दुष्यंत और शकुन्तला का गान्धर्व-विवाह
पूरुवंश का प्रवर्तक था
परमप्रतापशाली राजा दुष्यन्त। समुद्र से घिरे हुये बहुत से प्रदेश और म्लेच्छों के
देश भी उनके अधीन थे। वे अपनी प्रजा का पालन-पोषण बड़ी योग्यता के साथ करते थे। सभी
धर्म के प्रेमी थे। चोर, भूख अथवा रोग का भय बिलकुल नहीं था। समय पर वर्षा होती थी।
अन्न सरस होते थे और पृथ्वी सब प्रकार से रत्न और पशुधन से परिपूर्ण थी। सभी कर्मनिष्ठ
थे और छल-कपट पाखंड की छाया भी उन्हे नही छूती थी। दुष्यंत स्वयं एक बलवान
युवक थे। उनकी शक्ति इतनी अद्भुत थी कि वे वन-उपवन सहित मन्दराचल को उखारकर धारण कर
सकते थे। वे सभी शस्त्र विद्या में निपुण थे।वे विष्णु के समान बलवान्, सूर्य के समान तेजस्वी, समुद्र
के समान अक्षोभ्य और पृथ्वी के समान क्षमाशील थे। एक दिन की बात है। महाबाहु
राजा दुष्यंत अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ गहन वन में पहुँचे। उसे पार करने पर उन्हें
एक मनोहर आश्रमयुक्त उपवन मिला। वह उपवन बड़ा ही सुन्दर था। वहाँ के वृक्ष खिले हुये
पुष्पों से लद रहे थे। सुन्दर-सुन्दर पक्षी मधुर स्वरों से चहक रहे थे।
राजा दुष्यंत उपवन की शोभा
देख ही रहे थे कि उनकी दृष्टि उस मनोरम आश्रम पर पड़ी।
उस आश्रम में स्थान-स्थान
पर अग्निहोत्र की ज्वालाएँ प्रज्वलित हो रही थी। बालखिल्य आदि ऋषि ,यज्ञशाला, पुष्प
और जलाशयों के कारण उसकी अद्भुत शोभा हो रही थी। सामने ही मालिनी नदी बह रही थी जिसका
जल बड़ा ही स्वादिष्ट था। अनेकों ऋषि-मुनि आसन लगाये घ्यानमग्न थे।राजा को ऐसा मालूम
हुआ, मानो मैं ब्रह्मलोक में खड़ा हूँ। दुष्यंत के नेत्र और मन
वन की छटा देखकर तृप्त नहीं होते थे। इस प्रकार राजा दुष्यंत ने सब देखते सुनते काश्यपगोत्रिय
कण्व ऋषि के एकान्त और मनोहर आश्रम में मंत्री और पुरोहितों के साथ प्रवेश किया। दुष्यन्त
ने मंत्री और पुरोहितों को आश्रम के द्वार पर ही रोक दिया और स्वयं भीतर गया। वहाँ
उस समय कण्व ऋषि उपस्थित नहीं थे। राजा ने आश्रम को सूना देखकर ऊँचे स्वर में पुकारा,
यहाँ कौन है। दुष्यन्त की आवाज सुनकर एक लक्ष्मी के समान सुन्दरी कन्या तपस्विनी के
वेष में आश्रम से निकली। उसने राजा दुष्यन्त को देखकर सम्मानपूर्वक कहा, स्वागत है।
फिर उसने आसन और अर्ध्य के द्वारा राजा का आतिथ्य करके उनसे स्वास्थ्य और कुशल के संबंध
में प्रश्न किया। स्वागत, सत्कार के बाद उस तपस्विनी कन्या ने तनिक मुस्कराकर पूछा
कि, मैं आपकी क्या सेवा करूँ। राजा दुष्यन्त ने सर्वांगसुन्दरी एवं मधुरभाषिणी कन्या
की ओर देखकर कहा, मैं परम भाग्यशाली महर्षि कण्व का दर्शन करने आया हूँ। वे इस समय कहाँ
हैं, कृपा करके बतलाइये। शकुन्तला ने कहा, मेरे पूजनीय पिताजी फल-फूल लेने के लिये
आश्रम से बाहर गये हैं। आप घड़ी-दो-घड़ी उनकी प्रतीक्षा कीजिये, तब उनसे मिल सकेंगे।
शकुन्तला का यौवन और अनुपम
रुप देखकर दुष्यन्त ने पूछा, सुन्दरी, तुम कौन हो ,तुम्हारे पिता कौन हैं और यहाँ किसलिये
आयी हो। तुमने मेरा मन मोहित कर लिया है। मैं तुम्हे जानना चाहता हूँ। शकुन्तला ने
बड़ी मिठास के साथ कहा, मैं महर्षि कण्व की पुत्री हूँ। राजा ने कहा, महर्षि कण्व तो
