Sunday 21 June 2015

आदिपर्व-सत्यवती आदि का देह त्याग और दुर्योधन का भीमसेन को विष देना

सत्यवती आदि का देह त्याग और दुर्योधन का भीमसेन को विष देना

श्राद्ध के उपरान्त पाण्डु के कुटुम्बी बहुत दुःखी रहे। दादी सत्यवती तो दुःख और शोक के आवेग से पागल हो रही थी। अपनी माता को अत्यंत व्याकुल देखकर व्यासजी ने उनसे कहा, माताजी अब सुख का समय बीत गया। बड़े बुरे दिन आ रहे हैं। दिन-दिन पाप की बढती होगी। पृथ्वी की जवानी जाती रही, छल-कपट और दोषों का बोलबाला हो रहा है। धर्म-कर्म और सदाचार लुप्त हो रहे हैं। कौरवों के अन्याय से बड़ा भारी संहार होगा। तुम अब योगिनी बनकर योग करो और यहाँ से निकल जाओ। अपनी आँखों वंश का नाश देखना उचित नहीं। माता सत्यवती ने उनकी बात स्वीकार करके अम्बिका और अम्बालिका को इस बात की सूचना दी और दोनो के साथ भीष्म की अनुमति लेकर वन में चली गयीं। वन में घोर तपस्या करके उन तीनों ने शरीर का त्याग किया और अभीष्ट गति प्राप्त की। अब पाण्डवों के वैदिक संस्कार हुए। वे आनन्द से अपने पिता के घर रहकर बड़े होने लगे। बचपन में वे खुशी-खुशी दुर्योधन आदि के साथ खेलतेऔर उनसे बढ-चढकर ही रहते। दौड़ने में, निशाना लगाने में, खाने में, धूल उड़ाने में भीमसेन धृतराष्ट्र के सभी लड़कों को हरा देते थे। अकेले भीमसेन सभी भाइयों के बाल पकड़कर खींचते और जमीन में घसीटने लगते। इससे उनके शरीर छिल जाते। वे दस-दस बालकों को अंकवार में भरकर पानी में डुबकी लगाते और उनकी दुर्दशा करके छोड़ते। जब दुर्योधन आदि बालक किसी पेड़ पर चढकर फल तोड़ते तो वे पैर की ठोकर से पेड़ हिला देते और ऊपर से फलों के साथ बच्चे टपक पड़ते। भीमसेन को दौड़ने में, कुश्ती में या किसी प्रकार के युद्ध में कोई नहीं हरा पाता था। भीमसेन होड़ के कारण ही ऐसा करते थे। उनके मन में कोई वैर-विरोध नहीं था। परन्तु दुर्योधन के मन में भीमसेन के प्रति दुर्भाव घर कर लिया। वह अपने अंतःकरण के दोष से भीमसेन में रात-दिन दोष-ही-दोष देखता। मोह और लोभ के कारण दोष का चिंतन करने से वह स्वयं दोषी बन गया। उसने यह निश्चय किया कि नगर के उद्यान में सोते समय भीमसेन को गंगा में डाल दें और युधिष्ठिर तथा अर्जुन को कैद करके सारी पृथ्वी का राज्य करे। ऐसा निश्चय करके वह मौका देखने लगा।           दुर्योधन एक बार जल विहार के लिये गंगा के तट पर प्रमाणकोटि स्थान में बड़े-बड़े तंबू और खेमे लगवाये। उनमें सारी सामग्रीयाँ सजायी गयीं और अलग-अलग कमरे बनवाये गये। उस स्थान का नाम रखा गया उदकक्रीडन। चतुर रसोइयों ने खाने-पीने की बहुत सी वस्तुएँ तैयार कीं। दुर्योधन के कहने पर युधिष्ठिर ने वहाँ की यात्रा स्वीकार कर ली और सब मिल-जुलकर नगराकार रथों और हाथियों पर सवार हो वहाँ गये। वहाँ जाकर सभी राजकुमार परस्पर एक-दूसरे को खिलाने-पिलाने में जुट गये।दुरात्मा दुर्योधन ने भीमसेन को मार डालने की बुरी नीयत से उसकी भोजन की सामग्री में पहले से ही विष मिला दिया था। उसने बड़ी मिठास से मित्र और भाई की तरह आग्रह करके भीमसेन को सब परोस दिया और वे अनजाने में सब-का-सब खा गये। उसके बाद जलक्रीड़ा हुई।जलक्रीड़ा करते-करते भीमसेन थक गये और सबके साथ खेमे में आकर सो गये। वे रग-रग में विष फैल जाने से निश्चेष्ट हो गये। दुर्योधन ने स्वयं लता की रस्सियों से भीमसेन के मुर्दे के समान शरीर को बाँधा और गंगा के ऊँचे तट से जल में धकेल दिया। भीमसेन इसी अवस्था में नागलोक जा पहुँचे। वहाँ विषैले साँपों ने भीमसेन को खूब डँसा। सर्पों के डँसने से कालकूट का प्रभाव कम हो गया। यद्यपि साँपों ने उनके मर्मस्थान पर भी डँसने की चेष्टा की परन्तु उनका चाम इतना कठोर था कि वे कुछ नहीं कर सके।विष उतरने से भीमसेन सचेत हो गये और साँपों को पकड़-पकड़ कर पटकने लगे। बहुत-से साँप मर गये और बहुत-से डरकर भाग गये। भागे हुये साँपों ने नागराज वासुकी के पास जाकर सब वृतांत निवेदन किया। वासुकी नाग स्वयं भीमसेन के पास आये। उनके साथी आर्यक नाग ने भीमसेन को पहचान लिया।