Monday, 7 December 2020

उलूक, युयुत्सु, श्रुतकर्मा_शतानीक, शकुनि_सतसोम और शिखण्डी_कृतवर्मा में द्वन्दयुद्ध; अर्जुन के द्वारा अनेकों वीरों का संहार तथा दोनों ओर की सेनाओं में घमासान युद्ध


संजय ने कहा_राजन् ! एक ओर आपका पुत्र युयुत्सु कौरवों की भारी सेना को खदेड़ रहा था। यह देखकर उलूक बड़ी फुर्ती से उसके सामने आया। उसने क्रोध में भरकर एक क्षुरप्र से  युयुत्सु का धनुष काट डाला और उसे भी घायल कर दिया। युयुत्सु ने तुरंत ही दूसरा धनुष उठाया और साठ बाणों से उलूक और तीन से उसके सारथि पर वार करके फिर उसे अनेकों बाणों से बींध डाला। इसपर उलूक ने युयुत्सु को बीस बाणो से घायल करके उसकी ध्वजा को काट डाला, एक भल्ल से उसके सारथि का सिर उड़ा दिया, चारों घोड़ों को धराशायी कर दिया और फिर पाँच बाणों से उसे भी बींध डाला। महाबली उलूक के प्रहार से युयुत्सु बहुत ही घायल हो गया और एक दूसरे रथ पर चढ़कर तुरंत ही वहाँ से भाग गया। इस प्रकार युयुत्सु को परास्त करके उलूक झटपट पांचाल और सृंजय वीरों की ओर चला गया।
दूसरी ओर आपके पुत्र श्रुतकर्मा ने शतानीक के रथ, सारथि और घोड़ों को नष्ट कर दिया। तब महारथी शतानीक ने क्रोध में भरकर उस अश्वहीन रथमें से ही आपके पुत्र पर एक गदा फेंकी। वह उसके रथ, सारथि और घोड़ों को भष्म करके पृथ्वी पर जा पड़ी। इस प्रकार ये दोनों ही वीर रथहीन होकर एक_दूसरे की ओर देखते हुए रणांगण से खिसक गये। इसी समय शकुनि ने अत्यन्त पैने बाणों से सुतसोम को घायल किया। किन्तु इससे वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उसने अपने पिता के परम शत्रु को सामने देखकर उसे हजारों बाणों से आच्छादित कर दिया। किन्तु शकुनि ने दूसरे बाण छोड़कर उसके सभी तीरों को काट डाला। इसके बाद उसने सुतसोम के सारथि, ध्वजा और घोड़ों को भी तिल_ तिल करके काट डाला। तब सुतसोम अपना श्रेष्ठ धनुष लेकर रथ से कूदकर पृथ्वी पर कूद गया और बाणों की वर्षा करके अपने साले के रथ को आच्छादित करने लगा। किन्तु शकुनि ने अपने बाणों की बौछार से उन सब बाणों को नष्ट कर दिषा। फिर अनेकों तीखे तीरों से उसने सुतसोम के धनुष और तरकसों को भी काट डाला।
अब सुतसोम एक तलवार लेकर भ्रान्त, ं, आविद्ध, आपुल्त, पुल्त, सृत, सम्पात और समुदीर्ण आदि चौदह गतियों से उसे सब ओर घुमाने लगा। इस समय उसपर जो बाण छोड़ा जाता था, उसे ही वह तलवार से काट डालता था। इसपर शकुनि ने अत्यन्त कुपित होकर उसपर सर्पों के समान विषैले बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। परन्तु सुतसोम ने अपने शस्त्रकौशल और पराक्रम से उन सबको काट डाला। इसी समय शकुनि ने एक पैने बाण से उसकी तलवार के दो टुकड़े कर दिये। सुतसोम ने अपने हाथ में रहे हुए तलवार के आधे भाग को ही शकुनि पर खींचकर मारा। वह उसके धनुष और धनुष की डोरी को काटकर पृथ्वी पर जा पड़ा। इसके बाद वह फुर्ती से श्रुतकीर्ति के रथ पर चढ़ गया तथा शकुनि भी एक दूसरा भयानक धनुष लेकर अनेकों शत्रुओं का संहार करता हुआ दूसरे स्थान पर पाण्डवों की सेना के साथ संग्राम करने लगा। दूसरी ओर शिखण्डी कृतवर्मा से भिड़ा हुआ था। उसने उसकी हँसली में पाँच तीक्ष्ण बाण मारे। इसपर महारथी कृतवर्मा ने क्रोध में भरकर उसपर साठ बाण छोड़े और फिर हँसते_हँसते एक बाण से उसका धनुष काट डाला। महाबली शिखण्डी ने तुरत ही दूसरा धनुष ले लिया और उससे कृतवर्मा पर अत्यन्त तीक्ष्ण नब्बे बाण छोड़े। वे उसके कवच से टकराकर नीचे गिर गये। तब उसने एक पैने बाण से कृतवर्मा का  धनुष काट डाला तथा उसकी छाती और भुजाओं पर अस्सी बाण छोड़े। इससे उसके सब अंगों से रुधिर बहने लगा। अब कृतवर्मा ने दूसरा धनुष उठाया और अनेकों तीखे बाणों से शिखण्डी के कंधों पर प्रहार किया। इस प्रकार वे दोनों वीर एक_दूसरे घायल करके लहूलुहान हो रहे थे तथा दोनो ही एक_दूसरे के प्राण लेने पर तुले हुए थे। इसी समय कृतवर्मा ने शिखण्डी का प्राणान्त करने के लिये एक भयंकर बाण छोड़ा। उसकी चोट से वह तत्काल मूर्छित हो गया और बिह्वल होकर अपनी ध्वजा के डंडे के सहारे बैठ गया। यह देखकर उसका सारथि तुरंत ही रणभूमि से हटा ले गया। इससे पाण्डवों की सेना ते पैर उखड़ गये और वह इधर_उधर भागने लगी। महाराज ! इसी समय अर्जुन आपकी सेना का संहार कर रहे थे। आपकी ओर से त्रृगर्त, शिबि, कौरव, शाल्व, संशप्तक और नारायणी सेना के वीर उससे टक्कर ले रहे थे। सत्यसेन, चन्द्रदेव, मित्रदेव, सतंजय, सौश्रुति, चित्रसेन, मित्रवर्मा और भाइयों से घिरा हुआ त्रिगर्तराज_ये सभी वीर संग्रामभूमि में अर्जुन पर तरह_ तरह के बाणसमूहों की वर्षा कर रहे थे।
योद्धालोग अर्जुन से सैकड़ों और हजारों की संख्या में टक्कर लेकर लुप्त हो जाते थे। इसी समय उनपर सत्यसेन ने तीन, मित्रदेव ने तिरसठ, चन्द्रदेव ने सात, शत्रुंजय ने बीस और सुशर्मा ने नौ बाण छोड़े। इस प्रकार संग्रामभूमि में अनेकों योद्धाओं के बाणों से से बिंधकर अर्जुन के बदले में उन सभी राजाओं को घायल कर दिया।
उन्होंने सात बाणों से सौश्रुति को, तीन से सत्यसेन को, बीस से शत्रुंजय को, आठ से चन्द्रदेव को, सौ से मित्रदेव को, तीन से श्रुतसेन को, नौ से मित्रवर्मा को और आठ से सुशर्मा को बींधकर अनेकों तीखे बाणों से शत्रुंजय को मार डाला, सौश्रुति का सिर धड़ से अलग कर दिया, इसके बाद फौरन ही चन्द्रदेव को अपने बाणों से यमराज के घर भेज दिया और फिर पाँच_पाँच बाणों से दूसरे महारथियों को आगे बढ़ने से रोक दिया। इसी समय सत्यसेन ने क्रोध में भरकर श्रीकृष्ण पर एक विशाल तोमर फेंका और बड़ी भीषण गर्जना की। वह तोमर उनकी दायीं भुजा को घायल करके पृथ्वी पर जा पड़ा। इस प्रकार श्रीकृष्ण को घायल हुआ देख महारथी अर्जुन ने अपने तीखे बाणों से सत्यसेन की गति रोककर फिर उसका कुण्डलमण्डित मस्तक धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद उन्होंने अपने पैने बाणों से मित्रवर्मा पर आक्रमण किया तथा एक तीखे वत्सदन्त से उसके सारथि पर चोट की। फिर महाबली अर्जुन ने सैकड़ों बाणों से संशप्तकों पर वार किया और उनमें से सैकड़ों हजारों वीरों को धराशायी कर दिया। उन्होंने एक क्षुरप्र से मित्रसेन का मस्तक उड़ा दिया और सुशर्मा की हँसली पर चोट की। इसपर सारे संशप्तक वीर उन्हें चारों ओर से घेरकर तरह_तरह के शस्त्रों से पीड़ित करने लगे। अब महारथी अर्जुन ने ऐन्द्रास्त्र प्रकट किया। उसमें से हजारों बाण निकलने लगे, जिनकी चोट से अनेकों राजकुमार, क्षत्रिय वीर और हाथी_घोड़े पृथ्वी पर लोट_पोट हो गये। इस प्रकार जब धनुर्धर धनंजय संशप्तकों का संहार करने लगे तो उनके पैर उखड़ गये। उनमें से अधिकांश वीर पीठ दिखाकर भाग गये। इस प्रकार वीरवर अर्जुन ने उन्हें रणांगण में परास्त कर दिया। राजन् ! दूसरी ओर महाराज युधिष्ठिर बाणों की वर्षा कर रहे थे। उनका सामना स्वयं राजा दुर्योधन ने किया। धर्मराज ने उसे देखते ही बाणों से बींध डाला। इसपर दुर्योधन ने नौ बाणों से युधिष्ठिर पर और एक भल्ल से उसके सारथि पर चोट की। तब तो धर्मराज ने दुर्योधन पर तेरह बाण छोड़े। उनमें से चार से उसके चारों घोड़ों को मारकर पाँचवें से सारथि का सिर उड़ा दिया, छठे से उसकी ध्वजा काट डाली, सातवें से उसके धनुष के टुकड़े टुकड़े कर दिये, आठवें से तलवार काटकर पृथ्वी पर गिरा दी और शेष पाँच बाणों से स्वयं दुर्योधन को पीड़ित कर डाला। अब आपका पुत्र उस अश्वहीन रथ से कूद पड़ा। दुर्योधन को इस प्रकार विपत्ति में पड़ा देखकर कर्ण, अश्त्थामा और कृपाचार्य आदि योद्धा उसकी रक्षा के लिये आ गये। इसी प्रकार सब पाण्डवलोग भी महाराज युधिष्ठिर को देखकर संग्राम_भूमि में बढ़ने लगे। बस, अब दोनों ओर से खूब संग्राम होने लगा। दोनों ही पक्ष के वीर वीरधर्म के अनुसार एक_दूसरे पर प्रहार करते थे; जो कोई पीठ दिखाता था, उसपर कोई चोट नहीं करता था। राजन् ! इस समय योद्धाओं में बड़ी मुक्का_मुक्की और हाथा_पाई हुई। वे एक_दूसरे के केश पकड़कर खींचने लगे। युद्ध का जोर यहाँ तक बढ़ा कि अपने_पराये का ज्ञान भी लुप्त हो गया। इस प्रकार जब घमासान युद्ध होने लगा तो योद्धालोग तरह_तरह के शस्त्रों से अनेक प्रकार के एक_दूसरे के प्राण लेने लगे। रणभूमि में सैकड़ों_हजारों कबन्ध खड़े हो गये। उनके शस्त्र और कवच खून में लथपथ हो रहे थे। इस समय योद्धाओं को यद्यपि अपने_पराये का ज्ञान नहीं रहा था, तो भी वे युद्ध को अपना कर्तव्य समझकर विजय की लालसा से बराबर जूझ रहे थे। उनके सामने अपना_पराया_ जो भी आता, उसी का वे सफाया कर डालते थे। संग्रामभूमि में दोनों ओर के वीरों से खलबला_सी रही थी तथा टूटे हुए रथ और मारे हुए हाथी, घोड़े एवं योद्धाओं के कारण अगम्य_सी हो रही थी। वहाँ क्षण में खून की नदी बहने लगती थी। कर्ण पांचालों का, अर्जुन त्रिगर्तों का और भीमसेन कौरव तथा गजारोही सेना का संहार कर रहे थे। इस प्रकार तीसरे पहर तक यह कौरव और पाण्डव सेनाओं का भीषण संहार चलता रहा।

अंगराज का वध, सहदेव के द्वारा दुःशासन की तथा कर्ण के द्वारा नकुल की पराजय और कर्ण द्वारा पांचालों का संहार

