Monday 22 June 2015

आदिपर्व-राजकुमारों की शिक्षा और परीक्षा तथा एकलव्य की गुरुभक्ति

राजकुमारों की शिक्षा और परीक्षा तथा एकलव्य की गुरुभक्ति

द्रोणाचार्य भीष्मपितामह से सम्मानित होकर हस्तिनापुर में रहने लगे। भीष्म ने उन्हें धन-अन्न से भरा एक सुन्दर भवन रहने के लिये दिया। वे धृतराष्ट्र और पाण्डु पुत्रों को शिष्य रुप में स्वीकार करके धनुर्वेद की विधिपूर्वक शिक्षा देने लगे। द्रोणाचार्य ने एक दिन अपने सभी शिष्यों को एकान्त में बुलाकर कहा, मेरे मन में एक इच्छा है। अस्त्र-शिक्षा समाप्त होने के बाद क्या तुमलोग मेरी यह इच्छा पूरी करोगे। सभी राजकुमार चुप रह गये। अर्जुन ने बड़े उत्साह से आचार्य की इच्छा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की। द्रोणाचार्य बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अर्जुन को हृदय से लगाया। उनकी आँखों में आनंद के आँसू छलक आये। द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों को तरह-तरह के दिव्य और अलौकिक अस्त्रों की शिक्षा देने लगे। उस समय उनके शिष्यों में यदुवंशी तथा दूसरे देश के राजकुमार भी थे। सूतपुत्र के नाम से प्रसिद्ध कर्ण भी वहीं शिक्षा पा रहे थे। अर्जुन के मन में इस विषय की ओर बड़ी रुचि और लगन थी। वे द्रोणाचार्य की सेवा भी बहुत करते।इसलिेए शिक्षा,बाहुबल और उद्दोग की दृष्टि से समस्त शस्त्रों के प्रयोग, फुर्ती और सफाई में अर्जुन ही सबसे बढ-चढ कर निकले। द्रोणाचार्य अपने पुत्र अश्त्थामा पर विशेष अनुराग रखते थे। उन्होंने शिष्यों को पानी लाने के लिये जो बर्तन दिये थे, उनमें औरों के तो देर से भरते, लेकिन अश्त्थामा का सबसे पहले ही भर जाता। इससे अश्त्थामा सबसे पहले अपने पिता के पास पहुँचकर गुप्त रहस्य सीख लेता। अर्जुन ने यह बात समझ ली। अब वे वारुणास्त्र से अपना बर्तन झटपट भरकर चटपट आचार्य के पास आ पहुँचते। इसी से उनकी शिक्षा-दीक्षा गुरुपुत्र अश्त्थामा से किसी भी अंश में कम नहीं हुई। एक दिन भोजन करते समय तेज हवा के कारण दीपक बुझ गया। अंधकार में भी हाथ को बिना भटके मुँह के पास जाते देखकर अर्जुन ने समझ लिया कि निशाना लगाने के लिये प्रकाश की आवश्यकता नहीं, केवल अभ्यास की है। वे अब अंधेरे में वाण चलाने का अभ्यास करने लगे। एक दिन रात में अर्जुन की प्रत्यंचा की आवाज सुनकर द्रोणाचार्य उनके पास आये और अर्जुन को हृदय से लगाकर कहा, बेटा, मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा कि संसार में तुम्हारे समान कोई और धनुर्धर न हो। यह बात मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूँ। आचार्य ने सब राजकुमारों को हाथी, घोड़ों रथ और पृथ्वी पर का युद्ध, गदायुद्ध, तलवार चलाना आदि क प्रयोग एवं संकीर्ण-युद्ध की शिक्षा ली। यह सब सिखाने में अर्जुन की ओर उनका विशेष ध्यान रहता था। द्रोणाचार्य के शिक्षा कौशल की बात देश-देशान्तर में फैल गयी। दूर-दूर से राजा और राजकुमार आने लगे। एक दिन निषादपति हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य भी अस्त्र-शिक्षा प्राप्त करने के लिये उनके पास आया। परन्तु द्रोणाचार्य ने, यह सोचकर कि यह निषाद जाति का है, शिक्षा देना स्वीकार नहीं किया। वह लौट गया। वन में जाकर उसने द्रोणाचार्य की एक मिट्टी की मूर्ति बनायी और उसी में आचार्य-भाव रखकर उत्कट श्रद्धा और प्रेम से नियमित रूप से अस्त्राभ्यास करने लगा और अत्यंत निपुण हो गया। एक बार सभी राजकुमार आचार्य की अनुमति से शिकार खेलने के लिये वन में गये। राजकुमारों सामान और एक कुत्ता साथ लिये एक अनुचर भी वन में चल रहा था। वह कुत्ता घूमता-फिरता वहाँ पहुँच गया, जहाँ एकलव्य वाणों का अभ्यास कर रहा था। एकलव्य का शरीर मैला-कुचैला था।वह काला मृगचर्म पहने था और उसके सिर पर जटाएँ थीं। कुत्ता उसे देखकर भूँकने लगा। एकलव्य ने खींचकर सात वाण मारे, जिससे उस कुत्ते का मुँह भर गया। परन्तु उसे चोट कहीं नहीं लगी। कुत्ता वाणभरे मुँह से पाण्डवों के पास गया। यह आश्चर्यजनक दृश्य देखकर पाण्डव कहने लगे कि, उसका शब्द-वेध और फुर्ती तो विलक्षण है। टोह लगाने पर उसी वन में उन्हें एकलव्य मिल गया।