Thursday 18 June 2015

आदिपर्व-भरत का जन्म,दुष्यंत के द्वारा उसकी स्वीकृति और राज्याभिषेक

भरत का जन्म,दुष्यंत के द्वारा उसकी स्वीकृति और राज्याभिषेक
समय पर शकुन्तला को पुत्र हुआ। वह अत्यंत सुन्दर और बचपन में ही बड़ा बलिष्ठ था। महर्षि कण्व ने विधिपूर्वक उसके जात-कर्म आदि संस्कार किये। उस शिशु के दाँत सफेद-सफेद और बड़े नुकीले थे, कंधे सिंह के से थे, दोनो हाथों में चक्र का चिह्न था तथा सिर बड़ा और ललाट ऊँचा था।वह ऐसा जान पड़ता मानो कोई देवकुमार हो। वह छः वर्ष की अवस्था में ही सिंह,बाघ,शूकर और हाथियों को आश्रम के वृक्ष से बाँध देता था। कभी उनपर चढता, कभी डाँटता तथा कभी उनके साथ खेलता और दौड़ लगाता था। आश्रमवासियों ने उसके द्वारा समस्त हिंसक जन्तुओं का दमन होते देख उसका नाम सर्वदमन रख दिया। वह बड़ा विक्रमी, ओजस्वी और बलवान था। बालक के अलौकिक कर्म को देखकर महर्षि कण्व ने शकुन्तला से कहा, अब यह युवराज होने के योग्य हो गया। फिर उन्होंने अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि शकुन्तला को पुत्र के साथ उसके पति के घर पहुँचा आओ। कन्या का बहुत दिनों तक मायके में रहना कीर्ति, चरित्र और धर्म का घातक है। शिष्यों ने आज्ञानुसार शकुन्तला और सर्वदमन को लेकर हस्तिनापुर की यात्रा की। सूचना और स्वीकृति के बाद शकुन्तला राजसभा में गयी। अब ऋषि के शिष्य लौट गये। शकुन्तला ने सम्मानपूर्वक निवेदन किया कि राजन्, यह आपका पुत्र है। अब इसे आप युवराज बनाइये।इस देव-तुल्य कुमार के सम्बन्ध में आप अपनी प्रतिज्ञा पूरी कीजिये। शकुन्तला की बात सुनकर दुष्यन्त ने कहा, अरी दुष्ट तापसी तू किसकी पत्नी है । मुझे कुछ स्मरण नहीं है। तेरे साथ धर्म, अर्थ और काम का कोई भी मेरा संबंध नहीं है। तू जा, ठहर अथवा जो तेरी मौज में आवे कर। दुष्यंत की बातें सुनकर तपस्विनी शकुन्तला बेहोश सी होकर खम्भे की तरह निश्चल भाव से खड़ी रह गयी। उसकी आँखें लाल हो गयी, होठ फड़कने लगे और वह दृष्टि टेढी करके दुष्यंत की ओर देखने लगी। थोड़ी देर ठहरकर दुःख और क्रोध से भरी शकुन्तला दुष्यंत से बोली, महाराज, आप जानबूझकर क्यों बोल रहे हैं कि मैं नहीं जानता। ऐसी बात तो नीच मनुष्य कहते हैं।आपका हृदय इस बात का साक्षी है कि झूठ क्या है और सच क्या है। आप अपनी आत्मा का तिरस्कार मत कीजिये। हृदय पर हाथ रखकर सही-सही कहिये। आपका हृदय कुछ और कह रहा है और आप कुछ और। यह तो बहुत बड़ा पाप है। आप ऐसा समझ रहे हैं कि उस समय मैं अकेला था, कोई गवाह नहीं है। परंतु आपको पता नहीं कि परमात्मा सबके हृदय में बैठा है। शकुन्तला कहती है-- पत्नी उसे कहते हैं , जो कामकाज में चतुर हो, पुत्रवती हो, पति को प्राण के समान मानती हो और सच्ची पतिव्रता हो। पत्नी ही एकान्तवास में सखा, धरमकार्य में पिता और दुःख पड़ने पर माता का काम करती है। पत्नी द्वारा अर्थ, धर्म काम की सिद्धि होती है और मोक्ष के पथ पर अग्रसर होने में उससे बड़ी सहायता मिलती है। पत्नी से उत्पन्न पुत्र दर्पण में पड़ते मुख के समान है। रोग और मानसिक जलन से व्याकुल पुरुष अपनी पत्नी को देखकर आह्लादित हो जाते हैं। इसी से क्रोध आने पर भी पत्नी का अप्रिय नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्रेम प्रसन्नता और धर्म उसी के अधीन है। अपनी उत्पत्ति भी तो स्त्रियों के द्वारा ही होती है। अपने धूल से लथपथ पुत्र को हृदय लगाने में जो सुख मिलता है, उससे बढकर और क्या है। आपका पुत्र आपके सामने खड़ा है। इसका तिरस्कार क्यों कर रहे हैं। यह आपको