Friday 2 March 2018

पाण्डवों का भीष्मजी से मिलकर उनके वध का उपाय जानना

संजय ने कहा___दोनो सेनाओं में अभी युद्ध हो ही रहा था कि सूर्यदेव अस्ताचल पर जा पहुँचे। संध्या के समय लड़ाई बन्द हो गयी। भीष्म के बाणों की मार खाकर पाण्डवसेना भय से व्याकुल होकर हथियार फेंककर भाग चली। इधर भीष्मजी क्रोध में भरकर महारथियों का संहार करते ही जा रहे थे तथा सोमक क्षत्रिय हारकर अपना उत्साह खो बैठे थे___यह सब देख और सोचकर राजा युधिष्ठिर ने सेना को पीछे लौटा लेने का विचार किया और युद्ध बंद करने की आज्ञा दे दी। इसके बाद आपकी सेना भी लौटा ली गयी। भीष्म के बाणों से पीड़ित हुए पाण्डव जब उनके पराक्रम की याद करते थे, तो उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी। भीष्मजी भी संजय और पाण्डवों को जीतकर कौरवों के मुख से अपनी प्रशंसा सुनते हुए शिविर में चले गये।रात्रि के प्रथम प्रहर में पाण्डव, वृष्णि और संजयों की एक बैठक हुई। उसमें सब लोग शान्त भाव से  इस बात का विचार करने लगे कि अब क्या करने से अपना भला होगा। बहुत देर तक सोचने_विचारने के बाद राजा युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण की ओर देखकर कहा___’श्रीकृष्ण ! आप महात्मा भीष्मजी का भयंकर पराक्रम देखते हैं न ? जैसे हाथी वन को  रौंद डालता है, उसी प्रकार ये हमारी सेना को कुचल रहे हैं। धधकती हुई आग के समान इन भीष्मजी को और हमें आँख उठाकर देखने तक का साहस नहीं होता। क्रोध में भरे हुए यमराज, वज्रधारी इन्द्र, पाशधारी वरुण और गदाधारी कुबेर को भी युद्ध में जीता जा सकता है; परन्तु कुपित हुए भीष्म पर विजय पाना असम्भव जान पड़ता है। ऐसी स्थिति में अपनी बुद्धि की दुर्बलता के कारण भीष्मजी के साथ युद्ध ठानकर मैं शोक के समुद्र में डूब रहा हूँ।  कृष्ण ! अब मेरा विचार है, वन में चला जाऊँ। वहाँ जाने में ही अपना कल्याण दिखायी देता है। युद्ध की तो बिलकुल इच्छा नहीं है; क्योंकि भीष्म निरन्तर हमारी सेना का संहार कर रहे हैं। जैसे जलती हुई आग की ओर दौड़नेवाला पतंग मृत्यु के मुख में जाता है, उसी प्रकार भीष्म के पास जाने पर हमलोगों की दशा होती है। वासुदेव ! हमारा पक्ष क्षीण हो चला है, हमारे भाई बाणों का चोट से बेहद कष्ट पा रहे हैं; भातृस्नेह के कारण हमारे साथ ये भी राज्य से भ्रष्ट हुए, इन्हें भी वन_वन भटकना पड़ा तथा हमारे ही कारण द्रौपदी ने भी कष्ट भोगा। मधुसूदन ! मैं जीवन को बहुत मूल्यवान मानता हूँ और वही इस समय दुर्लभ हो रहा है। इसलिये चाहता हूँ, अब जिंदगी के जितने दिन बाकी हैं उनमें उत्तम धर्म का आचरण करूँ। केशव !  यदि आप हमलोगों को अपना कृपापात्र समझते हो तो ऐसा कोई उपाय बताइये, जिससे अपना हित हो और धर्म में भी बाधा न आये।