Friday 7 June 2019

कृपाचार्य की मूर्छा और सात्यकि तथा कर्ण का युद्ध

धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! जब अर्जुन ने जयद्रथ को मार डाला, उस समय मेरे पक्षवाले योद्धाओं ने क्या किया ? संजय ने कहा___भारत ! सिंधुराज को युद्ध में अर्जुन के हाथ से मारा गया देख कृपाचार्य ने क्रोध में भरकर उनपर बड़ी भारी बाणवर्षा आरम्भ की। दूसरी ओर से अश्त्थामा ने भी आक्रमण किया। फिर दोनों दो ओर से अर्जुन पर तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। इससे अर्जुन को बड़ी व्यथा हुई। कृपाचार्य गुरु थे और अश्त्थामा गुरुपुत्र, अतः अर्जुन उन दोनों के प्राण नहीं लेना चाहते थे; इसलिये वे धीरे_धीरे उनपर बाण छोड़ रहे थे, फिर भी इनके छोड़े हुए बाण उन्हें चोट पहुँचाते थे। अधिक बाण लगने के कारण उन दोनों को बड़ी वेदना हुई। कृपाचार्य तो रथ के पिछले भाग में बैठ गये और उन्हें मूर्छा आ गयी। यह देख सारथि उन्हें रणभूमि से बाहर ले गया। उनके हटते ही अश्त्थामा भी वहाँ से भाग गया। कृपाचार्य को अपने बाणों की पीड़ा से मूर्छित देख अर्जुन को बड़ी दया आयी; उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी, वे बहुत दीन होकर रथ पर बैठे_ही_बैठे इस प्रकार विलाप करने लगे___’ पापी दुर्योधन के जन्म लेते ही, महाबुद्धिमान विदुरजी ने राजा धृतराष्ट्र ने से कहा था कि ‘ यह बालक अपने वंश का नाश करनेवाला है; इसे मृत्यु के हवाले कर दिया जाय, तभी कुशल है !  इससे कुरुवंश के प्रमुख महारथियों को महान् भय प्राप्त होगा।‘ उन सत्यवादी महात्मा की कही हुई आज प्रत्यक्ष दिखायी दे रही है। दुर्योधन के कारण ही आज अपने दुर्भाग्य को वाणशय्या पर सोते देख रहा हूँ। क्षत्रियों के ऐसे आचार और बल_पौरुष को धिक्कार है। मेरे_जैसा कौन मनुष्य ब्राह्मण_आचार्य से द्रोह करेगा ? हाय ! शरद्वान् ऋषि के पुत्र, मेरे आचार्य और द्रोण के परम सखा ये कृप आज मेरे ही बाणों से पीड़ित होकर रथ की बैठक में पड़े हैं। इच्छा न रहते हुए भी मैंने इन्हें बाणों से बहुत घायल कर दिया। अब इन्हें दुःख पाते देख मेरे प्राणों को बड़ा कष्ट हो रहा है। पहले की बात है, एक दिन अस्त्रविद्या की शिक्षा देते हुए आचार्य कृप ने मुझसे कहा था___'कुरुनंदन ! शिष्य को गुरु पर किसी तरह प्रहार नहीं करना चाहिये।‘ उन साधु, महात्मा एवं आचार्य के इस आदेश का मैंने आज इस युद्ध में पालन नहीं किया। गोविन्द ! मुझे धिक्कार है कि इन पर भी बारम्बार हाथ उठाता हूँ।‘ अर्जुन इस प्रकार विलाप कर ही रहे थे कि राधानन्दन कर्ण सिंधुराज को मारा गया देख उनपर चढ़ आया। यह देख पांचालराज के दोनों पुत्रों और सात्यकि ने सहसा कर्ण पर धावा किया। महारथी अर्जुन ने जब कर्ण को आते देखा, तो हँसकर भगवान् देवकीनन्दन से कहा___’जनार्दन ! यह देखिये, कर्ण सात्यकि के रथ की ओर बढ़ा जा रहा है। युद्ध में  सात्यकि ने जो भूरिश्रवा को मार डाला है, यह उससे नहीं सहा जाता। अतः जहाँ कर्ण जा रहा है, वहीं आप भी घोड़ों को हाँककर ले चलिये।‘  अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने यह समयोचित बात कही___’पाण्डुनन्दन ! कर्ण के लिये सात्यकि अकेला ही काफी है; फिर जबतक पांचालराज के दो पुत्र भी उसके साथ हैं, तब तो कहना ही क्या है ?  इस समय कर्ण के साथ तुम्हारा युद्ध होना ठीक नहीं है; क्योंकि उसके रास इन्द्र की दी हुई दो शक्ति मौजूद है; तुम्हें मारने के लिये वह बड़े यत्न से उसे रखता है और बार_बार उसकी पूजा करता है। अत: कर्ण को जैसे_ तैसे सात्यकि के पास ही जाने दो। मैं उस दुरात्मा के अन्तकाल को जानता हूँ,समय आने पर बताऊँगा; फिर तुम अपने बाणों से उसे इस भूतल पर मार गिराओगे।
धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय  ! भूरिश्रवा और जयद्रथ के मारे जाने पर जब कर्ण के साथ सात्यकि का युद्ध हुआ, उस समय सात्यकि के पास तो कोई रथ तो था ही नहीं; फिर वह किसके रथ पर सवार हुआ ? संजय ने कहा___ महाराज ! भगवान् श्रीकृष्ण भूत और भविष्य को भी जानते हैं; उनके मन में यह बात पहले से ही आ गयी थी कि भूरिश्रवा सात्यकि को हरा देगा। अतः उन्होंने अपने सारथि दारुक को आज्ञा दे दी थी कि ‘ तुम सवेरे ही मेरा रथ तैयार कर तैयार रखना।‘ राजन् !  देवता, गन्धर्व, यक्ष, सर्प, राक्षस अथवा मनुष्य___ कोई भी श्रीकृष्ण और अर्जुन को नहीं जीत सकते। ब्रह्मा आदि देवता और सिद्ध पुरुष इन दोनों के अनुपम प्रभाव को जानते हैं। अब युद्ध का समाचार सुनिये।
