Monday 22 June 2015

आदिपर्व-कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और अश्त्थामा का जन्म और उनका कौरवों से सम्बन्ध

कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और अश्त्थामा का जन्म और उनका कौरवों से सम्बन्ध

कृपाचार्य के जन्म की कथा----महर्षि गौतम के पुत्र थे शरद्वान्।  वाणों के साथ ही पैदा हुए थे। उनका मन धनुर्वेद में जितना लगता था, उतना वेदाभ्यास में नहीं।उन्होंने तपस्यापूर्वक सारे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये। शरद्वान् की घोर तपस्या और उनकी धनुर्वेद में निपुणता देखकर इन्द्र बहुत भयभीत हुए। उन्होंने शरद्वान् की तपस्या में विघ्न डालने के लिये जनपदी नाम की देवकन्या भेजी। वह धनुर्धर शरद्वान् के आश्रम में तरह-तरह के हाव-भाव से उन्हें लुभाने लगी। उस सुन्दरी और एक साड़ी पहने युवती को देखकर उनके शरीर में कँपकँपी आने लगी। उनके हाथ से धनुष-वाण गिर पड़े। वे बड़े विवेकी और तपस्या के पक्षपाती थे। इसलिये उन्होंने धैर्य से अपने को रोक लिया उनके मन में विकार हो चुका था इसलिये उनके अनजान में ही शुक्रपात हो गया। उन्होंने धनुष-वाण, मृगचर्म, आश्रम और उस कन्या को छोड़कर तुरंत वहाँ से यात्रा कर दी। उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था इसलिये वह दो भागों में विभक्त हो गया। उससे एक कन्या और एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। संयोगवश राजर्षि शान्तनु अपने दल-बल के साथ शिकार खेलते हुए वहाँ आ निकले। किसी सेवक की दृष्टि उधर पड़ गयी।उसने यह सोचकर कि हो-न-हो ये बालक किसी धनुर्वेद के पारदर्शी ब्राह्मण के हैं, राजर्षि को सूचना दी। उन्होंने कृपापरवश होकर उन बालकों को उठा लिया और ये तो अपने ही बालक हैं--ऐसा सोचकर घर ले आये। उन्होंने उन बच्चों का पालन-पोषण और यथोचित संस्कार किया तथा उनके नाम कृप एवं कृपी रख दिये। अब शरद्वान् को तपोबल से यह बात मालूम हुई,तब वे भी राजर्षि शान्तनु के पास आये और उन बालकों के नाम-गोत्र आदि बतलाकर चारों प्रकार से धनुर्वेदों, विविध शास्त्रों और उनके रहस्यों की शिक्षा दी। थोड़े ही दिनों में बालक कृप सभी विषयों के परमाचार्य हो गये। अब कौरव और पाण्डव यदुवंशी तथा अन्य राजकुमारों के साथ उनसे धनुर्वेद का अभ्यास करने लगे। भीष्म ने विचार किया कि पाण्डवों और कौरवों को इससे भी अधिक अस्त्र-ज्ञान प्राप्त होना चाहिये। अब इन्हें कोई साधारण तो शिक्षा दे नहीं सकता। इसलिये इस विद्या का कोई विशेषज्ञ ढूँढना चाहिये। यह सोचकर पाण्डवों और कौरवों को द्रोणाचार्य के हाथों सौंप दिया। वे भीष्म के सत्कार से प्रसन्न होकर राजकुमारों को धनुर्वेद की शिक्षा देने लगे। थोड़े ही दिनों में सब-के-सब राजकुमार सारे शास्त्रों में प्रवीण हो गये।           पहले युग में गंगाद्वार नामक स्थान पर महर्षि भारद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील और यशस्वी थे। एक बार वे यज्ञ कर रहे थे। उस दिन सबसे पहले ही वे महर्षियों को साथ लेकर गंगास्नान करने गये। वहाँ उन्होंने देखा कि धृताची अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन विचलित हो गया। जब उनका वीर्य-स्खलित होने लगा तब उन्होंने उसे द्रोण नामक यज्ञपात्र में रख दिया। उसी से द्रोण का जन्म हुआ। द्रोण ने सारे वेद और वेदांगों का स्वाध्याय किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी। अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य ने द्रोण को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। पृतष् नाम के राजा भारद्वाज मुनि के मित्र थे। द्रोण के जन्म के समय ही उनके भी द्रुपद नामक पुत्र पैदा हुआ था।