देवता,दानव,आदि का मनुष्यों के
रुप में अंशावतार एवं कर्ण की उत्पत्ति
ब्रह्माजी के मानस-पुत्र मरीचि,अत्रि,अंगिरा,पुलस्त्य और क्रतु
थे। मरीचि के पुत्र कश्यप थे और कश्यप से ही सारी प्रजा की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी
के मानस-पुत्र मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य और क्रतु थे। मरीचि के पुत्र कश्यप थे
और कश्यप से ही सारी प्रजा की उत्पत्ति हुई। दक्ष-प्रजापति की तेरह कन्याओं का नाम
था---अदिति, दनु, काला, दनायु,सिंहिका ,क्रोधा, प्राधा विश्रा, विनता, कपिला, मुनि
और कद्रू। इनसे उत्पन्न पुत्र-पौत्रों की संख्या अनन्त है। अदिति के बारह आदित्य हुए। दिति का एक पुत्र था हिरण्यकशिपु। उसके पाँच पुत्र हुए।
उनमें से एक प्रह्लाद के तीन पुत्र थे। विरोचन, कुम्भ और निकुम्भ। विरोचन का पुत्र
बलि और बलि का पुत्र बाणासुर। बाणासुर भगवान शंकर का महान सेवक था। दानवों की संख्या
असंख्य है। सिंहिका से राहू हुआ, जो सूर्य और चन्द्रमा को ग्रसता है। भृगु ऋषि से असुरों
के पुरोहित शुक्राचार्य का जन्म हुआ। इनके चारों पुत्र जिनमें त्वष्टाधर और अत्रि प्रधान
थे। ये असुरों का यज्ञ कराया करते थे। यह असुर और सुरवंशों की उत्पत्ति पुराणों के
अनुसार है। अत्रि के बहुत से पुत्र हुये। ब्रह्माजी के दाँये अंगूठे से दक्ष हुये।
भरद्वाज मुनि के यहाँ वृहस्पतिजी के अंश से द्रोणाचार्य अवतीर्ण हुये उनके यहाँ महादेव,
यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से भयंकर अश्वत्थामा का जन्म हुआ। वशिष्ठ ऋषि के श्राप
और इन्द्र की आज्ञा से आठो वसु राजर्षि शान्तनु और गंगाजी से उत्पन्न हुये। उनमें से
सबसे छोटे भीष्म थे। वे कौरवों के रक्षक,वेदवेत्ता ज्ञानी और श्रेष्ठ वक्ता थे। उन्होंने
भगवान परशुराम से युद्ध किया था। मरुद्गण के अंश से वीरवर सत्यवादी सात्यकि ,राजर्षि
द्रुपद ,कृतवर्मा और विराट का जन्म हुआ था। अरिष्टा का पुत्र हंस नामक गंधर्वराज धृतराष्ट्र
के रुप में पैदा हुआ था। उनका छोटा भाई पाण्डु के रुप में। सूर्य के अंश धर्म ही विदुर
के नाम से प्रसिद्ध हुये। कुरुकुल कलंक दुरात्मा दुर्योधन कलियुग के अंश से उत्पन्न हुआ था। उसने
आपस में वैर की आग सुलगाकर पृथ्वी को भष्म कर दिया। पुलस्यवंश के राक्षसों ने
दुर्योधन के सौ भाइयों के रुप में जन्म लिया था। धृतराष्ट्र का वह पुत्र,जिसका नाम
युयुत्सु था ,इनसे अलग था। युधिष्ठिर धर्म के, भीमसेन वायु से, अर्जुन इन्द्र के तथा
नकुल-सहदेव अश्विनीकुमारों के अंश से उत्पन्न हुये। चन्द्रमा का पुत्र वर्चा अभिमन्यु
हुआ था। वर्चा के जन्म के समय चन्द्रमा ने देवताओं से कहा था, मैं अपने प्राणप्यारे
पुत्र को नहीं भेजना चाहता, फिर भी इस काम से पीछे हटना उचित नहीं जान पड़ता। असुरों
का वध करना भी तो अपना ही काम है। इसलिये वर्चा मनुष्य बनेगा तो सही, परन्तु वहाँ अधिक
दिनों तक नहीं रहेगा। इन्द्र के पास नरवतार अर्जुन होगा जो नरायणावतार श्रीकृष्ण से
