Wednesday 6 March 2019

आचार्य के द्वारा दुःशासन का तिरस्कार, वीरकेतु आदि पांचालकुमारों का वध तथा उनका धृष्टधुम्न आदि पांचालों के एवं सात्यकि का दुःशासन और त्रिगर्तों के साथ घोर संग्राम

संजय ने कहा___राजन् ! जब आचार्य ने दुःशासन के रथ को अपने पास खड़ा देखा तो वे उससे कहने लगे, ‘दुःशासन ! ये सब रथी क्यों भाग रहे हैं ? राजा दुर्योधन तो कुशल से हैं ? तथा जयद्रथ अभी जीवित है न ? तुम तो राजकुमार हो, स्वयं राजा के भाई हो और तुम्हीं को युवराज पद प्राप्त हुआ है। फिर तुम युद्ध से कैसे भाग रहे हो ? तुमने तो पहले द्रौपदी से कहा था कि ‘तू हमारी जूए में जीती हुई दासी है। अब तू स्वेच्छाचारिणी होकर हमारे ज्येष्ठ भ्राता महाराज दुर्योधन के वस्त्र लाकर दिया कर। अब तेरा कोई पति नहीं है, ये सब तो तैलहीन तिल के समान सारहीन हो गये हैं।‘ ऐसी_ऐसी बातें बनाकर अब तुम युद्ध में पीठ क्यों दिखा रहे हो ? तुमने पांचाल और पाण्डवों के साथ स्वयं ही वैर बाँधा, फिर आज एक सात्यकि के सामने आकर ही तुम कैसे डर गये ? पहले कपटद्यूत में पासे पकड़ते समय तुमने यह नहीं समझा था कि एक दिन ये पासे ही कराल बाण हो जायँगे ?
शत्रुदमन ! तुम सेना के नायक और अवलम्ब हो; यदि तुम ही डरकर भागने लगोगे तो संग्रामभूमि में और कौन ठहरेगा।  आज यदि अकेले ही जूझते हुए सात्यकि के सामने से तुम भागना चाहते हो तो बाद में अर्जुन, भीम या नकुल_सहदेव को देखने पर क्या करोगे ? हो तो तुम बड़े मर्द !  जाओ, झटपट गांधारी के पेट में घुस जाओ। पृथ्वी पर भागकर जाने से तो कहीं भी तुम्हारे जीवन की रक्षा नहीं हो सकेगी। यदि तुम्हें भागना ही सूझता है, तो शान्ति के साथ ही राजा युधिष्ठिर को पृथ्वी सौंप दो। भीष्मजी ने तो पहले ही तुम्हारे भाई दुर्योधन से कहा था कि ‘पाण्डवलोग संग्राम में अजेय हैं, तुम उनके साथ संधि कर लो।‘  मगर उस मंदमति ने उनकी बात नहीं मानी। मैंने तो सुना है, भीमसेन तुम्हारा भी खून पियेगा। यह विचार पक्का ही होगा और ऐसा ही होकर रहेगा। क्या तुम भीमसेन का पराक्रम नहीं जानते, जो तुमने पाण्डवों से वैर बाँध लिया और आज मैदान छोड़कर भागने लगे ? अब जहाँ सात्यकि है, वहाँ शीघ्र ही अपना रथ ले जाओ; नहीं तो तुम्हारे बिना यह सारी सेना भाग जायगा। जाओ, संग्राम में वीर सात्यकि से भिड़ जाओ।‘ आचार्य के इस प्रकार कहने पर दुःशासन ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वह सब बातों को सुनी_अनसुनी_सी करके युद्ध से पीठ न फेरनेवाले यवनों की भारी सेना लेकर सात्यकि की ओर चला गया और बड़ी सावधानी से उसके साथ संग्राम करने लगा। रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य भी क्रोध में भरकर मध्यम गति से पांचाल और पाण्डवों की सेना पर टूट पड़े और सैकड़ों_हजारों योद्धाओं को समरभूमि से भगाने लगे। उस समय आचार्य अपना नाम सुना_सुनाकर पाण्डव, पांचाल और मत्स्यवीरों का घोर संहार कर रहे थे। जिस समय वे सेनाओं को इस प्रकार परास्त कर रहे थे, उनके सामने परम तेजस्वी पांचालराजकुमार वीरकेतु आया। उसने पाँच तीखे बाणों से द्रोण को, एक से ध्वजा को और सात से उनके सारथि को बींध दिया। इस तरह यह बड़े आश्चर्य की बात हुई कि आचार्य उस वेगवान् पांचालराजकुमार को काबू में नहीं कर सके। संग्राम में द्रोण की गति रुकी देखकर महाराज युधिष्ठिर को विजय चाहनेवाले पांचालवीरों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। सब_के_सब मिलकर उन पर बाण, तोमर तथा तरह_तरह के अस्त्र_शस्त्रों की वर्षा करने लगे। तब आचार्य ने वीरकेतु के रथ की ओर एक बड़ा ही भयंकर बाण छोड़ा। वह उसे घायल करके पृथ्वी पर जा पड़ा और उसकी चोट से प्राणहीन होकर वह पांचालराजकुलतिक रथ से नीचे गिर गया।