वह लगातार वाणों का अभ्यास कर रहा था। पाण्डव एकलव्य का रूप बदल जाने के कारण उसे पहचान न सके। पूछने पर एकलव्य ने बताया, मेरा नाम एकलव्य है। मैं भीलराज हिरण्यधनु का पुत्र और द्रोणाचार्य का शिष्य हूँ। मैं यहाँ धनुर्विद्या का अभ्यास करता हूँ। अब सभी ने उसे अच्छी तरह पहचान लिया। वहाँ से लौटकर सब राजकुमारों ने द्रोणाचार्य से सब हाल कह सुनाया। अर्जुन ने कहा, गुरुदेव आपने मुझे हृदय से लगाकर बड़े प्रेम से यह बात कही थी कि मेरा कोई भी शिष्य तुमसे बढकर न होगा। परन्तु वह आपका शिष्य एकलव्य तो सबसे और मुझसे भी बढकर है। अर्जुन की बात सुनकर द्रोणाचार्य ने थोड़ी देर तक कुछ विचार किया और फिर उन्हें साथ लेकर उसी वन में गये। द्रोणाचार्य ने अर्जुन के साथ वहाँ पहुँचकर देखा कि जटा-वल्कल धारण किये एकलव्य वाण-पर-वाण चला रहा है। शरीर पर मैल जम गया है परंतु उसे इस बात का ध्यान नहीं है। आचार्य को देखकर एकलव्य उनके पास आया और चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया।फिर वहउनकी विधिपूर्वक पूजा करके हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा हो गया और बोला, आपका शिष्य सेवा में उपस्थित है। आज्ञा कीजिये। द्रोणाचार्य ने कहा, यदि तू सचमुच मेरा शिष्य है तो मझे गुरुदक्षिणा दे। एकलव्य को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने कहा, आज्ञा दीजिये। मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो मैं आपको न दे सकूँ। द्रोणाचार्य ने कहा, एकलव्य, तुम अपने दाहिने हाथ का अंगूठा मुझे दे दो। सत्यवादी एकलव्य अपनी प्रतीज्ञा पर डटा रहा और उसने उत्साह तथा प्रसन्नता से दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरुदेव को सौंप दिया। इसके बाद उसकी वाण चलाने की वह सफाई और फुर्ती नहीं रही। एक बार द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेनी चाही।उन्होंने कारीगर से एक नकली गीध बनवाया और उसे कुमारों से छिपाकर एक वृक्ष पर टाँग दिया। तदन्तर राजकुमारों से कहा, धनुष पर वाण चढाकर तैयार हो जाओ। तुम्हें निशाना लगाकर उस गीध का सिर उड़ाना होगा। उन्होंने पहले युधिष्ठिर को आज्ञा दी, पूछा, युधिष्ठिर, तुम इस वृक्ष पर बैठे गीध को देख रहे हो। युधिष्ठिर ने कहा, जी मैं देख रहा हूँ। द्रोण ने पूछा, क्या तुम इस वृक्ष को, मुझे और अपने भाइयों को देख रहे हो। युधिष्ठिर बोले, जी हाँ, मैं इस वृक्ष को, आपको और अपने भाइयों को भी देख रहा हूँ। द्रोणाचार्य ने कुछ खीझकर झिड़कते हुए कहा, हट जाओ, तुम यह निशाना नहीं मार सकते। इसके बाद उन्होंने दुर्योधन आदि राजकुमारों को एक-एक करके वहाँ खड़ा कराया और यही प्रश्न किया। उन सबने वही उत्तर दिया जो युधिष्ठिर ने दिया था। आचार्य ने सबको झिड़क-कर वहाँ से हटा दिया। अन्त में अर्जुन को बुलाकर उन्होंने कहा, देखो निशाने की ओर, चूकना मत। धनुष चढाकर मेरी आज्ञा की बाट जोहो। क्षणभर ठहरकर आचार्य ने पूछा, क्या तुम इस वृक्ष को, गीध को और मुझे देख रहे हो। अर्जुन ने कहा, भगवन् मैं गीध के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख रहा हूँ। द्रोणाचार्य ने पूछा, अर्जुन, भला बताओ तो गीध की आकृति कैसी है। अर्जुन बोले, भगवन् मैं तो केवल उसका सिर देख रहा हूँ। आकृति का पता नहीं। द्रोणाचार्य का रोम-रोम आनन्द की बाढ से पुलकित हो गया। वे बोले, बेटा, वाण चलाओ। अर्जुन ने तत्काल वाण से गीध का सिर काट गिराया। अर्जुन की सफलता देखकर आचार्य ने निश्चय कर लिया कि द्रुपद के विश्वासघात का बदला अर्जुन ही ले सकेगा। एक दिन गंगा-स्नान करते समय मगर ने द्रोणाचार्य की जाँघ पकड़ ली। द्रोण स्वयं उससे छूट सकते थे, फिर भी उन्होंने शिष्यों से कहा कि मगर को मारकर मुझे बचाओ। उनकी बात पूरी होने के पहले ही अर्जुन ने पाँच पैने वाणों से पानी में डूबे मगर को बेध दिया। और सभी राजकुमार हक्के-बक्के होकर अपने-अपने स्थान पर ही खड़े रहे। मगर मर गया और आचार्य की जाँघ छूट गयी। इससे प्रसन्न होकर द्रोणाचार्य बोले, बेटा अर्जुन, मैं तुम्हे ब्रह्मशिर नाम का दिव्य अस्त्र प्रयोग और संहार के साथ बतलाता हूँ। यह अमोघ है। इसे कभी किसी साधारण मनुष्य पर मत चलाना। यह सारे जगत् को जला डालने की शक्ति रखता है। अर्जुन ने हाथ जोड़कर अस्त्र स्वीकार किया। द्रोणाचार्य ने कहा, अब पृथ्वी पर तुम्हारे समान कोई धनुर्धर न होगा।


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