‘युधिष्ठिर की सब करुणाभरी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, “धर्मराज ! आप विषाद न करें। आपके भाई बड़े ही शूरवीर, दुर्जय और शत्रुओं का नाश करनेवाले हैं। अर्जुन और भीम तो वायु तथा अग्नि के समान तेजस्वी हैं। नकुल_सहदेव भी बड़े पराक्रमी हैं। आप चाहें तो मुझे भी युद्ध में  लगा दें, आपके स्नेह से मैं भी भीष्म से युद्ध कर सकता हूँ। भला, आपके कहने से युद्ध में क्या नहीं कर सकता ? यदि अर्जुन की इच्छा नहीं है , तो मैं स्वयं भीष्म को ललकारकर कौरवों के देखते_देखते मार डालूँगा। भीष्म के मारे जाने पर ही यदि आपको विजय दिखायी देती है, तो मैं अकेले ही उन्हें मार सकता हूँ। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि जो पाण्डवों का शत्रु है, वह मेरा भी शत्रु ही है। जो आपके हैं, वे मेरे हैं और जो मेरे हैं, वे आपके भी हैं। आपके भाई अर्जुन मेरे सखा, संबंधी तथा शिष्य हैं; आवश्यकता हो तो मैं इनके लिये मैं अपने शरीर के मांस भी काटकर दे सकता हूँ और ये भी मेरे लिये प्राण त्याग सकते हैं। हमलोगों ने प्रतिज्ञा की है कि ‘एक दूसरे को संकट से बचायेंगे।‘ अत: आप आज्ञा दीजिये, आज से मैं भी युद्ध करूँगा। अर्जुन ने उपलव्य में तो सब लोगों के सामने प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं भीष्म का वध करूँगा,’ उसका मुझे हर तरह से पालन करना है। जिस काम के लिये अर्जुन की आज्ञा हो वह मुझे अवश्य पूर्ण करना चाहिये। अथवा भीष्म को मारना कौन बड़ी बात है ? अर्जुन के लिये तो वह बहुत हल्का काम है। राजन् ! यदि अर्जुन तैयार हो जायँ तो असंभव काम भी कर सकते हैं। दैत्य और दानवों के साथ संपूर्ण देवता भी युद्ध करने आ जायँ तो अर्जुन उन्हें भी मार सकते हैं; फिर भीष्म की तो बिसात ही क्या है ?”युधिष्ठिर ने कहा___माधव ! आप जो कहते हैं, वह सब ठीक है। कौरवपक्ष के सभी योद्धा मिलकर भी आपका वेग नहीं सह सकते। जिसके पक्ष में आप जैसे सहायक मौजूद हैं, उसके मनोरथ पूर्ण होने में क्या संदेह है ? गोविन्द ! जब आप रक्षा के लिये तैयार हैं तो मैं इन्द्र आदि देवताओं को भी जीत सकता हूँ; भीष्मजी की तो बात ही क्या है ? किन्तु अपने गौरव की रक्षा के लिये मैं आपको अपना वचन मिथ्या करने के लिये नहीं कह सकता। आप अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार बिना युद्ध किये ही मेरा सहायता करें। भीष्मजी भी मेरे साथ शर्त कर चुके हैं कि ‘मैं तुम्हारे लिये युद्ध तो नहीं करूँगा, पर तुम्हें हित का सलाह दिया करूँगा।‘ वे मुझे राज्य भी देनेवाले हैं और अच्छी सम्मति भी। इसलिये हम सब लोग आपके साथ भीष्मजी के पास चलें और उन्हीं से उनके वध का उपाय पूछें। वे अवश्य ही हमारे हित की बात बतायेंगे। जैसा कहेंगे, उसी के अनुसार कार्य किया जायगा; क्योंकि जब हमारे पिता मर गये और हमलोग निरे बालक थे, उस समय उन्होंने ही हमें पाल_पोसकर बड़ा किया था। माधव ! वे हमारे पिता के पिता हैं, वृद्ध हैं; तो भी हम उन्हें मारना चाहते हैं। धिक्कार है क्षत्रियों की ऐसी वृति को !