Thursday 18 June 2015

आदिपर्व-श्रीवेदव्यासजी की आज्ञा से वैशम्पायनजी का कथा प्रारंभ करना

श्रीवेदव्यासजी की आज्ञा से वैशम्पायनजी का कथा प्रारंभ करना
महाभारत की कथा बड़ी ही पवित्र है। इसमें पाण्डवों का यश गाया गया है। सर्पयज्ञ के अन्त में जनमेजय  की प्रार्थना से भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायणने वैशम्पायनजी को यह आज्ञा दी थी कि तुम यह कथा सुनाओ। भगवान् वेदव्यास द्वारा निर्मित महाभारत आख्यान के वर्णन में आनंद का अनुभव होता है। जब भगवान श्रीकृष्णद्वैपायणको यह बात मालुम हुई कि जनमेजय सर्पयज्ञ में दीक्षित हो गये हैं, तब वे वहाँ आये। भगवान् व्यास का जन्म शक्ति-पुत्र पराशर के द्वारा सत्यवती के गर्भसे यमुना की रेतीमें हुआ था। वे ही पाण्डव के पितामह थे। वे जन्मते ही स्वेच्छा से बड़े हो गये और वेद तथा इतिहासों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। उन्हें जो ज्ञान प्राप्त हुआ था , उसे कोई तपस्या, वेदाध्ययन, व्रत, उपवास, स्वाभाविक शक्ति और विचार नहीं प्राप्त कर सकता। उन्होंने ही एक वेद को चार भागों में विभक्त कर दिया। उन्ही की कृपा से पाण्डु धृतराष्ट्र और विदुर का जन्म हुआ। उन्होंने अपने शिष्यों के साथ जनमेजय के यज्ञ-मंडप में प्रवेश किया। उन्हे देखते ही राजर्षि जनमेजय झटपट सभासदों सहित उठकर शिष्टाचारपूर्वक यज्ञ-मंडप ले आये। उन्हें सुवर्णसिंहासन पर बैठाकर विधिवत् पूजा की। तदनन्तर जनमेजय ने सभासदों के साथ हाथ जोड़कर व्यासजी से यह प्रश्न किया,भगवन् आपने कौरवों और पाण्डवों को अपनी आँखों से देखा था। मैं चाहता हूँ कि आपके मुँह से उनका चरित्र सुनूँ। वे तो बड़े धर्मात्मा थे फिर उनलोगों में अनबन का क्या कारण हुआ। उस घोर संग्राम की नौबत कैसे आ गयी। आप कृपा करके मुझे उसका पूरा विवरण सुनाइये। जनमेजय की बात सुनकर भगवान् वेदव्यास ने पास ही बैठे हुये अपने शिष्य वैशम्पायन से कहा---वैशम्पायन, कौरवों और पाण्डवों में जिस प्रकार फूट पड़ी थी, वह सब तुम मुझसे सुन चुके हो। अब वही बात तुम जनमेजय को सुना दो। अपने पूज्य गुरुदेव की आज्ञा सुनकर भरी सभा में वैशम्पायनजी ने कहना प्रारंभ किया। भगवान् वेदव्यास द्वारा निर्मित यह इतिहास बड़ा ही पवित्र तथा विस्तृत है। इसके वक्ता और श्रोता ब्रह्मलोक में जाकर देवताओं के समकक्ष हो जाते हैं। इसके श्रवण कीर्तन से मनुष्य सारे पापों से छूट जाता है। इसमें भरतवंशियों के महान् जन्म का कीर्तन है,इसलिये इसको महाभारत कहते हैं। भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर स्नान-सन्ध्या आदि से निवृत हो इसकी रचना करते थे,इस प्रकार तीन वर्ष में यह पूरा हुआ था। जैसे समुद्र और सुमेरु रत्नों की खान है वैसे ही यह ग्रन्थ कथाओं का मूल उद्गम हैं। इसके दान से सारी पृथ्वी के दान का फल मिलता है। धर्म ,अर्थ,काम और मोक्ष के संबंध में जो बात इस ग्रंथ में है,वही सर्वत्र है।

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