Friday 28 June 2019

दुर्योधन और द्रोणाचार्य की अमर्षपूर्ण बातचीत तथा कर्ण_दुर्योधन_संवाद

संजय कहते हैं____ राजन् ! जयद्रथ के मारे जाने पर आपका पुत्र दुर्योधन आँसू बहाने लगा, उसकी दशा बड़ी दयनीय हो गयी; अब शत्रुओं पर विजय पाने का उसका सारा उत्साह जाता रहा। अर्जुन, भीमसेन और सात्यकि ने कौरवसेना का भारी संहार कर डाला है___ यह देखकर उसका चेहरा उदास हो गया, आँखें भर गयीं। वह सोचने लगा___’इस पृथ्वी पर अर्जुन के समान कोई योद्धा नहीं है। जब अर्जुन को क्रोध चढ़ आता है, उस समय उनके सामने  द्रोणाचार्य, कर्ण, अश्त्थामा और कृपाचार्य भी नहीं ठहर पाते। आज के युद्ध में उन्होंने हमारे सभी महारथियों को हराकर सिंधुराज का वध किया, किन्तु कोई भी उन्हें रोक न सका। हाय ! हमारी इतनी बड़ी सेना को पाण्डवों ने हर तरह से नष्ट कर डाला। जिसके भरोसे हमने युद्ध के लिये अस्त्र_शस्त्रों की तैयारी की, जिसके पराक्रम की आश्रय ले संधि का प्रस्ताव लेकर आनेवाले श्रीकृष्ण को तिनके के समान समझा, उस कर्ण को भी अर्जुन ने युद्ध मे परास्त कर दिया।‘महाराज ! सारे जगत् की अपराध करनेवाला आपका पुत्र दुर्योधन जब इस प्रकार सोचते_ सोचते मन_ही_मन बहुत व्याकुल हो गया तो आचार्य द्रोण का दर्शन करने के लिये उनके पास गया और उनसे कौरव_सेना के महान् संहार का सारा समाचार सुनाया। उसने यह भी बताया कि शत्रु विजयी हो रहे हैं और कौरव विपत्ति के समुद्र में डूब रहे हैं। फिर कहने लगा___’आचार्य ! अर्जुन ने हमारी सात अक्षौहिणी सेना का नाश करके आपके शिष्य जयद्रथ का भी वध कर डाला। ओह ! जिन्होंने हमें विजय दिलाने की इच्छा से अपने प्राण त्यागकर यमलोक की राह ली, उन उपकारी सुहृदों का ऋण हम कैसे चुका सकेंगे ! जो भुपाल हमारे लिये इस भूमि को जीतना चाहते थे, वे स्वयं भूमण्डल का ऐश्वर्य त्यागकर भूमि पर सो रहे हैं। इस प्रकार स्वार्थ के लिये मित्रों का संहार करके अब मैं हजार बार अश्वमेध यज्ञ करूँ तो भी अपने को पवित्र नहीं कर सकता। मैं आचारभ्रष्ट एवं पतित हूँ, अपने सगे_सम्बन्धियों से मैंने द्रोह किया है ! अहो ! राजाओं के समाज में मेरे लिये पृथ्वी फट क्यों नहीं गयी, जिससे मैं उसी में समा जाता। मेरे पितामह लोहूलुहान होकर बाणशय्या पर पड़े हैं; वे युद्ध में मारे गये, पर मैं उनकी रक्षा न कर सका। कम्बोजराज, अलम्बुष तथा अन्यान्य सुहृदों को मरा देखकर भी अब जीवित रहने से मुझे क्या लाभ है ? शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ आचार्य !  मैं अपने यज्ञ_ यागादी तथा कुआँ बावली बनवाने आदि शुभकर्मो की, पराक्रम की तथा पुत्रों की शपथ खाकर आपके सामने सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब मैं पाण्डवों के साथ संपूर्ण पांचाल राजाओं को मारकर ही शान्ति पाऊँगा, अथवा जो लोग मेरे लिये युद्ध करते_करते अर्जुन के हाथ से अपने प्राण खो चुके हैं, उनके ही लोक में चला जाऊँगा।