भीष्म की दुष्कर प्रतिज्ञा और शान्तनु को सत्यवती
की प्राप्ति
एक दिन
राजर्षि शान्तनु यमुना नदी के तट पर वन में विचरण कर रहे थे। उन्हें वहाँ बहुत ही उत्तम
सुगंध मालूम हुई, परन्तु यह मालूम नहीं होता था कि कहाँ से आ रही है। उन्होंने उसका
पता लगाने की चेष्टा की। वहाँ के निषादों में उन्हें एक देवांगना के समान कन्या दीख
पड़ी। राजा ने उससे पूछा, कल्याणी, तुम किसकी कन्या हो, कौन हो, और किस उद्देश्य से
यहाँ रह रही हो। कन्या ने कहा, मैं निषाद कन्या
हूँ। पिताजी की आज्ञा से धर्मार्थ नाव चलाती हूँ। उसके सौन्दर्य, माधुर्य और सौगन्ध्य
से मोहित होकर राजर्षि शान्तनु ने उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा और उसके पिता के पास जाकर उसके लिये याचना की। निषादराज
ने कहा, राजन् जबसे यह दिव्य कन्या मुझे मिली है, तभी से मैं इसके विवाह के लिये चिन्तित
हूँ। परन्तु इसके संबंध में मेरे मन में एक इच्छा है। यदि आप इसे धर्मपत्नी
बनाना चाहते हैं तो आप शपथपूर्वक एक प्रतिज्ञा कीजिये, क्योंकि आप सत्यवादी हैं। आपके
समान वर मुझे और कहाँ मिलेगा। इसलिेये मैं आपके प्रतिज्ञा कर लेने पर इसका विवाह कर
दूँगा। शान्तनु ने कहा, पहले तुम अपनी शर्त बताओ। कोई देने योग्य वचन होगा तो दूँगा,
नहीं तो कोई बंधन थोड़े ही है। निषादराज ने कहा, इसका जो पुत्र हो, वही आपके बाद राज्य
का अधिकारी हो, और कोई नहीं। राजा ने उसकी शर्त स्वीकार नहीं की। वे अचेत हो रहे
थे और उसी कन्या का चिन्तन करते हुए हस्तिनापुर आये। एक दिन देवव्रत ने अपने पिता को
चिन्तित देखा तो उनके पास आकर कहने लगे, पिताजी, पृथ्वी के सभी राजा आपके वशवर्ती हैं।
आप सब प्रकार सकुशल हैं। फिर आप दुःखी होकर निरंतर क्या सोचते रहते हैं। आप इतने चिंतित
हैं कि न मुझसे मिलते हैं और न घोड़े पर सवार होकर बाहर ही निकलते हैं। आपका चेहरा फीका
और पीला पड़ गया है। आप दुबले हो गये हैं। कृपा करके अपना रोग बताइये, मैं उसका प्रतीकार
करुँगा। शान्तनु ने कहा, बेटा, सचमुच मैं चिन्तित हूँ। इस महान् कुल में एक तुम ही
वंशधर हो। सो सर्वदा सशस्त्र रहकर वीरता के कार्य में तत्पर रहते हो। जगत् मे लोग निरंतर
मरते-मिटते रहते हैं, यह देखकर मैं बहुत ही चिन्तित रहता हूँ। भगवान् न करे ऐसा हो,
परन्तु यदि तुमपर विपत्ति आयी तो हमारे वंश का नाश हो जायगा। अवश्य ही तुम अकेले सैकड़ों
पुत्र से श्रेष्ठ हो और मैं व्यर्थ में बहुत से विवाह भी नहीं करना चाहता, फिर भी वंश-परंपरा
की रक्षा के लिए तो चिन्ता है ही। गंगानंदन देवव्रत ने अपनी अलौकिक मेधा से सब-कुछ
सोच-विचार कर लिया और वृद्ध मंत्री से पूछकर ठीक-ठीक कारण तथा निषादराज की शर्त जान
ली। अब देवव्रत ने बड़े-बूढे क्षत्रियों को लेकर दासराज के निवास-स्थान की यात्रा की।
