरा वंश नहीं चलेगा। इस प्रकार देवयानी के दोनो पुत्रों को शाप देकर ययाति ने शर्मिष्ठा के पुत्र दह्यु को बुलाया और उसे अपने बुढापे के बदले जवानी देने की बात कही। दह्यु ने कहा, मैं बुढापा नहीं चाहता।ययाति ने उसे भी श्राप दिया कि वह ऐसे जगह रहेगा जहाँ नाव छोड़कर किसी सवारी से नहीं जाया जा सकता। और राज्य उसे भी नहीं मिलेगा। लोग तुझे भोज कहेंगे। इन पुत्रों से निराश होकर अंत में पुरु को बुलाकर कहा,तुम मेरा बुढापा लेकर अपनी जवानी दे दो। एक हजार वर्ष पूरा होने पर मैं अपने पाप के साथ बुढापा ले लूँगा। पुरु ने बड़ी प्रसन्नता से उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। ययाति ने आशीर्वाद दिया, मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारी प्रजा सर्वदा सुखी रहेगी। ऐसा कहकर उन्होंने शुक्राचार्य का ध्यान किया और अपना बुढापा पुरु को देकर उसकी जवानी ले ली। 

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