Friday 19 June 2015

आदिपर्व-देवयानी और शर्मिष्ठा का कलह एवं उसका परिणाम

देवयानी और शर्मिष्ठा का कलह एवं उसका परिणाम
कच संजीवनी विद्या सीख आया, इससे देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कच से वह विद्या सीख ली, उनका काम बन गया। देवताओं ने एकत्र होकर इन्द्र पर जोर डाला कि अब दैत्यों पर आक्रमण कर देना चाहिये। इन्द्र ने आक्रमण किया। रास्ते मे एक वन पड़ा। उस वन में बहुत सी स्त्रियाँ दीख पड़ीं। वहाँ कुछ कन्याएँ जल-क्रीड़ा कर रही थीं। इन्द्र ने वायु बनकर किनारे पर रखे हुये वस्त्रों को आपस में मिला दिया। कन्याएँ जब बाहर निकलीं, तब असुरराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने भूल से अपनी गुरुपुत्री देवयानी के वस्त्र पहन लिये। उसे मालुम नहीं था कि वस्त्र मिल गये हैं। कलह शुरु हुआ। देवयानी ने कहा, अरे एक तो तू असुर की लड़की और दूसरे मेरी चेली। फिर तूने मेरे कपड़े कैसे पहन लिये। तू आचारभ्रष्ट है इसका फल बुरा होगा। शर्मिष्ठा बोली, वाह री वाह, तेरे बाप तो मेरे पिता को सोते-बैठते भी नहीं छोड़ते, नीचे खड़े होकर भाट की तरह स्तुति करते हैं और तेरा इतना घमंड। देवयानी क्रुद्ध हो गयी। वह शर्मिष्ठा के वस्त्र खींचने लगी। इसपर दुर्बुद्धि शर्मिष्ठा ने उसे कुएँ में ढकेल दिया और उसे मरी जानकर बिना उधर देखे नगर में लौट गयी। इसी समय राजा ययाति शिकार खेलते-खेलते घोड़े के थकने और प्यास लगने से विकल होकर पानी के लिये कुएँ पर पहुँचे। उन्होंने देखा कि उसमें एक सुन्दरी कन्या है। राजा ने पूछा, सुन्दरी तुम कौन हो और कुएँ में कैसे गिरी हो। देवयानी ने कहा, मैं महर्षि शुक्राचार्य की पुत्री हूँ। जब देवता असुरों का संहार करते हैं तब वे संजीवनी विद्या द्वारा उन्हें जीवित कर दिया करते हैं। मैं इस विपत्ति में पड़ गयी हूँ, यह बात उन्हें मालूम नहीं है।तुम मेरा दाहिना हाथ पकड़कर मुझे निकाल लो। मैं समझती हूँ कि तुम कुलीन, शान्त, बलशाली और यशस्वी हो। मुझे कुएँ से बाहर निकालना तुम्हारा उचित कर्तव्य है। ययाति ने उसे कन्या समझकर कुएँ से बाहर निकाला उससे अनुमति लेकर अपनी राजधानी की तरफ लौट गये। इधर देवयानी शोक से व्याकुल होकर नगर के पास आयी और दासी से बोली अरी दासी, मेरे पिता के पास जाकर जल्दी कह दे कि मैं अब वृषपर्वा के नगर में नहीं जा सकती। दासी ने जाकर शुक्राचार्य से शमिष्ठा के व्यवहार का वर्णन किया। देवयानी की यह दुर्दशा सुनकर शुक्राचार्य बड़ा दुःख हुआ। वे अपनी लड़की के पास गये और अपनी प्यारी पुत्री को हृदय से लगाकर कहने लगे,बेटी,सभी को अपने-अपने कर्मों के फलस्वरुप सुख-दुःख भोगना पड़ता है। जान पड़ता है कि तुमने कुछ अनुचित कार्य किया है, जिसका यह प्रायश्चित हुआ। देवयानी ने कहा, पिताजी यह प्रायश्चित हो न हो मुझे एक बात बताइये। वृषपर्वा की बेटी ने क्रोध से आँखे लाल-लाल करके रूखे स्वर में कहा है कि तेरे बाप तो हमारे भाट हैं। वे हमारी स्तुति करते, हमसे माँगते और प्रतिग्रह लेते हैं। क्या उसका कहना ठीक है। यदि ऐसा है तो मैं अभी जाकर शर्मिष्ठा से क्षमा माँगूँ और उसे खुश करूँ। शुक्राचार्य ने कहा, बेटी, तू भाट, भिखमंगे और दान लेनेवाले की पुत्री नहीं है। तू उस पवित्र ब्राह्मण की कन्या है जो कभी किसी की स्तुति नहीं करता और जिसकी स्तुति सभी लोग करते हैं। इस बात को वृषपर्वा, इन्द्र और राजा ययाति जानते हैं। भू-लोक और स्वर्ग में जो कुछ भी है, मैं उस सबका स्वामी हूँ। मैं ही प्रजा के हित के लिये जल बरसाता हूँ और मैं ही औषधियों का पोषण करता हूँ। इसके बाद शुक्राचार्य ने देवयानी को समझाते हुए कहा---जो मनुष्य अपनी निन्दा सह लेता है, उसने सारे जगत् पर विजय प्राप्त कर ली, ऐसा समझो। जो उभरे क्रोध को घोड़े के समान वश में कर लेता है, वही सच्चा सारथी है, बागडोर पकड़नेवाला नहीं। जो क्रोध को क्षमा से दबा लेता है वही श्रेष्ठ पुरुष है।  जो क्रोध को रोक लेता है, निन्दा सह लेता है और दूसरे के सताने से दुःखी नहीं होता, वह सब पुरुषार्थों का भाजन होता है। एक मनुष्य सौ वर्ष तक निरंतर यज्ञ करे और दूसरा क्रोध न करे तो उससे क्रोध न करनेवाला ही श्रेष्ठ है। मूर्ख बच्चे आपस में बैर-विरोध तो करते ही हैं। समझदार को ऐसा नहीं करना चाहिये। देवयानी ने कहा, मैं अभी बालिका हूँ। फिर भी मैं धर्म-अधर्म का अन्तर समझती हूँ। जो किसी के सदाचार और कुलीनता की निन्दा करते हैं, उनके बीच में नहीं रहना चाहिये। देवयानी की बात सुनकर बिना कुछ सोचे-विचारे शुक्राचार्य वृषपर्वा की सभा में गये और क्रोधपर्वक बोले, राजन्, जो अधर्म करते हैं उन्हें चाहे तत्काल उसका फल न मिले, लेकिन धीरे-धीरे वह उसकी जड़ काट डालता है। एक तो तुमलोगों ने बृहस्पति के पुत्र सेवापरायण कच की हत्या की और दूसरे मेरी पुत्री  के भी वध की चेष्टा की गयी। अब मैं तुम्हारे देश में नहीं रह सकता। मैं तुम्हे छोड़कर जाता हूँ। वृषपर्वा ने कहा, भगवन्, मैने तो कभी आपको झूठा और अधार्मिक नहीं माना। आपमें सत्य और धर्म प्रतिष्ठित है। यदि आप हमें छोड़कर चले जायेंगे तो हम समुद्र में डूब मरेंगे। शुक्राचार्य ने कहा, देखो भाई, चाहे तुम समुद्र में डूब मरो या अज्ञात देश में चले जाओ, मैं अपनी प्यारी पुत्री का तिरस्कार सह नहीं सकता। मेरे प्राण उसी में बसते हैं। तुम अपना भला चाहते हो तो उसे प्रसन्न करो। वृषपर्वा ने देवयानी के पास जाकर कहा, देवी, मैं तुम्हें मुहमाँगी वस्तु दूँगा। प्रसन्न हो जाओ। देवयानी ने कहा, शर्मिष्ठा एक हजार दासियों के साथ मेरी सेवा करे। जहाँ मैं जाऊँ, वह मेरा अनुगमन करे। वृषपर्वा ने धात्री के द्वारा शर्मिष्ठा के पास संदेश भेज दिया। उसने शर्मिष्ठा से कहलाया, कल्याणि, उठ अपनी जाति का हित कर। शुक्राचार्य अपने शिष्यों को छोड़कर जाना चाहते हैं। तू चलकर देवयानी की इच्छा पूर्ण कर। शर्मिष्ठा ने कहा, मुझे स्वीकार है। आचार्य और देवयानी यहाँ से न जायें, मैं उनकी सब इच्छाएँ पूरी करूँगी। शर्मिष्ठा दासी के रुप में देवयानी के पास उपस्थित हुईं और प्रार्थना की कि मैं यहाँ और तुम्हारे ससुराल में भी तुम्हारी सेवा करुँगी। देवयानी प्रसन्न हो गयी और शुक्रचार्य के साथ अपने आश्रम लौट आयी।

No comments:

Post a Comment