Wednesday 17 June 2015

आदिपर्व- सर्पों के जन्म की कथा

        सर्पों के जन्म की कथा 

सतयुग में दक्षप्रजापति की दो कन्याएं थीं----कद्रू और विनता। उनका विवाह कश्यप ऋषि से हुआ था। कश्यप अपनी धर्मपत्नियों से प्रसन्न होकर बोले, तुम्हारी जो इच्छा हो वर माँग लो। कद्रू ने कहा,एक हजार समान तेजस्वी नाग मेरे पुत्र हों। विनीता बोली,तेज शरीर और बल विक्रम से कद्रू के पुत्रों से श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र मुझे प्राप्त हों। कश्यप जी ने एवमस्तु कहा। दोनो सौ वर्ष पूरे होने पर कद्रू के तो हजार पुत्र निकल आए परंतु विनता के दो बच्चे नहीं निकले। विनता ने अपने हाथों से एक अण्डा फोड़ डाला। उस अण्डे का शिशु आधे शरीर से तो पुष्ट हो गया था,परंतु उसके नीचे का आधा शरीर अभी कच्चा था। नवजात शिशु ने क्रोधित होकर अपनी माता को श्राप दिया, माँ तूने लोभवश मेरे अधूरे शरीर को ही निकाल लिया है। इसलिए तू अपनी उसी सौत की पाँच सौ वर्ष तक दासी रहेगी, जिससे डाह करती है। यदि मेरी तरह तूने दूसर अण्डे को भी फोड़कर उसे अंगहीन न किया तो वही तुझे इस श्राप से मुक्त करेगा। यदि तेरी इच्छा है कि तेरा दूसरा बालक बलवान हो तो धैर्य के साथ पाँच सौ वर्ष तक प्रतीक्षा कर। इस प्रकार शाप देकर वह बालक आकाश में उड़ गया और सूर्य का सारथी बना। प्रातःकालीन लालिमा उसी की झलक है। उस बालक का नाम अरुण हुआ।          

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