इस समय मेरे सहायक भी मेरी मदद करना नहीं चाहते। औरों की तो बात जाने दीजिये, स्वयं आप हमलोगों की उपेक्षा करते हैं। अर्जुन आपका प्यारा शिष्य हैं न, इसीलिये ऐसा हुआ है। इस समय तो मैं केवल कर्ण को ही ऐसा देखता हूँ, जो सच्चे दिल से मेरी विजय चाहता है। जो मूर्ख मित्र को ठीक ठीक पहचाने बिना उसे मित्र के काम पर लगा देता है, उसका यह काम चौपट ही होता है। जयद्रथ, भूरिश्रवा, अमिषाह, शिवि और वसाति आदि नरेश मेरे लिये युद्ध में मारे गये। उसके बिना अब मुझे इस जीवन से कोई लाभ नहीं है; अत: मैं भी वहीं जाता हूँ, जहाँ वे पुरुषश्रेष्ठ पधारे हैं। आप तो केवल पाण्डवों के आचार्य हैं, अब हमें जाने की आज्ञा दीजिये।‘राजन् ! आपके पुत्र की कही हुई बातें सुनकर आचार्य द्रोण मन_ही_मन बहुत दुःखी हुए। वे थोड़ी देर तक चुपचाप कुछ सोचते रहे, फिर अत्यन्त व्यथित होकर बोले___’दुर्योधन ! तू क्यों इस प्रकार अपने वाग्बाणों से मुझे छेद रहा है ? मैं तो सदा ही तुझसे कहता आया हूँ कि अर्जुन को युद्ध में जीतना असम्भव है। जिन भीष्मपितामह को हमलोग त्रिभुवन का सर्वश्रेष्ठ वीर समझते थे, वे भी जब मारे गये तो औरों से क्या आशा रखें ? तूने जब जूआ खेलना आरम्भ किया था, उस समय विदुर ने कहा था___'बेटा दुर्योधन ! इस कौरव_सभा में शकुनि जो ये पासे फेंक रहा है, इन्हें पासा न समझो; ये एक दिन तीखे बाण बन जायेंगे। वे ही पासे अब अर्जुन के हाथ से बाण बनकर हमें मार रहे हैं। उस दिन विदुर की बात मेरी समझ में नहीं आयी ! विदुरजी धीर हैं, महात्मा पुरुष हैं; उन्होंने  तेरे कल्याण के लिये अच्छी बातें कही थी, किन्तु तूने विजय के उल्लास में अनसुनी कर दीं। आज जो यह भयंकर संग्राम मचा हुआ है, वह उनके वचनों के अनादर का ही फल है। जो मूर्ख अपने हितैषी मित्रों के हितकर वचन की अवहेलना करके मनमाना बर्ताव करता है, वह थोड़े ही समय में सोचनीय दशा को प्राप्त हो जाता है। यही नहीं,  तूने एक और बड़ा भारी अन्याय किया कि हमलोगों के सामने द्रौपदी को सभा में बुलाकर अपमानित किया। वह उच्चकुल में उत्पन्न हुई है, सब प्रकार के धर्मों का पालन करती है; वह इस अपमान के योग्य नहीं थी।गान्धारीनन्दन ! उस पाप का ही यह महान् फल प्राप्त हुआ है। यदि यहाँ यह फल नहीं मिलता तो परलोक में तुझे इससे भी अधिक दण्ड भोगना पड़ता। पाण्डव मेरे पुत्र के समान हैं, वे सदा धर्म का आचरण करते रहते हैं; मेरे सिवा दूसरा कौन मनुष्य है, जो ब्राह्मण कहलाकर भी उनसे द्रोह करे ? दुर्योधन ! तू तो नहीं मर गया था; कर्ण, कृपाचार्य, शल्य और अश्त्थामा___ ये सब तो जीवित थे; फिर सिंधुराज की मृत्यु  क्यों हुई ? तुम सबने मिलकर उसे क्यों नहीं बचा लिया ? राजा जयद्रथ विशेषतः मुझपर और मुझपर ही अपनी जीवनरक्षा का भरोसा किये बैठा था; तो भी जब अर्जुन के हाथ से उसकी रक्षा न की जा सकी तो मुझे अब अपने जीवन की रक्षा का भी कोई स्थान दिखाई नहीं देता। जहाँ बड़े_बड़े महारथियों के बीच सिंधुराज जयद्रथ और भूरिश्रवा मारे गये, वहाँ तू किसके बचने की आशा करता है ? जिन्हें इन्द्र सहित संपूर्ण देवता भी मार सकते थे उन भीष्मजी को जबसे मृत्यु के मुख में पड़ा देखा है, तब से यही सोचता हूँ कि अब यह पृथ्वी तेरी नहीं रह सकती। यह देखो, पाण्डवों और सृंजयों की सेना एक साथ मिलकर मुझपर चढ़ी आ रही है।