वह भी भरद्वाज आश्रम में आकर द्रोण के साथ ही शिक्षा प्राप्त कर रहा था। द्रोण से उसकी गाढी मैत्री हो गयी थी। पृषत् का स्वर्गवास हो जाने पर द्रुपद उत्तर पांचाल देश के राजा हुए। भरद्वाज ऋृषि के ब्रह्मालीन होने पर द्रोण अपने आ श्रम में रहकर तपस्या करने लगे। उन्होंने शरद्वान् की पुत्री कृपी से विवाह किया। वह बड़ी धर्मात्मा और जितेन्द्रिया थी।कृपी से अश्त्थामा का जन्म हुआ।उसका अश्त्थामा नाम होने का कारण यह था कि उसने जन्मते ही उद्धैःश्रवा अश्व के समान शब्द किया था।अश्त्थामा के जन्म से द्रोणाचार्य को बड़ा हर्ष हुआ। वे वहीं रहकर धनुर्वेद का अभ्यास करने लगे। इन्हीं दिनों आचार्य द्रोण को मालूम हुआ कि जमदग्निनंदन भगवान् परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं। द्रोणाचार्य उनसे धनुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान और दिव्य अस्त्रों की जानकारी प्राप्त करने के लिये चल पड़े। अपने शिष्यों के साथ महेन्द्राचल पहुँचकर उन्होंने परशुरामजी को प्रणाम किया और बतलाया कि, मैं महर्षि अंगिरा के गोत्र में भरद्वाज ऋषि द्वारा पैदा हुआ हूँ। मैं आपके पास कुछ प्राप्त करने के लिये आया हूँ। परशुरामजी ने कहा, मेरे पास जो कुछ धन-रत्न था वह मैं ब्राह्मणों को दे चुका। सारी पृथ्वी भी मैने कश्यप ऋषि को दे दी। अब मेरे पास इस शरीर और अस्त्रों के सिवा और कुछ नहीं है। इनमें से तुम जो चाहो माँग लो। द्रोणाचार्य ने कहा, भृगुनंदन, आप मुझे प्रयोग, रहस्य और उपसंहार विधि के सारे अस्त्र-शस्त्र दे दें। परशुरामजी ने तत्काल तथास्तु कहकर उन्हें सबकी शिक्षा दे दी। अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करके द्रोणाचार्य को बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वे अपने मित्र द्रुपद के पास गये। द्रोणाचार्य ने द्रुपद के पास जाकर कहा, राजन्, मैं आपका प्रिय सखा द्रोण हूँ। आपने मुझे पहचान तो लिया। राजा द्रुपद द्रोणाचार्य की बात से चिढ गये। उन्होंने भौहें टेढी और आँखें लाल करके कहा, ब्राह्मण, तुम्हारी बुद्धि अभी परिपक्व नहीं हुई। भला, मुझे अपना मित्र बतलाते समय तुम्हे हिचकिचाहट नहीं मालूम होती। राजाओं की गरीबों से क्या दोस्ती। यदि कदाचित् हो भी जाय समय बीतने पर वह भी मिट-जाती है। द्रुपद की बात सुनकर द्रोण क्रोध से काँप उठे। उन्होंने मन-ही-मन कुछ निश्चय किया और कुरुवंश की राजधानी हस्तिनापुर में आये। वहाँ आकर उन्होंने कुछ दिनों तक गुप्त रुप से कृपाचार्य के घर निवास किया। एक दिन युधिष्ठिर आदि सभी राजकुमार नगर के बाहर जाकर मैदान में गेंद खेल रहे थे। गेंद अचानक कुएँ में गिर पड़ी। राजकुमारों ने उसे निकालने का प्रयत्न तो किया, परन्तु किसी प्रकार उन्हें सफलता न मिली। वे कुछ सकुचाकर एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। इसी समय उनकी दृष्टि पास के ही एक ब्राह्मण पर पड़ी। उनका शरीर दुर्बल और रंग सांवला था। सभी राजकुमार उन्हें घेरकर खड़े हो गये। ब्राह्मण ने राजकुमारों को उदास देखकर मुस्कराते हुए कहा, राम, राम, धिक्कार है तुम्हारे क्षत्रियबल और अस्त्र-कौशल को। तुमलोग कुएँ से एक गेंद नहीं निकाल सकते। देखो, तुमलोगों की गेंद और अपनी यह अंगूठी अभी कुएँ में से निकाल देता हूँ। तुमलोग मेरे भोजन का प्रबंध कर दो। यह कहकर उन्होंने अपनी अंगूठी कुएँ में डाल दी। युधिष्ठिर ने कहा, भगवन्, आप कृपाचार्य की अनुमति मिल जाने पर सर्वदा के लिए भोजन पा सकते हैं।