Tuesday 30 June 2015

आदिपर्व-आर्त ब्राह्मण परिवार पर कुन्ती की दया

आर्त ब्राह्मण परिवार पर कुन्ती की दया

युधिष्ठिर आदि पाँचों भाई अपनी माता कुन्ती के साथ एकचक्र नगरी में रहकर तरह-तरह के दृश्य देखते हुये विचरने लगे। वे भिक्षावृति से अपना जीवन-निर्वाह करते थे। नगरनिवासी उनके गुणों से मुग्ध होकर उनसे बड़ा प्रेम करने लगे। वे सायंकाल होने पर दिनभर की भिक्षा लाकर माता के पास रख देते थे।माता की अनुमति से आधा भीमसेन खाते और आधे में सब लोग। इस प्रकार बहुत दिन बीत गये। एक दिन और सब लोग तो भिक्षा के लिये चले गये थे,परन्तु किसी कारणवश भीमसेन माता के पास ही रह गये थे।उसी दिन ब्राहण के घर करुण क्रंदन होने लगा।यह सुनकर कुन्ती का सौहार्दपूर्ण हृदय दया से द्रवित हो गया। उन्होंने भीमसेन से कहा,बेटा,हमलोग ब्राहण के घर में रहते हैं और ये हमारा बहुत सत्कार करते हैं। मैं प्रायः यह सोचा करती हूँ कि इस ब्राह्मण का कुछ-न-कुछ उपकार करना चाहिये। कृतज्ञता ही मनुष्य का जीवन है। जितना कोई अपना उपकार करे, उससे बढकर उसका करना चाहिये। अवश्य ही इस ब्राह्मण पर कोई विपत्ति आ पड़ी है।यदि हम इसकी कुछ सहायता कर सकें तो उऋण हो जायँ। भीमसेन ने कहा,माँ,तुम ब्राह्मण के दुःख और दुःख के कारण का पता लगाओ।मैं उनके लिये कठिन-से-कठिन काम करूँगा।कुन्ती जल्दी से ब्राह्मण के घर गयी। उन्होंने देखा कि ब्राह्मण अपनी पत्नी और पुत्र के साथ मुँह लटकाकर बैठा है और कह रहा है----धिक्कार है मेरे इस जीवन को,क्योंकि यह सारहीन, व्यर्थ, दुःखी और परधीन है। जीव अकेला ही धर्म, अर्थ और काम का भोग करना चाहता है। इसका वियोग होना ही उसके लिये महान दुःख है। अवश्य ही मोक्ष सुखस्वरुप है। परन्तु मेरे लिये उसकी कोई सम्भावना नहीं है। इस आपत्ति से छूटने का न तो कोई उपाय दीखता है और न मैं अपनी पत्नी और पुत्र के साथ भाग सकता हूँ। तुम मेरी जितेन्द्रिय एवं धर्मात्मा सहचरी हो। देवताओं ने तुम्हे मेरी सखी और सहारा बना दिया है। मैंने मंत्र पढकर तुमसे विवाह किया है। तुम कुलीन शीलवती और बच्चों की माँ हो। तुम सती-साध्वी और मेरी हितैषिणी हो। राक्षस से अपने जीवन की रक्षा के लिये मैं तुम्हे उसके पास नहीं भेज सकता। पति की बात सुनकर ब्राह्मणि ने कहा, स्वामी, आप सधारण मनुष्य के समान शोक क्यों कर रहे हैं। एक-न-एक दिन सभी मनुष्यों को मरना ही पड़ता है। फिर इस अवश्यमभावी बात के लिये शोक क्यों किया जाय। पत्नी, पुत्र अथवा पुत्री सब अपने ही लिये होते हैं। आप विवेक के बल से चिन्ता छोड़िये। मैं स्वयं उसके पास चली जाऊँगी। पत्नी के लिये सबसे बढकर यही सनातन कर्तव्य है कि वह प्राणों को न्योछावर करके पति की भलाई करे। आप राक्षस के भोजन के लिये मुझे ही जाने दें। माँ-बाप की दुःखभरी बात सुनकर कन्या बोली, आपलोग दुःखी न हों। धर्म के अनुसार आपलोग मुझे एक-न-एक दिन तो छोड़ ही देंगे। इसलिये आज ही मुझे छोड़कर अपनी रक्षा क्यों नहीं कर लेते। कन्या की बात सुनकर माँ-बाप रोने लगे। सबको रोते देखकर नन्हा ब्राह्मण-शिशुने एक तिनका उठाकर हँसते हुए कहा, मैं इसी से राक्षस को मार डालूँगा। बच्चे की इस बात से इस दुःख की घड़ी में तनिक प्रसन्नता प्रफुल्लित हो उठी। कुन्ती यह सब देख-सुन रही थी। वे अपने को प्रकट करने का अवसर देखकर पास चली गयीं और मुर्दों पर मानो अमृत की धारा उड़ेलते हुए बोलीं, ब्राह्मण देवता आपके दुःख का क्या कारण है। उसे जानकर यदि हो सकेगा तो मिटाने की चेष्टा करूँगी। ब्राह्मण ने कहा, तपस्विनी आपकी बात सज्जनों के अनुरूप है। परन्तु मेरा दुःख मनुष्य नहीं मिटा सकता। इस नगर के पास ही एक बक नाम का राक्षस रहता है। उस बलवान् राक्षस के लिये एक गाड़ी अन्न तथा दो भैंसें प्रतिदिन दिये जाते हैं। जो मनुष्य लेकर जाता है उसे भा वह खा जाता है। प्रत्येक गृहस्थ को यह काम करना पड़ता है। परन्तु इसकी बारी बहुत वर्षों के बाद आती है।