वहाँ जाकर अपने पिता के
लिये स्वयं ही कन्या माँगी। निषादराज ने देवव्रत का बड़ा स्वागत-सत्कार किया और भरी
सभा में कहा, भरतवंश-शिरोमणि, राजर्षि शान्तनु की वंश-रक्षा के लिये आप अकेले ही पर्याप्त
हैं। फिर भी ऐसा संबंध टूट जाने पर स्वयं इन्द्र को भी पश्चाताप करना पड़ेगा। यह कन्या
जिन श्रेष्ठ राजा की पुत्री है, वे आपलोगों की बराबरी के हैं। उन्होंने मेरे पास बार-बार
संदेश भेजा है कि तुम मेरी पुत्री सत्यवती का विवाह राजर्षि शान्तनु से करना। मैं इसका
पालन-पोषण करनेवाला होने के कारण एक प्रकार से इस कन्या का पिता ही हूँ, इसलिये कह
रहा हूँ कि इस विवाह-संबंध में एक ही दोष है। वह यह कि सत्यवती के पुत्र का शत्रु बड़ा
ही प्रबल होगा। युवराज, जिसके आप शत्रु हो जायेंगे, वह चाहे गन्धर्व हो या असुर, जीवित
नहीं रह सकता। यही सोचकर मैने आपके पिता को यह कन्या नहीं दी।
गंगानंदन देवव्रत ने निषादराज
की बात सुनकर क्षत्रियों के समाज में अपने पिता का मनोरथ पूर्ण होने के लिये प्रतिज्ञा
की, निषादराज, मैं शपशपूर्वक यह सत्य प्रतीज्ञा करता हूँ कि इसके गर्भ से जो पुत्र
होगा, वही हमारा राजा होगा। मेरी यह कठोर प्रतीज्ञा अभूतपूर्व है और आगे भी शायद ही
कोई ऐसी प्रतीज्ञा करे। निषादराज अभी और कुछ चाहता था। उसने कहा, युवराज, आपने सत्यवती
के लिये जो प्रतीज्ञा की है, वह आपके अनुरुप ही है। इसके संबंध में मुझे संदेह भी नहीं
है। मेरे मन में एक संदेह अवश्य है कि शायद आपका पुत्र सत्यवती के पुत्र से राज्य छीन
ले। देवव्रत ने निषादराज का आशय समझकर क्षत्रियों की भरी सभा में कहा, क्षत्रियों,
मैने अपने पिता के लिये राज्य का परित्याग तो पहले ही कर दिया है। अब संतान के लिये
आज निश्चय कर रहा हूँ। निषादराज, आज से मेरा ब्रह्मचर्य अखंड होगा। सन्तान न होने पर
भी मुझे अक्षय लोक की प्राप्ति होगी। देवव्रत की कठोर प्रतीज्ञा सुनकर निषादराज
के शरीर में रोमांच हो आया।
उसी समय आकाश से देवता, ऋषि और अप्सराएँ पुष्पों की वर्षा करने लगी और सबने कहा, यह
भीष्म है, इसका नाम भीष्म होना चाहिये। इसके बाद देवव्रत भीष्म सत्यवती को रथ पर चढाकर
हस्तिनापुर ले आये और अपने पिता को सौंप दिया। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा की प्रशंसा
सब लोग करने लगे। भीष्म का दुष्कर कार्य सुनकर राजा शान्तनु बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने
अपने पुत्र को वर दिया, मेरे निष्पाप पुत्र, जबतक तुम जीना चाहोगे, तबतक मृत्यु तुम्हारा
बाल भी बाँका नहीं कर सकेगी। तुमसे अनुमति प्राप्त करके ही वह तुमपर अपना प्रभाव डाल
सकेगी।
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