Wednesday 17 June 2015

आदिपर्व-समुद्र-मंथन और अमृत आदि की प्राप्ति

      समुद्र-मंथन और अमृत आदि की प्राप्ति

मेरु नामक एक पर्वत है। वह इतना चमकीला है मानो तेज की राशि हो। उसकी सुनहली चोटियों के सामने सूर्य की प्रभा फीकी पड़ जाती है। वे गगनचुम्बी चोटियाँ रत्नों से खचित हैं। उन्हीं में से एक पर देवतालोग इकट्ठे होकर अमृतप्राप्ति के लिए सलाह करने लगे। उनमें भगवान नारायण और ब्रह्माजी भी थे। नारायण ने देवताओं से कहा--देवता और असुर मिलकर समुद्र मंथन करें। इस मंथन के फलस्वरुप अमृत की प्राप्ति होगी। देवताओं ने भगवान नारायण के परामर्श से मंदराचल को उखाड़ने की चेष्टा की। वह पर्वत मेघों के समान ऊँची चोटियों से युक्त, बारह हजार योजन ऊँचा और उतना ही नीचे धँसा हुआ था। जब सब देवता पूरी शक्ति लगाकर भी उसे नहीं उखाड़ पाए तब उन्होंने विष्णु भगवान और ब्रह्माजी से जाकर प्रार्थना की। देवताओं की प्रार्थना सुनकर श्री नारायण और ब्रह्माजी ने शेषनाग को मंदराचल उखाड़ने के लिए प्रेरित किया। महाबली शेषनाग ने मंदराचल को उखाड़ लिया। अब मंदराचल के साथ देवगण समुद्रतट पहुँचे और समुद्र से कहा कि हमलोग अमृत के लिए तुम्हारा जल मथेंगे। समुद्र ने कहा,यदि आपलोग अमृत में मेरा भी हिस्सा रखें तो मैं मंदराचल को घुमाने से जो कष्ट होगा सह लूँगा। देवता और असुरों ने समुद्र की बात स्वीकार करके कच्छपराज से पर्वत का आधार बनने को कहा। कच्छपराज ने मंदराचल को अपनी पीठ पर ले लिया। अब देवराज इन्द्र यंत्र के द्वारा मंदराचल को घुमाने लगे। इस प्रकार देवता और असुरों ने मंदराचल की मथनी और वासुकी नाग की डोरी बनाकर समुद्र-मंथन प्रारंभ किया। सारा समुद्र क्षुब्ध हो उठा। उस समय समुद्र से अगणित किरणोंवाला, शीतल प्रकाश से युक्त श्वेतवर्ण का चन्द्रमा प्रगट हुआ। चन्द्रमा के बाद भगवती लक्ष्मी और सुरा देवी निकली। उसी समय श्वेत वर्ण का उच्चैःश्रवा घोड़ा भी पैदा हुआ। भगवान नारायण के वक्षःस्थल पर सुशोभित होनेवाली दिव्यकिरणों से उज्जवल कौस्तुभमणि तथा वांछित फल देनेवाले कल्पवृक्ष और कामधेनु भी उसी समय निकले। लक्ष्मी,सुरा,चन्द्रमा,उच्चैःश्रवा---ये सब आकाशमार्ग से देवताओं के लोक में चले गए। इसके बाद दिव्य शरीरधारी धन्वन्तरी प्रकट हुए। ये अपने हाथ में अमृत से भरा कमण्डल लिए हुए थे। यह अद्भुत चमत्कार देखकर दानवों में यह मेरा है,यह मेरा है ऐसा कोलाहल मच गया। तदनन्तर चार श्वेत दाँतों से युक्त विशाल ऐरावत हाथी निकला। उसे इन्द्र ने ले लिया। जब समुद्र बहुत मंथन किया गया ,तब उसमें से कालकूट विष निकला। उसकी गंध से ही लोगों की चेतना जाती रही। ब्रह्मा की प्रार्थना से भगवान शंकर ने उसे अपने कंठ में धारण कर लिया। तभी से वे नीलकंठ नाम से प्रसिद्ध हुए। यह सब देखकर दानवों की आशा टूट गयी। अमृत और लक्ष्मी के लिए उनमें बड़ा वैर-विरोध और फूट हो गयी। उसी समय भगवान विष्णु मोहिनी स्त्री का वेष धारण करके दानवों के पास आए। मूर्खों ने उनकी माया न जानकर मोहिनीरूपधारी भगवान को अमृत का पात्र दे दिया। उस समय वे सभी मोहिनी के रुप पर लट्टू हो रहे थे। इस प्रकार विष्णुभगवान ने मोहिनीरूप धारण करके दानवों से अमृत छीन लिया और देवताओं ने उनके पास जाकर उसे पी लिया। उसी समय राहू दानव भी देवताओं का रुप धारण कर अमृत पीने लगा। अभी अमृत उसके कंठ तक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्य ने उसका भेद बतला दिया। भगवान विष्णु ने तुरंत ही अपने चक्र से उसका सिर काट डाला। राहू का पर्वत शिखर के समान सिर आकाश में उड़कर गरजने लगा और उसका धर पृथ्वी पर गिरकर सबको कँपाता हुआ तड़फराने लगा। तभी से राहू का चन्द्रमा और सूर्य से वैमनस्य स्थायी हो गया। विष्णु भगवान ने अमृत पिलाने के बाद अपना मोहिनी रुप त्याग दिया और वे तरह-तरह के भयावने अस्त्र-शस्त्रों से असुरों को डराने लगे। बस,खारे समुद्र के तट पर देवता और असुरों का भयंकर संग्राम छिड़ गया। भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र बरसने लगे। भगवान के चक्र से कट-कटकर कोई-कोई असुर खून उगलने लगे तो कोई-कोई देवताओं के खड्ग,शक्ति और गदा से घायल होकर धरती पर लोटने लगे। चारों ओर से यही आवाज सुनाई पड़ती कि मारो,काटो,दौड़ो,गिरादो,पीछा करो। इस प्रकार भयंकर युद्ध हो ही रहा था कि विष्णु भगवान के दो रुप नर और नारायण युद्धभूमि में दिखाय़ी पड़े। नर का दिव्य धनुष देखकर नारायण ने अपने चक्र का स्मरण किया।उसी समय सूर्य के समान तेजस्वी गोलाकार चक्र आकाशमार्ग से वहाँ उपस्थित हुआ। भगवान नारायण के चलाने पर चक्र शत्रु दल में घूम-घूमकर कालाग्नि के समान सहस्त्र-सहस्त्र असुरों का संहार करने लगे। असुर भी आकाश में उड़-उड़कर पर्वतों की वर्षा से देवताओं को घायल करते रहे। उस समय देवशिरोमणि नर ने वाणों के द्वारा पर्वतों की चोटियाँ काट-काटकर उन्हें आकाश में बिछा दिया और सुदर्शन चक्र घास-फूस की तरह दैत्यों को काटने लगा। इससे भयभीत होकर असुरगण पृथ्वी और समुद्र में छिप गये। देवताओं की जीत हुई। मन्दराचल को सम्मानपूर्वक यथास्थान पहुँचा दिया गया। सभी अपने-अपने स्थान पर गये।देवता और इन्द्र ने बड़े आनंद से सुरक्षित रखने के लिये भगवान् नर को अमृत दिया।यही समुद्र-मंथन की कथा है। 

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