तदनन्तर, भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा___’महाराज ! आपकी राय मुझे पसंद है। आपके पितामह देवव्रत बड़े ही पुण्यात्मा हैं। वे केवल दृष्टिमात्र से सबको,भष्म कर सकते हैं। अतः उनके पास वध का उपाय पूछने के लिये अवश्य चलना चाहिये। विशेषतः आपके पूछने पर वे सच्ची ही बात बतायेंगे। उनकी जैसी सम्मति होगी, उसी के अनुसार हमलोग युद्ध करेंगे।‘इस प्रकार सलाह करके पाण्डव और भगवान् श्रीकृष्ण भीष्म के शिविर में गये। उस समय उनलोगों ने अपने अस्त्र_शस्त्र और कवच उतार दिये थे। वहाँ पहुँचकर पाण्डवों ने भीष्मजी के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया और कहा कि ‘हम आपकी शरण हैं।‘ तब भीष्मजी ने उन सबको देखकर कहा ‘वासुदेव ! मैं आपका स्वागत करता हूँ। धर्मराज, धनन्जय, भीम, नकुल और सहदेव का भी स्वागत है। मैं तुमलोगों का कौन सा कार्य करूँ, जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो ? यदि कोई कठिन_से_कठिन काम हो तो भी बताओ, मैं उसे सर्वथा पूर्ण करने का यत्न करूँगा।‘
भीष्मजी प्रसन्नता के साथ बारम्बार इस प्रकार कहने लगे, तो राजा युधिष्ठिर ने दीनतापूर्वक कहा___’प्रभो ! जिस उपाय से यह प्रजा का संहार बन्द हो जाय, वह बताइये। आप स्वयं ही अपने वध का उपाय बता दीजिये। वीरवर ! इस युद्ध में आपका वेग हमलोग कैसे सह सकते हैं ? हमें तो तनिक भी असावघानी नहीं दिखायी देती। अब आप रथ, घोड़े, हाथी और मनुष्यों का विनाश करने लगते हैं, उस समय कौन मनुष्य आपपर विजय पाने का साहस कर सकता है ? दादाजी ! हमारी बहुत बड़ी सेना नष्ट हो गयी। अब बतलाइये, कैसे हम आपको जीत सकते हैं ? और किस प्रकार आपका राज्य पा सकते हैं ?’
तब भीष्मजी ने कहा___कुन्तीनन्दन ! मैं सच्ची बात कहता हूँ; जबतक मैं जीवित हूँ, तुम्हारी विजय किसी तरह से नहीं हो सकती। मेरे परास्त होने पर ही तुमलोग विजयी होगे। अतः यदि वास्तव में जीतने की इच्छा है, तो जितनी जल्दी हो सके मुझे मार डालो। मैं अपने ऊपर प्रहार करने की आज्ञा देता हूँ। इससे तुम्हें पुण्य होगा। मेरे मर जाने पर सब को मरा हुआ ही समझो; इसलिये पहले मुझे ही मारने का उद्योग करो।
युधिष्ठिर बोले___दादाजी ! तब आप ही वह उपाय बतलाइये, जिससे आपको हमलोग जीत सकें। युद्ध में जब आप क्रोध करते हैं, तो दण्डधारी यमराज के समान जान पड़ते हैं। इन्द्र, वरुण और यम को भी जीता जा सकता है; पर आपको तो इन्द्र आदि देवता तथा असुर भी नहीं जीत सकते।भीष्म ने कहा___ पाण्डुनन्दन ! तुम्हारा कहना सत्य है; पर जब मैं हथियार रख दूँ, उस समय तुम्हारे महारथी मुझे मार सकते हैं। जो हथियार डाल दे, गिर जाय, भाग जाय, डरा हो, ‘मैं आपका हूँ’ यह कहकर शरण में आ जाय, स्त्री हो सा स्त्री के समान जिसका नाम हो, जो व्याकुल हो, जिसको एक ही पुत्र हो और जो लोक में निंदित हो___ऐसे लोगों के साथ मैं युद्ध नहीं करना चाहता। तुम्हारी सेना में जो शिखण्डी है, वह पहले स्त्री के रूप में उत्पन्न हुआ था, पीछे पुरुष हुआ है___इस बात को तुमलोग भी जानते हो। वीर अर्जुन