Sunday 17 February 2019

सात्यकि और द्रोण का युद्ध तथा राजा युधिष्ठिर का सात्यकि को अर्जुन के पास भेजना

धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! अब तुम मुझे यह वृतांत ठीक_ठीक सुनाओ कि संग्रामभूमि में द्रोणाचार्यजी को सात्यकि ने कैसे रोका था ?
संजय ने कहा___राजन् ! जब आचार्य ने देखा कि महापराक्रमी सात्यकि हमारी सेना को कुचल रहा है, तो वे स्वयं ही उसके सामने आकर डट गये। उन्हें सहसा अपने सामने आया देखकर सात्यकि ने उन पर पच्चीस बाण छोड़े। तब आचार्य ने बड़ी फुर्ती से उसे पाँच तीखे बाणों से बींध दिया। वे उसके कवच को फोड़कर फिर पृथ्वी पर जा पड़े। इससे सात्यकि ने कुपित होकर द्रोण को पचास बाणों से घायल कर दिया तथा आचार्य ने भी अनेकों बाणों से उसे बींध डाला। इस समय आचार्य की चोटों से वह ऐसा व्याकुल हो गया कि उसे अपना कर्तव्य भी नहीं सूझता था। उसका चेहरा उतर गया। यह देखकर आपके पुत्र और सैनिक प्रसन्न होकर बार_बार सिंहनाद करने लगे। उनका भीषण नाद सुनकर और सात्यकि को संकट में देखकर राजा युधिष्ठिर ने धृष्टधुम्न से कहा, ‘द्रुपदपुत्र ! तुम भीमसेन आदि सभी वीरों को साथ लेकर सात्यकि के रथ की ओर जाओ। तुम्हारे पीछे मैं भी सब सैनिकों को लेकर आता हूँ। इस समय सात्यकि की उपेक्षा मत करो, वह काल के जाल में पहुँच चुका है।‘ ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर सात्यकि की रक्षा के लिये सारी सेना लेकर द्रोणाचार्य पर चढ़ आये। किन्तु आचार्य अपनी बाणवर्षा से उन सभी महारथियों को पीड़ित करने लगे। उस समय पाण्डव और सृंजयवीरों को अपना कोई भी रक्षक दिखायी नहीं देता था। द्रोणाचार्य पांचाल और पाण्डवों की सेना के प्रधान_प्रधान वीरों की संहार कर रहे थे। उन्होंने सैकड़ों_हजारों पांचाल, सृंजय, मत्स्य और केकय वीरों को परास्त कर दिया। उनके बाणों से बिंधे हुए योद्धाओं का बड़ा आर्तनाद हो रहा था। उस समय देवता, गन्धर्व और पितरों के मुख से भी ये ही शब्द निकल रहे थे कि ‘देखो, ये पांचाल और पाण्डव महारथी अपने सैनिकों के सहित भागे जा रहे हैं।‘
जिस समय यह वीरों का संहार हो रहा था, उसी समय राजा युधिष्ठिर के कानों में पांचजन्य शंख की ध्वनि पड़ी। इससे वे उदास होकर विचारने लगे, ‘जिस प्रकार यह पांचजन्य की ध्वनि हो रही है और कौरव लोग हर्ष में भरकर बार_बार कोलाहल करते हैं, उससे मालूम होता है कि अर्जुन पर कोई आपत्ति आ पड़ी है।‘ इस विचार के उठने से उनका हृदय व्याकुल हो उठा और उन्होंने गद्गद् होकर सात्यकि से कहा, ‘शिनिपुत्र ! पूर्वकाल में सत्पुरुषों ने संकट के समय मित्र का जो धर्म निश्चय किया है, इस समय उसे दिखाने का अवसर आ गया है। मैं सब योद्धाओं की ओर देखकर विचार करता हूँ, तो तुमसे बढ़कर मुझे अपना कोई हितू दिखाई नहीं देता और मेरा ऐसा विचार है कि संकट के समय उसी से काम लेना चाहिये, जो अपने से प्रीति रखता हो और सर्वदा अपने अनुकूल भी रहता हो। तुम श्रीकृष्ण के समान पराक्रमी हो और उन्हीं की तरह पाण्डवों के आश्रय भी हो। अतः मैं तुम्हारे ऊपर एक भार रखना चाहता हूँ, उसे तुम ग्रहण करो। इस समय तुम्हारे बन्धु, सखा और गुरु