मित्रता करेगा। वसुदेवजी के पिता का नाम शूरसेन था। उनकी एक अनुपम रुपवती कन्या थी
जिसका नाम था पृथा। शूरसेन ने अग्नि के सामने प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपनी पहली संतान
अपनी बुआ के सन्तानहीन पुत्र कुन्तिभोज को दे दूँगा। उनके यहाँ पहले ही पृथा का जन्म
हुआ इसलिये उन्होंने उसे कुन्तिभोज को दे दिया। जिस समय पृथा छोटी थी, अपने पिता कुन्तिभोज
के पास रहती और अतिथियों का सेवा सत्कार करती। एक बार पृथा ने दुर्बासा ॠषि की बड़ी
सेवा की। उसकी सेवा से जितेन्द्रिय ऋषि बड़े प्रसन्न हुये। उन्होंने पृथा को एक मंत्र
बतलाया और कहा कि,कल्याणि,मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, तुम इस मंत्र से जिस देवता का आह्वान
करोगी, उसी के कृपा प्रसाद से तुम्हे पुत्र उत्पन्न होगा। दुर्बासा ऋषि की बात सुनकर
पृथा को बड़ा कुतूहल हुआ। उसने एकान्त में जाकर भगवान् सूर्य का आह्वान किया। सूर्यदेव ने आकर तत्काल गर्भस्थापन किया,जिससे उन्हीं के समान तेजस्वी कवच
और कुण्डल पहने एक सुन्दर बालक उत्पन्न हुआ।कलंक से भयभीत होकर कुन्ती ने उस बालक को
छिपाकर नदी में बहा दिया। अधिरथ ने उसे निकाला और अपनी पत्नी राधा के पास ले जाकर उसे पुत्र बना
लिया। उन दोनो ने उस बालक का नाम वसुषेण रखा था।वही पीछे कर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ।वह
शस्त्र-विद्या में बड़ा प्रवीण और वेदांगों का ज्ञाता हुआ।वह बड़ा उदार,सत्य,पराक्रमी
और बुद्धिमान था।जिस समय वह जप करने के लिये बैठता,उस समय ब्राह्मण उससे जो माँगते
वही दे देता था। एक दिन की बात है। कर्ण जप कर रहा था। देवराज इन्द्र सारी प्रजा और
अपने पुत्र अर्जुन के हित के लिये ब्राह्मण का वेष धारण कर उनके पास आये और उन्होंने
उसके शरीर के साथ उत्पन्न कवच और कुण्डल माँगे। कर्ण ने अपने शरीर से चिपके कवच को
उधेड़कर और कुण्डल उतारकर दे दिये। उसकी इस उदारता से प्रसन्न होकर इन्द्र ने एक शक्ति
दी और कहा, हे, अजित, तुम यह शक्ति देवता, असुर ,मनुष्य, गन्धर्व, सर्प, राक्षस अथवा
जिस किसी पर चलाओगे, उसका तत्काल नाश हो जायगा। तभी से वह वैकर्तन नाम से प्रसिद्ध
हुआ। वह श्रेष्ठ योद्धा, दुर्योधन का मंत्री, सखा और श्रेष्ठ महापुरुष था। देवाधिदेव
सनातन पुरुषनरायनभगवान् के अंश से वासुदेव श्रीकृष्ण अतरित हुए। महाबली बलदेवजी शेष
के अंश थे। सनत्कुमारजी प्रद्युम्न हुये। यदुवंश में और भी देवता मनुष्य के रुप में
अवतीर्ण हुये थे। इन्द्र के आज्ञानुसार अप्सराओं के अंश से सोलह-हजार स्त्रियाँ उत्पन्न
हुईं। राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिनी के रुप में लक्ष्मीजी और द्रुपद के यहाँ यज्ञकुण्ड
से द्रौपदी के रुप में इन्द्राणी उत्पन्न हुई थी। कुन्ती और माद्री के रुप में सिद्धि
और धृति का जन्म हुआ था। ये ही पाण्डवों की माता हुईं। मति का जन्म राजा सुबल की पुत्री
गान्धारी के रुप में हुआ था।
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