सुखी करेगा। इसके जन्म के समय आकाशवाणी ने कहा कि यह बालक सौ अश्वमेघ यज्ञ करेगा। यह बालक आपके अंग से ही, आपके हृदय से ही उत्पन्न हुआ है। आप क्यों नहीं अपने को इसके रुप में मूर्तिमान् देखते हैं। मैं मेनका की कन्या हूँ। अवश्य ही मैने पूर्व जन्म में कोई पाप किया होगा जिससे बचपन में ही मेरी माँ ने मुझे छोड़ दिया और अब आप छोड़ रहे हैं। आपकी ऐसी इच्छा है तो आप मुझे भले ही छोड़ दीजिये। मैं अपने आश्रम पर चली जाऊँगी। परन्तु यह आपका पुत्र है। इस बच्चे को मत छोड़िये। दुष्यन्त ने कहा---शकुन्तले, मुझे मालूम नहीं कि मैने तुमसे पुत्र उत्पन्न किया है।स्त्रियाँ तो झूठ बोलती ही हैं। तुम्हारी बात पर भला कौन विश्वास करेगा। तुम्हारी एक भी बात विश्वास करने के योग्य नहीं है। मेरे सामने इतनी ढ़िठाई, कहाँ महर्षि विश्वामित्र, कहाँ मेनका और कहाँ तेरे जैसी साधारण नारी। चली जा यहाँ से। इतने थोड़े दिनों में यह बालक शाल के वृक्ष जैसा कैसे हो सकता है। जा, जा चली जा ।शकुन्तला ने कहा, राजन् कपट न करो, सत्य से बढकर कोई धर्म नहीं है। तुम अपनी प्रतिज्ञा मत तोड़ो। सत्य सर्वदा तुम्हारे साथ रहे। यदि झूठ से ही तुम्हारा प्रेम है और मेरी बात पर विश्वास नहीं करते तो मैं स्वयं चली जाऊँगी। मैं झूठे के साथ नहीं रहना चाहती। राजन्, मैं कहे देती हूँ कि चाहे तुम इस लड़के को अपनाओ या नहीं, मेरा यह पुत्र ही सारी पृथ्वी का शासन करेगा।इतना कहकर शकुन्तला वहाँ से चल पड़ी। इसी समय ऋत्विज, पुरोहित, आचार्य और मंत्रियों के साथ बैठे हुये दुष्यंत को संबोधित करके आकाशवाणी ने कहा---माता तो केवल भाथी के समान है। पुत्र पिता का ही होता है, क्योंकि पिता ही पुत्र के रुप में उत्पन्न होता है। तुम पुत्र का पालन-पोषण करो। शकुन्तला का अपमान मत करो। तुम्ही इस बालक के पिता हो। शकुन्तला की बात सर्वथा सत्य है। आकाशवाणी सुनकर दुष्यंत आनंद से भर गये। उन्होंने पुरोहित और मंत्रियों से कहा, आपलोग अपने कानों से देवताओं की वाणी सुन लें। मैं भी ठीक-ठीक नहीं जानता और समझता हूँ कि यह मेरा पुत्र है। यदि मैं केवल शकुन्तला के कहने से ही इसे स्वीकार कर लेता तो सारी प्रजा इसपर संदेह करती और इसका कलंक नहीं छूट पाता। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर मैने ऐसा दुर्व्वहार किया। अब उन्होंने बच्चे को स्वीकार किया और उसके संस्कार कराये।उन्होंने अपने पुत्र का सिर चूमकर उसे छाती से लगा लिया।चारों ओर आनन्द की नदी उमड़ आयी,जय-जयकार होने लगा। दुष्यंत ने धर्म के साथ अपनी पत्नी का सत्कार किया और शान्त्वना देते हुये कहा,देवी,मैने तुम्हारे साथ जो संबंध किया था वह किसी को मालूम नहीं था। अब सब लोग तुम्हे रानी के रुप में स्वीकार कर ले, इसीलिये मैने यह क्रूरता की थी। लोग समझने लगते कि मैने मोहित होकर तुम्हारी बात स्वीकार कर ली है। लोग मेरे पुत्र के युवराज होने पर भी आपत्ति करते। मैने तुम्हे अत्यंत क्रोधित कर दिया था ,इसलिये तुमने प्रणयकोपवश मुझसे जो अप्रिय वाणी कही है उसका मुझे कुछ भी विचार नही है। हम दोनो एक-दूसरे के प्रिय हैं। इस तरह कहकर दुष्यंत ने अपनी प्राण-प्रिया को वस्त्र, भोजन आदि से संतुष्ट किया। समय पर भरत का युवराज पद पर अभिषेक हुआ। दूर-दूर तक भरत का शासन चक्र प्रसिद्ध हो गया। भरत से ही इस देश का नाम भारत पड़ा और वे ही भरतवंश के प्रवर्तक हुये। उनके वंश में अनेकों ब्रह्मज्ञानी राजर्षि हुये जिनमे से कुछ सत्यनिष्ठ और शीलवान् राजाओं का वर्णन आगे होगा।

No comments:

Post a Comment