Wednesday 17 June 2015

आदिपर्व-अमृत के लिये गरुड़ की यात्रा और गज-कच्छप का वृतांत

अमृत के लिये गरुड़ की यात्रा और गज-कच्छप का वृतांत

सर्पों की बात सुनकर गरुड़ ने अपनी माता विनता से कहा,माता मैं अमृत के लिये जा रहा हूँ। उसके पहले मैं यह जानना चाहता हूँ कि वहाँ क्या खाऊँगा। विनता ने कहा,बेटा समुद्र में निषादों की एक बस्ती है। उन्हें खाकर तुम अमृत ले आओ। लेकिन एक बात का स्मरण रखना। ब्राह्मण का वध कभी न करना। गरुड़जी माता की आज्ञा के अनुसार उस द्वीप के निषादों को खाकर आगे बढे। गलती से एक ब्राह्मण उनके मुँह में आ गया,जिससे उनका तालू जलने लगा। उसे छोड़कर वे कश्यप जी के पास गये। कश्यपजी ने पूछा--बेटा,तमलोग सकुशल तो हो। आवश्यकतानुसार खाना तो मिल जाता है। गरुड़ ने कहा,हम सभी और माता सानंद हैं। यथेष्ट भोजन न मिलने से कुछ दुःख रहता है। मैं अपनी माता को दासीपन से छुड़ाने के लिए सर्पों के कहने पर अमृत लाने के लिये जा रहा हूँ। माता ने मुझे निषादों का भोजन करने के लिए कहा था परंतु उससे मेरा पेट नहीं भरा। अब आप कोई एसी खाने की वस्तु बताईये,जिसे खाकर मैं अमृत ला सकूँ। कश्यपजी ने कहा --बेटा यहाँ से थोड़ी दूर पर एक विश्वविख्यात सरोवर है।उसमें एक हाथी और एक कछुआ रहता है। वे दोनो पूर्वजन्म के भाई परंतु एक दूसरे के शत्रु हैं।  उनके पूर्व-जन्म की कथा------प्राचीनकाल में विभावसु नामक एक बड़े क्रोधी ऋषि थे। उनका छोटा भाई था बड़ा तपस्वी सुप्रतीक। सुप्रतीक अपने धन को बड़े भाई के साथ नहीं रखना चाहता था। वह नित्य बँटवारे के लिए कहा करता।विभावसु ने अपने छोटे भाई से कहा--सुप्रतीक,धन के मोह के कारण ही लोग उसका बँटवारा चाहते हैं और बँटवारा होने पर एक दूसरे के विरोधी हो जाते हैं। तब शत्रु भी अलग-अलग मित्र बन जाते हैं और भाई-भाई में भेद डाल देते हैं। उनका मन फटते ही मित्र बने हुए शत्रु दोष दिखा-दिखाकर वैर-भाव बढा देते हैं। अलग-अलग होने से तत्काल उनका अधःपतन हो जाता है। क्योंकि फिर वे एक-दूसरे की मर्यादा और सौहार्द का ध्यान नहीं रखते। इसीलिये सत्पुरुष भाईयों के अलगाव की बात को अच्छी नहीं मानते।जो लोग गुरु और शास्त्र के उपदेश पर ध्यान न देकर परस्पर एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, उनको वश में रखना कठिन है। तू भेद-भाव के कारण ही धन अलग करना चाहता है। इसलिये जा,तझे हाथी की योनि प्राप्त होगी।सुप्रतीक ने कहा,मैं हाथी होऊँगा तो तुम कछुआ होगे। गरुड़,दोनो भाई धन के लालच से एक दूसरे को शाप देकर हाथी और कछुआ हो गये हैं।यह पारस्परिक द्वेष का परिणाम है।वे दोनो विशालकाय जन्तु अब भी आपस में लड़ते रहते हैं।कश्यपजी ने कहा तुम जाकर उन दोनो भयंकर जन्तुओं को खा जाओ और अमृत ले आओ। कश्यपजी की आज्ञा प्राप्त कर गरुड़जी उस सरोवर पर गये।उन्होंने एक नख से हाथी और दूसरे नख से कछुए को पकड़ लिया था।वे आकाश में बहुत ऊँचे उड़कर अलम्ब तीर्थ में जा पहुँचे।वहाँ सुवर्णगिरि पर बहुत से वृक्ष लहरा रहे थे। वे गरुड़ को देखते ही इस भय से काँपने लगे कि कहीं इनके धक्के से हम टूट न जायें।उनको भयभीत देखकर गरुड़जी दूसरी ओर निकल गये। उधर एक बड़ा सा वटवृक्ष था।वटवृक्ष ने गरुड़जी को मन के वेग से उड़ते देखकर कहा कि तुम मेरी सौ योजन लम्बी शाखा पर बैठकर हाथी और कछुए को खा लो। ज्योंही गरुड़जी उसकी शाखा पर बैठे त्योंही वह चरचरकर टूट गयी और गिरने लगी।