अखंड ब्रह्मचारी हैं। धर्म अपने स्थान से विचलित हो सकता है, परन्तु वे नहीं। ऐसी दशा
में तुम उनकी पुत्री कैसे हो सकती हो। शकुन्तला ने कहा, राजन्, एक ऋषि के पूछने पर
मेरे पूजनीय पिता कण्व ने मेरे जन्म की कहानी
सुनायी थी। उससे मैं जान सकी हूँ कि जिस समय परम प्रतापी विश्वामित्रजी तपस्या
कर रहे थे, उस समय इन्द्र ने उनके तप में विघ्न डालने के लिये मेनका नाम की अप्सरा
भेजी थी। उसी के संयोग से मेरा जन्म हुआ। माता मुझे वन में छोड़कर चली गयी। तब शकुन्तों
(पक्षियों) ने सिंह, व्याघ्र आदि भयानक जन्तुओं से मेरी रक्षा की थी, इसलिये मेरा नाम
शकुन्तला पड़ा। महर्षि कण्व ने वहाँ से उठाकर मेरा पालन पोषण किया। शरीर का जनक, प्राणों
का रक्षक और अन्नदाता---ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार मैं महर्षि कण्व
की पुत्री हूँ। दुष्यन्त ने कहा, कल्याणी, जैसा तुम कह रही हो तुम ब्राह्मण कन्या नहीं
राजकन्या हो। इसलिये तुम मेरी पत्नी जाओ। सुन्दरी, तुम विधि से मुझसे
विवाह कर लो। राजाओं के लिये गान्धर्व-विवाह सर्वश्रेष्ठ माना गया है। शकुन्तला ने
कहा मेरे पिताजी इस समय यहाँ नहीं है। आप थोड़ी देर तक प्रतीक्षा कीजिये। वे आकर मझे
आपकी सेवा में समर्पित कर देंगे। दुष्यंत ने कहा, मैं तुम्हे चाहता हूँ। यह भी चाहता
हूँ कि तुम मुझे स्वयं वरण कर लो। मनुष्य स्वयं ही अपना हितैषी और जिम्मेवार है। तुम
धर्म के अनुसार स्वयं ही मुझे अपना दान करो। शकुनतला ने कहा, राजन्, यदि आप इसे ही
धर्म-पथ समझते हैं और मुझे स्वयं अपने को दान करने का अधिकार है तो आप मेरी शर्त सुन
लीजिये। मैं सच-सच कहती हूँ कि आप यह प्रतिज्ञा कर लीजिये---मेरे बाद तुम्हारा ही पुत्र
सम्राट होगा और मेरे जीवनकाल में ही वह युवराज बन जायेगा। मैं तो आपको स्वीकार कर सकती
हूँ। दुष्यंत ने बिना कुछ सोचे-समझे ही प्रतीज्ञा कर ली और गान्धर्व विधि से शकुन्तला
का पाणिग्रहण कर लिया। दुष्यंत ने उसके साथ समागम करके बारंबार यह विश्वास दिलाया कि
, मैं तुम्हे लाने के लिये चतुरंगिणी सेना भेजूँगा और शीघ्र-से-शीघ्र तुम्हे अपने महल
में ले चलूँगा। इस प्रकार कह-सुनकर दुष्यंत अपनी राजधानी के लिये रवाना हुआ। उसके मन
में बड़ी चिन्ता थी कि महर्षि कण्व यह सब सुनकर न जाने क्या करेंगे। थोड़ी देर में ही
महर्षि कण्व आश्रम पर आ पहुँचे। परन्तु शकुन्तला लज्जावश उनके पास नहीं गयी। थोड़ी देर
में ही महर्षि कण्व आश्रम पर आ पहुँचे। परन्तु शकुन्तला लज्जावश उनके पास नहीं गयी।त्रिकालदर्शी
कण्व ने दिव्यदृष्टि से सारी बातें जानकर प्रसन्नता के साथ शकुन्तला से कहा, बेटी,
तुमने मुझसे बिना पूछे एकान्त में जो काम किया है ,वह धर्म के विरुद्ध नहीं है। क्षत्रियों
के लिये गान्धर्व-विवाह शास्त्र सम्मत है। दुष्यंत एक धर्मात्मा, उदार एवं श्रेष्ठ
पुरुष है। उसके संयोग से बड़ा बलवन् पुत्र होगा और वह सारी पृथ्वी का राजा होगा। जब
वह शत्रुओं पर चढाई करेगा, उसका रथ कहीं भी न रुकेगा। शकुन्तला के कहने पर महर्षि कण्व
ने दुष्यन्त को वर दिया कि उसकी बुद्धि धर्म में दृढ रहे और राज्य अविचल रहे।
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