दुर्योधन ! अब मैं पांचाल राजाओं को मारे बिना अपना कवच नहीं उतारूँगा। आज युद्ध में वही कर्म करूँगा, जिससे तेरा हित हो। मेरे पुत्र अश्त्थामा से जाकर कहना कि वह युद्ध में अपने जीवन की रक्षा करते हुए जैसे भी हो सोमकों का संहार करे, उन्हें जीवित न छोड़े। दया, दम, सत्य और सरलता आदि सद्गुणों में स्थित रहे; धर्मप्रधान कर्मों का ही बारम्बार अनुष्ठान करे।  राजन् ! अब मैं महासंग्राम के लिये शत्रुसेना में प्रवेश करता हूँ। मुझमें शक्ति हो तो सेना की रक्षा करना; क्योंकि क्रोध में भरे हुए कौरव तथा सृंजयों का आज रात्रि में भी युद्ध होगा।‘ ऐसा कहकर आचार्य द्रोण पाण्डवों तथा सृंजयों से युद्ध करने चल दिये।आचार्य की प्रेरणा पाकर दुर्योधन ने युद्ध करने का ही निश्चय किया। उसने कर्ण से कहा___'देखो, श्रीकृष्ण की सहायता से अर्जुन ने द्रोणाचार्य का व्यूह भेदकर सब योद्धाओं के सामने ही सिन्धुराज का वध किया है। मेरी अधिकांश सेना अर्जुन के आगे नष्ट हो गयी, अब थोड़ी सी ही बची है। यदि इस युद्ध में आचार्य द्रोण अर्जुन को रोकने की पूरी कोशिश करते तो वे लाख प्रयत्न करने पर भी उस दुर्भेद्य व्यूह को नहीं तोड़ सकते थे। किन्तु वे तो द्रोण के परम प्रिय हैं, तभी तो आचार्य ने जयद्रथ को अभयदान देकर भी अर्जुन को व्यूह में घुसने का मार्ग दे दिया; यदि उन्होंने पहले ही सिंधुराज को घर जाने की आज्ञा दे दी होती तो अवश्य ही मनुष्यों का इतना बड़ा संहार नहीं होने पाता। मित्र ! जयद्रथ अपनी जीवनरक्षा के लिये घर जाने को तैयार था; किन्तु मुझ अधम ने ही द्रोण से अभय पाकर उसे रोक लिया। आज के युद्ध में चित्रसेन आदि मेरे भाई भी हमलोगों के देखते_देखते भीमसेन के हाथ से मारे गये।कर्ण ने कहा___भाई ! तुम आचार्य की निंदा न करो; वे तो अपने बल, शक्ति और उत्साह के अनुसार प्राणों की भी परवाह न करके युद्ध करते ही हैं। अर्जुन द्रोण का उल्लंघन करके सेना में घुस गये थे, इसलिये  इसमें उसका कोई दोष मैं नहीं देखता। मैंने भी उस रणांगण में तुम्हारे साथ रहकर बहुत प्रयत्न किया, तथापि सिंधुराज मारा गया; इसलिये इसमें प्रारब्ध को ही प्रधान समझो। मनुष्य को उद्योगशील होकर सदा निःशंक भाव से अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये, सिद्धि तो दैव के ही अधीन है। हमलोगों ने कपट करके पाण्डवों को छला, उन्हें मारने को बिष दिया, लाक्षागृह  में जलाया, जूए में हराया और राजनीति का सहारा लेकर उन्हें वन में भी भेजा। इस प्रकार प्रयत्न करके हमने उनके प्रतिकूल जो कुछ किया, उसे प्रारब्ध ने व्यर्थ कर दिया। फिर भी दैव को निरर्थक समझकर तुम प्रयत्नपूर्वक युद्ध ही करते रहे।राजन् !  इस प्रकार कर्ण और दुर्योधन बहुत_सी बातें कर रहे थे, इतने में ही रणभूमि में उन्हें पाण्डवों की सेना दिखायी दी। फिर तो आपके पुत्रों का शत्रुओं के साथ घमासान युद्ध छिड़ गया।


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