जो उससे छूटने का यत्न करते हैं वह उनके सारे कुटुम्ब को खा जाता है। यहाँ का राजा यहाँ से थोड़ी दूर वेत्रकीयगृह नाक स्थान में रहता है। वह अन्यायी हो गया है और इस विपत्ति में प्रजा की रक्षा नहीं करता। आज हमारी बारी आ गयी है। मुझे उसके भोजन के लिये अन्न और एक मनुष्य देना पड़ेगा। मेरे पास इतना धन नहीं है कि किसी को खरीदकर दे दूँ। कुन्ती ने कहा, आप न डरें और न शोक करें, उससे छुटकारे का उपाय मैं समझ गई। आपके तो एक ही पुत्र और एक ही कन्या है। आप दोनो में से किसी का जाना भी मुझे ठीक नहीं लगता। मेरे पाँच लड़के हैं, उनमें से एक पापी राक्षस का भोजन लेकर चला जायगा । ब्राह्मण ने कहा, मैं अपने जीवन के लिये अतिथी की हत्या नहीं कर सकता। अवश्य ही आप बड़ी कुलीन और धर्मात्मा हैं, तभी तो हमलोगों की रक्षा के लिये अपने पुत्र का भी त्याग करना चाहती हैं। मैं अपने -आप तो मरना चाहता नहीं। दूसरा कोई मुझे मार डालता है तो इसका पाप मुझे नहीं लगेगा। चाहे कोई भी हो जो अपने घर आया, शरण में आया, जिसने रक्षा की याचना की, उसे मरवा डालना बड़ी नृशंसता है। आपत्तिकाल में भी निंदित और क्रूर कर्म नहीं करना चाहिये। मैं स्वयं अपनी पत्नी के साथ मर जाऊँ वह श्रेष्ठ है। कुन्ती ने कहा, मेरा यह दृढ निश्चय है कि मुझे आपलोगों की रक्षा करनी है। मैं अपने पुत्र का अनिष्ट नहीं चाहती हूँ। परंतु बात यह है कि राक्षस मेरे बलवान्, मंत्रसिद्ध और तेजस्वी पुत्र का अनिष्ट नहीं कर सकता। वह राक्षस को भोजन पहुँचाकर भी अपने को छुड़ा लेगा, ऐसा मेरा दृढ निश्चय है। अबतक न जाने कितने बलवान और विशालकाय राक्षस इसके हाथों मारे गये हैं। एक बात है, इसकी सूचना आप किसी को न दें, क्योंकि लोग यह विद्या जानने के लिये मेरे पुत्रों को तंग करेंगे। कुन्ती की बात से ब्राह्मण-परिवार को बड़ी प्रसन्नता हुई। कुन्ती ने ब्राह्मण के साथ जाकर भीमसेन से कहा कि,तुम यह काम कर दो। भीमसेन ने बड़ी प्रसन्नता के साथ माता का बात स्वीकार कर ली। जिस समय भीमसेन ने यह काम करने की प्रतीज्ञा की, उसी समय युधिष्ठिर आदि भिक्षा लेकर लौटे। युधिष्ठिर ने भीमसेन के आकार से ही सबकुछ समझ लिया। उन्होंने एकान्त में बैठकर अपनी माता से पूछा, माँ, भीमसेन क्या करना चाहते हैं। यह उनकी स्वतंत्र इच्छा है या आपकी आज्ञा। कुन्ती बोली, मेरी आज्ञा। युधिष्ठिर ने कहा, माँ, आपने दूसरे के लिये अपने पुत्र को संकट में डालकर बड़े साहस का काम किया है। कुन्ती ने कहा, बेटा, भीमसेन की चिन्ता मत करो। मैने विचार की कमी से ऐसा नहीं किया है। हमलोग यहाँ इस ब्राह्मण के घर में आराम से रहते हैं। उससे उऋण होने का यही उपाय है। मनुष्य-जीवन की सफलता इसी में हैं कि वह कभी उपकारी के उपकार को न भूले। उसके उपकार से भी बढकर उसका उपकार कर दे। भीमसेन पर मेरा विश्वास है। पैदा होते ही वह मेरी गोद से गिरा था। उसके शरीर से टकराकर चट्टान चूर-चूर हो गयी। मेरा निश्चय विशुद्ध धार्मिक है। इसका प्रत्युपकार तो होगा ही, धर्म भी होगा। युधिष्ठिर बोले, माता, आपने जो कुछ सझ-बूझकर किया है, वह सब उचित है। अवश्य ही भीमसेन राक्षस को मार डालेंगे।          

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