अर्जुन पर संकट है; तुम संग्रामभूमि में उनके पास जाकर सहायता करो। जो पुरुष अपने मित्र के लिये जूझता हुआ प्राण त्याग देता है और जो ब्राह्मणों को पृथ्वीदान करता है, वे दोनों समान ही हैं। मेरी दृष्टि में मित्रों को अभय देनेवाले एक तो श्रीकृष्ण हैं और दूसरे तुम हो। वे भी मित्रों के लिये अपने प्राण समर्पण कर सकते हैं। देखो, जब एक पराक्रमी वीर विजयश्री की लालसा से संग्राम में जूझने लगता है तो वीर पुरुष ही उसकी सहायता कर सकता है, अन्य साधारण पुरुषों का यह काम नहीं है। अतः ऐसे भीषण युद्ध में अर्जुन की रक्षा करनेवाला तुम्हारे सिवा कोई नहीं है। अर्जुन ने भी तुम्हारे सैकड़ों कर्मों की प्रशंसा करते हुए मुझसे कई बार कहा था कि ‘सात्यकि मेरा मित्र और शिष्य है। मैं उसे प्रिय हूँ और वह मेरा प्यारा है। मेरे साथ रहकर वही कौरवों का संहार करेगा। उसके समान मेरा सहायक कोई दूसरा नहीं हो सकता।‘ जिस समय मैं तीर्थाटन करता हुआ द्वारका पहुँचा था, उस समय भी मैंने अर्जुन के प्रति तुम्हारा अद्भुत भक्तिभाव देखा था। इस समय द्रोण से कवच बँधवाकर दुर्योधन अर्जुन की ओर गया है।। दूसरे कई महारथी तो वहाँ पहले ही पहुँचे हुए हैं। इसलिये तुम्हें बहुत जल्द जाना चाहिये। भीमसेन और हम सब लोग सैनिकों के सहित तैयार खड़े हैं। यदि द्रोणाचार्य ने तुम्हारा पीछा किया तो हम उन्हें यहीं रोक लेंगे। देखो, हमारी सेना संग्रामभूमि से भागने लगी है। रथी, घुड़सवार और पैदल सेना के इधर_उधर भागने से सब ओर धूल उड़ रही है। मालूम होता है अर्जुन को सिंधुसौवीर देश के वीरों ने घेर लिया है। ये सब जयद्रथ के लिये अपने प्राण देने को तैयार हैं, इसलिये इन्हें परास्त किये बिना जयद्रथ को भी नहीं जीता जा सकेगा। आज महाबाहु अर्जुन ने सूर्योदय के समय कौरवों की सेना में प्रवेश किया था। अब दिन ढल रहा है। पता नहीं, अबतक वह जीवित भी है या नहीं। कौरवों की सेना समुद्र के समान अपार है, संग्राम में एकाएकी देवतालोग भी इसके सामने नहीं टिक सकते। इसमें अर्जुन ने अकेले ही प्रवेश किया है। उसकी चिंता के कारण आज युद्ध करने में मेरी बुद्धि कुछ भी काम नहीं कर रही है। जगत्पति श्रीकृष्ण तो दूसरों की भी रक्षा करनेवाले हैं। इसलिये उनकी मुझे कोई चिंता नहीं है। मैं तुमसे सच कहता हूँ, यदि तीनों लोक मिलकर भी श्रीकृष्ण से लड़ने आये तो उन्हें भी वे संग्राम में जीत सकते हैं; फिर इस धृतराष्ट्रपुत्र की अत्यंत  बलहीन सेना की तो बात ही क्या है ? किन्तु अर्जुन में यह बात नहीं है। उसे यदि बहुत से योद्धाओं ने मिलकर पीड़ा पहुँचायी तो वह प्राण छोड़ देगा। अत: जिस मार्ग से अर्जुन गया है, उसी से तुम भी बहुत जल्द उसके पास जाओ। आजकल वृष्णिवंशी वीरों में तुम और महाबाहु प्रद्युम्न___ दो ही अतिरथी समझे जाते हो। तुम अस्त्रसंचालन में साक्षात् नारायण के समान हो। अतः मैं तुम्हें जो काम सौंप रहा हूँ, उसे पूरा करो। इस समय प्राणों की परवा छोड़कर संग्रामभूमि में निर्भय होकर विचरो। भैया ! देखो, अर्जुन तुम्हारा गुरु है और श्रीकृष्ण तुम्हारे और अर्जुन दोनों के ही गुरु हैं। इस कारण से भी मैं तुम्हें जाने का आदेश दे रहा हूँ। तुम मेरे कथन को टाल मत देना; क्योंकि मैं भी तुम्हारे गुरु का गुरु हूँ और इसमें श्रीकृष्ण का, अर्जुन का और मेरा एक ही मत है। इसलिये तुम मेरी आज्ञा मानकर अर्जुन के पास जाओ।‘
