Thursday 12 September 2019

कौरव_सेना का संहार, सोमदत्त का वध, युधिष्ठिर का पराक्रम और दोनों सेनाओं में दीपक का प्रकाश


संजय कहते हैं___तदनन्तर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर और भीमसेन ने अश्त्थामा को घेर लिया। इतने में राजा दुर्योधन द्रोणाचार्य के साथ पाण्डवों पर चढ़ आया, फिर उनमें भयंकर युद्ध होने लगा। उस समय भीमसेन ने कुपित होकर अम्बष्ठ, मालवा, बंगाल, शिबि तथा त्रिगर्त देश के वीरों को यमलोक भेज दिया। फिर अभिषाह, शूरसेन तथा अन्यान्य रणोन्मत्त क्षत्रियों का वध करके उनके खून से पृथ्वी को भिगोकर कीचड़मयी कर दिया। दूसरी ओर अर्जुन ने भी मद्र, मालवा तथा पर्वतीय प्रदेश के योद्धाओं को अपने तीक्ष्ण बाणों से मौत के घाट उतारा; इधर द्रोणाचार्य भी क्रोध में भरकर वायव्यास्त्र से पाण्डव_योद्धाओं का संहार करने लगे। उनकी मार से पीड़ित होकर पांचालवीर अर्जुन और भीम के सामने ही भागने लगे। यह देख वे दोनों भाई सहसा द्रोण पर चढ़ आये। अर्जुन दक्षिण बगल में थे और भीमसेन उत्तर में। दोनों ही आचार्य द्रोण पर बड़ी भारी बाणवर्षा करने लगे। यह देखकर सृंजय, पांचाल, मत्स्य और सोमक क्षत्रिय उन दोनों की सहायता में आ पहुँचे।
इसी प्रकार आपके पुत्र के महारथी योद्धा भी बहुत बड़ी सेना के साथ द्रोणाचार्य के रथ के सामने आ गये। कौरवसेना पर पुनः अर्जुन की मार पड़ने लगी। एक तो अंधेरे के कारण कुछ सूझता नहीं था, दूसरे नींद से सब लोग व्याकुल थे; इस कारण आपकी सेना का भयंकर संहार हो रहा था। बहुतसे राजालोग अपने वाहनों को वहीं छोड़ चारों ओर भाग गये। दूसरी ओर जब सात्यकि ने देखा कि सोमदत्त अपना महान् धनुष टंकार रहे हैं तो उसने सारथि से कहा___’ सूत ! मुझे सोमदत्त के पास ले चल। अपने बलवान् शत्रु सोमदत्त को मारे बिना अब मैं युद्ध से नहीं लौटूँगा।‘ यह सुनकर सारथि ने घोड़े बढ़ाये और सात्यकि को सोमदत्त के पास पहुँचा दिया। उसे आते देख सोमदत्त भी उसका सामना करने को आगे बढ़े। उन्होंने सात्यकि की छाती में साठ बाण मारकर उसे घायल कर दिया; फिर सात्यकि ने भी तीक्ष्ण सायकों से सोमदत्त को बींध डाला। दोनों ही दोनों के बाणों से क्षत_विक्षत  एवं लोहूलुहान हो खिले हुए टेसू के वृक्ष के समान शोभा पाने लगे। इतने में ही महारथी सोमदत्त ने अर्धचन्द्राकार बाण मारकर सात्यकि के महान् धनुष को काट दिया। फिर उसे पच्चीस बाणों से घायल करके शीघ्रतापूर्वक दस बाण और मारे। तबतक सात्यकि ने दूसरा धनुष लेकर तुरंत ही सोमदत्त को पाँच बाणों से बिंध डाला। फिर उसने मुस्कराते हुए एक भल्ल मारकर उसकी सोने की ध्वजा काट दी। तब सोमदत्त ने पुनः सात्यकि को पच्चीस बाण मारे। इससे सात्यकि कुपित हो उठा और उसने एक तीखे क्षुरप्र से सोमदत्त का धनुष काट डाला। महारथी सोमदत्त ने भी दूसरा धनुष लेकर सायकों की वर्षा से सात्यकि को आच्छादित कर दिया। तब सात्यकि की ओर से भीमसेन ने भी सोमदत्त पर दस बाणों का प्रहार किया और सोमदत्त ने भी भीम को तीखे बाणों से घायल किया। इसके बाद भीमसेन ने सोमदत्त की छाती में एक परिघ का वार किया, किन्तु सोमदत्त ने हँसते हुए उसके दो टुकड़े कर डाले। तदनन्तर सात्यकि ने चार बाण मारकर उनके चारों,घोड़ों को प्रेतराज के समीप भेज दिया। फिर एक भल्ल से सारथि का सिर धड़ से अलग कर दिया। इसके पश्चात् सात्यकि ने प्रज्वलित अग्नि के समान एक भयंकर बाण छोडा; वह सोमदत्त की छाती में धँस गया और वे रथ से गिरकर मर गये।
सोमदत्त को मारा गया देख कौरव महारथी बाणों की बौछार करते हुए सात्यकि पर टूट पड़े। यह देखकर राजा युधिष्ठिर अन्य पाण्डव वीरों के  साथ बहुत बड़ी सेना लिये द्रोणाचार्य के सैन्य की ओर बढ़ने आये। उन्होंने आचार्य के देखते_देखते सायकों की मार से आपकी सेना को भगा दिया। यह देख आचार्य क्रोध से लाल आँखें किये युधिष्ठिर पर टूट पड़े और उनकी छाती पर उन्होंने सात बाण मारे।  तब युधिष्ठिर ने भी पाँच बाणों से द्रोणाचार्य को बिंध डाला। उसके बाद आचार्य ने युधिष्ठिर की ध्वजा और धनुष को काट दिया।