संजय कहते हैं_महाराज ! आपके पुत्र की आज्ञा से बड़े_बड़े हाथीसवार हाथियों के साथ ही क्रोध में भरकर धृष्टधुम्न को मार डालने की इच्छा से उसकी ओर बढ़े। पूर्व और दक्षिण देश के रहनेवाले गजयुद्ध में कुशल जो प्रधान_ प्रधान वीर थे, वे सभी उपस्थित थे। इसके सिवा अंग, बंग, पुण्ड्र, मगध, मेकल, कोसल, मद्र, दशार्ण, निषध और कलिंगदेशीय योद्धा भी, जो हस्तियुद्ध में निपुण थे, वहाँ आए। वे सब लोग पांचालों की सेना पर बाण, तोमर और नाराचों की वर्षा करते हुए आगे बढ़े। उन्हें आते देख धृष्टधुम्न उनके हाथियों पर नाराचों की वर्षा करने लगा। प्रत्येक हाथी को उसने दस_दस, छः_छः और आठ_आठ  बाणों से मारकर घायल कर दिया।उस समय धृष्टधुम्न को हाथियों की सेना से घिर गया देख पाण्डव और पांचाल योद्धा तेज किये हुए अस्त्र_शस्त्र लेकर गर्जना करते हुए वहाँ आ पहुँचे और उन हाथियों पर बाणों की बौछार करने लगे। नकुल, सहदेव, द्रौपदी के पुत्र, प्रभद्रक, सात्यकि, शिखण्डी तथा चेकितान_ ये सभी वीर चारों ओर से बाणों की झड़ी लगाने लगे। 
तब म्लेच्छों ने अपने हाथियों को शत्रुओं की ओर प्रेरित किया। वे हाथी अत्यन्त क्रोध में भरे हुए थे; इसलिये रथों, घोड़ों और मनुष्यों को सूड़ों से खींचकर पटक देते और पैरों से दबाकर कुचल डालते थे। कितने ही योद्धाओं को उन्होंने दाँतों की नोक से चीर डाला और कितनों को सूँड़ में लपेटकर ऊपर फेंक दिया।
दाँतों से कुचले हुए जो लोग जमीन पर गिरते थे, उनकी सूरत बड़ी भयानक  हो जाती थी। 
इसी समय अंगराज के हाथी का सात्यकि से सामना हुआ। सात्यकि ने भयंकर वेगवाले नाराच से हाथी के मर्मस्थानों को बींध डाला। हाथी वेदना से मूर्छित होकर गिर पड़ा। अंगराज  उसकी ओट में अपने शरीर को छिपाये बैठा थ, अब वह हाथी से कूदना ही चाहता था कि सात्यकि ने उसकी छाती पर नाराच से प्रहार किया। चोट को न सँभाल सकने के कारण वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।
इसके बाद नकुल ने यमदण्ड के समान तीन नाराच हाथ में लिये और उनके प्रहार से अंगराज से पीड़ित करके फिर सौ बाणों से उसके हाथी को भी घायल किया। तब अंगराज ने नकुल पर एक सौ आठ तोमरों का प्रहार किया, किन्तु उसने प्रत्येक तोमर के तीन_तीन टुकड़े कर डाले और एक अर्धचन्द्राकार बाण मारकर उसके मस्तक को भी काट लिया। फिर तो वह म्लेच्छराज हाथी के साथ ही भूमि पर गिर पड़ा। इस प्रकार अंगदेशीय राजकुमार के मारे जाने पर वहाँ के महावत क्रोध में भर गये और हाथियोंसहित नकुल पर चढ़ गये। उनके साथ ही मेकल, उत्कल, कलिंग, निषध और ताम्रलिप्त आदि देशों के योद्धा भी नकुल को मार डालने की इच्छा से उसपर बाणों और तोमरों की वर्षा करने लगे।
 उन सबके अस्त्रों की बौछार से नकुल को ढ़क गया देख पाण्डव, पांचाल और सोमक क्षत्रिय बड़े क्रोध में भरकर वहाँ आ पहुँचे। फिर तो पाण्डवपक्ष के रथी वीरों का उन हाथियों के साथ घोर युद्ध होने लगा। उन्होंने बाणों की झड़ी लगा दी और हजारों तोमरों का वार किया। 
उनकी मार से हाथियों के कुम्भस्थल फूट गये, मर्मस्थानों में घाव हो गया, दाँत टूट गये और उनकी सारी सजावट बिगड़ गयी। उनमें से आठ बड़े_बड़े गजराजों का सहदेव ने चौंसठ बाण मारे, जिनकी चोट से पीड़ित हो वे हाथी अपने सवारोंसहित गिरकर मर गये। महाराज ! सहदेव जब क्रोध में भरकर आपकी सेना को भष्मसात् कर रहा था, उसी समय दुःशासन उसके मुकाबले में आ गया। आते ही उसने सहदेव की छाती में तीन बाण मारे। तब सहदेव ने सत्तर नाराचों से दुःशासन को तथा तीन से उसके सारथि को बींध डाला। यह देख दुःशासन ने सहदेव का धनुष काटकर उसकी छाती और भुजाओं में तिहत्तर बाण मारे। अब तो सहदेव के क्रोध की सीमा न रही, उसने बड़ी फुर्ती से दुःशासनके रथ पर तलवार का वार किया। वह तलवार प्रत्यंचासहित उसके धनुष को काटकर जमीन पर गिर पड़ी। फिर सहदेव ने दूसरा धनुष लेकर दुःशासन पर प्राणान्तकारी बाण छोड़ा, किन्तु उसने तीखी धारवाली तलवार से उसके दो टुकड़े कर डाले और सहदेव को घायल करके उसके सारथि को भी नौ बाण मारे। इससे सहदेव का क्रोध बहुत बढ़ गया और और उसने काल के समान विकराल बाण हाथ में लेकर उसे आपके पुत्र पर चला दिया। वह बाण दुःशासन का कवच छेदकर शरीर को विदीर्ण करता हुआ जमीन में घुस गया। इससे आपका पुत्र बेहोश हो गया। यह देख सारथि तीखे बाणों की मार सहता हुआ रथ को रणभूमि से दूर हटा ले गया। इस प्रकार दुःशासन को परास्त करके सहदेव ने दुर्योधन की सेना पर दृष्टि डाली और उसका सब ओर से संहार आरंभ कर दिया। दूसरी ओर नकुल भी कौरव_सेना को पीछे भगा रहा था। यह देख कर्ण क्रोध में भरा हुआ वहाँ आया और नकुल को रोककर सामना करने लगा। उसने नकुल का धनुष काटकर उसे तीस बाणों से घायल किया। तब नकुल ने दूसरा धनुष लेकर कर्ण को सत्तर और उसके सारथि को तीन बाण मारे। फिर एक क्षुरप्र से कर्ण के धनुष को काटकर उसपर तीन सौ बाणों का प्रहार किया।
नकुल के द्वारा कर्ण को इस तरह पीड़ित होते देख सभी रथियों को बड़ा आश्चर्य हुआ; देवता भी अत्यन्त विस्मित हो गये। तदनन्तर कर्ण ने दूसरा धनुष उठाया और नकुल के भी सात बाणों से कर्ण को बींधकर उसके धनुष का एक किनारा काट दिया। कर्ण ने पुनः दूसरा धनुष लिया और नकुल के चारों ओर की दिशाएँ बाणों से आच्छादित कर दीं। किन्तु महारथी नकुल ने कर्ण के छोड़े हुए उन सभी बाणों को काट डाला।
उस समय सायकसमूहों से भरा हुआ आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो उसमें टिड्डियाँ छा रही हो। उन दोनों के बाणों से आकाश का मार्ग रुक गया था, अन्तरिक्ष की कोई भी वस्तु उस समय जमीन पर नहीं पड़ती थी। उन दोनों महारथियों के दिव्य बाणों से जब दोनों ओर की सेनाएँ नष्ट होने लगीं तो सभी योद्धा उनके बाणों के गिरने के स्थान से दूर हट गये और दर्शकों की भाँति तमाशा देखने लगे। जब सब लोग वहाँ से दूर हो गये तो दोनों महारथी परस्पर बाणों की बौछार से एक_दूसरे को चोट पहुँचाने लगे। कर्ण ने हँसते_हँसते उस युद्ध में बाणों का जाल_सा फैला दिया, उसने सैकड़ों और हजारों बाणों का प्रहार किया। जैसे बादलों की घटा घिर आने पर उसकी छाया से अन्धकार_सा हो जाता है, वैसे ही कर्ण के बाणों से अंधेरा_सा छा गया। इसके बाद कर्ण ने नकुल का धनुष काट दिया और मुस्कराते हुए उसके सारथि को भी रथ से मार गिराया। फिर तेज किये हुए चार बाणों ले उसके चारों घोड़ों को तुरत यमलोक भेज दिया। तत्पश्चात् अपने बाणों की मार से उसने नकुल के दिव्य रथ के तिल के समान टुकड़े करके उसकी धज्जियाँ उड़ा दीं। पहियों के रक्षकों को मारकर ध्वजा, पताका, गदा, तलवार, ढ़ाल तथा अन्य सामग्रियों को भी नष्ट कर दिया। रथ घोड़े और कवच से रहित हो जाने पर नकुल ने एक भयानक परिघ उठाया, किंतु कर्ण ने तीखे बाणों से उनके भी टुकड़े_टुकड़े कर डाले। उस समय उसकी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयीं और वह सहसा रणभूमि छोड़कर भाग खड़ा हुआ। कर्ण ने हँसते हँसते उसका पीछा किया और उसके गले में अपना धनुष डाल दिया। फिर वह कहने लगा, ‘पाण्डुनन्दन ! अब बलवानों के साथ युद्ध करने का साहस न करना। जो तुम्हारे समान हों, उन्हीं से भिड़ने का हौसला करना चाहिए। माद्रीकुमार ! हार गये तो क्या हुआ? लजाओ मत । जाओ घर में जाकर छिप रहो अथवा जहाँ श्रीकृष्ण तथा अर्जुन हों वहीं चले जाओ। यह कहकर कर्ण ने नकुल को छोड़ दिया। यद्यपि उस समय कर्ण के लिये नकुल का मारना सहज था, तो भी कुन्ती को दिये हुए वचन याद करके उसने उसे जीवित ही छोड़ दिया; क्योंकि कर्ण धर्म का ज्ञाता था। नकुल को इस पराजय से बड़ा दुःख हुआ। वह उचछ्वास लेता हुआ अत्यन्त संकोच के साथ जाकर युधिष्ठिर के रथ में बैठ गया। इतने में सूर्यदेव आकाश मे मध्यभाग में आ गये। उस दुपहरी में सूतपुत्र कर्ण चारों ओर चक्र के समान घूमता हुआ पांचालों का संहार करने लगा। शत्रुओं के रथ टूट गये, ध्वजा पताकाएँ कट गयीं, घोड़े और सारथि मारे गये तथा बहुतों के रथ के धुरे खण्डित हो गये।
कुछ ही देर में पांचालसेना के रथी भागते देखे गये। हाथियों के शरीर खून से लथपथ हो गये। वे उन्मत्त की भाँति इधर_उधर भागने लगे।
ऐसा जान पड़ता था, मानो वे किसी बड़े भारी जंगल में जाकर दावानल से दग्ध हो गये हैं। उस समय हमें सब ओर कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाणों से कटे अनेकों सिर, भुजा और जंघाएँ दिखायी देती थीं। संग्रामभूमि में सृंजयवीरों पर कर्ण की बड़ी भीषण मार पड़ रही थी, तो भी पतंग जैसे अग्नि पर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार कर्ण की ओर ही बढ़ते जा रहे थे। महारथी कर्ण जहाँ_तहाँ पाण्डव_सेनाओं को भष्म कर रहा था; अतः क्षत्रियलोग उसे प्रलयकालीन अग्नि के समान समझकर उसके आने से भागने लगे। पांचालवीरों में से भी जो योद्धा मरने से बचे थे, वे सब मैदान छोड़कर भाग गये। 

अर्जुन के द्वारा संशप्तकों तथा अश्त्थामा के हाथ से राजा पाण्ड्य का वध

संजय कहते हैं_महाराज ! अर्जुन ने मंगल ग्रह की भाँति वक्र और अतिवक्र  गति से चलकर बहुसंख्यक संशप्तकों का नाश कर डाला।
अनेकों पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथी अर्जुन के बाणों की मार से अपना धैर्य खो बैठे, कितने ही चक्कर काटने लगे। कुछ भाग गये और बहुत_से गिरकर मर गये। उन्होंने भल्ल, क्षुर, अर्धचन्द्र तथा वत्सदन्त आदि अस्त्रों से अपने शत्रुओं के घोड़े, सारथी, ध्वजा, धनुष, बाण, हाथ, हाथ के हथियार, भुजाएँ और मस्तक काट गिराये।
इसी बीच में उपायुध के पुत्र ने तीन बाणों से अर्जुन को बींध दिया। यह देख अर्जुन ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। उस समय उपायुध के समस्त सैनिक क्रोध में भरकर अर्जुन पर नाना प्रकार के अस्त्र_शस्त्रों की वर्षा करने लगे। परन्तु अर्जुन ने अपने अस्त्रों से शत्रुओं की अस्त्रवर्षा रोक दी और सायकों की झड़ी लगाकर बहुतों_से शत्रुओं का वध कर डाला। उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा_’अर्जुन ! तुम खिलवाड़ क्यों कर रहे हो ? इन संसप्तकों का अंत करके अब कर्ण का वध करने के लिये शीघ्र तैयार हो जाओ।‘ ‘अच्छा ! ऐसा ही करता हूँ’_यह कहकर अर्जुन ने शेष संशप्तकों का संहार आरंभ किया। अर्जुन इतनी शीघ्रता से बाण हाथ में लेते, संधान करते और छोड़ते थे कि बहुत सावधानी से देखनेवाले भी उनकी इन सब बातों को देख नहीं पाते थे। अर्जुन का हस्तलाघव देखकर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण भी आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने अर्जुन से कहा_’पार्थ ! इस पृथ्वी पर दुर्योधन के कारण राजाओं का यह महासंहार हो रहा है। आज तुमने जो पराक्रम किया है वैसा स्वर्ग में केवल इन्द्र ने ही किया था।‘ इस प्रकार बातें करते हुए श्रीकृष्ण तथा अर्जुन चले जा रहे थे, इतने में ही उन्हें दुर्योधन की सेना के पास शंख, दुंदुभी और भेरी आदि पणव आदि बाजों की आवाज सुनाई दी।
तब श्रीकृष्ण ने घोड़ों को बढ़ाया और वहाँ पहुँचकर देखा कि राजा पाण्ड्य के द्वारा दुर्योधन की सेना का विकट विध्धवंस हुआ है। यह देख उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। राजा पाण्ड्य अस्त्रविद्या तथा धनुर्विद्या में प्रवीण थे। उन्होंने अनेकों प्रकार के बाण मारकर शत्रु समुदाय का नाश कर डाला था। शत्रुओं के प्रधान_प्रधान वीरों ने उनपर जो_जो अस्त्र छोड़े थे, उन सबको अपने सायकों से काटकर वे उन वीरों को यमलोक भेज चुके थे।
धृतराष्ट्र ने कहा_संजय ! अब तुम मुझसे राजा पाण्ड्य के पराक्रम, अस्त्रशिक्षा, प्रभाव और बल का वर्णन करो। संजय ने कहा, महाराज ! आप जिन्हें श्रेष्ठ महारथी मानते हैं, उन सबको राजा पाण्ड्य अपने पराक्रम के सामने तुच्छ गिनते थे। अपने समान भीष्म और द्रोण की समानता बतलाना भी उन्हें बर्दाश्त नहीं होता था। श्रीकृष्ण और अर्जुन से किसी भी बात में अपने को कम नहीं समझते थे। इस प्रकार पाण्ड्य समस्त राजाओं तथा संपूर्ण अस्त्रधारियों में श्रेष्ठ थे।
वे कर्ण की सेना का संहार कर रहे थे। उन्होंने संपूर्ण योद्धाओं को छिन्न_भिन्न कर दिया, हाथियों और उनके सवारों को पताका, ध्वजा और अस्त्रों से हीन करके पादरक्षकों सहित मार डाला। पुलिंद, खस, बाह्लीक, निषाद, आन्ध्र, कुंतल, दक्षिणात्य और भोजदेशीय शूरवीरों को शस्त्रहीन तथा कवचशून्य करके उन्होंने मौत के घाट उतार दिया। इस प्रकार उन्हें कौरवों की चतुरंगिणी सेना का नाश करते देख अश्त्थामा उनका सामना करने के लिये आया। उसने राजा पाण्ड्य के ऊपर पहले प्रहार किया, तब उन्होंने एक कर्णी नामक बाण मारकर अश्त्थामा को बींध डाला। इसके बाद अश्त्थामा ने मर्मस्थान को विदीर्ण कर देनेवाले अत्यंत भयंकर बाण हाथ में लिये और राजा पाण्ड्य के ऊपर हँसते_हँसते उनका प्रहार किया। तत्पश्चात् उसने तेज की हुई धारवाले कई तीखे नाराच उठाये और पाण्ड्य पर उनका दशमी गति से ( दशमी गति से मारा हुआ बाण मस्तक को धड़ से अलग कर देता है।) प्रयोग किया। परन्तु पाण्ड्य ने नौ तीखे बाण मारकर उन नाराचों को काट डाला और उसके पहियों की रक्षा करनेवाले योद्धाओं को भी मार डाला।
अपने शत्रु की यह फुर्ती देखकर अश्त्थामा ने धनुष को मण्डलाकार बना लिया और बाणों की बौछार करने लगा। आठ_आठ बैलों से खींचे जानेवाले आठ गाड़ियों में जितने बाण लदे थे, उन सबको अश्त्थामा ने आधे पहर में ही समाप्त कर दिया। उस समय उसका स्वरूप क्रोध से भरे हुए यमराज के समान हो रहा था। जिन लोगों ने उसे देखा, वे प्रायः होश_हवास खो बैठे। अश्त्थामा के चलाये हुए उन सभी बाणों ने पाण्ड्य ने वयव्यास्त्र से उड़ा दिया और उच्चस्वर से गर्जना की।
तब द्रोणकुमार ने उनकी ध्वजा काटकर चारों घोड़ों और सारथि को यमलोक भेज दिया तथा अर्धचन्द्राकार बाण से धनुष काटकर रथ की भी धज्जियाँ उड़ा दीं। उस समय यद्यपि महारथी पाण्ड्य रथ से शून्य हो गये थे, तो भी अश्त्थामा ने उन्हें मारा नहीं। उनके साथ युद्ध करने की इच्छा अभी बनी ही हुई थी। इसी समय एक महाबली गजराज बड़े वेग से दौड़ता हुआ वहाँ आ पहुँचा, उसका सवार मारा जा चुका था। राजा पाण्ड्य हाथी के युद्ध में बड़े निपुण थे। उस पर्वत के समान ऊँचे गजराज को देखते ही वे उसकी पीठ पर जा बैठे। अब तो क्रोध के मारे द्रोणकुमार के बदन में आग लग गयी, उसने शत्रु  को पीड़ा देनेवाले यमदण्ड के समान भयंकर चौदह बाण हाथ में लिये। उनमें से पाँच बाणों से तो उसने हाथी को  पैरों से लेकर सूँड़ तक बींध डाला, तीन से राजा की दोनों भुजाओं और मस्तक को काट गिराया तथा शेष छः बाणों पाण्ड्य के अनुयायी छः महारथियों को यमलोक पठाया। इस प्रकार मबाबली पाण्ड्य को मारकर जब अश्त्थामा ने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया तो आपका पुत्र दुर्योधन अपने मितेरों के साथ उसके पास आया और बड़ी प्रसन्नता के साथ उसने उसका स्वागत_सत्कार किया।

Friday, 2 October 2020

संशप्तकों और अश्त्थामा के साथ अर्जुन का घोर संग्राम, अर्जुन के हाथ से दण्डधार और दण्ड का वध