धर्मराज के इस प्रेमयुक्त, मधुर, समयोचित और युक्तियुक्त कथन को सुनकर सात्यकि ने कहा, ‘राजन् ! आपने अर्जुन की सहायता के लिये मुझसे जो न्याययुक्त बात कही है, वह मैंने सुनी। वैसा करने से मेरा यश ही बढ़ेगा। अर्जुन के लिये मुझे अपने प्राणों को बचाने का तनिक भी लोभ नहीं है और आपकी आज्ञा होने पर तो इस संग्रामभूमि में ऐसा कौन काम है, जो मैं न करूँ। इस दुर्बल सेना का तो बात ही क्या, आपके कहने पर तो मैं देवता, असुर और मनुष्यों के सहित तीनों लोकों से संग्राम कर सकता हूँ। मैं आपसे सच कहता हूँ, आज इस दुर्योधन की सेना से मैं सभी ओर युद्ध करूँगा और इसे परास्त कर दूँगा।  मैं कुशलपूर्वक अर्जुन के पास पहुँच जाऊँगा और जयद्रथ का वध होने पर फिर आपके पास लौट आऊँगा। किन्तु मतिमान् अर्जुन और श्रीकृष्ण ने मुझसे जो बात कह रखी है, वह भी मैं आपकी सेवा में अवश्य निवेदन कर देना चाहता हूँ। अर्जुन ने सारी सेना के बीच में श्रीकृष्ण के सामने ही मुझसे बहुत जोर देकर कहा था कि ‘जबतक मैं जयद्रथ को मार आउँ, तबतक तुम बड़ी सावधानी से महाराज की रक्षा करना। मैं तुमपर या महारथी प्रद्युम्न पर ही महाराज की रक्षा का भार सौंपकर निश्चिन्तता से जयद्रथ के पास जा सकता हूँ। तुम द्रोण को जानते ही हो। वे कौरवपक्ष के सभी वीरों में श्रेष्ठ हैं। उन्होंने धर्मराज को पकड़ने की प्रतिज्ञा कर रखी है; अतः  वे इसी ताक में हैं और उन्हें पकड़ने की उनमें शक्ति भी है। परन्तु याद रखना, यदि किसी प्रकार सत्यवादी युधिष्ठिर उनके हाथ में पड़ गये तो हम सबको अवश्य ही पुनः वन में जाना पड़ेगा। इसलिये आज तुम विजय, कीर्ति और मेरी प्रसन्नता के लिये संग्रामभूमि में महाराज की रक्षा करते रहना।‘ राजन् ! इस प्रकार सव्यसाची पार्थ ने द्रोणाचार्य से  सर्वदा सशंक रहने को कारण आज आपकी रक्षा का भार मुझे सौंपा था। मुझे भी संग्रामभूमि में इनका सामना करनेवाला प्रद्युम्न के सिवा और कोई दिखाई नहीं देता। यदि आज यहाँ कृष्णकुमार प्रद्युम्नजी होते, तो मैं उन्हें आपकी रक्षा का भार सौंप देता और वे अर्जुन के समान ही आपकी रक्षा कर लेते; किन्तु अब यदि मैं चला जाऊँगा तो आपकी रक्षा कौन करेगा ? और अर्जुन की ओर से तो आप कोई चिंता न करें। ये कोई भी भार अपने ऊपर लेकर फिर उससे कभी नहीं घबराते।  आपने जिन सौवीर सिन्धुदेशीय, उत्तरीय और दक्षिणात्य योद्धाओं की बात कही हौ तथा जिन कर्ण आदि रथियों का नाम लिया है, वे सब तो रणांगण में कुपित हुए अर्जुन के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हैं। यदि पृथ्वी के देवता, असुर, मनुष्य, राक्षस, किन्नर और नाग आदि चराचर जीव पार्थ से युद्ध करने को तैयार हो जायँ, तो वे सब भी उनके सामने नहीं ठहर सकते। इन सब बातों पर विचार करके आपको अर्जुन के विषय में आपको कोई आशंका नहीं करनी चाहिये। जहाँ महापराक्रमी वीरवर श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं,  वहाँ काम में किसी