शिखण्डी को आगे करके मुझपर बाणों का प्रहार करें; वह जब मेरे सामने रहेगा तो मैं धनुष लिये रहने पर भी प्रहार नहीं करूँगा। मुझे मारने के लिये यही एक छिद्र है। इस मौके का लाभ उठाकर अर्जुन शीघ्रतापूर्वक मुझे बाणों से घायल कर दें। संसार में भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के सिवा दूसरा कोई ऐसा दिखाई नहीं देता, जो मुझे सावधान रहते मार सके। इसलिये शिखण्डी जैसे किसी पुरुष को आगे करके अर्जुन मुझे मार गिरावें; ऐसा करने से निश्चय ही तुम्हारी विजय होगी। जैसा मैंने बताया है वैसा ही करो, तभी धृतराष्ट्र के समस्त पुत्रों को मार सकोगे। इस प्रकार भीष्मजी के मुख से उनके मरण का उपाय जानकर पाण्डवों ने उन्हें प्रणाम किया और अपने शिविर को लौट गये। भीष्मजी की बात याद करके अर्जुन बहुत दुःखी हुए और संकोच के साथ भगवान् श्रीकृष्ण से बोले___'माधव ! भीष्मजी कुरुवंश के वृद्ध पुरुष हैं, गुरु हैं और हमारे दादा हैं; इनके साथ मैं कैसे युद्ध कर सकूँगा। बचपन में मैं इनकी गोद में खेला था। अपने धूलधूसरित शरीर से न जाने कितनी बार इनके शरीर को मैला कर चुका हूँ। यद्यपि ये हमारे पिता के पिता हैं, तो भी मैं इनके गोद में बैठकर इन्हीं को ‘पिता' कहकर पुकारता था। उस समय ये समझाते ‘बेटा ! मैं तुम्हारा नहीं, तुम्हारे पिता का पिता हूँ।‘ जिन्होंने इतने ममत्व से पाला, उन्हीं का वध कैसे कर सकता हूँ ? ये भले ही मेरी सेना को नाश कर डालें, मेरी विजय हो या विनाश; किन्तु मैं तो इनके साथ युद्ध नहीं करूँगा। अच्छा कृष्ण ! इसमें आपका क्या विचार है ?”श्रीकृष्ण ने कहा___अर्जुन ! पहले तुम भीष्मजी के वध की प्रतिज्ञा कर चुके हो, फिर क्षत्रिय धर्म में स्थित रहते हुए अब उन्हें नहीं मारने का बात कैसे कह रहे हो ? मेरी तो यही सम्मति है, उन्हें रथ से मार गिराए, ऐसा किये बिना तुम्हारी विजय असम्भव है। देवताओं की दृष्टि में यह बात पहले से ही आ चुकी है, भीष्मजी के परलोक_गमन का समय निकट है। नियति का विधान पूरा होकर ही रहेगा, इसमें उलट_फेर नहीं हो सकता। मेरी एक बात सुनो___कोई अपने से बड़ा हो, बूढ़ा हो और अनेक गुणों से सम्पन्न हो; तो भी यदि वह आततायी बनकर मारने के लिये आ रहा हो तो उसे अवश्य मार डालना चाहिये। युद्ध, प्रजा का पालन और यज्ञ का अनुष्ठान___यह क्षत्रियों का सनातन धर्म है।
अर्जुन ने कहा___ श्रीकृष्ण ! यह निश्चय जान पड़ता है कि शिखण्डी  भीष्म की मृत्यु का कारण होगा; क्योंकि उसके देखते ही भीष्मजी दूसरी ओर लौट जाते हैं। अतः शिखण्डी को आपके सामने करके ही हमलोग उन्हें रणभूमि में गिरा सकेंगे। मैं दूसरे धनुर्धारियों को बाणों से मारकर रोक रखूँगा। भीष्म की सहायता के लिये किसी को आने न दूँगा और शिखण्डी उनसे युद्ध करेगा। ऐसा निश्चय करके पाण्डवलोग श्रीकृष्ण के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने शिविर में गये।

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