गरुड़जी ने गिरते-गिरते उस शाखा को पकड़ लिया और बड़े आश्चर्य से देखा कि उसमें नीचे की ओर सिर करके वालखिल्य नामक ऋषिगण लटक रहे हैं। गरुड़जी ने सोचा कि यदि शाखा गिर गयी तो ये तपस्वी ब्रह्मर्षि मर जायेंगे। अब उन्होंने झपटकर अपनी चोंच से वृक्ष की शाखा पकड़ ली तथा  हाथी और कछुए को पंजों में दबोचे आकाश में उड़ने लगे। कहीं भी बैठने का स्थान न पाकर वे आकाश में उड़ते ही रहे। उस समय उनके पंखों की हवा से पहाड़ भी काँप उठते थे। वालखिल्य ऋषियों के ऊपर दयाभाव होने के कारण वे कहीं बैठ न सके और उड़ते-उड़ते गंधमादन पर्वत पर गये।कश्यपजी ने उन्हें उस अवस्था में देखकर कहा,बेटा--कहीं सहसा साहस का काम न कर बैठना। सूर्य की किरण पीकर तपस्या करने वाले वालखिल्य ऋषि क्रुद्ध होकर कहीं तुम्हें भस्म न कर दें।पुत्र से इस प्रकार कहकर उन्होंने तपःशुद्ध वालखिल्य ऋषियों से प्रार्थना की और कहा,गरुड़ प्रजा के हित के लिये एक महान कार्य करना चाहता है। आपलोग इसे आज्ञा दीजिये। वालखिल्य ऋषियों ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके वटवृक्ष की शाखा छोड़ दी और तपस्या करने हिमालय पर चले गये। गरुड़ जी ने वह शाखा फेंक दी और पर्वत की चोटी पर बैठकर हाथी तथा कछुए को खाया। गरुड़जी खा-पीकर पर्वत की उस चोटी से ही ऊपर की ओर उड़े।उस समय देवताओं ने देखा कि उनके यहाँ भयंकर उत्पात हो रहे कर सर्पों के पास चल दियेहैं। देवराज इन्द्र ने बृहस्पतिजी के पास जाकर पूछा--भगवन्,एकाएक बहुत से उत्पात क्यों होने लगे। कोई ऐसा शत्रु तो दिखाई नहीं पड़ता जो मुझे युद्ध में जीत सके।बृहस्पतिजी ने कहा,इन्द्र तुम्हारे अपराध और प्रमाद से तथा महत्मा वालखिल्य ऋषियों के तपोबल से विनतानंदन गरुड़ यहाँ अमृत लेने आ रहा है। वह आकाश में स्वच्छंद विचरता तथा इच्छानुसार रुप धारण कर लेता है। वह अपनी शक्ति से असाध्य कार्य को भी साध सकता है। अवश्य ही उसमें अमृत हर ले जाने की शक्ति है। बृहस्पतिजी की बात सुनकर इन्द्र ने अमृत के रक्षकों को सावधान करके कहा कि देखो,परम परक्रमी पक्षीराज गरुड़ अमृत ले जाने के लिये आ रहा है। सचेत रहो। वह बलपूर्वक अमृत न ले जाने पावे। सभी देवता और स्वयं इन्द्र भी अमृत को घेरकर उसकी रक्षा के लिये डट गये। गरुड़ ने वहाँ पहुँचते ही पंखों की हवा से इतनी धूल उड़ायी कि देवता अंधे से हो गये। वे धूल से ढककर मूढ से बन गये। सभी रक्षक आँखें खराब होने से डर गये। वे एक क्षण तक गरुड़ को देख भी नहीं सके। सारा स्वर्ग क्षुब्ध हो गया। चोंच और डैनों की चोट से देवताओं के शरीर जर्जरित हो गये। इन्द्र ने वायु को आज्ञा दी कि तुम यह धूल का पर्दा फाड़ दो। यह तुम्हारा कर्तव्य है। वायु ने वैसा ही किया। चारों ओर उजाला हो गया,देवता उनपर प्रहार करने लगे। गरुड़ ने उड़ते-उड़ते ही गरजकर उनके प्रहार सह लिये और आकाश में उनसे भी ऊँचे पहुँच गये। देवताओं के शस्त्रास्त्रों के प्रहार से गरुड़ तनिक भी विचलित नहीं हुये। उनके आक्रमण को विफल कर दिया। गरुड़ के पंखों और चोंचों की चोट से देवताओं की चमड़ी उधड़ गयी,शरीर खून से लथपथ हो गया। वे घबराकर स्वयं ही तितर-बितर हो गये। इसके बाद गरुड़ आगे बढे। उन्होंने देखा कि अमृत के चारों ओर आग की लपटें उठ रही हैं। अब गरुड़ ने शरीर में आठ-हजार एक सौ मुँह बनाये तथा बहुत-सी नदियों का जल पीकर उसे धधकती हुई आग पर उड़ेल दिया। अग्नि शान्त होने पर छोटा सा शरीर धारण करके  वे और आगे बढे।         

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