धृष्टराष्ट्र ने पूछा__संजय ! अर्जुन का संशप्तकों और अश्त्थामा के साथ किस प्रकार युद्ध हुआ ?
संजय ने कहा_महाराज ! सुनिये। संशप्तकों की सेना समुद्र के समान दुर्लंघ्य थी, तो भी अर्जुन ने उसमें प्रवेश कर तूफान सा खड़ा कर दिया।
वे तेज किये हुए बाणों से कौरवों के मस्तक काट_काटकर गिराने लगे। थोड़ी ही देर में वहाँ जमीन पट गयी और वहाँ पड़े हुए ढ़ेर_के_ढ़ेर मस्तक बिना नाल के कमल जैसे दिखायी देने लगे। हजारों बाणों की वर्षा करके उन्होंने रथों, हाथियों और घोड़ों को उनके सवारों_सहित यमलोक भेज दिया। तीखे बाण मार_मारकर शत्रुओं के सारथि, ध्वजा, धनुष, बाण तथा रत्नजटित मुद्रिका से सुशोभित हाथों को काट गिराया। यह देख बड़े_बड़े योद्धा साँड़ों के समान हुँकारते हुए अर्जुन पर टूट पड़े और तीखे तीरों से उन्हें घायल करने लगे। उस समय अर्जुन और उन योद्धाओं में रोमांचकारी संग्राम आरम्भ हो गया।  अर्जुन पर सब ओर अस्त्रों की वर्षा हो रही थी, तो भी वे अपने अस्त्रों से उसका निवारण करके बाणों से मार_मारकर शत्रुओं के प्राण लेने लगे। जैसे हवा बादलों को छिन्न_भिन्न कर देती है, उसी प्रकार वे विपक्षियों के रथों की धज्जियाँ उड़ा रहे थे। उस समय अर्जुन अकेले होने पर भी एक हजार महारथियों के समान पराक्रम दिखा रहे थे। उनका यह पुरुषार्थ देख, सिद्ध,  ऋषि और चारण भी उनकी प्रशंसा करने लगे। देवताओं ने दुंदुभी बजायी और  अर्जुन तथा श्रीकृष्ण पर फूलों की वर्षा की। फिर वहाँ इस प्रकार आकाशवाणी हुई। ‘ जिन्होंने चन्द्रमा की कान्ति, अग्नि की दीप्ति, वायु का बल और सूर्य का प्रताप धारण किया है, वे ही ये श्रीकृष्ण और अर्जुन रणभूमि में विराज रहे हैं। एक रथ पर बैठे हुए ये दोनों वीर ब्रह्मा तथा शंकर की भाँति अजेय हैं। ये संपूर्ण प्राणियों से श्रेष्ठ नर तथा नारायण हैं।‘ इस आश्चर्यमय वृतांत को देख और सुनकर भी अश्त्थामा ने युद्ध के लिये भली_भाँति तैयार हो श्रीकृष्ण तथा अर्जुन पर धावा किया। उसने श्रीकृष्ण को साठ तथा अर्जुन को तीन बाण मारे। तब अर्जुन ने क्रोध मेंभरकर तीन बाणों से उसकाधनुष काट दिया। यह देख उसने दूसरा अत्यन्त भयंकर धनुष हाथ में लिया तथा श्रीकृष्ण पर तीन सौ तथा अर्जुन पर एक हजार बाणों का प्रहार किया।
इतना ही नहीं, अश्त्थामा ने अर्जुन को आगे बढ़ने से रोककर उनके ऊपर हजारों, लाखों और अरबों बाण बरसाये। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो उसके तरकस, धनुष, प्रत्यंचा, रथ, ध्वजा तथा कवच से बाँह, हाथ, छाती, मुँह, नाक, कान तथा मस्तक आदि अंगों एवं रोम_रोम से बाण छूट रहे हैं। इस प्रकार अपने सायकसमूहों की बौछार से उसने श्रीकृष्ण और अर्जुन को बींध डाला और अत्यन्त प्रसन्न होकर महामेघ के समान भयंकर गर्जना की। अश्त्थामा की गर्जना सुनकर अर्जुन ने उसके चलाये हुए प्रत्येक बाण के तीन_तीन टुकड़े कर डाले। इसके बाद उन्होंने संशप्तकों के रथ, हाथी, घोड़े, सारथि, ध्वजा और पैदल सिपाहियों को भयंकर बाणों से मारना आरम्भ कर दिया। गाण्डीव से छूटे हुए नाना प्रकार के बाण तीन मील पर खड़े हुए हाथी और मनुष्यों को भी मार गिराते थे। उस समय अर्जुन ने शत्रुओं के बहुत_से सजे_सजाये घुड़सवारों और पैदल सैनिकों का सफाया कर डाला। शत्रुओं में से जो लोग रण में पीठ दिशखाकर भाग नहीं गये, बराबर सामने डटे रहे, उसके धनुष, बाण, तरकस, प्रत्यंचा, हाथ, बाँह, हाथ के हथियार, छत्र, ध्वजा, घोड़े, रथ की ईषा, ढ़ाल, कवच और मस्तक को अर्जुन ने काट डाला। पार्थ के बाणों के प्रहार से रथ, घोड़े, और हाथियों के साथ उनके सवार भी धराशायी हो गये। यह देख अंग, बंग, कलिंग और निषाद देशों के वीर अर्जुन को मार डालने की इच्छा से हाथियों पर सवार हो वहाँ चढ़ आये। किन्तु अर्जुन ने उनके हाथियों के कवच, मर्मस्थान, सूँढ़, महावत, ध्वजा और पताका आदि को काट डाला। इससे वे हाथी वज्र के मारे हुए पर्वतशिखर की भाँति जमीन पर ढ़ह पड़े।
इसी बीच अश्त्थामा ने अपने धनुष पर दस बाण चढ़ाये और मानो एक ही बाण छोड़ा हो, इस प्रकार उन दसों को एक ही साथ छोड़ दिया। उनमें से पाँच बाणों ने तो अर्जुन को घायल किया और पाँच ने श्रीकृष्ण को क्षत_विक्षत कर दिया। उन दोनों के शरीर से खून की धारा बहने लगी। उनका इस प्रकार पराभव देखकर सबने यही माना कि अब वे मारे गये। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा_’अर्जुन ! ढ़िठाई क्यों कर रहे हो; मारो इसे। जैसे चिकित्सा न कराने पर रोग बढ़कर कष्टदायक हो जाता है, उसी प्रकार लापरवाही करने से यह शत्रु भी प्रबल होकर महान् दु:खदायीहो जायगा।‘ ‘बहुत अच्छा’ कहकर अर्जुन ने भगवान् की आज्ञा स्वीकार की और सावधान होकर उन्होंने अश्त्थामा की बाँह,छाती,सिर और जंघा को बाणों से छेद डाला।
फिर घोड़ों की बागडोर काटकर उन्हें बाणों से बींधना आरम्भ कर दिया। घोड़े घबराकर भागे और अश्त्थामा को रणभूमि से दूर हटा ले गये।
अश्त्थामा अर्जुन के बाणों से इतना घायल हो चुका था कि फिर लौटकर उनसे लड़ने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। थोड़ी देर तक घोड़ों को रोककर उसने आराम किया और कर्ण की सेना में प्रवेश कर गया। तदनन्तर श्रीकृष्ण और अर्जुन संशप्तकों का सामना करने चल दिये। इसी समय उत्तर की ओर पाण्डवसेना में बड़े जोर का आर्तनाद सुनाई पड़ा। वहाँ दण्डधार पाण्डवों की चतुरंगिणी सेना का संहार कर रहा था। यह देख भगवान् कृष्ण ने रथ को लौटाकर उधर ही घुमा दिया और अर्जुन से कहा_’मगधदेश का राजा दण्डधार बड़ा पराक्रमी है, वह कहीं भी अपना सानी नहीं रखता। इसके पास शत्रुओं का संहार करनेवाला एक महान् गजराज है, इसे युद्ध की उत्तम शिक्षा मिली है और बल तो सबसे अधिक है ही। इनमें से किसी भी दृष्टि से यह राजा भगदत्त से कम नहीं है। पहले तुम इसी का संहार कर डालो, फिर संशप्तकों को मारना।‘
इतना कहकर भगवान् ने अर्जुन को दण्डधार के निकट पहुँचा दिया। वह काले लोहे के कवच पहने हुए घुड़सवार और पैदल सैनिकों को अपने मदोन्मत्त गजराज के द्वारा कुचलवाकर गिरा रहा था। वहाँ पहुँचते ही श्रीकृष्ण को बारह और अर्जुन को सोलह बाण मारकर दण्डधार ने उनके घोड़ों को भी तीन_तीन बाणों से घायल किया। इसके बाद वह बारंबार हँसने और गरजने लगा।
तब अर्जुन ने भल्लों से उसके धनुष_बाण, प्रत्यंचा, और ध्वजा को काट दिया। इससे कुपित हो श्रीकृष्ण और अर्जुन को घबराहट में डालने की इच्छा से अपने मदोन्मत्त गजराज को उनकी ओर बढ़ाया और तोमरों से उन दोनों पर वार किया। यह देख पाण्डुनन्दन अर्जुन ने तीन क्षुर चलाकर उसकी दोनों भुजाओं और मस्तक को एक ही साथ काट डाला, इसके बाद उसके हाथी को भी सौ बाण मारे।
उनकी चोट से पीड़ित होकर हाथी जोर_जोर से चिघ्घारने लगा और चक्कर काटता त़था लड़खड़ाचा हुआ इधर_उधर भागता तथा इधर_उधर भागने लगा। अन्त में ठोकर खाकर वह महावत के साथ ही गिरा और मर गया।
युद्ध में दण्डधार के मारे जाने पर उसका भाई दण्ड श्रीकृष्ण और अर्जुन का वध करने के लिये चढ़ आया। आते ही वह श्रीकृष्ण को तीन  और अर्जुन को तेज किये हुए पाँच तोमर मारकर भीषण गर्जना करने लगा। तब अर्जुन ने उसकी दोनों बाँहें काट डालीं और उसके मस्तक पर एक अर्धचन्द्राकार बाण मारा।
उसकी चोट से दण्ड का मस्तक कटकर हाथी पर से जमीन पर जा पड़ा। इसके बाद उन्होंने दण्ड के हाथी को भी बाणों से विदीर्ण कर डाला। उसकी चोट से अत्यन्त व्यथित वह हाथी चिघ्घारता हुआ गिरकर मर गया।
तत्पष्चात् दूसरे_दूसरे योद्धा भी उत्तम हाथियों पर सवार होकर विजय की इच्छा से चढ़ आये, परन्तु सव्यसाची ने औरों की भाँति उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया। फिर भी शत्रु की बहुत बड़ी सेना भाग खड़ी हुई। और अर्जुन संशप्तकों का संहार करने चल दिये।

Sunday, 20 September 2020

विन्द_अनुविन्द और चित्रसेन का चित्रक का वध, अश्त्थामा और भीमसेन का भयंकर युद्ध

तदनन्तर श्रुतकर्मा ने क्रोध में भरकर पचास बाणों से राजा चित्रसेन को घायल किया। अभिसारनरेश चित्रसेन ने भी नौ बाणों से श्रुतकर्मा को बींधकर पाँच सायकों से उसके सारथि को भी पीड़ित किया। तब श्रुतकर्मा ने चित्रसेन के मर्मस्थान में तीखे नाराच से वार किया। उसकी गहरी चोट लगने से वीरवर चित्रसेन को मूर्छा आ गयी। थोड़ी देर में जब होश हुआ तो उसने एक भल्ल मारकर श्रुतकर्मा का धनुष काट दिया और फिर सात बाणों से उसे भी बींध डाला। श्रुतकर्मा को पुनः क्रोध आ गया, उसने शत्रु के धनुष के दो टुकड़े कर डाले और तीन सौ बाण मारकर उसे खूब घायल किया। फिर एक तेज किये हुए भाले से चित्रसेन का मस्तक काट गिराया। अभिसारनरेश चित्रसेन मारा गया_ यह देखकर उसके सैनिक श्रुतकर्मा पर टूट पड़े। परंतु उसने अपने सायकों की मार से उन सबको पीछे हटा दिया। दूसरी ओर प्रतिविन्ध्य ने चित्र को पाँच बाणों से घायल करके तीन सायकों से उसके सारथि को बींध दिया और एक बाण मारकर उसकी ध्वजा काट डाली। तब चित्र ने उसकी बाँहों और छाती में नौ भल्ल मारे। यह देख प्रतिविन्ध्य ने उसका धनुष काट दिया और पचीस बाणों से उसे भी घायल किया। फिर चित्र ने भी प्रतिविन्ध्य पर एक भयंकर शक्ति का प्रहार किया, किन्तु उसने उस शक्ति  को हँसते हँसते काट दिया। तब उसने प्रतिविन्ध्य पर गदा चलायी। उस गदा ने प्रतिविन्ध्य के घोड़े और सारथि को मौत के घाट उतार  उसके रथ को भी चकनाचूर कर दिया।
प्रतिविन्ध्य पहले से ही कूदकर पृथ्वी पर आ गया था, उसने चित्र पर शक्ति का प्रहार किया। शक्ति को अपने ऊपर आते देख चित्र ने उसे हाथ से पकड़ लिया और तुरत प्रतिविन्ध्य पर ही चलाया। वह शक्ति प्रतिविन्ध्य की दाहिनी भुजा पर चोट करती हुई भूमि पर जा पड़ी। इससे प्रतिविन्ध्य को बड़ा क्रोध हुआ, उसने चित्र को मार डालने की इच्छा से तोमर का प्रहार किया। वह तोमर उसकी छाती और कवच को छेदता हुआ जमीन में घुस गया तथा राजा चित्र अपनी बाँहें फैलाकर भूमि पर ढ़ह पड़ा। चित्र को मारा गया देख आपके सैनिकों ने प्रतिविन्ध्य पर बड़े वेग से धावा किया, परन्तु उसने अपने सायकसमूहों की वर्षा करके उन सबको पीछे भगा दिया। उस समय, जबकि कौरव_सेना के समस्त योद्धा भागे जा रहे थे, केवल अश्त्थामा ही महाबली भीमसेन का सामना करने के लिये आगे बढ़ा। फि उन दोनों में घोर संग्राम होने लगा। अश्त्थामा ने पहले एक बाण मारकर भीमसेन को बींध दिया। फिर नब्बे बाणों से उसके मर्मस्थानों में आघात किया। 
तब भीमसेन ने भी एक हजार बाणों से द्रोणपुत्र को आच्छादित करके सिंह के समान गर्जना की। किन्तु अश्त्थामा ने अपने सायकों से भीमसेन के बाणों से द्रोणपुत्र को आच्छादित करके सिंह के समान गर्जना की। किन्तु अश्त्थामा ने अपने सायकों से भीमसेन के बाणों को रोक दिया और मुस्कराते हुए उसने भीम के ललाट में एक नाराच मारा। यह देख भीम ने भी तीन नाराचों से अश्त्थामा के ललाट को बींध डाला। तब द्रोणकुमार ने सौ बाण मारकर को पीड़ित किया, किन्तु इससे भीम तनिक भी विचलित नहीं हुए। इसी प्रकार भीम ने भी अश्त्थामा को तेज भीमसेन किये हुए सौ बाण मारे, परन्तु वह डिग न सका। अब उसने बड़े_बड़े अस्त्रों का प्रयोग आरम्भ किया और भीमसेन अपने असेत्रों से उनका नाश करने लगे। इस तरह उन दोनों में भयंकर अस्त्रयुद्ध छिड़ गया। उस समय भीमसेन और अश्त्थामा के छोड़े हुए बाण आपस में टकराकर आपकी सेना के चारों ओर संपूर्ण दिशा में प्रकाश फैला रहे थे। सायकों से आच्छादित हुआ आकाश बड़ा भयंकर दिखायी देता था। बाणों के टकराने से आग पैदा होकर दोनों सेनाओं को दग्ध कर रही थी। उन दोनों वीरों का अद्भुत एवं अचिंत्य पराक्रम देख सिद्ध और चारणों के समुदायों को बड़ा विस्मय हो रहा था।
देवता, सिद्ध तथा बड़े_बड़े ऋषि उन दोनों को शाबाशी दे रहे थे।  वे दोनों महारथी मेघ के समान जान पड़ते थे; वे बाणरूपी जल को धारण किये शस्त्ररूपी बिजली की चमक से प्रकाशित हो रहे थे और बाणों की बौछार से एक_दूसरे को ढ़के देते थे। दोनों ने दोनों की ध्वजा काटकर सारथि और घोड़ों को बींध डाला, फिर एक_दूसरे को बाणों से घायल करने लगे। बड़े वेग से किये हुए परस्पर के आघात से जब वे अत्यन्त घायल हो गये तो अपने_अपने रथ के पिछले भाग में गिर पड़े। अश्त्थामा का सारथि उसे मूर्छित जानकर रणभूमि से दूर हटा ले गया। भीम के सारथि ने भी उन्हें अचेत जानकर ऐसा ही किया।

कर्णपर्व _ कर्ण के सेनापतित्व में युद्ध का आरम्भ और भीम के द्वारा क्षेमधूर्ति का वध