आर्यक भीमसेन के नाना का नाना था। वह भीमसेन से बड़े प्रेम के साथ मिला। वासुकी ने आर्यक से पूछा, हमलोग इसको क्या भेंट दें। आर्यक ने कहा, इसे उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दीजिये जिससे सहस्त्रों हाथियों का बल प्राप्त होता है। नागों ने भीमसेन से स्वस्तिवाचन कराया और वे पवित्र हो पूर्वाभिमुख बैठ रस पीने लगे। बलशाली भीम एक घूँट में एक कुण्ड पी जाते। इस प्रकार आठ कुण्ड पीकर वे नागों के निर्देशानुसारएक दिव्य शय्या पर जाकर सो गये। उधर नींद टूटने पर कौरव और पाण्डव खूब खेलकूद कर बिना भीमसेन के ही हस्तिनापुर के लिये रवाना हो गये। आपस में कह रहे थे कि भीमसेन आगे ही चले गये होंगे। दुर्योधन अपनी चाल चल जाने से फूला नहीं समा रहा था। धर्मात्मा युधिष्ठिर के पवित्र हृदय में भीमसेन की स्थिति की कल्पना भी नहीं हुई थी। वे दुर्योधन को अपने ही समान शुद्ध समझते थे। उन्होंने माता कुन्ती के पास जाकर पूछा, माताजी, भीमसेन यहाँ आ गये क्या। माता कुन्ती ने सुना तो वे घबरा गयीं। बोली, भीमसेन यहाँ नहीं आया, उसे शीघ्र ढूँढने का प्रयास करो। उन्होंने शीघ्र विदुर को बुलवाया और बोलीं, भीमसेन का कहीं पता नहीं है, सब आ गये पर वह नहीं लौटा। दुर्योधन की दृष्टि में वह सर्वदा खटका करता है। दुर्योधन बड़ा क्रूर,क्षुद्र, लोभी और निर्लज्ज है। कहीं उसने क्रोधवश मेरे वीर पुत्र को मार न डाला हो। मेरे हृदय में बड़ी जलन हो रही है। विदुरजी ने कहा, कल्याणी, ऐसी बात मुँह से न निकालो। शेष पुत्रों की रक्षा करो। दुरात्मा दुर्योधन से पूछने पर वह और चिढ जायगा। दूसरे पुत्रों पर भी आपत्ति आ जायगी। महर्षि व्यास के कथनानुसार तुम्हारे पुत्र दीर्घायु हैं। भीमसेन चाहे कहीं भी हो, लौटेगा अवश्य।विदुरजी समझा-बुझाकर चले गये। कुन्ती माता चिंतित हो गयीं। उधर नागलोक में बलवान भीमसेन आठवें दिन रस पच जाने पर जगे। नागों ने भीमसेन के पास आकर तसल्ली दी और कहा,आपने जो रस पीया है वह बड़ा बलवर्धक है। आप दस हजार हाथियों के समान बलवान हो जायेंगे। युद्ध में आपको कोई नहीं जीत सकेगा। अब आप दिव्य जल से स्नान करके पवित्र श्वेत वस्त्र धारण करेंऔर अपने घर पधारें। आपके विछोह से सभी भाई अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। फिर भीमसेन वहाँ खा-पीकर, दिव्यवस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो नागों की अनुमति से ऊपर आये। नागों ने उन्हें उस बगीचे तक पहुँचा दिया। फिर अन्तर्ध्यान हो गये। भीमसेन ने अपनी माता के पास आकर उन्हें तथा बड़े भाई को प्रणाम किया। भीमसेन ने दुर्योधन क सारी करतूत कह सुनाई और यह भी बतलाया कि नाग-लोक मे क्या दुःख-सुख मिला। युधिष्ठिर ने भीमसेन से बड़े महत्व की बात कही,भई बस अब तुम चुप हो जाओ। यह बात कभी किसी से न कहना। हमलोग आपस में बड़ी सावधानी के साथ एक-दूसरे की रक्षा करें। दुरात्मा दुर्योधन ने भीमसेन के प्यारे सारथी को गला घंटकर मार डाला। धर्मात्मा विदुर ने पाण्डवों को यही सलाह दी कि, तुमलोग चुप रहो। भीमसेन के भोजन में एक बार और विष डाला गया।युयुत्सु ने इसका समाचार पाण्डवों को दे दिया। परंतु भीमसेन ने वह विष खाकर बिना किसी विकार के पचा लिया। दुर्योधन, कर्ण और शकुनि ने भीमसेन को विष से न मरते देखकर उन्हें तरह-तरह से मारने की चेष्टा की। परन्तु पाण्डव सबकुछ जान-बूझकर भी विदुर के सलाह के अनुसार चुप ही रहे। राजा धृतराष्ट्र ने देखा कि सब-के-सब राजकुमार खेल-कूद में ही लगे रहते हैं, तब उन्होंने गुरु कृपाचार्य को ढूँढवाकर शिक्षा देने के लिये उन्हें सौंप दिया। कौरव तथा पाण्डव ने कृपाचार्य से विधिपूर्वक धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की। 

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