वारणावत में लाक्षाभवन,
पाण्डवों की यात्रा, विदुर का गुप्त संदेश
जब धृतराष्ट्र ने पाण्डवों
को वारणावत जाने की आज्ञा दे दी, तब दुरात्मा दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने
अपने मंत्री पुरोचन को एकान्त में बुलाया और उसका दाहिना हाथ पकड़कर कहा, भाई पुरोचन,
तुम्हारे सिवा मेरा ऐसा कोई विश्वासपात्र और सहायक नहीं है, जिसके साथ मैं इतनी गुप्त
सलाह कर सकूँ। मैं तुम्हें यह काम सौंपता हूँ कि मेरे शत्रुओं की जड़ उखाड़ फेंको।होशियारी
से काम करना, किसी को मालूम न हो। पिताजी के आज्ञानुसार पाण्डव
कुछ दिन तक वारणावत रहेंगे। तुम पहले ही वहाँ चले जाओ। वहाँ नगर के किनारे पर
सन, सर्जरस और लकड़ी आदि से ऐसा भवन बनवाओ जो आग से भड़क उठे।
उसकी भीतों पर घी, तेल चर्बी
और लाख मिली हुई मिट्टी का लेप करा देना। पाण्डवों को परीक्षा करनेपर
भी इस बात का पता न चले। उसी में कुन्ती, पाण्डव और उनके मित्रों को रखना।
वहाँ दिव्य आसन, वाहन और
शैय्या सजा देना। फिर वे विश्रामपूर्वक निश्चिन्त होकर सो जायँ तो दरवाजे पर आग लगा
देना। इस प्रकार जब व अपने रहने के घर में ही जल जायेंगे तो हमारी निन्दा भी न होगी। पुरोचन ने वैसा ही करने की प्रतीज्ञा
ली जैसा दुर्योधन ने कहा और वारणावत के लिये प्रस्थान किया। वहाँ जाकर उसने दुर्योधन
के आज्ञानुसार महल तैयार कराया। समय आने पर पाण्डवों ने यात्रा के लिये शीघ्रगामी और
श्रेष्ठ घोड़ों को रथ में जुड़वाया। उनलोगों ने बड़े दीन भाव से बड़े-बूढों के चरणों का
स्पर्श किया और यात्रा की। उस समय कुरु-वंश के बहुत से बड़े-बूढे, बुद्धिमान विदुर और
सारी प्रजा युधिष्ठिर के पीछे-पीछे चलने लगी। पाण्डवों को उदास देखकर निर्भय ब्राह्णों
ने आपस में कहा, राजा धृतराष्ट्र की बुद्धि मन्द हो गयी है। तभी तो वे अपने लड़कों का
पक्षपात करते हैं। उनकी धर्मदृष्टि लुप्त हो रही है। पाण्डवों ने किसी का कुछ बिगाड़ा
नहीं है। अपने पिता का ही राज्य उन्हें प्राप्त हो रहा है, फिर धृतराष्ट्र इसे भी क्यों
नहीं सहते। पता नहीं, धर्मात्मा भीष्म यह अन्याय कैसे सह रहे हैं।
हमलोग यह सब नहीं चाहते।
सह भी नहीं सकते। हम सब अब हस्तिनापुर को छोड़कर वहीं चलेंगे जहाँ राजा युधिष्ठिर रहेंगे।
पुरवासियों की बात सुनकर तथा उसका दुःख जानकर युधिष्ठिर ने कहा, पुरवासियों, राजा धृतराष्ट्र
हमारे पिता, परम मान्य और गुरु हैं। वे जो कुछ कहेंगे वह हम निःशंकभाव से करेंगे। यह
हमारी प्रतिज्ञा है। यदि आपलोग हमारे हितैषी और मित्र हैं तो लौट जाइये।जब हमारे काम
में कोई अड़चन पड़ेगी,तब आपलोग हमारा प्रिय और हित कीजियेगा।
युधिष्ठिर की धर्मसंगत बात
सुनकर सभी पुरवासी आशीर्वाद देते हुए नगर लौट गये। सबके लौट जाने पर अनेक भाषाओं के
ज्ञाता विदुर ने युधिष्ठिर से सांकेतिक भाषा में कहा, नीतिज्ञ पुरुष को शत्रु का मनोभाव
समझकर उससे अपनी रक्षा करनी चाहिये।एक ऐसा अस्त्र है,जो लोहे का तो नहीं है, परंतु
शरीर को नष्ट कर सकता है। आग घास-फूस और सारे जंगल को जला डालती है। परंतु बिल में
रहने वाले जीव उससे अपनी रक्षा कर लेते हैं। (अर्थात् शत्रुओं ने तुम्हारे लिये एक
ऐसा भवन तैयार किया है जो आग से भड़क उठनेवाले पदार्थों से बना है)
अन्धे को रास्ता और दिशाओं का ज्ञान नहीं होता। (अर्थात् उससे बचने के लिये तुम एक सुरंग तैयार करा लेना) बिना धैर्य के समझदारी नहीं आती। मेरी बात को भली-भाँति समझ लो। शत्रुओं के दिये हुए बिना लोहे के हथियार को जो स्वीकार करता है वह स्याही के बिल में घुसकर आग से बच जाता है। (अर्थात् दिशा आदि का ज्ञान पहले से ही ठीक कर लेना जिससे रात में भटकना न पड़े) घूमने-फिरने से रास्ते का ज्ञान हो जाता है।नक्षत्रों से दिशा का पता लग जाता है। (अर्थात् उस सुरंग से यदि तुम बाहर निकल जाओगे तो उस भवन की आग में जलने से बच जाओगे) जिसकी पाँचों इन्द्रियाँ वश में है, शत्रु उसकी कुछ भी हानि नहीं कर सकते। (अर्थात् यदि तुम पाँचों भाई एकमत रहोगे तो शत्रु तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा) विदुर का संकेत सुनकर युधिष्ठिर ने कहा, मैंने आपकी बात भली-भाँति समझ ली है। विदुर हस्तिनापुर लौट आये। यह घटना फाल्गुन शुक्र अष्टमी,रोहिणी नक्षत्र की है।
No comments:
Post a Comment