नारायणं नमस्कृतयं नरं चैव नरोत्तम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्यसखा नरस्वरूप नर_रत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी शक्तियों पर विजय_प्राप्तिपूर्वक अंतःकरण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिषे।
वैशम्पायनजी कहते हैं_ राजन् ! द्रोणाचार्य के मारे जाने से दुर्योधन आदि राजा बहुत घबरा गये, शोक से उनका उत्साह नष्ट हो गया। वे द्रोण के लिये अत्यन्त अनुताप करते हुए अश्त्थामा के पास जाकर बैठे और कुछ देर तक शास्त्रीय युक्तियों से उसे आश्वासन देते रहे; फिर प्रदोष के समय अपने_अपने शिविर में चले गये। कर्ण, दुःशासन और शकुनि ने दुर्योधन के ही शिविर में वह रात व्यतीत की।
सोते समय वे चारों ही पाण्डवों को दिये हुए क्लेशों पर विचारकरते रहे। पाण्डवों को जूए में जो कष्ट भोगने पड़े थे तथा द्रौपदी को जो भरी सभा में घसीटकर लाया गया था_ वे सब बातें याद करके उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ, उनका चित्त बहुत अशांत हो गया।
तत्पश्चात् जब सबेरा हुआ तो सबने शास्त्रीय विधि के अनुसार अपना_अपना नित्यकर्म पूरा किया; फिर भाग्य पर भरोसा करके धैर्यधारणपूर्वक उन्होंने सेना को तैयार होने की आज्ञा दी और युद्ध के लिये निकल पड़े। दुर्योधन ने कर्ण को सेनापति के पद पर अभिषेक किया और दही, घी, अक्षत, स्वर्णमुद्रा, गौ, सोना तथा बहुमूल्य वस्त्रों द्वारा उत्तम ब्राह्मणों की पूजा करके उनके आशीर्वाद प्राप्त किये। फिर सूत, मागध तथा वंदीजनों ने जयजयकार किया। इसी प्रकार पाण्डव भी प्रातःकृत्य समाप्त कर युद्ध का निश्चय कर शिविर से बाहर निकले।
धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! अब तुम मुझे यह बताओ कि कर्ण ने सेनापति होने के बाद कौन सा कार्य किया ।
संजय ने कहा_महाराज ! कर्ण की सम्मति जानकर दुर्योधन ने रणभेरी बजवायी और सेना को तैयार हो जाने की आज्ञा दी। उस समय बड़े-बड़े गजराजों, रथों, कवच बाँधनेवाल़े मनुष्यों तथा घोड़ों का कोलाहल बढ़ने लगा। कितने ही योद्धा उतावले हो_होकर एक_दूसरे को पुकारने लगे।
इन सबकी मिली हुई ऊँची आवाज से आसमान गूँज उठा। इसी समय सेनापति कर्ण एक दमकते हुए रथ पर बैठा दिखायी पड़ा। उसके रथ पर श्वेत पताका फहरा रही थी। घोड़े भी सफ़ेद थे। ध्वजा में सर्प का चिह्न बना हुआ था। रथ के भीतर सैकड़ों तरकस, गदा, कवच, शतध्नी किंकिणी, शक्ति, शूल, तोमर और धनुष रखे हुए थे। कर्ण ने शंख बजाया और उसकी आवाज सुनते ही योद्धा उतावले होकर दौड़े। इस प्रकार कौरवों की बहुत बड़ी सेना को उसने शिविर से बाहर निकाला तथा पाण्डवों जीतने की इच्छा से उसका मगर के आकार का एक व्यूह बनाकर रणभूमि को कूच किया।
उस मकर_व्यूह के मुख के स्थान में स्वयं कर्ण उपस्थित हुआ। दोनों नेत्रों की जगह शूरवीर शकुनि और उलूक खड़े हुए। मस्तक_भाग में अश्त्थामा तथा कण्ठदेश में दुर्योधन के सभी भाई थे। व्यूह के मध्यभाग में बहुत बड़ी सेना से घिरा हुआ महाराज दुर्योधन था। बायें चरण के स्थान में कृतवर्मा खड़ा हुआ था, उसके साथ रणोन्मत्त ग्वालों की नारायणी सेना थी।
दहिेने चरण की जगह कृपाचार्य थे, उनके साथ महान् धनुर्धर त्रिगर्तों और दक्षिणात्यों की सेना थी। वाम चरण के पिछले भाग में मद्रदेशीय योद्धाओं को साथ लेकर राजा शल्य खड़े हुए। दाहिने चरण के पीछे राजा सुषेण था, उसके साथ एक हजार रथियों और तीन सौ हाथियों की सेना थी। व्यूह की पूँछ के स्थान में अपनी बहुत बड़ी सेना से घिरे हुए दोनों भाई चित्र और चित्रसेन थे।
इस प्रकार व्यूह बनाकर कर्ण ने जब रणांगण की ओर कूच किया तो धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन को देखकर कहा_पार्थ ! देखो तो सही, कर्ण ने कौरवसेना की किस तरह मोर्चेबन्दी की है और महारथी वीर कैसे इसकी रक्षा कर रहे हैं।
धृतराष्ट्र की महासेना में जितने बड़े _बड़े  वीर थे, वे सब प्रायः मारे जा चुके हैं; अब थोड़े ही रह गये हैं। अतः मैं तो इसे तिनके के समान समझता हूँ। इस सेना में सूतपुत्र कर्ण ही एक महान् धनुर्धर वीर हैं, जिसे देवता भी नहीं जीत सकते। महाबाहो । अब इस कर्ण को मार डालने से तुम्हारी विजय होगी और मेरे हृदय का काँटा भी निकल जायगा। इसलिये तुम अपनी इच्छानुसार अपनी सेना की व्यूहरचना करो।‘
भाई की बात सुनकर अर्जुन ने शत्रुओं के मुकाबले में अपनी सेना का अर्धचन्द्राकार व्यूह बनाया। उसके वाम भाग में भीमसेन, दाहिने भाग में धृष्टधुम्न तथा मध्य में राजा युधिष्ठिर और अर्जुन खड़े हुए। नकुल और सहदेव_ये दोनों युधिष्ठिर के पीछे थे। पांचालदेशीय युधामन्यु और उत्तमौजा अर्जुन के पहियों की रक्षा करने लगे।
शेष वीरों में से जिन्हें व्यूह में जहाँ स्थान मिला, वे वहीं खूब उत्साह के साथ डट हये। इस प्रकार कौरव तथा पाण्डवों ने व्यूह बनाकर फिर युद्ध में मन लगाया। दोनों दलों में ऊँची आवाज करनेवाले बाजे बज उठे। विजयाभिलाषी शूरवीरों का सिंहनाद सुनायी देने लगा। महान् धनुर्धर कर्ण को व्यूह के मुहाने पर कवच धारण किये उपस्थित देख कौरव योद्धा द्रोणाचार्य के वियोग का दुःख भूल गये। तदनन्तर कर्ण तथा अर्जुन आमने_सामने आकर खड़े हुए और दोनों एक_दूसरे को देखते ही क्रोध में भर गये। उनके सैनिक भी उछलते_कूदते हुए परस्पर जा भिड़े। 
फिर तो भयानक युद्ध छिड़ गया; हाथी, घोड़े और रथों के सवार तथा पैदल योद्धा एक_दूसरे पर प्रहार करने लगे। वे अर्धचन्द्र, भल्ल, क्षुरप्र, तलवार, पट्टिश और फरसों से अपने प्रतिपक्षियों के मस्तक काटने लगे। मरे हुए वीर हाथी, घोड़ों तथा रथों से गिर_गिरकर धराशायी होने लगे। सैनिकों के हाथ, पैर और हथियार सभी चलने लगे; उनके द्वारा वहाँ महान् संहार आरम्भ हो गया। इस प्रकार जब सेना का विध्वंश हो रहा था, उसी समय भीमसेन आदि पाण्डव हमलोगों पर चढ़ आये। भीमसेन हाथी पर बैठे हुए थे। उन्हें दूर से ही आते देख राजा क्षेममूर्ति ने, जो स्वयं भी हाथी पर सवार था, युद्ध के लिये ललकारा और उनपर धावा कर दिया। पहले उन दोनों के हाथियों में ही युद्ध आरम्भ हुआ। जब हाथी लड़ते_लड़ते आपस में सट गये तो वे दोनों वीर तोमरों से एक_दूसरे पर जोरदार प्रहार करने लगे।
फिर धनुष उठाकर दोनों ने दोनो को बींधना आरंभ किया। थोड़ी ही देर में उन्होंने एक_दूसरे का धनुष काटकर सिंहनाद किया और परस्पर शक्ति एवं तोमरों की झड़ी लगा दी। इसी बीच में क्षेममूर्ति ने बड़े लेग से एक तोमर का प्रहार कर भीमसेन की छाती छेद डाली, फिर गरजते हुए उसने छः तोमर और मारे। भीमसेन ने भी धनुष उठाया और बाणों की वर्षा से शत्रु के हाथी को बहुत पीड़ित किया; इससे वह भाग चला, रोकने से भी नहीं रुका। क्षेममूर्ति ने किसी तरह हाथी को काबू में किया। क्षेममूर्ति नेक्रोध में भरकर भीमसेन को बाणों से बींध डाला। साथ ही उसके हाथी के भी मर्मस्थानों में चोट पहुँचायी। हाथी उस आघात को न सह सका। वह प्राण त्यागकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। भीमसेन उसके गिरने से पहले ही कूदकर जमीन पर आ गये और अपनी गदा की प्रहार से शत्रु के हाथी को भी उन्होंने मार गिराया। क्षेमधूर्ति भी हाथी से कूदकर नीचे आ गया और तलवार उठाकर भीमसेन की ओर दौड़ा। यह देख भीम ने उसपर गदा से चोट की। उसके आघात से क्षेममूर्ति के प्राण_पखेरू उड़ गये और वह तलवार के साथ ही हाथी के पास गिर पड़ा। महाराज ! क्षेममूर्ति कुलूत देश का यशस्वी राजा था, उसे मारा गया देख आपकी सेना व्यथित होकर रणभूमि से भागने लगी।