सात्यकि को रथहीन और कर्ण को उसपर धावा करते देख भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने महान् शंख पांचजन्य को ऋषभ_ स्वर से बजाया। शंख सुनते ही दारुक भगवान् का संदेश समझ गया और रथ उनके पास ले आया। फिर सात्यकि भगवान् की आज्ञा से उसपर जा बैठा। वह रथ विमान के समान देदीप्यमान था, सात्यकि उसपर सवार हो बाणों की झड़ी लगाता हुआ कर्ण की ओर दौड़ा। उस समय अर्जुन के चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजा भी कर्ण के रथ पर टूट पड़े। कर्ण ने भी  बाणवर्षा करते हुए क्रोध में भरकर सात्यकि के ऊपर धावा किया। इन दोनों में जैसा युद्ध हुआ था, वैसा इस पृथ्वी पर या देवलोक में देवता, गन्धर्व, असुर, नाग और राक्षसों का भी युद्ध नहीं सुना गया। महाराज ! उन दोनों के अद्भुत पराक्रम को देख सभी योद्धा युद्ध बन्द कर उन्हीं दोनों के अलौकिक संग्राम को मुग्ध होकर देखने लगे। दारुक का सारथि_कर्म भी अद्भुत था; वह कभी रथ को आगे बढ़ाता, कभी पीछे हटाता, कभी मण्डलाकार में चारों ओर घुमाने लगता और कभी बहुत आगे बढ़कर सहसा लौट आता था। उसके रथ_संचालन की कला देख आकाश में खड़े हुए देवता, गन्धर्व और दानव भी विस्मय_विमुग्ध हो रहे थे; सभी बड़ी सावधानी से कर्ण और सात्यकि का युद्ध देख रहे थे। वे दोनों वीर एक_दूसरे पर बाणों की झड़ी लगा रहे थे। सात्यकि ने अपने सायकों की चोट से कर्ण को खूब घायल किया। कर्ण भी जलसन्ध और भूरिश्रवा की मृत्यु से सहमा हुआ था, वह सात्यकि को अपनी दृष्टि से दग्ध_सा करता हुआ बारम्बार बड़े वेग से धावा करता था; किन्तु सात्यकि उसे कुपित देख अपने बाणवर्षा के द्वारा बराबर बींधता ही रहा। रण में उन दोनों के पराक्रम की तुलना कहीं  नहीं थी, दोनों ही दोनों के अंग_प्रत्यंग छेद रहे थे। थोड़ी ही देर में सात्यकि ने कर्ण के संपूर्ण शरीर में घाव कर दिया और एक भल्ल मारकर उसके सारथि को भी रथ की बैठक से नीचे गिरा दिया। इतना ही नहीं, अपने तीखे तीरों से उसने कर्ण के चारों श्वेत घोड़े भी मार डाले। फिर ध्वजा काटकर उसके रथ के भी सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इस प्रकार सात्यकि ने आपके पुत्र के देखते_देखते कर्ण को रथहीन कर दिया। तब कर्णपुत्र वृषसेन, मद्रराज शल्य और द्रोणनन्दन अश्त्थामा ने आकर सात्यकि को सब ओर से घेर लिया। उधर कर्ण के रथहीन हो जाने से संपूर्ण सेना में हाहाकार मच गया। कर्ण शोकाच्छवास खींचता हुआ तुरंत ही दुर्योधन के रथ पर जा बैठा। सात्यकि कर्ण तथा आपके पुत्रों को मारने में समर्थ था तो भी उसने अर्जुन और भीमसेन की प्रतिज्ञा रखने के लिये उनके प्राण नहीं लिये। केवल उन्हें घायल और व्याकुल करके ही छोड़ दिया। जिस समय पिछली बार जूआ खेला गया था, उसी समय भीमसेन ने आपके पुत्रों को और अर्जुन ने कर्ण को मार डालने की प्रतिज्ञा की थी। कर्ण आदि प्रधान_ प्रधान वीरों ने सात्यकि को मार डालने की पूरा प्रयत्न किया, किन्तु वे सफल न हो सके। अश्त्थामा, कृतवर्मा और अन्य सैकड़ों क्षत्रियों को सात्यकि ने एक ही धनुष से परास्त कर दिया।  वह श्रीकृष्ण और अर्जुन के समान पराक्रमी था, उसने आपकी संपूर्ण सेना को हँसते_हँसते जीत लिया। तत्पश्चात् दारुक का छोटा भाई एक सुन्दर रथ सजाकर सात्यकि के पास ले आया। उसी पर सवार हो सात्यकि ने पुनः आपकी सेना पर धावा किया। फिर दारुक इच्छानुसार श्रीकृष्ण के पास चला गया। इधर कौरव भी कर्ण के लिये एक सुन्दर रथ ले आये, जिसमें बड़े वेगवान् उत्तम घोड़े जुते हुए थे। उस रथ पर यंत्र रखा था, पताका फहराती थी, नाना प्रकार के अस्त्र रखे हुए थे और उसका सारथि सुयोग्य था। उस रथ पर बैठकर कर्ण ने भी शत्रुओं पर आक्रमण किया। राजन् उस युद्ध में भीमसेन ने आपके इकतीस पुत्रों को मार डाला। इस प्रकार आपकी अनीति के कारण ही यह भयंकर संहार हुआ।

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