युधिष्ठिर ने दूसरा धनुष हाथ में लिया और घोड़े, सारथि, ध्वजा एवं रथसहित आचार्य द्रोण पर लगातार एक हजार बाणों की वर्षा की। यह एक अद्भुत बात हुई। उनके बाणों के आघात से पीड़ित एवं व्यथित होकर आचार्य दो घड़ी तक रथ की बैठक में मूर्छित भाव से पड़े रहे; फिर जब होश हुआ तो बड़े क्रोध में आकर युधिष्ठिर पर वायव्यास्त्र का प्रयोग किया। किन्तु युधिष्ठिर इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपने अस्त्र से आचार्य के अस्त्र को शान्त कर दिया और उनके धनुष को भी काट डाला। द्रोण ने दूसरा धनुष उठाया, किन्तु युधिष्ठिर ने एक तीक्ष्ण भल्ल मारकर उसे भी काट दिया। इस बीच में भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर ये कहा___’महाबाहो ! मैं आपसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनिये। द्रोणाचार्य से युद्ध न कीजिये। मैं आपसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनिये। द्रोणाचार्य से युद्ध न कीजिये। वे युद्ध में सदा आपको पकड़ने का उद्योग करते हैं, अतः उनके साथ युद्ध होना मैं उचित नहीं समझता। जो इनका नाश करने के लिये ही उत्पन्न हुआ है, वह धृष्टधुम्न ही इनका वध करेगा। आप गुरु से युद्ध करना छोड़ जहाँ राजा दुर्योधन है, वहाँ जाइये। राजा को राजा के साथ ही लड़ाई करनी चाहिये। अतः आप हाथी, घोड़े और रथ की सेना लेकर वहाँ जाइये, जहाँ मेरी सहायता से भीमसेन और अर्जुन कौरवों से युद्ध कर रहे हैं।‘ भगवान् की बात सुनकर धर्मराज ने थोड़ी देर तक मन_ही_मन विचार किया; फिर तुरंत ही जहाँ भीमसेन थे, उधर को चल दिये। इधर द्रोण भी उस रात में पाण्डवों और पांचालों की सेना का संहार करने लगे।
धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! पाण्डवों ने जब हमारी सेना का मन्थन कर डाला, सभी सैनिकों के तेज क्षीण कर दिये और सब लोग उस घोर अन्धकार में डूब रहे थे, उस समय तुमलोगों ने क्या सोचा ? दोनों सेनाओं को प्रकाश कैसे मिला ? संजय ने कहा___ महाराज ! दुर्योधन ने सेनापति को आज्ञा देकर जो सेना मरने से बच गयी थी, उसे व्यूहाकार में खड़ी करवाया। उसमें सबसे आगे थे द्रोण और पीछे थे शल्य, अश्त्थामा, कृतवर्मा तथा शकुनि और स्वयं राजा दुर्योधन चारों ओर घूमकर उस रात्रि में सेना की रक्षा कर रहा था। उसने पैदल सैनिकों को आज्ञा दी कि ‘तुमलोग हथियार रख दो और अपने हाथों में जलती हुई मशालें उठा लो।‘  सैनिकों ने प्रसन्नतापूर्वक इस आज्ञा का पालन किया। कौरवों ने प्रत्येक रथ के पास पाँच, हर एक हाथी के पास तीन और एक_एक घोड़े के पास एक_एक प्रदीप रखा। पैदल सिपाही हाथ में तेल और मशाल लेकर दीपकों को जलाया करते थे। इस प्रकार क्षणभर में ही आपकी सेना में उजाला हो गया। हमारी सेना को इस प्रकार दीपकों के प्रकाश से जगमगाते देख पाण्डवों ने भी अपने पैदल सैनिकों को प्रकाश से जगमगाते देख पाण्डवों ने भी अपने पैदल सैनिकों को तुरंत ही दीप जलाने की आज्ञा दी। उन्होंने प्रत्येक रथ के आगे दस_दस और प्रत्येक हाथी के सामने सात_सात दीपकों का प्रबंध किया। दो दीपक घोड़ों की पीठ पर, दो बगल में, एक रथ की ध्वजा पर और दो रथ के पिछले भाग में जलाये गये थे। इसी प्रकार संपूर्ण सेना के आगे पीछे और अगल_बगल में तथा बीच_ बीच में पैदल सैनिक जलती हुई मशालें हाथ में लेकर घूमते रहते थे। यह प्रबंध दोनों ही सेनाओं में था। दोनों ओर के दीपकों का प्रकाश पृथ्वी, आकाश और संपूर्ण दिशाओं में फैल गया। स्वर्ग तक फैले हुए उस महान् आलोक से युद्ध की सूचना पाकर देवता, गन्धर्व, यक्ष, सिद्ध और अप्सराएँ भी वहाँ आ पहुँचीं। इधर युद्ध में मरे हुए वीर सीधे स्वर्ग की ओर चढ़ रहे थे। इस प्रकार स्वर्गवासियों के आने_जाने से वह रणभूमि देवलोक के समान जान पड़ती थी।

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