Saturday, 27 June 2020

व्यासजी के द्वारा अर्जुन के प्रति भगवान् शंकर की महिमा का वर्णन

धृतराष्ट्र ने पूछा__संजय ! धृष्टधुम्न के द्वारा अतिरथी वीर द्रोणाचार्य के मारे जाने पर मेरे पुत्रों तथा पाण्डवों ने आगे कौन सा कार्य किया ?  संजय ने कहा___महाराज ! उस दिन का युद्ध समाप्त हो जाने पर महर्षि वेदव्यासजी स्वेच्छा से घूमते हुए अकस्मात् अर्जुन के पास आ गये। उन्हें देखकर अर्जुन ने पूछा___’महर्षे ! जब मैं अपने बाणों से शत्रुसेना का संहार कर रहा था, उस समय देखा कि एक अग्नि के समान तेजस्वी महत्रिशूल मेरे आगे चल रहे हैं। वे ही मेरे शत्रुओं का नाश करते थे, किन्तु लोग समझते थे मैं कर रहा हूँ। मैं तो केवल उनके पीछे_पीछे चलता था। भगवन् ! बताइये, वे महापुरुष कौन थे ? 
उनके हाथ में त्रिशूल था, वे सूर्य के समान तेजस्वी थे, अपने पैरों से पृथ्वी का स्पर्श नहीं करते थे । त्रिशूल का प्रहार करते हुए भी वे उसे हाथ से कभी नहीं छोड़ते थे। उनके तेज से उस एक ही त्रिशूल से हजारों नये_नये त्रिशूल प्रकट हो जाते।‘
व्यासजी बोले___अर्जुन ! तुमने भगवान् शंकर का दर्शन किया है । वे तेजोमय अन्तर्यामी प्रभु संपूर्ण जगत् के ईश्वर हैं। सबके शासक तथा वरदाता हैं। तुम उन भगवान् भुवनेश्वर की शरण में जाओ। वे महान् देव हैं, उनका हृदय विशाल है। सर्वत्र व्यापक होते हुए भी वे जटाधारी त्रिनेत्ररूप धारण करते हैं। उनकी ‘रुद्र’ संज्ञा है। उनकी भुजाएँ बडी हैं। उनके मस्तक पर शिखा तथा शरीर पर वल्कल वस्त्र शोभा देता है। वे सबके संहारक होकर भी निर्विकार हैं। किसी से पराजित न होनेवाले और सबको सुख देनेवाले हैं। सबके साक्षी, जगत् की उत्पत्ति के कारण, जगत् के सहारे, विश्व के आत्मा, विश्वविधाता और विश्वरूप हैं। वे ही प्रभु कर्मों के अधिष्ठाता__कर्मों का फल देनेवाले हैं। सबका कल्याण करनेवाले और स्वायम्भू हैं। संपूर्ण भूतों के स्वामी तथा भूत, भविष्य और वर्तमान के कारण भी वे ही हैं। वे ही योग हैं, वे ही योगेश्वर हैं। वे ही सर्व हैं और वे ही सर्वलोकेश्वर। सबसे श्रेष्ठ, सारे जगत् से श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम परमेठी भी वे ही हैं। वे ही तीनों लोकों के त्रष्टा और त्रिभुवन के अधिष्ठानभूत विशुद्ध परमात्मा हैं। भगवान् भव भयानक होकर भी चन्द्रमा को मुकुटरूप से धारण करते हैं। वे सनातन परमेश्वर संपूर्ण वागीश्वरों के भी ईश्वर हैं। वे अजेय हैं; जन्म_मृत्यु और जरा आदि विकार उन्हें छू भी नहीं सकते। वे ज्ञानरूप, ज्ञानगम्य तथा ज्ञान में सर्वश्रेष्ठ हैं। भक्तों पर कृपा करके उन्हें मनोवांछित वर दिया करते हैं। भगवान् शंकर के दिव्य पार्षद नाना प्रकार के रूपों में दिखायी देते हैं। वे सब महादेवजी की सदा ही पूजा किया करते हैं। तात् ! वे साक्षात् भगवान् शंकर ही वह तेजस्वी पुरुष हैं, जो कृपा करके तुम्हारे आगे_आगे चला करते हैं उस घोर रोमांचकारी संग्राम में अश्त्थामा, कृपाचार्य और कर्ण जैसे महान् धनुर्धर जिस सेना की रक्षा करते हैं, वे नाना रूपधारी भगवान् महेश्वर के सिवा दूसरा कौन नष्ट कर सकता है ? और जब वे ही आगे आकर खड़े हो जायँ, तो उनके सामने ठहरने का भी कौन साहस कर सकता है ? तीनों लोकों में कोई ऐसा प्राणी नहीं है, जो उनकी बराबरी कर सके। संग्राम में भगवान् शंकर के कुपित होने पर उनकी गंध से भी शत्रु बेहोश होकर काँपने लगते हैं और अधमरे होकर गिर जाते हैं। जो भक्त मनुष्य सदा अनन्यभाव से उमानाथ भगवान् शिव की उपासना करते हैं, वे इस लोक में सुख पाकर अन्त में परमपद को प्राप्त होते हैं। कुन्तीनन्दन ! तुम भी नीचे लिखे अनुसार उन शान्तस्वरूप भगवान् शंकर को सदा नमस्कार किया करो। ‘जो नीलकण्ठ, सूक्ष्मस्वरूप और अत्यन्त तेजस्वी हैं। संसार_समुद्र से तारनेवाले सुन्दर तीर्थ हैं, सूर्यस्वरूप हैं। देवताओं के भी देवता, अनन्त रूपधारी, हजारों नेत्रोंवाले और कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं, परम शान्त और सबके पालक हैं, उन भगवान् भूतनाथ को सदा प्रणाम है।‘
उनके हजारों मस्तक, हजारों नेत्र, हजारों भुजाएँ और हजारों चरण हैं। कुन्तीनन्दन ! तुम उन वरदायक भुवनेश्वर भगवान् शिव की शरण में जाओ।  वे निर्विकार भाव से प्रजा का पालन करते हैं, उनके मस्तक पर जटाजूट सुशोभित होता है। वे धर्मस्वरूप और धर्म के स्वामी हैं। कोटि कोटि ब्रह्माण्डों को धारण करने के कारण उनका उदर और शरीर विशाल है। वे व्याघ्रचर्म ओढा करते हैं। ब्राह्मणों पर कृपा रखनेवाले और ब्राह्मणों के प्रिय हैं।‘जिनके हाथ में त्रिशूल, ढाल_तलवार और पिनाक आदि अस्त्र शोभा पाते हैं, उन शरणागतवत्सल भगवान शिव की शरण में जाता हूँ।‘ इस प्रकार उनकी शरण ग्रहण करनी चाहिये। जो देवताओं के स्वामी और कुबेर के सखा हैं, उन भगवान् शिव को प्रणाम है। जो सुन्दर व्रत का पालन करते और सुन्दर धनुष धारण करते हैं, जो धनुर्वेद के आचार्य हैं, उन उग्र आयुधवाले देवश्रेष्ठ भगवान् रुद्र को नमस्कार है।
जिनके अनेकों रूप हैं, अनेकों धनुष हैं, जो स्थानु एवं तपस्वी हैं, उन भगवान् रुद्र को नमस्कार है। जो गणपति, वाक्पति, यग्यपति तथा जल और देवताओं के पति हैं, जिनका वर्ण, पीत और मस्तक के बाल सुवर्ण के समान कान्तिमान हैं, उन भगवान् शंकर को नमस्कार है। अब मैं महादेवजी के दिव्य कर्मों को अपने ग्यान और बुद्धि के अनुसार बता रहा हूँ। यदि वे कुपित हो जायँ तो देवता, गन्धर्व, असुर और राक्षस पाताल में छिप जाने पर भी चैन से नहीं रहने पाते।
एक समय की बात है, दक्ष ने भगवान् शंकर की अवहेलना की; इससे उनके यज्ञ में महान् उपद्रव खडा हो गया। जब उन्हें उनका भाग अर्पण किया गया, तभी दक्ष का यज्ञ पूर्ण हो पाया। 
पूर्वकाल की बात है, तीन बलवान असुरों ने आकाश में अपने नगर बना रखे थे। वे नगर विमान के रूप में आकाश में विचरा करते थे। उन तीन नगरों में एक लोहे का, दूसरा चाँदी का और तीसरा सोने का बना था। जो सोने का बना था उसका स्वामी था कमलाक्ष। चाँदी के बने हुए पुर में तारकाक्ष रहता था तथा लोहे के नगर में विद्युन्माली का निवास था। इन्द्रने उन पुरों का भेदन करने के लिये अपने सभी अस्त्रों का प्रयोग किया, पर वे कृतकार्य न हो सके तब इन्द्रादि सभी देवता दुःखी होकर भगवान् शंकर की शरण में गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कहा___’भगवन् ! इन त्रिपुरनिवासी दैत्यों को ब्रह्माजी ने वरदान दे रखा है, उसके घमण्ड में फूलकर ये भयंकर दैत्य तीनों लोकों को कष्ट पहुँचा रहे हैं। महादेव ! आपके सिवा दूसरा कोई उसका नाश करने में समर्थ नहीं है, आप ही इन देवद्रोहियों का वध कीजिये। ‘देवताओं के ऐसा कहने पर भगवान् शंकर ने उनका हितसाधन करने के लिये ‘तथास्तु’ कहा और गन्धमादन तथा विन्ध्याचल_इन दो पर्वतों को अपनी रथ का ध्वजा बनाया। समुद्र और वनों के सहित संपूर्ण पृथ्वी ही रथ हुई। नागराज शेष को रथ की धुरी के स्थान पर रखा गया। चन्द्रमा और सूर्य_ये दोनों पहिये बने।
एलपत्र के पुत्र को और पुष्पदन्त को जुए की कीलें बनाया। मलयाचल का जुआ बनाया गया। तक्षक नाग ने जुआ बाँधने की रस्सी का काम किया। मलयाचल का जुआ बनाया गया। भगवान् शंकर ने संपूर्ण प्राणियों को घोड़ों की बागडोर में सम्मिलित किया। चारों वेद रथ के चार घोडे बनाये गये। उपवेद लगाम बने। गायत्री और सावित्री का पगहा बना। ॐकार चाबुक हुआ और ब्रह्माजी सारथि। मन्दराचल को गाण्डीव धनुष का रूपदिया गया और वासुकि नाग से उसकी प्रत्यंचा का काम लिया गया। भगवान् विष्णु हुए उत्तम बाण और अग्निदेव को उसका फल बनाया गया। बिजली उसबाण की धार हुई। मेरु को प्रधान ध्वजा बनाया गया। इस प्रकार सर्वदेवमय दिव्य रथ तैयार कर भगवान् शंकर उसपर आरूढ हुए। उस समय संपूर्ण देवता उनकी स्तुति करने लगे। भगवान् शंकर उस रथ में एक हजार वर्ष तक रहे। जब तीनों पुर आकाश में एकत्रित हुए, तो उन्होंने तीन गाँठ तथा तीन फलवाले बाण से उन तीनों पुरों को भेद डाला। दानव उनकी ओर आँख उठाकर देख भी न सके। कालाग्नि के समान बाण से जिस समय वे तीनों लोकों को भष्म कर रहे थे, उस समय पार्वती देवी भी देखने के लिये वहाँ आयीं। उनकी गोदी में एक बालक था,  जिसके सिर में पाँच शिखाएँ थीं। पार्वती ने देवताओं से पूछा__’यह कौन है ?’ इस प्रश्न से इन्द्र के हृदय में असूया की आग जल उठी और उन्होंने उस बालक पर वज्र का प्रहार करना चाहा; किन्तु उस बालक ने हँसकर उन्हें स्तंभित कर दिया। उसकी वज्रसहित उठी हुई बाँह ज्यों_की_त्यों रह गयी। अपनी वैसी ही बाँह लिये इन्द्र देवताओं के साथ ब्रह्माजी की शरण में गये तथा उनको प्रणाम करके बोले, ‘भगवन् ! पार्वतीजी की गोद में एक अपूर्व बालक था, हमने उसे नहीं पहचाना। उसने बिना युद्ध किये खेल ही में हमलोगों को जीत लिया। अतः आप पूछते हैं कि वह कौन था ? उनकी बात सुनकर ब्रह्माजी ने उस अमित तेजस्वी बालक का ध्यान किया और सारा रहस्य जानकर देवताओं से कहा_’उस बालक के रूप में चराचर जगत् के स्वामी भगवान् शंकर थे, उनसे श्रेष्ठ कोई देवता नहीं है। इसीलिये अब तुम मेरे साथ चलकर उन्हीं की शरण लो।‘ उस समय ब्रह्माजी ने उन्हें ही सब देवताओं में श्रेष्ठ जानकर प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की_‘भगवन् ! तुमही यज्ञ हो, तुमही इस विश्व के सहारे हो और तुमही सबको शरण देनेवाले हो। सबको उत्पन्न करनेवाले महादेव तुमही हो। परमधाम या परमपद तुम्हारा ही स्वरूप है। तुमने इस संपूर्ण चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है। भूत और भविष्य के स्वामी जगदीश्वर ! ये इन्द्र तुम्हारे कोप से पीडित हैं,इनपर कृपा करो। ब्रह्माजी की बात सुनकर महेश्वर प्रसन्न हो गये, देवताओं के कृपा करने के लिये वे ठठाकर हँस पड़े। फिर तो देवताओं ने पार्वतीसहित महादेवजी को प्रसन्न किया। शिव के कोप से जो इन्द्र की बाँह सुन्न हो गयी थी, वह ठीक हो गयी। वे भगवान् शंकर ही रुद्र, शिव, अग्नि, सर्वज्ञ, इन्द्र, वायु और अश्विनीकुमार हैं।
वे ही बिजली और मेघ हैं। सूर्य, चन्द्रमा, वरुण, काल, म़ृत्यु, यम, रात, दिवस, मास,पक्ष, सन्ध्या, धाता, विधाता,विश्वात्मा और विश्वकर्मा भी वे ही हैं। वे निराकार होकर भी संपूर्ण देवताओं का आकार धारण करते हैं। सब देवता उनकी स्तुति करते रहते हैं। वे एक, अनेक, सौ, हजार और लाख हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण उनके दो शरीर बताते हैं_ शिव और घोर। ये दोनों अलग_अलग हैं। इन दोनों के भी कई भेद हो जाते हैं। उनका घोर शरीर अग्नि और सूर्य आदि के रूप में प्रकट हैं तथा सौम्य शरीर जल, नक्षत्र एवं चन्द्रमा के रूप में। वेद, वेदांग, उपनिषद, पुराण तथा अध्यात्मशास्त्रों में जो परम रहस्य है, वह भगवान् महेश्वर ही हैं। अर्जुन ! यह है महादेवजी की महिमा। इतनी ही नहीं, वह अत्यन्त महान् तथा अनन्त हैं। मैं एक हजार वर्ष तक कहता रहूँ, तो भी उनके गुणों का पार नहीं पा सकता। जो लोग सब प्रकार की ग्रह_बाधाओं से पीडित हैं और सब प्रकार के पापों में डूबे हुए हैं, वे भी यदि उनकी शरण में आ जायँ तो वे प्रसन्न होकर उन्हें पाप_ताप से मुक्त कर देते हैं तथा आयु, आरोग्य,ऐश्वर्य धन एवं प्रचुर भोग सामग्री प्रदान करते हैं। कुपित होने पर वे सबका संहार कर डालते हैं। महाभूतों के ईश्वर होने के कारण उन्हें महेश्वर कहते हैं। वेदों में भी इनकी शतरुद्रिय और अनन्तरुद्रियनाम की उपासना बतायी गयी है। भगवान् शंकर दिव्य और मानव सभी भोगों के स्वामी हैं। संपूर्ण विश्व को व्याप्त करने के कारण वे ही विभु और प्रभु हैं। शिवलिंग की पूजा करने से भगवान् शिव बहुत प्रसन्न होते हैं।
यद्यपि उनके सब ओर नेत्र हैं, तथापि एक विलक्षण अग्निमय नेत्र अलग भी है, जो सदा प्रज्जवलित रहता है। वे सब लोकों में व्याप्त होने के कारण सर्व कहलाते हैं। वे सबके कर्मों में सब प्रकार के अर्थ सिद्ध करते हैं। तथा संपूर्ण मनुष्यों का कल्याण चाहते हैं, इसलिये इन्हें शिव कहते हैं। महान् विश्व का पालन करने से महादेव, स्थिति के हेतु होने से स्थानु और सबके उद्भव होने के कारण भव कहलाते हैं। वे सबके कर्मों में सब प्रकार का अर्थ सिद्ध करते हैं। तथा संपूर्ण मनुष्यों का कल्याण चाहते हैं, इसलिये उन्हें शिव कहते हैं। महान् विश्व का पालन करने से महादेव, स्थिति का हेतु होने से स्थानु और सबके उद्भव होने के कारण भव कहलाते हैं। कपि नाम है श्रेष्ठ का और वृष धर्म का वाचक है; वे धर्म और श्रेष्ठ दोनो हैं, इसलिये उन्हें वृषाकपि कहते हैं। उन्होंने अपने दो नेत्रों को बन्दकर बलात् ललाट में तीसरा नेत्र उत्पन्न किया, इसलिये वे त्रिनेत्र कहे जाते हैं।
अर्जुन ! जो तुम्हारे शत्रुओं का संहार करते हुए देखे गये थे, वे पिनाकधारी महादेवजी ही हैं। जयद्रथवध की प्रतिज्ञा करने पर श्रीकृष्ण ने स्वप्न में गिरिराज हिमालय के शिखर पर तुम्हें जिनका दर्शन कराया था,  वे ही भगवान् शंकर यहाँ तुम्हारे आगे_आगे चलते हैं जिन्होंने ही वे अस्त्र दिये, जिनसे तुमने दानवों का संहार किया है।
यह भगवान् शिव का शतरुद्रिय उपाख्यान तुम्हें सुनाया गया है। यह धन, यश  और आयु की वृद्धि करनेवाला है, परम पवित्र तथा वेद के समान है। भगवान् शंकर का यह चरित्क संग्राम में विजय दिलानेवाला है। इस शतरुद्रिय उपाख्यान को जो सदा पढता और सुनता है तथा जो भगवान् शंकर का भक्त है, वह मनुष्य सभी उत्तम कामनाओं को प्राप्त करता है। अर्जुन ! जाओ, युद्ध करो, तुम्हारी पराजय नहीं हो सकती; क्योंकि तुम्हारे मंत्री, रक्षक और पार्शवर्ती भगवान् श्रीकृष्ण हैं।
संजय कहते हैं_महाराज !  पराशरनन्दन व्यासजी अर्जुन से यह कहकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये।वेदों के स्वाध्याय से जो फल मिलता है, वही इस पर्व के पाठ और श्रवण से भी मिलता है। इनमें वीर क्षत्रियों के महान् यश  का वर्णन किया गया है। जो नित्य इसे पढता और सुनता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। इसके पाठ से ब्राह्मणों को यज्ञ का फल मिलता है, क्षत्रियों को संग्राम में सुयश की प्राप्ति होती है तथा शेष दो वर्णों को भी पुत्र_पौत्र आदि आदि अभीष्ट वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं।
द्रोणपर्व समाप्त



Sunday, 24 May 2020

अश्त्थामा द्वारा आग्नेयास्त्र का प्रयोग और व्यासजी का उसे श्रीकृष्ण और अर्जुन की महिमा सुनाना

