Wednesday 17 June 2015

आदिपर्व-जरत्कारु ऋषि की कथा और आस्तिक का जन्म

जरत्कारु ऋषि की कथा और आस्तिक का जन्म

जरत्कारू ऋषि बहुत दिनों तक तपस्या में संलग्न रहे। वे जप,तप और स्वाध्याय में लगे रहते तथा निर्भय होकर स्वच्छंद होकर पृथ्वी पर विचरण करते। उन दिनों परक्षित का राजत्वकाल था। मुनिवर जरत्कारू का नियम था कि जहाँ सायंकाल हो जाता वहीं वे ठहर जाते। वे पवित्र तीर्थों में स्नान करते और कठोर नियमों का पालन करते। जरत्कारू ऋषि बहुत दिनों तक तपस्या में संलग्न रहे।वे जप,तप और स्वाध्याय में लगे रहते तथा निर्भय होकर स्वच्छंद होकर पृथ्वी पर विचरण करते। उन दिनों परक्षित का राजत्वकाल था। मुनिवर जरत्कारू का नियम था कि जहाँ सायंकाल हो जाता वहीं वे ठहर जाते। वे पवित्र तीर्थों में स्नान करते और कठोर नियमों का पालन करते। एक दिन यात्रा करते समय उन्होंने देखा कि कुछ पितर नीचे की ओर मुँह करके एक गड्ढे में लटक रहे हैं।वे एक खस का तिनका पकड़े हुये थे और उसे भी एक चूहा कुतर रहा था।  जरत्कारु ने उनके पास जाकर पूछा,आपलोग जिस खस के तिनके का सहारा लेकर लटक रहे हैं, उसे एक चूहा कुतरता जा रहा है। आपलोगों को इस अवस्था में देखकर मुझे बहुत दुःख हो रहा है। मैं आपकी क्या सेवा करूँ। मैं अपनी सारी तपस्या का फल देकर आपलोगों को बचाना चाहता हूँ।     पितरों ने कहा--आप बूढे ब्रह्मचारी हैं, हमारी रक्षा करना चाहते हैं परन्तु हमारी रक्षा आप तपस्या के बल से नहीं कर सकते। तपस्या का बल तो हमारे पास भी है। परन्तु वंशपरंपरा के नाश के कारण हम इस घोर नरक में गिर रहे हैं। हमलोग यायावर नामक ऋषि हैं। हमारे वंश में केवल एक ही व्यक्ति रह गया है वह भी नहीं के बराबर है। हमारे अभाग्य से वह तपस्वी हो गया है, उसका नाम जरत्कारु है। उसके कोई पत्नी-पुत्र नहीं है। इसी से हमलोग अनाथ की तरह बेहोश होकर इस गड्ढे में लटक रहे हैं। यदि वह तुम्हे कहीं मिले तो उससे कहना कि वह विवाह करे। यह जो आप खस की जड़ देख रहे हैं यही हमारे वंश का सहारा है। वह अधकटी जड़ ही जरत्कारु है। जड़ कतरनेवाला चूहा महाबली काल है। यह एक दिन जरत्कारु को भी नष्ट कर देगा तब हमलोग और भी विपत्ति में पड़ जायेंगे। पितरों की बात सुनकर जरत्कारु को बड़ा शोक हुआ। वे बोले--मैं ही आपलोगों का अपराधी पुत्र जरत्कारु हूँ। आपलोग मुझे दंड दीजिये और मेरे करने का कार्य बताइये। पितरों ने कहा,बेटा,यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम संयोगवश यहाँ आ गये। तुमने अभी तक विवाह क्यों नहीं किया। जरत्कारु ने कहा कि वे अखंड ब्रहमचर्य का पालन करके स्वर्ग प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने यह दृढ संकल्प कर लिया था कि वे कभी विवाह नहीं करेंगे। परंतु अब आपलोगों को उलटे लटकते देखकर मैने अपना ब्रहमचर्य का निश्चय पलट दिया है। अब मैं आपलोगों के लिये निःसंदेह विवाह करुँगा। यदि मुझे मेरे ही नाम की कन्या मिल जायगी तो मैं उसे पत्नी रुप में स्वीकार कर लूँगा। जरत्कारु इस प्रकार पितरों से कहकर पृथ्वी पर विचरने लगे। परन्तु एक तो उन्हें बूढा समझकर कोई उनसे अपनी कन्या ब्याहना नहीं चाहता था और दूसरे उनके अनुरुप कन्या मिलती भी नहीं थी। वे निराश होकर वन में गये और पितरों के हित के लिये तीन बार धीरे-धीरे बोले, मैं कन्या की याचना करता हूँ। वासुकी नाग द्वारा नियुक्त सर्प जरत्कारु की बात सुनकर नागराज के पास गये और उन्होंने अपनी बहिन को लाकर जरत्कारु ऋषि को समर्पित की।