Saturday 20 June 2015

आदिपर्व-माण्डव्य ऋषि की कथा

 माण्डव्य ऋषि की कथा


बहुत दिनों की बात है, माण्डव्य नाम के एक यशस्वी ब्राह्मण थे। वे बड़े धैर्यवान्, धर्मज्ञ, तपस्वी एवं सत्यनिष्ठ थे। वे अपने आश्रम के दरवाजे पर वृक्ष के नीचे हाथ ऊपर उठाकर तपस्या करते थे। उन्होंने मौन का नियम ले रखा था। बहुत दिनों के बाद एक दिन कुछ लुटेरे लूट का माल लेकर वहाँ आये। बहुत से सिपाही उनका पीछा कर रहे थे, इसलिये उन्होंने माण्डव्य के आश्रम में लूट का सारा धन रख दिया और वहीं छिप गये। सिपाहियों ने आकर माण्डव्य से पूछा कि, लुटेरे किधर से भागे, शीघ्र बतलाइये। हम उनका पीछा करे।माण्डव्य ने उनका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। राजकर्मचारियों ने उनके आश्रम की तलाशी ली, उसमें धन और चोर दोनो मिल गये। सिपाहियोंने लुटेरे और माण्डव्य मुनि को पकड़कर राजा के सामने उपस्थित किया। राजा ने विचार करके सबको शूली पर चढाने का दण्ड दिया। माण्डव्य मुनि शूली पर चढा दिये गये। बहुत दिन बीत जाने पर भी बिना कुछ खाये-पिये वे शूली पर बैठे रहे, उनकी मृत्यु नहीं हुई। उन्होंने अपने प्राण छोड़े नहीं, वहीं बहुत से ऋषियों को निमंत्रित किया। ऋषियों ने रात्रि के समय पक्षियों के रुप में आकर दुःख प्रकट किया और पूछा कि आपने क्या अपराध किया था। माण्डव्य ने पूछा, मैं किसे दोषी बनाऊँ, यह मेरे ही अपराध का फल है। पहरेदारों ने देखा कि ऋषि को शूली पर चढाये बहुत दिन हो गये, परन्तु ये मरे नहीं। उन्होंने जाकर अपने राजा से निवेदन किया। राजा ने माण्डव्य मुनि के पास आकर प्रार्थना की कि मैने अज्ञानवश आपका बड़ा अपराध किया। आप मुझे क्षमा कीजिये मुझपर प्रसन्न होइये। माण्डव्य ने राजा पर कृपा की, उन्हें क्षमा कर दिया। वे शूली पर से उतारे गये। जब बहुत उपाय करने पर भी शूल उनके शरीर से नहीं निकल सका तब वह काट दिया गया। गड़े हुए शूल के साथ ही उन्होंने तपस्या की और दुर्लभ लोक प्राप्त किये।      तबसे उनका नाम अणीमाण्डव्य पड़ गया। महर्षि माण्डव्य ने  धर्मराज की सभा में जाकर पूछा कि मैंने अनजाने में कौन सा ऐसा पाप किया था, जिसका यह फल मिला। जल्दी बतलाओ नहीं तो मेरी तपस्या का बल देखो। धर्मराज ने कहा, आपने एक छोटे से फतिंगे की पूँछ में सींक गड़ा दी थी।उसी का यह फल है। जैसे थोड़े से दान का अनेक गुना फल मिलता है, वैसे ही थोड़े से अधर्म का भी अनेक गुना फल मिलता है। अणीमाण्डव्य बोले, ऐसा मैंने कब किया था। धर्मराज ने कहा,बचपन में। इसपर अणीमाण्डव्य बोले, बालक बारह वर्ष की अवस्था तक जो कुछ करता है, उससे उसे अधर्म नहीं होता, क्योंकि उसे धर्म-अधर्म का ज्ञान नहीं रहता। तुमने छोटे से अपराध का बड़ा दण्ड दिया है। इसलिये तुम्हे मनुष्य बनना पड़ेगा। आज मैं संसार में कर्म-फल की मर्यादा स्थापित करना चाहता हूँ। चौदह वर्ष की अवस्था तक के किये कर्मों का पाप नहीं लगेगा, उसके बाद किये कर्मों का फल अवश्य मिलेगा। इसी अपराध के कारण माण्डव्य ने शाप दिया और धर्मराज विदुर के रुप में उत्पन्न हुए। वे धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र में बड़े निपुण थे। क्रोध और लोभ तो उन्हें छू तक नहीं गया था। वे दूरदर्शी,शान्ति के पक्षपाती और समस्त कुरुवंश के हितैषी थे।


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