संजय कहते हैं___ महाराज !  अर्जुन ने देखा कि मेरी सेना भाग रही है, तो द्रोणपुत्र को जीतने की इच्छा से स्वयं आगे बढ़कर उसे रोका। फिर वे सोमक तथा मत्स्य राजाओं के साथ कौरवों की ओर लौटे। अर्जुन ने अश्त्थामा के पास पहुँचकर कहा___’तुम्हारे अन्दर जितनी शक्ति, जितना विज्ञान, जितनी वीरता और जितना पराक्रम हो, कौरवों पर जितना प्रेम और हमलोगों से जितना द्वेष हो, वह सब आज हमारे पर ही दिखा लो। धृष्टधुम्न का या श्रीकृष्ण सहित मेरा सामना करने आ जाओ; तुम आजकल बहुत उदण्ड हो गये हो, आज मैं तुम्हारा सारा घमण्ड दूर कर दूँगा।
राजन् ! अश्त्थामा ने चेदिदेश के युवराज, कुरुवंशी बृहच्क्षत्र और सुदर्शन को मार डाला तथा धृष्टधुम्न, सात्यकि एवं भीमसेन को भी पराजित कर दिया था___ इन कई कारणों से विवश होकर अर्जुन ने आचार्यपुत्र से ये अप्रियवचन कहे थे। उनके तीखे और मर्मभेदी वचनों को सुनकर अश्त्थामा श्रीकृष्ण तथा अर्जुन पर कुपित हो उठा; वह सावधान होकर रथ पर बैठा और आचमन करके उसने आग्नेयास्त्र उठाया। फिर उसे मंत्रों से अभिमन्त्रित करके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जितने भी शत्रु थे, उन सबको नष्ट करने के उद्देश्य से छोड़ा। वह बाण धूमरहित अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहा था। उसके छूटते ही आकाश से बाणों की घनघोर वृष्टि होने लगी। चारों ओर फैली हुई आग की लपट अर्जुन पर ही आ पड़ी। उस समय राक्षस और पिशाच एकत्रित होकर गर्जना करने लगे। हवा गरम हो गयी। सूर्य का तेज फीका पड़ गया और बादलों से रक्त की वर्षा होने लगी। तीनों लोक संतप्त हो उठे। उस अस्त्र के तेज से जलाशयों के गरम हो जाने के कारण उनके भीतर रहनेवाले जीव जलने तथा छटपटाने लगे। दिशाओं, विदिशाओं, आकाश और पृथ्वी___ सब ओर से बाणवर्षा हो रही थी। वज्र के समान वेगवाले उन बाणों के प्रहार से शत्रु दग्ध होकर आग से जलाये हुए वृक्षों की भाँति गिर रहे थे। बड़े_ बड़े हाथी चारों ओर चिघ्घाड़ते हुए झुलस_ झुलसकर धराशायी हो रहे थे। महाप्रलय के समय संवर्तक नामवाली आग जैसे संपूर्ण प्राणियों को जलाकर खाक कर डालती है, उसी प्रकार पाण्डवों की सेना उस आग्नेयास्त्र से दग्ध हो रही थी। यह देख आपके पुत्र विजय की उमंग से उल्लसित हो सिंहनाद करने लगे। हजारों प्रकार के बाजे बजाये जाने लगे। उस समय इतना घोर अंधकार छा रहा था कि अर्जुन और उनकी एक अक्षौहिणी सेना को कोई देख नहीं पाता था। अश्त्थामा ने अमर्ष में भरकर उस समय जैसे अस्त्र का प्रहार किया था, वैसा हमने पहले न कभी देखा था और न सुना ही था। तदनन्तर अर्जुन ने अश्त्थामा के संपूर्ण अस्त्रों का नाश करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। फिर तो क्षणभर में ही सारा अन्धकार नष्ट हो गया। ठंडी_ठंडी हवा चलने लगी, समस्त दिशाएँ प्रकाशित हो गयीं। उजाला होने पर वहाँ एक अद्भुत बात दिखायी दी। पाण्डवों की एक अक्षौहिणी सेना उस अस्त्र के तेज से इस प्रकार दग्ध हो गयी थी उसका नामोनिशान तक मिट गया था, परन्तु श्रीकृष्ण और अर्जुन के शरीर पर आँचतक नहीं आयी थी। ज्वाला से मुक्त होकर पताका, ध्वजा, घोड़े तथा आयुधों से सुशोभित अर्जुन का रथ वहाँ शोभा पाने लगा। उसे देख आपके पुत्रों को बड़ा भय हुआ, परंतु पाण्डवों के हर्ष की सीमा न रही। वे शंख और भेरी बजाने लगे। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी शंखनाद किया।
उन दोनों महापुरुषों को आग्नेयास्त्र से मुक्त देख अश्त्थामा दुःखी और हक्का_ बक्का_सा होकर थोड़ी देर सोचता रहा कि ‘यह क्या बात हुई' ? फिर अपने हाथ का धनुष फेंककर वह रथ से कूद पड़ा और ‘धिक्कार है ! धिक्कार है ! ! यह सब कुछ झूठा है !’ ऐसा कहता हुआ वह रणभूमि से भाग चला। इतने में ही उसे व्यासजी खड़े दिखायी दिये। उन्हें सामने पाकर उसे प्रणाम किया और अत्यन्त दीन की भाँति गद्गद् कण्ठ से कहा___’भगवन् ! इसे माया कहें या दैव की इच्छा ? मेरी समझ में नहीं आता___ यह सब क्या हो रहा है । यह अस्त्र झूठा कैसे हुआ ? मुझसे कौन सी गलती हो गयी है ? अथवा यह संसार के किसी उलटफेर की सूचना है, जिससे श्रीकृष्ण और अर्जुन जीवित बच गये हैं ? मेरे चलाये हुए इस अस्त्र को असुर, गन्धर्व, पिशाच, राक्षस, सर्प, यक्ष तथा,मनुष्य किसी प्रकार अन्यथा नहीं कर सकते थे; तो भी यह केवल एक अक्षौहिणी सेना को ही जलाकर शान्त हो गया। श्रीकृष्ण और अर्जुन भी तो मरणधर्मा मनुष्य ही हैं, इन दोनों का वध क्यों नहीं हुआ ? आप मेरे प्रश्न का ठीक_ठीक उत्तर दीजिये, मैं यह सब सुनना चाहता हूँ।‘ व्यासजी बोले___तू जिसके सम्बन्ध में आश्चर्य के साथ प्रश्न कर रहा है, वह बड़ा महत्वपूर्ण विषय है। अपने मन को एकाग्र करके सुन। एक समय की बात है, हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज विश्वविधाता भगवान् नारायण ने विशेष कार्यवश धर्म के पुत्र में अवतार लिया था। उन्होंने हिमालय पर्वत पर रहकर बड़ी कठिन तपस्या की। छाछठ हजार वर्ष तक केवल वायु का आहार करके अपने  शरीर को सुखा डाला।
इसके बाद भी उन्होंने इससे दूने वर्षों तक पुनः भारी तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उन्हें दर्शन दिया। विश्वेश्वर की झाँकी करके नारायण ऋषि आनन्दमग्न हो गये, उनको प्रणाम करके वे बड़े भक्तिभाव से भगवान् की स्तुति करने लगे___’आदिदेव ! जिन्होंने पृथ्वी में आपके पुरातन सर्ग की रक्षा की थी तथा जो इस विश्व की भी रक्षा करते हैं, वे संपूर्ण प्राणियों की सृष्टि करनेवाले प्रजापति भी आपसे ही प्रगट हुए हैं। देवता, असुर, नाग, राक्षस, पिशाच, मनुष्य, पक्षी, गन्धर्व तथा यक्ष आदि विभिन्न प्राणियों के जो समुदाय हैं, इन सबकी उत्पत्ति आपसे ही हुई है। इन्द्र, यम, वरुण और कुबेर का पद, पितरों का लोक तथा विश्वकर्मा की सुन्दर शिल्पकला आदि का अविर्भाव भी आपसे ही हुआ है। शब्द और आकाश, स्पर्श और वायु, रूप और तेज,  रस और जल तथा गन्ध और पृथ्वी की आप ही से उत्पत्ति हुई है। काल, ब्रह्मा, वेद, ब्राह्मण तथा यह संपूर्ण चराचर जगत् आपसे ही प्रगट हुआ है।
जैसे जल से उत्पन्न होनेवाले जीव उससे भिन्न दिखायी देते हैं परन्तु नष्ट होने पर उस जल के साथ एकीभूत हो जाते हैं, उसी प्रकार यह समस्त विश्व आपसे ही प्रगट होकर आपमें ही लीन हो जाता है। इस तरह जो भी आपको संपूर्ण भूतों की उत्पत्ति और प्रलयकाल का अधिष्ठान जनाते हैं, वे विद्वान पुरुष आपके सामुज्य को प्राप्त होते है। जिनका स्वरूप मन बुद्धि के चिन्तन का विषय नहीं होता, वे पिनाकधारी भगवान् नीलकण्ठ नारायण ऋषि के इस प्रकार स्तुति करने पर उन्हें वरदान देते हुए बोले___’नारायण ! मेरी कृपा से किसी प्रकार के शस्त्र, वज्र, अग्नि, वायु, गीले या सूखे पदार्थ और स्थावर या जंगम प्राणी के द्वारा भी कोई तुम्हें चोट नहीं पहुँचा सकता। समरभूमि में पहुँचने पर तुम मुझसे भी अधिक बलिष्ठ हो जाओगे।‘ इस प्रकार श्रीकृष्ण ने पहले ही भगवान् शंकर से अनेकों वरदान पा लिये हैं। वे ही भगवान् नारायण माया से इस संसार को मोहित करते हुए इनके रूप में विचर रहे हैं नारायण के ही तप से महामुनि नर प्रकट हुए, अर्जुन को उन्हीं का अवतार समझ। इनका स्वरूप भी नारायण के समान ही है। ये दोनों ऋषि संसार को धर्ममर्यादा में रखने के लिये प्रत्येक युग में अवतार लेते हैं।
 अश्त्थामा ! तूने भी पूर्वजन्म में भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के लिये कठोर  नियमों का पालन करते हुए अपने शरीर को दुर्बल कर डाला था, इससे प्रसन्न होकर भगवान् ने  तुम्हें बहुत से मनोवांछित वरदान दिये थे। जो मनुष्य भगवान् शंकर के सर्वमय स्वरूप को जानकर लिंगरूप में उनकी पूजा करता है, उसे सनातन शास्त्रज्ञान तथा आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। जो शिवलिंग को सर्वमान्य जानकर उसका अर्चन करता हैं, उसपर भगवान शंकर की बड़ी कृपा होती है।
वेदव्यास की ये बातें सुनकर अश्त्थामा ने मन_ही_मन शंकरजी को प्रणाम किया और श्रीकृष्ण में उसकी महत्वबुद्धि हो गयी। उसने रोमांचित शरीर से महर्षि व्यास को प्रणाम किया और सेना की ओर देखकर उसे छावनी में लौटने की आज्ञा दी। तदनन्तर कौरव और पाण्डव दोनों पक्ष की सेनाएँ अपने_अपने  शिविर को चल दीं। इस प्रकार वेदों के पारगामी आचार्य द्रोण पाँच दिनों तक पाण्डवसेना का संहार करके ब्रह्ममलोक में चले गये।

Friday, 22 May 2020

नारायणास्त्र का प्रभाव देख युधिष्ठिर का विषाद तथा भगवान् कृष्ण के बताये हुए उपाय से उसका निवारण; अश्त्थामा के साथ धृष्टधुम्न, सात्यकि तथा भीमसेन का घोर युद्ध

संजय कहते हैं___राजन् ! तदनन्तर अश्त्थामा ने दुर्योधन से पुनः अपनी प्रतिज्ञा कह सुनायी___’धर्म का चोला पहने हुए कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने युद्ध करते हुए आचार्य से कपटपूर्ण बात कहकर उन्हें शस्त्र त्यागने के लिये बाध्य किया है; इसलिये आज उनके देखते_देखते उनकी सेना को मार भगाऊँगा और धृष्टधुम्न को मार भी डालूँगा। यह मेरी सच्ची प्रतिज्ञा है; अतः तुम सेना को लौटाकर ले चलो।‘ उसकी बात सुनकर आपके पुत्र ने सेना को पीछे लौटाया और भय को त्यागकर बड़े जोर से सिंहनाद किया। फिर कौरवों और पाण्डवों में युद्ध आरम्भ हुआ। हजारों शंख और भेरियाँ बज उठीं। इसी समय अश्त्थामा ने पाण्डवों तथा पांचालों की सेना को लक्ष्य करके नारायणास्त्र का प्रयोग किया था। उससे हजारों बाण निकलकर आकाश में छा गये, उन सबके अग्रभाग प्रज्वलित हो रहे थे। उनके अंतरिक्ष और दिशाएँ आच्छादित हो गयीं। फिर लोहे के गोले, चतुश्रच्क, द्विचक्र, शतध्नी, गदा और जिसके चारों ओर छुरे लगे हुए थे, ऐसे सूर्यमण्डलाकार चक्र प्रकट हुए। इस प्रकार नाना प्रकार के शस्त्रों से आकाश को व्याप्त देख पाण्डव, पांचाल और सृंजय घबरा उठे। पाण्डव महारथी ज्यों_ ज्यों युद्ध करते, त्यों_त्यों उस अस्त्र का जोर बढ़ता जाता था। उससे पाण्डवसेना भस्म होने लगी। यह संहार देख धर्मराज को बड़ा भय हुआ। उन्होंने देखा___ मेरी सेना अचेत सी होकर भाग रही है और अर्जुन उदासीन भाव से चुपचाप खड़े है, तो सब योद्धाओं से कहा___’ धृष्टधुम्न ! पाचालों की सेना के साथ तुम भाग जाओ। सात्यके ! तुम भी वृष्णि और अंधकों के साथ चल दो। अब धर्मात्मा श्रीकृष्ण से जो कुछ हो सकेगा, करेंगे। ये सारे जगत् के कल्याण का उपदेश देते हैं, तो अपना क्यों नहीं करेंगे ? मैं संपूर्ण सैनिकों से कह रहा हूँ, कोई भी युद्ध न करो। भाइयों को साथ लेकर मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा। अर्जुन की मेरे प्रति जो कामना है, वह शीघ्र ही पूरी हो जानी चााहिये; क्योंकि सदा ही अपना कल्याण करनेवाले आचार्य का मैंने वध करवाया ! अतः उनके लिये मैं भी बन्धुओंसहित मर जाऊँगा।‘ जब युधिष्ठिर इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों भुजाएँ उठाकर सबको रोका और इस प्रकार कहा___’योद्धाओं ! अपने हथियार शीघ्र ही नीचे डाल दो और सवारियों से उतर जाओ; नारायणास्त्र की शान्ति का यही उपाय बताया गया है। भूमि पर खड़े हुए निहत्थे लोगों को यह अस्त्र नहीं मारेगा। इसके विपरीत , ज्यों_ ही_ ज्यों योद्धा इस अस्त्र के सामने युद्ध करेंगे त्यों_ही_त्यों कौरव अधिक बलवान् होते जायँगे। जो इस अस्त्र की सामना करने के लिये मन में विचार भी करेंगे, वे रसातल में चले जायँ तो भी यह अस्त्र मारे बिना नहीं छोड़ेगा।‘ भगवान् कृष्ण की बातें सुनकर सभी योद्धाओं ने हाथ से और मन से भी शस्त्र त्याग देने का विचार कर लिया। सबको अस्त्र त्यागने के लिये उद्यत देख भीमसेन ने कहा___ वीरों ! कोई भी अस्त्र न फेंकना। मैं अपने बाणों से अश्त्थामा के अस्त्रों का वारण करूँगा। इस भारी गदा से उसके अस्त्रों का नाश करके मैं उसके ऊपर भी काल की भाँति प्रहार करूँगा। यदि इस नारायणास्त्र का मुकाबला करने के लिये अब तक कोई योद्धा समर्थ नहीं हुआ, तो आज कौरव_ पाण्डवों के देखते_देखते मैं इसका सामना करूँगा। अर्जुन ! अर्जुन तुम अपने गाण्डीव को नीचे न डाल देना; नहीं तो चन्द्रमा की भाँति तुम्हें भी कल॑क लग जायगा, जो तुम्हारी शक्ति को नष्ट कर देगा। अर्जुन बोले___ भैया ! नारायणास्त्र, गौ और ब्राह्मणों के सामने नीचे डाल देने का  मेरा व्रत है।
अर्जुन के ऐसा कहने पर भीमसेन अकेले ही मेघ के समान गर्जना करते हुए अश्त्थामा के सामने गये और उसपर बाणसमूहों की वर्षा  करने लगे। अश्त्थामा ने भी उनसे हँसकर बात की और उनपर नारायणास्त्र से अभिमन्त्रित बाणों की झड़ी लगा दी। महाराज ! भीमसेन जब उस अस्त्र के सामने बाण मारने लगे, उस समय जैसे हवा का सहारा पाकर आग प्रज्वलित हो उठती है उसी प्रकार उस अस्त्र का वेग बढ़ने लगा। उसे बढ़ते देख भीम के सिवा पाण्डव सेना के सभी सैनिक भयभीत हो गये। सबलोग अपने दिव्य अस्त्रों को नीचे डालकर रथ, हाथी और घोड़े आदि वाहनों से उतर गये। अब वे महाबली अस्त्र सब ओर से हटकर भीम के मस्तक पर आ पड़ा। उससे अच्छऻदित होकर भीमसेन अदृश्य हो गये। इससे सभी प्राणी और विशेषतः पाण्डवलोग हाहाकार मचाने लगे। भीमसेन के साथ ही उनके रथ, घोड़े और सारथि भी अश्त्थामा के अस्त्र से आच्छादित हो आग के भीतर आ पड़े। जैसे प्रलयकाल में संवर्तक अग्नि संपूर्ण चराचर जगत् को भस्म करके परमात्मा के मुख में प्रवेश कर जाती है, उसी प्रकार उस अस्त्र ने भीमसेन को दग्ध करने के लिये उन्हें चारों ओर से घेर लिया। उसका तेज भीमसेन के भीतर प्रविष्ट हो गया। यह देख अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों वीर तुरंत ही रथ ले कूद पड़े और भीम की ओर दौड़े। वहाँ पहुँचकर दोनों उस अस्त्र की आग में घुस गये, किन्तु अस्त्र त्याग देने के कारण वह आग इन्हें जला न सकी। नारायणास्त्र की शान्ति के लिये दोनों ही भीमसेन को तथा उनके संपूर्ण अस्त्र_ शस्त्रों को जोर लगाकर खींचने लगे। उनके खींचने पर भीमसेन और जोर से गर्जना करने लगे; इससे वह भयंकर अस्त्र और भी उग्ररूप धारण करने लगा। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने भीम से कहा___’पाण्डुनन्दन ! यह क्या बात है ? मना करने पर भी तुम युद्ध बन्द क्यों नहीं करते ? यदि इस  युद्ध से ही कौरव जीते जा सकते तो हम तथा ये सभी राजा युद्ध ही करते। यहाँ हठ से काम नहीं चलेगा। तुम्हारे पक्ष के सभी योद्धा रथ से उतर चुके हैं, तुम भी शीघ्र उतर जाओ।‘ यह कहकर श्रीकृष्ण ने उन्हें रथ से नीचे खींच लिया। नाचे उतरकर ज्योंही अपना अस्त्र धरती पर डाला, ज्योंही नारायणास्त्र शान्त हो गया।
इस प्रकार उस दुःसह तेज के शान्त हो जाने पर संपूर्ण दिशाएँ साफ हो गयीं, ठण्डी हवा चलने लगी तथा पशु_पक्षियों का कोलाहल बन्द हो गया। हाथी और घोड़े आदि वाहन भी सुखी हो गये। पाण्डवों की जो सेना मरने से बच गयी थी, वह अब आपके पुत्रों का नाश करने के लिये पुनः हर्ष से भर गयी। उस समय दुर्योधन ने द्रोणपुत्र से कहा___’अश्त्थामन् ! एक बार फिर इस अस्त्र का प्रयोग करो; देखो, वह पांचालों की सेना विजय की इच्छा से पुनः संग्रामभूमि में आकर डट गयी है।‘ आपके पुत्र पर ऐसा कहने पर अश्त्थामा दीनतापूर्ण उच्छ्वास् लेकर बोला____’राजन् ! इस अस्त्र का दुबारा प्रयोग नहीं हो सकता है। दुबारा  प्रयोग करने पर यह अपने ही ऊपर आकर पड़ता है। श्रीकृष्ण ने इसे शान्त करने का उपाय बता दिया, नहीं तो आज संपूर्ण शत्रुओं का वध ही हो जाता।‘ दुर्योधन ने कहा___’भाई ! तुम तो संपूर्ण अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो;  यदि इस अस्त्र का दो बार प्रयोग नहीं हो सकता तो अन्य अस्त्रों से ही इनका संहार करो; क्योंकि ये सभी गुरुदेव द्रोण के हत्यारे हैं। तुम्हारे पास बहुत से दिव्यास्त्र हैं; यदि मारना चाहो तो क्रोध में भरे हुए इन्द्र भी तुमसे बचाकर नहीं जा सकते।‘ पिता की मृत्यु याद आ जाने से अश्त्थामा पुनः क्रोध में भरकर धृष्टधुम्न की ओर दौड़ा। निकट पहुँचकर उसने पहले बीस और फिर पाँच बाणों से उसे घायल किया। धृष्टधुम्न ने भी चौंसठ बाण मारकर अश्त्थामा को बींध डाला तथा बीस बाणों से सारथि को और चार से चारों घोड़ों को घायल कर दिया। धृष्टधुम्न अश्त्थामा को बारम्बार बींधकर पृथ्वी को कंपायमान करके गरजने लगा।
 अश्त्थामा ने भी कुपित हो धृष्टधुम्न को दस बाण मारे, फिर उसकी ध्वजा और धनुष काट दिये। इसके बाद अन्य बहुत से सायकों द्वारा धृष्टधुम्न को पीड़ित कर दिया और घोड़ों तथा सारथि को मारकर उसे रथहीन कर दिया। तत्पश्चात् उसके सैनिकों को भी मार भगाया। यह देखकर सात्यकि अपने रथ को अश्त्थामा के पास ले गया। वहाँ पहुँचकर उसने अश्त्थामा को पहले आठ, फिर बीस बाणों से बींध दिया। इसके बाद सारथि तथा घोड़ों को घायल किया। फिर उसके धनुष और ध्वजा को काटकर रथ को तोड़ डाला। तदनन्तर उसकी  छाती में तीस बाण मारे। उस समय दुर्योधन ने बीस, कृपाचार्य ने तीन, कृतवर्मा ने दस, कर्ण ने पचास, दुःशासन ने सौ तथा वृषसेन ने सात बाण मारकर सात्यकि को घायल किया। तब सात्यकि ने एक ही क्षण में उन सभी महारथियों को रथहीन करके रणभूमि से भगा दिया। इतने में अश्त्थामा दूसरे रथ पर सवार होकर आया और सैकड़ों सायकों की वृष्टि करता हुआ सात्यकि को रोकने लगा। सात्यकि ने जब उसे आते देखा, तो पुनः उसके रथ के टुकड़े करके उसे मार भगाया। सात्यकि का वह पराक्रम देख पाण्डव बारम्बार शंख बजाने और सिंहनाद करने लगे। इस प्रकार द्रोणपुत्र को रथहीन करके सात्यकि ने बृषकेतु के तीन हजार महारथियों का, कृपाचार्य के पन्द्रह हजार हाथियों का तथा शकुनि के पचास हजार घोड़ों का संहार कर डाला। यह कहकर अश्त्थामा ने सात्यकि पर एक बहुत तीखा बाण मारा। उसने सात्यकि का कवच छेदकर उसे अत्यन्त चोट पहुँचायी। कवच छिन्न_भिन्न हो गया, उसके हाथ से धनुष और बाण गिर गये, खून से लथपथ हो वह रथ के पिछले भाग में जा बैठा। यह देख सारथि उसे अश्त्थामा के सामने से अन्यत्र हटा ले गया। तदनन्तर अर्जुन, भीमसेन, बृहच्क्षत्र, चेदिराजकुमार, सुदर्शन___ ये पाँच महारथी आ पहुँचे और सबने चारों ओर से अश्त्थामा को घेर लिया। उन्होंने बीस पद दूर रहकर अश्त्थामा को पाँच_पाँच बाण मारे। अश्त्थामा ने भी एक ही साथ पच्चीस बाण मारकर उनके सब बाणों को काट दिया। इसके बाद उसने बृहच्क्षत्र को सात, सुदर्शन को तीन, अर्जुन को एक और भीमसेन को  छः बाणों से बींध डाला। तब चेदिदेशिय युवराज ने बीस, अर्जुन ने आठ और अन्य सब लोगों ने तीन तीन बाणों से अश्त्थामा को घायल कर दिया। इसके बाद अश्त्थामा ने अर्जुन को छः, श्रीकृष्ण को दस, भीमसेन को पाँच, चेदियुवराज को चार और सुदर्शन तथा बृहच्क्षत्र को दो_ दो बाण मारे। फिर भीमसेन ने सारथि को छः बाणों से. घायल कर दो बाणों से उनकी ध्वजा और धनुष काट डाले। तत्पश्चात् अपने सायकों की वर्षा से अर्जुन को बींधकर उसने सिंह के समान गर्जना की। फिर तीन बाणों से उसने रथ के पास ही खड़े हुए सुदर्शन की दोनों भुजाएँ और मस्तक उड़ा दिये, शक्ति से पौरव बृहच्क्षत्र को मार डाला तथा अग्नि के समान तेजस्वी बाणों से चेदिदेश के युवराज को सारथि और घोड़ोंसहित यमलोक भेज दिया। यह देखकर भीमसेन के क्रोध की सीमा न रही, उन्होंने सैकड़ों तीखे बाणों से अश्त्थामा को ढक दिया। परन्तु अश्त्थामा ने अपने सायकों से उनकी बाणवर्षा का नाश कर दिया और क्रोध में भरकर उन्हें भी घायल किया। तब भीमसेन ने यमदण्ड के समान भयंकर दस नाराच चलाये, वे अश्त्थामा के गले का हँसली छेदकर भीतर घुस गये। इस चोट से अत्यन्त पीड़ित हो उसने आँखें बन्द कर लीं और ध्वजा का सहारा लेकर बैठ गया। थोड़ी देर में जब होश हुआ, तो उसने भीमसेन को सौ बाण मारे। इस प्रकार दोनों ही वर्षाकाल के मेघ के समान एक दूसरे पर बाणों की वर्षा करने लगे।
महाराज ! उस युद्ध में हमलोगों को भीमसेन के अद्भुत पराक्रम, अद्भुत बल, अद्भुत वीरता, अद्भुत प्रभाव तथा अद्भुत पराक्रम का परिचय मिला। उन्होंने द्रोणपुत्र का वध करने की इच्छा से बाणों की बड़ी भयंकर वृष्टि की। इधर अश्त्थामा भी बड़ा भारी अस्त्रवेत्ता था, उसने अस्त्रों का माया से उनकी बाणवर्षा रोक दी और उनका धनुष काट डाला; फिर क्रोध में भरकर अनेकों बाणों से उन्हें घायल किया। धनुष कट जाने पर भीम ने भयंकर रथशक्ति हाथ में ली और उसे बड़े वेग से घुमाकर अश्त्थामा के रथ पर चलाया; किन्तु उसने तेज बाण मारकर उसके टुकड़े_ टुकड़े कर डाले। इसी बीच में भीमसेन ने एक सुदृढ़ धनुष हाथ में लिया और बहुत_ से बाणों का प्रहार कर अश्त्थामा को बींध डाला। तब अश्त्थामा ने एक बाण मारकर भीमसेन के सारथि का ललाट चीर दिया, उस प्रहार से सारथि मूर्छित हो गया। उसके हाथ से घोड़ों की बागडोर छूट गयी। सारथि के बेहोश होते ही भीमसेन के घोड़े सब धनुर्धारियों के देखते_ देखते भाग चले। विजयी अश्त्थामा हर्ष में भरकर शंख बजाने लगा और पांचालयोद्धा तथा भीमसेन भयभीत होकर इधर_ उधर भाग निकले।