जरत्कारु ऋषि ने कहा,मैं इसका भरण-पोषण नहीं करुँगा यह शर्त तो हो चुकी,इसके अलावा एक शर्त यह है कि यह कभी मेरा अप्रिय कार्य न करे। करगी तो मैं इसे अवश्य छोड़ दूँगा।जब नागराज वासुकि ने उनकी शर्त स्वीकार कर ली तब वे उनके घर गये।वहाँ विधिपूर्वक विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ।जरत्कारु ऋषि अपनी पत्नी जरत्कारु के साथ वासुकि नाग के श्रेष्ठ भवन में रहने लगे। उन्होंने अपनी पत्नी को भी अपनी शर्त की सूचना दे दी कि मेरी रुचि के विरुद्ध न कुछ करना न कुछ करना। ऐसा करने से मैं तुम्हे छोड़कर चला जाऊँगा। उनकी पत्नी ने स्वीकार किया तथा सावधान रहकर उनकी सेवा करने लगी। समय पर गर्भ रहा और धीरे-धीरे बढने लगा।एक दिन जरत्कारु ऋषि कुछ खिन्न होकर अपनी पत्नी की गोद में सिर रखकर सोये हुए थे। वे सो ही रहे थे कि सूर्यास्त का समय हो आया। ऋषि-पत्नी ने सोचा कि पति को जगाना धर्म के अनुकूल होगा या नहीं। वे सोचने लगी--जगाने पर इनके कोप का भय है और न जगाने पर धर्म-लोप का। अन्त में वे इस निर्णय पर पहुँची कि वे चाहे क्रोध करें,परन्तु इन्हें धर्म-लोप से बचाना चाहिये। ऋषि-पत्नी ने बड़ी मधुर-वाणी से कहा, उठिये, सूर्यास्त हो रहा है। ऋषि जरत्कारु जगे। वे क्रोध से लाल हो गये और बोले, अब मैं तरे पास नहीं रहूँगा। जहाँ से आया हूँ वहीं चला जाऊँगा। मेरे हृदय में यह दृढ निश्चय है कि मेरे सोते रहने पर सूर्य अस्त नहीं हो सकते थे। अपमान के स्थान पर रहना अच्छा नहीं लगता, अब मैं जाऊँगा। अपने पति की ऊँची आवाज सुनकर ऋषिपत्नी ने कहा, मैंने अपमान करने के लिये आपको नहीं जगाया है। आपके धरम का लोप न हो मेरी यही दृष्टि थी। जरत्कारूऋषि ने कहा, एक बार जो मुँह से निकल गया वह झूठा नहीं हो सकता। मैं जा रहा हूँ। मेरे जाने के बाद तुम किसी प्रकार की चिन्ता न करना। ऋषिपत्नी ने कहा,मेरे भाई ने एक प्रयोजन लेकर आपके साथ मेरा विवाह किया था। अभी वह पूरा नहीं हुआ। जरत्कारूऋषि ने कहा, तुम्हारे पेट में अग्नि के समान तेजस्वी गर्भ है। वह बहुत बड़ा विद्वान् और धर्मात्मा ऋषि होगा। यह कहकर जरत्कारूऋषि चले गये। पति के जाते ही ऋषिपत्नी अपने भाई वासुकि के पास गयी और उनके जाने का समाचार सुनाया। उन्होंने जाते समय मुझसे कहा कि अपनी प्रयोजन-सिद्धि के संबंध में कोई चिन्ता न करना। समय आने पर वासुकि की बहन जरत्कारु से एक दिव्य कुमार का जन्म      हुआ।नागराज वासुकि के घर पर बाल्य अवस्था में बड़ी सावधानी और प्रयत्न से उसकी रक्षा की गयी। 

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