Monday 30 July 2018

चक्रव्यूह_निर्माण और अभिमन्यु की प्रतिज्ञा

संजय कहते हैं___राजन् ! उस दिन अमित तेजस्वी अर्जुन ने हमारी सेना को पराजित कर युधिष्ठिर की रक्षा की और द्रोणाचार्य का संकल्प सिद्ध नहीं होने दिया। दुर्योधन शत्रुओं का अभ्युदय देखकर उदास और कुपित हो रहा था। दूसरे दिन सवेरे ही उसने सब योद्धाओं के सामने प्रेम और अभिमानपूर्वक द्रोणाचार्य से कहा, ‘द्विजवर ! निश्चय ही हमलोग आपके शत्रुओं में से हैं, तभी तो कल आपने युधिष्ठिर को निकट आ जाने पर भी कैद नहीं किया। शत्रु आपकी आँखों के सामने आ जाय और आप उसे पकड़ना चाहें तो संपूर्ण देवताओं को साथ लेकर भी पाण्डवलोग आपसे उसकी रक्षा नहीं कर सकते। आपने प्रसन्न होकर पहले मुझे वरदान तो दे दिया, किन्तु पीछे उसे पूर्ण नहीं किया।‘दुर्योधन के ऐसा कहने पर आचार्य द्रोण ने कुछ खिन्न होकर कहा, ‘राजन् ! तुम्हें ऐसा नहीं समझना चाहिये। मैं तो सदा तुम्हारा प्रिय करने की चेष्टा करता हूँ। किन्तु क्या करूँ ? अर्जुन जिसकी रक्षा करते  हों, उसे देवता, असुर, गन्धर्व, सर्प, राक्षस तथा संपूर्ण लोक भी नहीं जीत सकते। जहाँ विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, वहाँ शंकर के सिवा और किसका बल काम दे सकता है ? तात ! इस समय तुमसे सत्य कहता हूँ, यह कभी अन्यथा नहीं हो सकता___ आज पाण्डवपक्ष के किसी एक श्रेष्ठ महारथी का नाश करूँगा। आज वह व्यूह बनाऊँगा, जिसे देवता भी नहीं तोड़ सकते। लेकिन अर्जुन को तुम किसी भी उपाय से यहाँ से दूर हटा दो। युद्ध के विषय की कोई भी कला ऐसी नहीं है, जो अर्जुन को ज्ञात न हो अथवा वे उसे कर न सकें। उन्होंने युद्ध का संपूर्ण विज्ञान मुझसे तथा दूसरों से जान लिया है।
द्रोण के ऐसा कहते ही संशप्तकों ने अर्जुन को पुनः युद्ध के लिये ललकारा और उन्हें दक्षिण दिशा की ओर हटा ले गये। उस समय अर्जुन का शत्रुओं के साथ ऐसा घोर युद्ध हुआ जैसा पहले न कभी देखा गया और न सुना ही गया था। महाराज ! इधर, आचार्य द्रोण ने चक्रव्यूह राज्य निर्माण किया; उसमें उन्होंने इन्द्र के समान पराक्रमी राजाओं को सम्मिलित किया और उस व्यूह के अरों के स्थान पर सूर्य के तुल्य तेजस्वी राजकुमारों को खड़ा किया। राजा दुर्योधन इसके मध्यभाग में खड़ा हुआ; उसके साथ महारथी कर्ण, कृपाचार्य और दुःशासन थे। व्यूह के अग्रभाग में द्रोणाचार्य और जयद्रथ खड़े हुए; जयद्रथ के बगल में अश्त्थामा के साथ आपके तीस पुत्र, शकुनि, शल्य और भूरिश्रवा खड़े थे। तदनन्तर कौरवों और पाण्डवों में मृत्यु को ही विश्राम मानकर रोमांचकारी तुमुल युद्ध छिड़ गया।
द्रोणाचार्य द्वारा सुरक्षित उस व्यूह पर भीमसेन को आगे करके पाण्डवों ने आक्रमण किया। सात्यकि, चेकितान, धृष्टधुम्न, कुन्तीभोज, द्रुपद, अभिमन्यु, क्षत्रवर्मा, बृहच्क्षत्र, चेदिराज, धृष्टकेतु, नकुल, सहदेव, युधामन्यु, शिखण्डी, उत्तमौजा, विराट, द्रौपदी के पुत्र, शिशुपाल का पुत्र, केकयराजकुमार और हजारों संजयवंशी क्षत्रिय___ये तथा और भी बहुत से रणोन्मत्त योद्धा युद्ध की इच्छा से सहसा द्रोणाचार्य के ऊपर टूट पड़े। उन्हें अपने निकट पहुँचा देखकर भी आचार्य द्रोण विचलित नहीं हुए, उन्होंने बाणों की वर्षा करके उन सब वीरों को आगे बढ़ने सेे रोक दिया। उस समय हमलोगों ने द्रोण की भुजाओं का अद्भुत पराक्रम देखा कि पांचाल और संजय क्षत्रिय एक साथ मिलकर भी उनका सामना न कर सके। द्रोणाचार्य तो क्रोध में भरकर आगे बढ़ते देख युधिष्ठिर ने उन्हें रोकने को विषय में बहुत विचार किया। द्रोण का सामना करना दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन समझकर उन्होंने इस गुरुतर कार्य का