Sunday, 12 April 2020

अर्जुन के द्वारा युधिष्ठिर को उलाहना, भीम का क्रोध, धृष्टधुम्न का द्रोण के विषय में आक्षेप और सात्यकि के साथ उसका विवाद

संजय कहते हैं___ महाराज ! नारायणास्त्र के प्रकट होते ही मेघसहित पवन के झकोरे उठने लगे। बिना बादलों के ही गर्जना होने लगी, पृथ्वी डोल उठी, समुद्र में तूफान आ गया और पर्वतों के शिखर टूट_टूटकर गिरने लगे। उस घोर अस्त्र को देखकर देवता, दानव और गन्धर्वों पर भारी आतंक छा गया; समस्त राजालोग भय से थर्रा उठे।
धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! उस समय पाण्डवों ने धृष्टधुम्न की रक्षा के लिये क्या विचार किया ? 
संजय ने कहा___ कौरव_सेना का तुमुल_नाद सुनकर युधिष्ठिर अर्जुन से बोले___’धनंजय ! धृष्टधुम्न के द्वारा आचार्य द्रोण के मारे जाने पर कौरव बहुत उदास हो विजय की आशा छोड़ चुके थे और अपनी_ अपनी जान बचाने के लिये भागे जा रहे थे। अब देखते हैं कि पुनः उनकी सेना लौटी आ रही है; किसने उसे लौटाने है, इसके विषय में तुम्हें कुछ पता है तो बताओ। ऐसा जान पड़ता है, द्रोण के मारे जाने से कौरवों का पक्ष लेकर साक्षात् इन्द्र युद्ध करने आ रहे हैं। उनका भैरवनाद सुनकर हमारे रथी घबराये हुए हैं, सबके रोंगटे खड़े हो गये हैं। यह कौन महारथी है, जो सेना को युद्ध के लिये लौटा रहा है ?’ अर्जुन बोले___ जिस वीर ने जन्म लेते ही उच्चैःश्रवा के समान हींसना  आरम्भ किया था, जिसे सुनकर यह पृथ्वी हिल उठी और तीनों लोक थर्राने लगे थे, उस आवाज को सुनकर किसी अदृश्य रहनेवाले प्राणी ने जिसका नाम ‘अश्त्थामा’ रख दिया था वही शूरवीर अश्त्थामा है; वही सिंहनाद कर रहा है। धृष्टधुम्न ने उस समय अनाथ के समान जिसके केश पकड़कर मार डाला था, यह उन्हीं का पक्ष लेकर उसके क्रूर कर्म का बदला लेने के लिये आया है। आपने भी राज्य के लोभ से झूठ बोलकर गुरु को धोखा दिया। धर्म को जानते हुए भी यह महान् काम किया ! अतः अन्यायपूर्वक बाली के वध करने के कारण श्रीरामचन्द्रजी को जैसे अपयश मिला, उसी प्रकार आपके विषय में भी झूठ बोलकर गुरु को मरवा डालने का कलंक तीनों लोकों में फैल जायगा। आचार्य ने यह समझा था कि ‘ पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर सब धर्मों के ज्ञाता हैं, मेरे शिष्य हैं; ये कभी झूठ नहीं बोलेंगे।‘ इसी भरोसे उन्होंने आपका विश्वास कर लिया।।परन्तु आपने सत्य की आड़ लेकर सरासर झूठ कहा।
‘ हाथी मरा था’  इसलिये अश्त्थामा का मरने बता दिया। फिर वे हथियार डालकर अचेत हो गये; उस समय उन्हें कितनी व्याकुलता हुई थी, सो आपने देखी ही थी। पुत्र के स्नेह से शोकमग्न होकर जो रण से विमुख हो चुके थे, ऐसे गुरु को आपने सनातन धर्म की अवहेलना करके शस्त्र से मरवा डाला। अश्त्थामा पिता की मृत्यु से कुपित है, धृष्टधुम्न को वह आज काल का ग्रास बनाना चाहता.  व है। निहत्थे गुरु को अधर्म से मरवाकर अब आप अपने मंत्रियों के साथ अश्त्थामा का सामना करने जाइये, शक्ति हो तो धृष्टधुम्न की रक्षा कीजिये। मैं तो समझता हूँ, हम सबलोग मिलकर भी धृष्टधुम्न को नहीं बचा सकते। मैं बार_ बार मना करता रहा तो भी शिष्य होकर इसने गुरु की हत्या कर डाली। इसकी वजह यह है कि अब हमलोगों की आयु का अधिक अंश बीत गया है; थोड़ा ही शेष रह गया है; इसी से हमारा मस्तिष्क खराब हो गया, हमने यह महान् पाप कर डाला। जो सदा पिता की भाँति हमलोगों पर स्नेह करते थे, धर्मदृष्टि से भी जो हमारे पिता ही थे, उन गुरुदेव को  इस क्षणभंगुर राज्य के कारण हमने मरवा दिया। धृतराष्ट्र ने भीष्म और द्रोण को पुत्रों के साथ ही सारा राज्य सौंप दिया था। वे सदा उनकी सेवा में लगे रहते थे। निरंतर सत्कार किया करते थे। तो भी आचार्य मुझे ही अपने पुत्र से भी बढ़कर मानते थे। ओह ! मैंने बहुत बड़ा और भयंकर पाप किया, जो राज्य_सुख के लोभ में पड़कर गुरु की हत्या करायी। मेरे गुरुदेव को यह विश्वास था कि अर्जुन मेरे लिये पिता, भाई, स्त्री, पुत्र और प्राणों का भी त्याग कर सकता है। किन्तु मैं कितना राज्य का लोभी निकला ! वे मारे जा रहे थे और मैं चुपचाप देखता रहा। एक तो वे ब्राह्मण, दूसरे वृद्ध और तीसरे आचार्य थे ;  इस पर भी उन्होंने अपना शस्त्र नीचे डाल दिया था और महान् मुनिवृत्ति से बैठे हुए थे। इस अवस्था में राज्य के लिये उनकी हत्या कराकर अब मैं जीने की अपेक्षा मर जाना ही अच्छा समझता हूँ।
संजय कहते हैं ___ महाराज ! अर्जुन की बात सुनकर वहाँ जितने महारथी बैठे थे सब चुप रह गये; किसी ने बुरा या भला कुछ नहीं कहा। तब महाबाहु भीमसेन क्रोध में भरकर बोले___’ पार्थ ! वनवासी मुनि अथवा उत्तम व्रत का पालन करनेवाले ब्राह्मण की भाँति तुम भी धर्म  बैठे हो ! जो संकट में अपनी तथा दूसरों की रक्षा करता है, संग्राम में शत्रुओं को क्षति पहुँचाना जिसकी जीविका है, जो स्त्रियों और  सत्पुरुषों पर क्षमाभाव रखता है, वह क्षत्रिय शीघ्र ही  धर्म, यश तथा लक्ष्मी को प्राप्त करता है।
क्षत्रियों के संपूर्ण सद्गुणों से युक्त होते हुए आज मूर्खों की_ सी बातें करना तुम्हारा शोभा नहीं देता। तात ! तुम्हारा मन धर्म में लगा हुआ है, तुम्हारे भीतर दया है__ यह बहुत अच्छी बात है। किन्तु धर्म में प्रवृत्त रहने पर भी तुम्हारा राज्य अधर्मपूर्वक छीन लिया गया, शत्रुओं ने द्रौपदी को सभा में लाकर उसका केश खींचा और हम सबलोग वल्कल वस्त्र धारण कर तेरह वर्ष के लिये वन में निकाल दिये गये। क्या हमारे साथ यही वर्ताव उचित था  ये सब बातें सहन करने योग्य नहीं थीं, फिर भी हमने सब लीं। हमने जो कुछ किया है वह क्षत्रियधर्म में स्थित रहकर ही किया है। शत्रुओं के उस अधर्म को याद कर आज  मैं तुम्हारी सहायता से उन्हें उनके सहायकोंसहित मार डालूँगा। मैं क्रोध में भरकर इस पृथ्वी को विदीर्ण कर सकता हूँ। पर्वतों को तोड़_ फोड़कर बिखेर सकता हूँ। अपनी भारी गदा की चोट से बड़े_ बड़े पर्वतीय वृक्षों को तोड़ डालूँगा। इन्द्र आदि देवता, राक्षस, असुर, नाग और मनुष्य भी यदि एक ही साथ लड़ने आ जायँ तो उन्हें बाणों से मारकर भगा दूँगा। अपने भाई के ऐसे पराक्रम को जानते हुए भी तुम्हें अश्त्थामा से भय नहीं करना चाहिये। अथवा तुम सब भाइयों के साथ यहीं खड़े रहो, मैं अकेला ही गदा हाथ में लेकर शत्रुओं को परास्त करूँगा।‘ भीमसेन के ऐसा कहने पर धृष्टधुम्न बोला___’अर्जुन ! वेदों को पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना तथा दान देना और प्रतिग्रह स्वीकार करना____ ये ही छ: कर्म ब्राह्मणों के लिये प्रसिद्ध हैं। इनमें से किस कर्म का पालन द्रोणाचार्य करते थे ? अपने धर्म से भ्रष्ट होकर उन्होंने क्षत्रिय धर्म स्वीकार किया था। ऐसी अवस्था में यदि मैंने उनका वध किया तो तुम मेरी निंदा क्यों करते हो ? जो ब्राह्मण कहलाकर भी दूसरों के प्रति माया का प्रयोग करता है उसे यदि कोई माया से ही मार डाले तो इसमें अनुचित क्या है ? तुम जानते हो, मेरी उत्पत्ति इसी काम के लिये हुई थी; फिर भी मुझे गुरुहत्यारा क्यों कहते हो ? जो क्रोध के पराभूत हो ब्रह्मास्त्र न जाननेवालों को भी ब्रह्मास्त्र से नष्ट करता है, वह सभी तरह के उपायों से क्यों न मार डाला जाय ? उन्होंने दूसरों के नहीं; मेरे ही भाइयों का संहार किया था; अतः उसके बदले उनका मस्तक काट लेने पर भी मेरा क्रोध शान्त नहीं हुआ है। राजा भगदत्त तुम्हारे पिता के मित्र थे; उन्हें मारकर जैसे तुमने अधर्म नहीं किया, उसी प्रकार मैंने भी धर्म से ही शत्रु का वध किया है।  जब तुम अपने पितामह को भी युद्ध में मारकर धर्म का पालन समझते हो तो मैंने जो शत्रु का संहार किया, उसे अधर्म क्यों मानते हो ? बहिन द्रौपदी और उसके पुत्रों का खयाल करके ही मैं तुम्हारी कठोर बातें सहे लेता हूँ, इसमें और कोई कारण नहीं है। अर्जुन ! न तो तुम्हारे भाई असत्यवादी हैं और न मैं पापी। द्रोणाचार्य अपने ही अपराध के कारण मारे गये हैं; अतः चलकर युद्ध करो।‘
धृतराष्ट्र बोले___ संजय ! जिन महात्मा ने अंगोंसहित संपूर्ण वेद का अध्ययन किया था, जिनमें साक्षात् धनुर्वेद प्रतिष्ठित था, उन आचार्य द्रोण की वह नीच, नृशंस एवं गुरुघाती धृष्टधुम्न निंदा करता रहा और किसी क्षत्रिय ने उसपर क्रोध किया ? धिक्कार है इस क्षत्रियपन को ! बताओ, वह अनुचित बात सुनकर पाण्डव तथा दूसरे धनुर्धर राजाओं ने धृष्टधुम्न से क्या कहा ?
 संजय ने कहा___महाराज ! उस समय अर्जुन ने द्रुपदकुमार की ओर तिरछी नजर से देखा और आँसू बहाते हुए उच्छ्वास लेकर कहा___’ धिक्कार है ! धिक्कार ! !’ उस समय युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल_ सहदेव तथा श्रीकृष्ण आदि सबलोग संकोचवश चुप हो गये। केवल सात्यकि से नहीं रहा गया, वह बोल उठा___’अरे ! क्या यहाँ कोई भी मनुष्य नहीं है, जो अमंगलमयी बात करनेवाले इस पापी नराधम को शीघ्र ही मार डाले ? ओ नीच ! श्रेष्ठ पुरुषों की मण्डली में बैठकर ऐसी ओछी बातें करते तुझे लज्जा नहीं आती ? तेरी जीभ के सैकड़ों टुकड़े क्यों नहीं हो जाते ? तेरा मस्तक क्यों नहीं फट जाता ? ०गुरु की निंदा करते समय तू रसातल में क्यों नहीं चला जाता ? स्वयं ऐसा नीच कर्म करके उलटे गुरु पर ही दोषारोपण करता है ? तुझे तो मार ही डालना चाहिये। क्षणभर भी तेरे जीवित रहने से संसार का कोई लाभ नहीं है ! नराधम ! तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा श्रेष्ठ मनुष्य है, जो धर्मात्मा गुरु का केश पकड़कर उसका वध करने को तैयार होगा ? तूने बीती तथा आगे होने वाली अपनी सात_ सात पीढ़ियों को नरक में डूबो दिया। अब यदि पुनः मेरे समीप ऐसी बात मुँह से निकालेगा तो वज्र के समान गदा मारकर तेरा सिर उड़ा दूँगा। तू हत्यारा है, तुझे ब्रह्महत्या का पाप लगा है; इसीलिये लोग तुझे देखकर प्रायश्चित के लिये सूर्यनारायण का दर्शन करते हैं। खड़ा रह, मेरी गदा की एक चोट सह ले; मैं भी तेरी गदा की अनेक चोटें सहूँगा।‘
इस प्रकार जब सात्यकि ने द्रुपदकुमार का तिरस्कार किया, तो उसने भी क्रोध में भरकर उसकी मखौल उड़ाते हुए बोला___’ सुन ली, सुन ली तेरी बात; और इसके लिये तुझे क्षमा भी करता हूँ। तेरे जैसे नीच लोगों का सत्पुरुषों पर आक्षेप करने का स्वभाव ही होता है। यद्यपि संसार में  क्षमा की बड़ी प्रशंसा की जाती है, तथापि पापी के प्रति क्षमा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि वह क्षमा करनेवालों को पराजित समझता है। तू सिर से पैर तक दुराचारी, नीच और पापी है; स्वयं निंदा के योग्य होकर भी दूसरों की निंदा करना चाहता है।
भूरिश्रवा का हाथ कट गया था, वह प्राणान्त अनशन लेकर बैठा था; उस समय तूने सबके मना करने पर भी जो उसका मस्तक काट लिया, इससे बढ़कर पाप और क्या हो सकता है ? जो स्वयं ऐसा काम करे, वह दूसरों को क्या कहेगा ? तू बड़ा धर्मात्मा पुरुष था तो जब भूरिश्रवा तुझे लात मारकर जमीन पर पटककर काटने लगा, उस समय ही तूने क्यों न उसका वध किया ? स्वयं पापी होकर मुझसे क्यों कठोर बातें कह रहा है ? अब चुप रह, फिर कोई ऐसी बात मुँह से न निकालना; नहीं तो बाणों से मारकर अभी तुझे यमलोक भेज दूँगा। चुपचाप युद्ध कर, कौरवों के साथ ही प्रेतलोक में जाने का उपाय कर।‘ धृष्टधुम्न के ऐसे कठोर वचन सुनकर सात्यकि क्रोध से काँप उठा, उसकी आँखें लाल हो गयीं, हाथ में गदा ले उछलकर वह द्रुपदकुमार के पास जा पहुँचा और बोला___’ अब मैं कोई कड़ी बात न कहकर केवल तुझे मार डालूँगा; क्योंकि तू इसी के योग्य है।‘ इस प्रकार महाबली सात्यकि को धृष्टधुम्न पर सहसा टूटते देख भगवान् श्रीकृष्ण के इशारे से भीमसेन अपने रथ से कूद पड़े और अपनी दोनों बाँहों से सात्यकि को रोका, पर वह बलपूर्वक आगे बढ़ गया। उस समय उसके शरीर से पसीने छूट रहे थे। भीमसेन ने दौड़कर छठे कदम पर सात्यकि को पकड़ा और अपने दोनो पैर जमाकर खड़े हो किसी प्रकार उसे काबू में किया। इतने में ही सहदेव भी अपने रथ से कूदकर आ पहुँचा और बोला____’ नरश्रेष्ठ ! अन्धक, वृष्णि तथा पांचालों से बढ़कर हमारा कोई मित्र नहीं है। तुमलोग जैसे हमारे मित्र हो, वैसे हम भी तुम्हारे हैं। तुम तो सब धर्मों के ज्ञाता हो, मित्रधर्म का खयाल करके अपने क्रोध को रोको। तुम धृष्टधुम्न के अपराध को क्षमा करो और धृष्टधुम्न तुम्हारे।‘  जब सहदेव सात्यकि को शान्त कर रहे थे, उस समय धृष्टधुम्न ने हँसकर कहा___’भीमसेन ! छोड़ दो, छोड़ दो सात्यकि को। यह युद्ध के घमण्ड में मतवाला हो रहा है। अभी तीखे बाणों से इसका सारा क्रोध उतार देता हूँ और इसकी जीवन_ लीला भी समाप्त किये डालता हूँ।‘
उसकी बात सुनकर सात्यकि साँप के समान फुँफकारता हुआ भीमसेन की भुजाओं से छूटने का उद्योग करने लगा। दोनों वीर अपनी_ अपनी जगह पर साँप के समान गरज रहे थे। यह देख भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन तुरंत ही बीच में आ पड़े और बड़े यत्न से उन्होंने उन दोनों को शान्त किया। इस प्रकार क्रोध ले आँखें लाल किये उन दोनों,धनुर्धर वीरों को आपस में लड़ने से रोककर पाण्डवपक्ष के क्षत्रिय योद्धा शत्रुओं का सामना करने के लिये आ डटे।

