Wednesday 17 June 2015

आदिपर्व-गरुड़ का अमृत लेकर आना और विनता को दासीभाव से छुड़ाना


गरुड़ का अमृत लेकर आना और विनता को 

        दासीभाव से छुड़ाना




सूर्य की किरणों के समान उज्जवल और सुनहरा शरीर धारण करके गरुड़ ने बड़े वेग से अमृत के स्थान में प्रवेश किया। उन्होंने वहाँ देखा कि अमृत के पास एक लोहे का चक्र निरंतर घूम रहा है। उसकी धार तीखी है, उसमें सहस्त्रों अस्त्र लगे हुये हैं। वह भयंकर चक्र सूर्य और अग्नि के समान जान पड़ता है। उसका काम ही था अमृत की रक्षा करना। गरुड़जी चक्र के भीतर घुसने का मार्ग देखते रहे। एक क्षण में ही उन्होने अपने शरीर को संकुचित कर लिया और चक्र के आड़ों के बीच होकर भीतर घुस गये। अब उन्होनें देखा कि अमृत की रक्षा के लिये दो भयंकर सर्प नियुक्त हैं। उनकी लपलपाती जीभें,चमकती आँखें और अग्नि की-सी शरीर कांति थी उनकी दृष्टि से ही विष का संचार होता था। गरुड़जी ने धूल झोंककर उनकी आँखें बन्द कर दीं। चोंचों और पंजों से मार-मारकर उन्हें कुचल दिया,चक्र को तोड़ डाला और बड़े ही वेग से अमृतपात्र लेकर वहाँ से उड़ चले। उन्होंने स्वयं अमृत नहीं पिया।बस,आकाश में उड़ कर सर्पों के पास चल दिये। आकाश में उन्हें विष्णु भगवान के दर्शन हुये। गरुड़ के मन में अमृत पीने का लोभ नहीं है यह जानकर अविनाशी भगवान् उनपर बहुत प्रसन्न हुये और बोले,गरुड़,मैं तुम्हे वर देना चाहता हूँ। मनचाही वस्तु माँग लो। गरुड़ ने कहा,भगवन्,एक तो आप मुझे अपनी ध्वजा में रखिये,दूसरे मैं अमृत पिये बिना ही अजर-अमर हो जाऊँ। भगवान् ने कहा,तथास्तु।गरुड़ ने कहा,मैं भी आपको वर देना चाहता हूँ। मुझसे कुछ माँग लीजिये। भगवान् ने कहा,तुम मेरे वाहन बन जाओ। गरुड़ ने ऐसा कहकर उनकी अनुमति से अमृत लेकर यात्रा की। अबतक इन्द्र की आँखें खुल चुकी थी। उन्होंने गरुड़ को अमृत ले जाते देख क्रोध से भरकर वज्र चलाया। गरुड़ ने वज्राहत होकर भी हँसते हुये कोमल वाणी से कहा---इन्द्र जिनकी हड्डी से वज्र बना है,उनके सम्मान के लिये मैं अपना एक पंख छोड़ देता हूँ। तुम उसका भी अन्त नहीं पा सकोगे। वज्राघात से मुझे तनिक भी पीड़ा नहीं हुई है। गरुड़ ने अपना एक पंख गिरा दिया। उसे देखकर लोगों को बड़ा आनंद हुआ। सबने कहा,जिसका यह पंख है उस पक्षी का नाम सुवर्ण हो। इन्द्र ने चकित होकर मन-ही-मन कहा,धन्य है यह पराक्रमी पक्षी।उन्होंने कहा, पक्षीराज, मैं जानना चाहता हूँ कि तुममें कितना बल है। साथ ही तुम्हारी मित्रता भी चाहता हूँ। गरुड़ ने कहा,देवराज,आपके इच्छानुसार हमारी मित्रता रहे। बल के संबंध में क्या बताऊँ,अपने मुँह से अपने गुणों का बखान,बल की प्रशंसा सत्पुरुषों की दृष्टि में अच्छी नहीं है। आप मुझे मित्र मानकर पूछ रहे हैं तो मैं मित्र के समान ही बतलाता हूँ कि पर्वत,वन,समुद्र और जलसहित सारी पृथ्वी को तथा इसके ऊपर रहनेवाले आपलोगों को भी मैं अपने एक पंख पर उठाकर बिना परिश्रम उड़ सकता हूँ। इन्द्र ने कहा,आपकी बात सोलहो आने सत्य है। आप अब मेरी घनिष्ठ मित्रता स्वीकार कीजिये।यदि आपको अमृत की आवश्यकता न हो तो मुझे दे दीजिये। आप यह ले जाकर जिन्हें देंगे,वे हमें बहुत दुःख देंगे।गरुड़जी ने कह,देवराज अमृत को ले जाने का एक कारण है। मैं इसे किसी को पिलाना नहीं चाहता हूँ। मैं इसे जहाँ रखूँ वहाँ से आप उठा लाइये। इन्द्र ने संतुष्ट होकर कहा,गरुड़ मुझसे मुँहमाँगा वर ले लो। गरुड़ को सर्पों की दुष्टता और उनके छल के कारण होनेवाले माता के दुःख का स्मरण हो आया। उन्होंने वर माँगा,ये बलवान् सर्प ही मेरे भोजन की सामग्री हों। देवराज इन्द्र ने कहा---तथास्तु। इन्द्र से विदा होकर गरुड़ सर्पों के स्थान पर आये। वहीं उनकी माता भी थीं। उन्होंने प्रसन्नता प्रकट करते हुये सर्पों से कहा,यह लो मैं अमृत ले आया। परन्तु पीने में जल्दी मत करो।मैं इसे कुशों पर रख देता हूँ। स्थान पर लौट स्नान करके पवित्र हो लो फिर इसे पीना। अब तुमलोगों के कथनानुसार मेरी माता दासीपन से छूट गयी,क्योंकि मैने तुमहारी बात पूरी कर दी है। सर्पों ने स्वीकार कर लिया। अब सर्पगण प्रसन्नता से भरकर स्नान करने के लिये गये,तब इन्द्र अमृतकलश उठाकर स्वर्ग में ले आये। मंगल-कृत्यों से लौटकर सर्पों ने देखा तो अमृत उस स्थान पर नहीं था। उन्होने समझ लिया कि हमने विनता को दासी बनाने के लिये जो कपट किया था,उसी का यह फल है। फिर यह समझकर कि यहाँ अमृत रखा गया था,इसलिये सम्भव है इसमें उसका कुछ अंश लगा हो,सर्पों ने कुशों को चाटना शुरु कर दिया। ऐसा करते ही उनकी जीभ के दो-दो टुकड़े हो गये। अमृत का स्पर्श होने से कुश पवित्र माना जाने लगा। अब गरुड़ कृतकृत्य होकर आनंद से अपनी माता के साथ रहने लगे।वे पक्षीराज हुये और उनकी कीर्ति चारों ओर फैल गयी और माता सुखी हो गयी।                                                                           

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