अब द्रोणाचार्य ने कहा, देखो ये एक मुट्ठी सीकें हैं। इन्हें मैने मंत्रों से अभिमंत्रित कर रखा है। मैं एक सींक से गेंद छेद देता हूँ और फिर दूसरी सीकों से एक-दूसरी को छेदकर तुम्हारी गेंद खींच लेता हूँ। द्रोणाचार्य ने वैसा ही किया। राजकुमारों के आश्चर्य की सीमा न रही। उन्होंने कहा, भगवन्, आप अपनी अंगूठी तो निकालिये। द्रोणाचार्य ने वाण का प्रयोग करके वाणसहित अपनी अंगूठी भी निकाल ली। अंगूठी निकाली देखकर राजकुमारों ने कहा, आश्चर्य है, आश्चर्य है। हमने तो ऐसी अस्त्रविद्या तो और कहीं नहीं देखी। आप कृपा करके अपना परिचय दीजिये और बताइये कि हमलोग आपकी क्या सेवा करें। द्रोणाचार्य ने कहा, तुमलोग यह सब बात भीष्मजी से कहना, वे मेरे रुप और गुण से मुझे पहचान जायेंगे। राजकुमारों ने नगर में लौटकर भीष्मपितामह से सारी बातें कही। वे यह सब सुनते ही समझ गये कि हो-न-हो महारथी द्रोणाचार्य आ गये हैं। उन्होंने निश्चय किया कि अब इन राजकुारोंको द्रोणाचार्य से ही शिक्षा दिलानी चाहिये। वे तुरंत स्वयं जाकर द्रोणाचार्य को लिवा लाये और उनका खूब स्वागत-सत्कार करके उनके शुभागमन का कारण पूछा। द्रोणाचार्य ने कहा, भीष्मजी, जिस समय मैं ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ शिक्षा प्राप्त कर रहा था, उसी समय पांचालराज के पुत्र द्रुपद भी हमारे साथ धनुर्विद्या सीख रहे थे। हम दोनो में बड़ी मित्रता थी। उस समय वे मुझे प्रसन्न करने के लिये कहा करते थे कि जब मैं राजा हो जाऊँगा तब तुम मेरे साथ रहना। मैं सत्य शपथ करता हूँ कि मेरा राज्य, संपत्ति और सुख सब तुम्हारे अधीन होगा। उनकी यह प्रतिज्ञा स्मरण करके मैं बहुत प्रसन्न और प्रफुल्लित रहता था। कुछ दिनों बाद मैने शरद्वान् की पुत्री कृपी से विवाह किया और उससे सूर्य के समान तेजस्वी अश्त्थामा का जन्म हुआ। एक दिन की बात है। गो-धन के धनी ऋषिकुमार दूध पी रहे थे। अश्त्थामा उन्हें देखकर दूध पीने के लिये मचल गया और रोने लगा।उस समय मेरी आँखों के सामने अंधेरा छा गया।यदि मैं किसी कम गायवाले से गाय ले लेता तो उसके धर्म-कर्म में अड़चन पड़ती।बहुत घूमनेपर भी मुझे दूध देनेवाली गाय न मिल सकी। जब मैं लौटकर आया तब देखता हूँ कि छोटे-छोटे बच्चे आटे के पानी से अश्त्थामा को ललचा रहे हैं और वह अनजान बालक उसे ही पीकर यह कहता हुआ नाच रहा है कि मैने दूध पी लिया। अपने बच्चे की यह हँसी और दुर्दशा देखकर मेरे चित्त में बड़ा क्षोभ हुआ। मैंने सोचा, धिक्कार है मेरे इस दरिद्र जीवन को। मेरे धैर्य का बाँध टूट गया। भीष्मजी, जब मैने सुना कि मेरा प्रिय सखा द्रुपद राजा हो गया है, तब मैं अपनी पत्नी और बच्चे के साथ प्रसन्नता के साथ उसकी राजधानी के लिये चल पड़ा। मुझे द्रुपद की प्रतिज्ञा पर विश्वास था। परंतु जब मैं द्रुपद से मिला तब, उसने अपरिचित के समान कहा, ब्राह्मण देवता, अभी तुम्हारी बुद्धि कच्ची और लोक-व्यवहार से अनभिज्ञ है। तुमने क्या ही बेधरक कह दिया कि मैं तुम्हारा सखा हूँ। अरे भाई, जो मिलते हैं वे बिछड़ते हैं। उस समय हम तुम दोनो समान थे, इसलिये मित्रता थी। अब मैं धनी हूँ, तुम निर्धन हो। मित्रता का दावा बिलकुल व्यर्थ है। तुम कहते हो कि मैने राज्य देने की प्रतिज्ञा की थी। उसका मुझे तो कुछ भी स्मरण नहीं है। तुम चाहो तो एक दिन अच्छी तरह इच्छानुसार भोजन कर लो। वहाँ से चलते समय मैने एक प्रतिज्ञा की है। द्रुपद की तिरस्कार से मेरा कलेजा जल रहा है। मैं अपनी प्रतिज्ञा शीघ्र ही पूर्ण करुँगा।मैं गुणवान् शिष्यों को शिक्षा देने के उद्देश्य से यहाँ आया हूँ।आप मुझसे क्या चाहते हैं। मैं आपकी क्या सेवा करूँ। भीष्मपितामह ने कहा, अब आप अपने धनुष से डोरी उतार दीजिये और यहाँ रहकर राजकुमारों को धनुर्वेद और अस्त्र की शिक्षा दीजिये। कौरवों का धन वैभवऔर राज्य आपका ही है। हम सब आपके आज्ञाकारी सेवक हैं। आपका शुभागमन हमारे लिये अहोभाग्य है।

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