Tuesday 23 June 2015

आदिपर्व-पाण्डवों का लाक्षागृह में रहना, सुरंग का खोदा जाना और आग लगाकर निकल भागना

पाण्डवों का लाक्षागृह में रहना, सुरंग का खोदा जाना और आग लगाकर निकल भागना

पाण्डवों के शुभागमन का समाचार सुनकर वारणावत के नागरिक शास्त्र-विधि के अनुसार मंगलमयी वस्तुओं की भेंट लेकर प्रसन्नता और उत्साह के साथ सवारियों पर चढकर उनकी आगवानी के लिये आये। उनके जयजयकार और मंगल-घ्वनि से दिशाएँ गूँज उठीं। स्वागत करनेवालों का अभिनन्दन करके माता कुन्ती के साथ पाण्डवों ने वारणावत नगर में प्रवेश किया।पुरोचन ने उनके लिये नियत वासस्थान पर आदर के साथ उन्हें ठहराया और भोजन, पलंग, आसन आदि सामग्रियों से उन्हें संतुष्ट करने की चेष्टा की। पाण्डवलोग सुखपूर्वक वहाँ रहने लगे। पुरवासियों की भीड़ प्रायः लगी ही रहती। दस दिन बीत जाने पर पुरोचन ने पाण्डवों से उस सुन्दर नाम वाले किन्तु अमंगल भवन की चर्चा की। उसकी प्रेरणा से पाण्डव सामग्रियों के साथ वहाँ रहने लगे। धर्मराज युधिष्ठिर ने घर के चारों ओर से देखकर भीमसेन से कहा, भाई भीम, देखते हो न, इस घर का एक-एक कोना आग भड़कानेवाली सामग्रियों से बना है। घी, लाख और चर्बी की मिश्रित गंध से ही प्रमाणित होता है। शत्रु के कारीगरों ने बड़ी चतुराई से सन, सर्जरस, मूँज घास, बाँस आदि को घी से तर करके इसका निर्माण किया है। निश्चय ही पुरोचन का विचार है कि जब हमलोग इसमें बेखटके रहने लगें तब वह आग लगाकर इसे जला दे। विदुर ने पहले ही यह बात ताड़ ली थी। तभी तो उन्होंने स्नेहवश इसकी सूचना दे दी। भीमसेन ने कहा, भाईजी, यदि ऐसी बात है तो हमलोग अपने पहले ही स्थान पर क्यों न लौट चलें। युधिष्ठिर ने कहा, भैया भीम, हम बड़ी सावधानी के साथ अपनी जानकारी छिपाकर यहीं रहना चाहिये। हमारे चेहरे-मोहरे या रंग-ढंग से किसी को शंका-संदेह न हो। हमलोग निकलने की घात ढूँढ लें। यदि हमारी भाव-भंगी से पुरोचन से पता चल गया तो वह बलपूर्वक भी हमे जला सकता है। उसे लोकनिन्दा अथवा अधर्म की परवा नहीं है। यदि हम मर ही गये तो फिर पितामह भीष्म तथा दूसरे लोग कौरवों पर किसलिये रुष्ट होंगे। उस समय का क्रोध भी तो व्यर्थ ही जायगा। यदि हम डरकर यहाँ से भागेंगे तो दुर्योधन अपने गुप्तचरों से पता लगा कर हमें मरवा देगा। इस समय वह अधिकारी है। उसके पास सहायक और खजाना है। हमारे पास तीनों ही बातें नहीं हैं। आओ हमलोग यहाँ रहकर वन में खूब घूमें फिरें, रास्तों का पता लगा रखें। सुरक्षित सुरंग बन जाने पर हम यहाँ से भाग निकलें और किसी को कानोंकान इस बात की खबर न हो कि पाण्डव जीते बच गये हैं। भीमसेन ने बड़े भाई की बात मान ली। एक सुरंग खोदनेवाला विदुर का बड़ा विश्वासपात्र था। उसने पण्डवों के पास आकर कहा, मैं खुदाई के काम में बड़ा निपुण हूँ। विदुर की आज्ञा से आपके पास आया हूँ। विदुर ने संकेत के तौर पर मुझे बतलाया है कि चलते समय मैने युधिष्ठिर से म्लेच्छ भाषा में कुछ कहा था और उन्होंने 'मैने आपकी बात भली-भाँति समझ ली' यह कहा था। पुरोचन जल्दी ही आग लगानेवाला है। मैं आपकी क्या सेवा करुँ। युधिष्ठिर ने कहा, भैया , मैं तुमपर पूरा विश्वास करता हूँ। हमारे