उस महान् धनुर्धर राजकुमार के मारे जाने पर पांचालवीरों ने बड़ी फुर्ती से आचार्य को सब ओर से घेर लिया। चित्रकेतु, सुधन्वा, चित्रवर्मा और चित्ररथ____ ये सभी राजकुमार अपने भाई की मृत्यु से व्यथित होकर द्रोण के साथ संग्राम करने के लिये उनके सामने आ गये और वर्षाकालीन मेघों के समान बाणों की वर्षा करने लगे। इससे विप्रवर द्रोण अत्यंत क्रोध में भर गये और उन्होंने उन पर बाणों का जाल_सा फैला दिया। इससे वे सब राजकुमार घबराकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। तब आचार्य ने हँसते_हँसते उनके घोड़े, सारथि और रथों को नष्ट कर दिया तथा अत्यंत तीखे भल्लों से उनके मस्तकों को भी काटकर गिरा दिया। इस प्रकार उन राजपुत्रों का वध करके आचार्य अपने धनुष को मण्डलाकार घुमाने लगे। यह देखकर धृष्टधुम्न को बड़ा उद्वेग हुआ। उसके नेत्रों से जल गिरने लगा और वह अत्यन्त कुपित होकर द्रोण के रथ पर टूट पड़ा। तब धृष्टधुम्न के बाणों से द्रोण की गति रुकी देखकर संग्रामभूमि में बड़ा हाहाकार होने लगा। उसने क्रोध से तिलमिलाकर आचार्य की छाती पर नब्बे बाणों की चोट की। इससे वे रथ की गद्दी पर बैठकर मूर्छित हो गये। धृष्टधुम्न ने धनुष रखकर एक तेज तलवार उठायी और अपने रथ से कूदकर फौरन ही आचार्य के रथ पर चढ़ गया। वह उनका सिर काटनेहीवाला था कि द्रोण की मूर्छा टूट गयी। जब उन्होंने देखा कि धृष्टधुम्न उनका काम तमाम करने के लिये निकट आ गया है, तो वे पास से ही चोट करनेवाले वितस्त नाम के बाण छोड़ने लगे। उन बाणों से धृष्टधुम्न का उत्साह भंग हो गया और वह तुरंत ही उनके रथ से कूदकर अपने रथ पर जा चढ़ा। अब वे दोनों ही एक_दूसरे को बाणों से बींधने लगे। दोनों ही ने संपूर्ण आकाश, दिशा और पृथ्वी को बाणों से छा दिया। उनके इस अद्भुत युद्ध की सभी प्राणी प्रशंसा करने लगे। अब द्रोण ने बड़ी फुर्ती से धृष्टधुम्न के सारथि के सिर को काटकर गिरा दिया। इससे उसके घोड़े रणभूमि से,भाग गये। तब आचार्य पांचाल और सृंजयवीरों के साथ युद्ध करने लगे तथा उन्हें परास्त करके फिर अपने व्यूह में आकर खड़े हो गये। इधर दुःशासन बरसते हुए बादल के समान बाणों की वर्षा करता सात्यकि के सामने आया। उसे आता देख सात्यकि उसकी ओर दौड़ा और उसे अपने बाणों से एकदम ढक दिया। जब दुःशासन और उसके साथी बाणों से बिलकुल ढक गये तो वे सब सैनिकों के सामने ही भयभीत होकर युद्धस्थल से भाग गये। दुःशासन को सैकड़ों बाणों से बिंधा देखकर राजा दुर्योधन ने त्रिगर्तवीरों को सात्यकि के रथ की ओर भेजा। उन तीन सहस्त्र रथी योद्धाओं ने युद्ध का पक्का निश्चय कर सात्यकि को चारों ओर से रथों की बाड़ से घेर दिया। किन्तु सात्यकि ने अपने बाणों की बौछार से उस सेना के पाँच सौ अग्रगामी योद्धाओं को बात_की_बात में धराशायी कर दिया। तब रहे_सहे वीर अपने प्राणों के भय से द्रोणाचार्यजी के रथ की ओर लौट गये। इस प्रकार त्रिगर्तवीरों का संहार करके वीर सात्यकि धीरे_धीरे अर्जुन के रथ की ओर बढ़ने लगा। इस समय आपके पुत्र दुःशासन ने इस पर फिर नौ बाणों से वार किया। तब सात्यकि ने उस पर पाँच बाण छोड़े और उसके धनुष को भी काट डाला। इस प्रकार सबको विस्मय में डालकर वह फिर अर्जुन के रथ की ओर बढ़ने लगा। इससे दुःशासन का क्रोध बहुत बढ़ गया और उसने सात्यकि का वध करने के विचार से उसपर एक लोहे की शक्ति छोड़ी। किन्तु सात्यकि ने अपने पैने बाणों से उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये। तब दुःशासन ने दूसरा धनुष लेकर उसे बाणों से बींध डाला और सिंह समान गर्जना की। इससे सात्यकि का क्रोध भड़क उठा और उसने दुःशासन की छाती को तीन बाणों से घायल कर एक भल्ल से उसके धनुष और दो से उसके रथ की ध्वजा तथा शक्ति को काट डाला। फिर कई तीखे बाण छोड़कर उसके दोनों पार्श्वरक्षकों को मार डाला। तब त्रिगर्त सेनापति उसे अपने रथ पर चढ़ाकर ले चला। सात्यकि ने कुछ देर तक उसका भी पीछा किया। किन्तु फिर उसे भीमसेन की प्रतिज्ञा याद आ गयी, इसलिये उसने दुःशासन की वध नहीं किया। राजन् ! भीमसेन ने आपकी सभा में ही आपके सब पुत्रों को मारने की प्रतिज्ञा की थी, इसलिये सात्यकि ने दुःशासन को मारा नहीं। वह उसे संग्रामभूमि में परास्त कर वेग से अर्जुन की ओर बढ़ने लगा।

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