प्रकार की अड़चन नहीं पड़ सकती। आप अपने भाई की दैवी शक्ति, शस्त्रकुशलता, योग, सहनशीलता, कृतज्ञता और दया पर ध्यान दीजिये और मैं उनके पास चला जाऊँगा जो उस समय द्रोणाचार्य जिन विभिन्न अस्त्रों का प्रयोग करेंगे, उनके विषय में भी विचार कर लीजिये। राजन् ! अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के लिये आचार्य आपको पकड़ने को बहुत उत्सुक हैं। अतः आप अपने बचाव का उपाय कर लीजिये। यह सोच लीजिये कि मेरे जाने पर आपकी रक्षा कौन करेगा। यदि इस बात का मुझे पूरा भरोसा हो जाय तो मैं अर्जुन के पास जा सकता हूँ।‘ युधिष्ठिर बोले___ सात्यकि ! तुम जैसा कहते हो, ठीक ही है; किन्तु जब मैं अपनी रक्षा के लिये तुम्हें रखने और अर्जुन की सहायता के लिये भेजने के विषय में विचार करता हूँ तो मुझे तुम्हारा जाना ही अधिक अच्छा मालूम होता है। अतः अब तुम अर्जुन के पास पहुँचने का प्रयत्न करो। मेरी रक्षा तो,भीमसेन कर लेंगे। इसके सिवा भाइयों के सहित धृष्टधुम्न, अनेकों महाबली राजालोग, द्रौपदी के पुत्र, पाँच केकयराजकुमार, राक्षस घतोत्कच, विराट, द्रुपद, महारथी शिखण्डी, महाबली धृष्टकेतू, कुन्तिभोज, नकुल, सहदेव तथा पांचाल और सृंजयवीर भी सावधानी से मेरी रक्षा करेंगे। इसके कारण अपनी सेना के सहित द्रोण और कृतवर्मा मेरे पास तक पहुँचने या मुझे कैद करने में समर्थ नहीं होंगे। किनारा जैसे समुद्र को रोके रहता है, वैसे ही धृष्टधुम्न आचार्य को रोक देगा। इसने कवच, बाण, खड्ग, धनुष और आभूषण धारण किये द्रोण की नाश करने के लिये ही जन्म लिया है। इसलिये तुम इसके ऊपर पूरा भरोसा रखकर चले जाओ, किसी प्रकार की चिंता मत करो।
सात्यकि ने कहा___यदि आपके विचार से आपकी रक्षा का प्रबंध हो गया है तो मैं अर्जुन के पास अवश्य जाऊँगा और आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। मैं सच कहता हूँ___तीनों लोकों में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो मुझे अर्जुन से अधिक प्रिय हो तथा मेरे लिये जितना उनका वचन मान्य है, उससे भी अधिक आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। श्रीकृष्ण और अर्जुन___ ये दोनों भाई आपके हित में तत्पर रहते हैं और मुझे आप उनके प्रियसाधन में तत्पर समझिये। मैं अभी इस दुर्भेद्य सेना को पार कर पुरुषसिंह पार्थ के पास जाऊँगा। जिस स्थान पर उनसे भयभीत होकर जयद्रथ अपनी सेना के सहित अश्त्थामा, कृप और कर्ण की रक्षा में खड़ा है तथा पार्थ उसके वध करने के लिये गये हुए हैं, उसे मैं यहाँ से तीन योजन दूर समझता हूँ, तो भी मुझे पूरा भरोसा है कि मैं जयद्रथ का वध होने से पहले ही उनके पास पहुँच जाऊँगा। अब आप आज्ञा दे रहे हैं तो मुझ सरीखा कौन पुरुष है जो युद्ध न करेगा ? राजन् ! जिस स्थान पर मुझे जाना है, उसका मुझे अच्छी तरह पता है। मैं हल, शक्ति, गदा, प्रास,ढाल, तलवार,ऋष्टि, तोमर, बाण तथा अन्यान्य अस्त्र_शस्त्र से भरे हुए इस सैन्यसमुद्र को झकझोर डालूँगा। इसके पश्चात् महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा से सात्यकि अर्जुन से मिलने के लिये आपकी सेना में घुस गया।

No comments:

Post a Comment