जैसे हितचिंतक विदुर हैं, वैसे ही तुम भी हो। हमें अपना ही समझ और जैसे वे हमारी रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम भी करो। इस आग के भय से तुम हमें बचा लो। इस घर में चारों ओर ऊँची दीवारें हैं,एक ही दरवाजा है। तब सुरंग खोदनेवाला कारीगर युधिष्ठिर को आश्वासन देकर खाई की सफाई करने के बहाने अपने काम पर डट गया। उसने उस घर के बीचोबीच एक बड़ी भारी सुरंग बनायी और जमीन के बराबर ही किवाड़ लगा दिये। पुरोचन उस घर के दरवाजे पर ही सर्वदा रहता था। कहीं वह आकर देख न ले, इसलिये सुरंग का मुँह बिलकुल बन्द रखा गया। पाण्डव अपने साथ शस्त्र रखकर बड़ी सावधानी से उस महल में रात बिताते थे। दिनभर शिकार खेलने के बहाने  जंगलों में घूमा करते। विश्वास न होने पर भी वे ऐसी ही चेष्टा करते मानो पूरे विश्वासी हैं। उस खोदनेवाले कारीगर के अतिरिक्त पाण्डवों की इस स्थिति का पता किसी को नहीं था। पुरोचन ने देखा कि एक वर्ष के लगभग हो गया, पाण्डव इसमें बड़े विश्वास से निःशंक रह रहे हैं। उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसकी प्रसन्नता देखकर युधिष्ठिर ने भाइयों से कहा, पापी पुरोचन समझ रहा है कि ये ठग लिये। यह भुलावे में आ गया है। अतः यहाँ से निकल चलना चाहिये। शस्त्रागार और पुरोचन को भी जलाकर अलक्षितरूप से भाग निकलना चाहिये। एक दिन कुन्ती ने दान देने के लिये ब्राह्मण-भोजन कराया। बहुत सी स्त्रियाँ भी आयीं थीं। जब-सब खा-पीकर चले गये, तब संयोगवश एक भील की स्त्री अपने पाँच पुत्रों के साथ वहाँ भोजन माँगने के लिये आयी। वे सब शराब पीकर मस्त थे, इसलिये बेहोश होकर लाक्षाभवन में ही सो रहे।सब लोग सो चुके थे। आँधी चल रही थी, भयंकर अंधकार था। भीमसेन उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पुरोचन सो रहा था। भीमसेन ने पहले उस मकान के दरवाजे पर आग लगायी और फिर चारों तरफ आग भभका दी। बात-की-बात में विकराल लपटें उठने लगीं। पाँचों भाई अपनी माता के साथ सुरंग में घुस चले। अब आग की असह्य गर्मी और उत्कट उजाला चारों ओर फैल गया और इमारत के चटचटाने तथा गिरने से धाँय-धाँय ध्वनि होने लगी, सब पुरवासी जगकर वहाँ दौड़े आये। उस घर की भयानक दुर्दशा देखकर सब कहने लगे कि दुरात्मा दुर्योधन की प्रेरणा से पुरोचन ने यह जाल रचा होगा। हो-न-हो यह उसी की करतूत है। धृतराष्ट्र की इस स्वार्थपरता को धिक्कार है। हाय-हाय, उन्होंने सीधे और सच्चे पाण्डवों को जलाकर मार डाला। पुरोचन को भी अच्छा फल मिला। वह निर्दयी भी इसी में जलकर राख का ढेर हो गया। इस तरह वारणावत के नागरिक रोते-कलपते रातभर उस महल को घरे रहे।पाण्डव माता कुन्ती को साथ लिये सुरंग से बाहर एक वन में निकले। सब चाहते थे कि यहाँ से जल्दी भाग चलें, परन्तु नींद और डर के मारे सब लाचार थे। माता कुन्ती के कारण फुर्ती से चलना असभव हो रहा था। तब भीमसेन माता को कंधे पर और नकुल सहदेव को गोद में बैठाकर युधिष्ठिर और अर्जुन को दोनो हाथों का सहारा देते जल्दी-जल्दी ले चले। उस समय भीमसेन बड़ी तेज गति से चलकर गगाजी के तट पर पहुँच गये।   

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