भार अभिमन्यु पर रखा। अभिमन्यु अपने मामा श्रीकृष्ण और पिता अर्जुन से कम पराक्रमी नहीं था, वह अत्यन्त तेजस्वी तथा शत्रुपक्ष को वीरों का संहार करनेवाला था। युधिष्ठिर ने उससे कहा___’बेटा अभिमन्यु ! चक्रव्यूह के भेदन का उपाय हमलोग बिलकुल नहीं जानते। इसे तो तुम, अर्जुन, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न ही तोड़ सकते हैं। पाँचवाँ कोई भी इस काम को नहीं कर सकता। अतः तुम शस्त्र लेकर शीघ्र ही द्रोण के इस व्यूह  को तोड़ डालो, नहीं तो युद्ध से लौटने पर अर्जुन हमलोगों को ताना देंगे।‘ अभिमन्यु ने कहा___ आचार्य द्रोण की यह सेना यद्यपि अत्यंत सुदृढ़ और भयंकर है, तथापि मैं अपने पितृवर्ग की विजय के लिये इस व्यूह में अभी प्रवेश करता हूँ। पिताजी ने व्यूह के तोड़ने का उपाय तो मुझे बता दिया है, पर निकलना नहीं बताया है। यदि मैं वहाँ किसी विपत्ति में फँस गया तो निकल नहीं सकूँगा।
युधिष्ठिर बोले___वीरवर ! तुम इस सेना को भेदकर हमलोगों के लिये द्वार बनाओ। फिर जिस मार्ग से तुम जाओगे, तुम्हारे पीछे_पीछे हमलोग भी चलेंगे और सब ओर से तुम्हारी रक्षा करेंगे।भीम ने कहा___मैं, धृष्टधुम्न, सात्यकि तथा पांचाल, मत्स्य, प्रभद्रक और केकय देेश के योद्धा___ ये सब तुम्हारे साथ चलेंगे। एक बार वहाँ तुमने व्यूह भंग किया, वहाँ के बड़े_बड़े वीरों को मारकर हमलोग व्यूह का विध्वंस कर डालेंगे। अभिमन्यु ने कहा____अच्छा, तो अब मैं द्रोण की इस दुर्धर्ष सेना में प्रवेश करता हूँ। आज वह पराक्रम कर दिखाऊँगा, जिससे मेरे मामा और पिता दोनों के कुलों का हित होगा। उससे मामा भी प्रसन्न होंगे और पिताजी भी। यद्यपि मैं बालक हूँ, तो भी संपूर्ण प्राणी देखेंगे कि मैं किस तरह आज अकेले ही शत्रुसेना को काल का ग्रास बनाता हूँ। यदि जीते_जी युद्ध में मेरे सामने कोई जीवित बच जाय तो मैं अर्जुन का पुत्र नहीं और माता सुभद्रा के गर्भ से मेरा जन्म नहीं हुआ। युधिष्ठिर ने कहा___ सुभद्रानन्दन ! तुम द्रोण की दुर्घर्ष सेना को तोड़ने का उत्साह दिखा रहे हो, इसलिये ऐसी वीरताभरी बातें करते हुए तुम्हारा बल सदा बढ़ता रहे। संजय कहते हैं___धर्मराज युधिष्ठिर की बात सुनकर अभिमन्यु ने सारथि को द्रोण की सेना के पास रथ ले चलने को कहा। जब बारम्बार चलने की आज्ञा दी तो सारथि ने उससे कहा___’आयुष्मान् ! पाण्डवों ने आपपर यह बहुत बड़ा भार रख दिया है; आप थोड़ी देर इस पर विचार तर लीजिये, फिर युद्ध कीजियेगा। आचार्य द्रोण बड़े विद्वान हैं, उन्होंने उत्तम अस्त्रविद्या में बड़ा परिश्रम किया है। इधर आप बड़े सुख और आराम में पले हैं तथा युद्धविद्या में भी उनके समान निपुण नहीं हैं।‘
सारथि की बात सुनकर अभिमन्यु ने उससे हँसकर कहा,  ‘सूत ! यह द्रोण अथवा क्षत्रिय_समुदाय क्या है ? यदि साक्षात् इन्द्र देवताओं के साथ आ जायँ अथवा भूतगणों को साथ लेकर शंकर उतर आवें तो मैं उनसे भी युद्ध कर सकता हूँ। इस क्षत्रियसमूह को देखकर आज मुझे आश्चर्य नहीं हो रहा है। यह संपूर्ण शत्रुसेना मेरी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। और तो क्या, विश्वविजयी मामा श्रीकृष्ण और पिता अर्जुन को भी अपने विपक्ष में पाकर मुझे भय नहीं होगा।‘ इस प्रकार सारथि की बात की अवहेलना करके अभिमन्यु ने उसे शीघ्र ही द्रोण की सेना के पास चलने की आज्ञा दी। यह सुनकर सारथि मन में बहुत प्रसन्न तो नहीं हुआ, परन्तु घोड़ों को उसने द्रोण की ओर बढ़ाया। पाण्डव भी अभिमन्यु केे पीछे_पीछे चले। उसे आते देख कौरव_पक्ष के सभी योद्धा द्रोण को आगे करके उसका सामना करने के लिये डट गये।

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