कौरवों का भयभीत होकर भागना, पिता की मृत्यु सुनकर अश्त्थामा का कोप और उसके द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग

संजय कहते हैं___ महाराज ! आचार्य द्रोण के मारे जाने के बाद कौरवों को बड़ा शोक हुआ। उनकी आँखों से आँसू बह चले। लड़ने का सारा उत्साह जाता रहा। वे आर्तस्वर से विलाप करते हुए आपके पुत्र को घेरकर बैठ गये। दुर्योधन से अब वहाँ खड़ा नहीं रहा गया, वह भागकर अन्यत्र चला गया। आपके सैनिक भूख_प्यास से विकल थे। वे ऐसे उदास दिखायी देते थे, मानो लू की लपट में झुलस गये हों। द्रोण की मृत्यु से सब पर भय छा गया था, इसलिये सब भाग गये। दुःशासन भी आचार्य की मृत्यु सुनकर घबरा गया था,  अतः वह भी हाथियों की सेना लेकर भाग निकला। बचे हुए संशप्तकों को साथ ले सुशर्मा भी पलायन कर गया। कोई हाथी पर चढ़कर भागा तो कोई रथ पर। कुछ लोग घोड़े को रणभूमि में ही छोड़कर भाग खड़े हुए। कोई पिता को जल्दी भागने को कहते थे, कोई भाइयों से। कोई मामा और मित्रों को उत्तेजित करते हुए भाग रहे थे। इस प्रकार जब आपकी सेना भयभीत एवं अशक्त होकर भागी जा रही थी, उस समय अश्त्थामा ने दुर्योधन के पास जाकर पूछा___भारत ! तुम्हारी यह सेना त्रस्त होकर भाग क्यों रहे  ? पहले की भाँति तुम्हारा मन आज स्वस्थ नहीं दिखायी देता। कर्ण आदि भी यहाँ नहीं ठहर पाते। और दिन भी भयानक युद्ध हुए हैं, पर सेना की ऐसी दशा कभी नहीं हुई। बताओ तो, किस महारथी की मृत्यु हुई है जिससे तुम्हारी सेना इस अवस्था को पहुँच गयी ?’
 द्रोणपुत्र का यह  प्रश्न सुनकर भी दुर्योधन उस घोर अप्रिय समाचार को मुँह से नहीं निकाल सका। केवल उसकी ओर देखकर आँसू बहाता रहा। इसके बाद उसने कृपाचार्य से कहा___’ आप ही सेना के भागने का कारण बता दीजिये।‘  तब कृपाचार्य बारम्बार विषादमग्न होकर अश्त्थामा से द्रोण को मारे जाने का समाचार सुनाने लगे। उन्होंने कहा___’तात ! हमलोग आचार्य द्रोण को आगे रखकर पांचाल राजाओं से संग्राम कर रहे थे। उस युद्ध में जब बहुत_ से कौरवयोद्धा मारे गये तो तुम्हारे पिता ने कुपित होकर ब्रह्मास्त्र प्रकट किया और भल्ल नामक बाणों से हजारों शत्रुओं का सफाया कर डाला। उस समय काल की प्रेरणा से पाण्डव, केकय, मत्स्य और विशेषतः पांचाल वीरों में से जो भी द्रोण के रथ के सामने आये, वे सब नष्ट हो गये। फिर तो पांचाल योद्धा भाग खड़े हुए। उनका बल और पराक्रम धूल में मिल गया। वे उत्साह खो बैठे और अचेत_ से हो गये। उन्हें द्रोण के बाणों से पीड़ित देख पाण्डवों की विजय चाहनेवाले श्रीकृष्ण ने कहा____’ये आचार्य द्रोण मनुष्यों से कभी नहीं जीते जा सकते; औरों की तो हार ही क्या है, इन्द्र भी इन्हें परास्त नहीं कर सकते। मेरा ऐसा विश्वास है कि अश्त्थामा के मारे जाने पर ये लड़ाई नहीं कर सकते; इसलिये कोई जाकर अश्त्थामा की मृत्यु की झूठी खबर सुना दे।‘  यह बात और सबने तो मान ली, केवल अर्जुन को पसंद नहीं आई। युधिष्ठिर ने भी बड़ी कठिनाई से इसे स्वीकार किया। भीमसेन ने लजाते_ लजाते तुम्हारे पिता के सामने जाकर कहा___’अश्त्थामा मारा गया;’ पर उन्होंने इस पर विश्वास नहीं किया। इसी बीच में भीमसेन ने मालवा के राजा इन्द्रवर्मा के अश्त्थामा नामक हाथी को मार डाला। इसे युधिष्ठिर ने भी देखा। द्रोण ने सच्ची बात का पता लगाने के लिये राजा युधिष्ठिर से पूछा___’ अश्त्थामा मारा गया या नहीं ?’ मिथ्या भाषण में कितना दोष है, यह जानते हुए भी युधिष्ठिर ने कह दिया ‘ अश्त्थामा मारा गया। परन्तु हाथी।‘  अन्तिम वाक्य उन्होंने धीरे से कहा, जिसे तुम्हारे पिता सुन न सके। अब उन्हें तुम्हारे मरने का विश्वास हो गया। वे संताप से पीड़ित हो गये। अब युद्ध में पहले_ का सा उत्साह न रहा। उन्होंने दिव्यास्त्रों का परित्याग कर दिया और समाधि लगाकर बैठ गये। उस समय धृष्टधुम्न ने पास जाकर बायें हाथ ले उनके केश पकड़ लिये और उनका सिर धड़ से अलग कर दिया। सब योद्धा पुकार_ पुकारकर कर रहे थे___’ न मारो, न मारो ।‘ अर्जुन तो रथ से उतरकर उसके पीछे दौड़ पड़े और बाँह उठाकर बारम्बार कहने लगे___’ आचार्य को जीवित ही उठा लाओ, मारो मत।‘ इस प्रकार सब लोग मना करते ही रह गये, परन्तु उस नृशंस ने तुम्हारे पिता को मार ही डाला। उसके मारे जाने,पर हमारा उत्साह भी जाता रहा, इसलिये भाग रहे हैं।‘ धृतराष्ट्र ने पूछा___ संजय ! आचार्य द्रोण को वारुण, आग्नेय, ब्राह्म, ऐन्द्र और नारायण_ अस्त्र का भी ज्ञान था; वे धर्म में स्थित रहनेवाले थे; तो भी धृष्टधुम्न ने उन्हें अधर्मपूर्वक मार डाला। वे शस्त्रविद्या में परशुराम की और युद्ध में इन्द्र की समानता रखते थे। उनका पराक्रम कीर्तवीर्य के समान और बुद्धि बृहस्पति के तुल्य थी। वे पर्वत के समान स्थिर और अग्नि के समान तेजस्वी थे। गम्भीरता में समुद्र को भी मात करते थे। ऐसे धर्मिष्ठ पिता को धृष्टधुम्न के द्वारा अधर्मपूर्वक मारा गया सुनकर अश्त्थामा ने क्या कहा?
 संजय कहते हैं____ पापी धृष्टधुम्न ने मेरे पिता को छल से मार डाला है___ यह सुनकर अश्त्थामा पहले तो रो पड़ा, उसकी आँखों से आँसू बहने लगे; मगर फिर वह रोष से भर गया, उसका सारा शरीर क्रोध से तमतमा उठा। बारम्बार आँखों से आँसू पोंछता हुआ वह दुर्योधन से बोला___’राजन् ! मेरे पिता ने हथियार डाल दिया था तो भी उन नीचों ने उन्हें मरवा डाला। इन धर्मध्वजियों का किया हुआ पाप आज मुझे मालूम हो गया। युधिष्ठिर ने जो भी नीचतापूर्ण क्रूर कर्म किया है, उसे भी सुन लिया। मेरे पिता रण में मृत्यु को प्राप्त होकर अवश्य ही वीरों के लोक में गये हैं; अतः उनके लिये मुझे शोक नहीं करना है। किन्तु धर्म में प्रवृत्त रहने पर भी जो उनका केश पकड़ा गया___ यही मेरे मर्मस्थानों को छेदे डालता है। मुझ जैसे पुत्र के जीवित रहते भी उन्हें यह दिन देखना पड़ा। दुरात्मा धृष्टधुम्न ने मेरा अपमान करके जो यह महान् पाप किया  है, इसका भयंकर परिणाम उसे जल्दी ही भोगना पड़ेगा। युधिष्ठिर भी कितना झूठा है ! उसने बहुत बड़ा अन्याय करके छल से मेरे पिता का हथियार डलवा दिया है। अतः आज यह पृथ्वी उस धर्मराज कहलानेवाले का रक्तपान करेगी। आज मैं अपने सत्य तथा निष्ठापूर्त कर्मों की शपथ खाकर कहता हूँ कि संपूर्ण पांचालों का संहार किये बिना मैं कदापि जीवित नहीं रहूँगा। हर तरह के उपायों से पांचालों के नाश का प्रयत्न करूँगा। कोमल या कठोर कर्म करके भी पापी धृष्टधुम्न का नाश कर डालूँगा। पांचालों का सर्वनाश किये बिना मैं शान्ति नहीं पा सकूँगा। संसार के लोग पुत्र की चाह इसीलिये करते हैं कि वह इहलोक तथा परलोक में महान् भय से पिता की रक्षा करेगा। परंतु मैं जीवित ही हूँ और मेरे पिता की पुत्रहीन की_सी दुर्दशा हुई है। धिक्कार है मेरे दिव्य अस्त्रों को, धिक्कार है मेरी इन भुजाओं और पराक्रम को, जो कि मेरे जैसे पुत्र को पाकर भी मेरे पिता का केश खींचा गया। अब मैं ऐसा काम करूँगा, जिससे परलोकवासी पिता के ऋण से उऋिण हो जाऊँ। श्रेष्ठ पुरुष को अपनी प्रशंसा कभी नहीं  करनी चाहिये; तथापि अपने पिता वध मुझसे सहा नहीं जाता, इसलिये अपना पौरुष कहकर सुनाता हूँ। आज श्रीकृष्ण और पाण्डव मेरा पराक्रम देखें, उनकी संपूर्ण सेना को मिट्टी में मिलाकर प्रलय का दृश्य उपस्थित कर दूँगा। रथ में बैठकर संग्रामभूमि में पहुँचने पर आज मुझे देवता, गंधर्व, असुर नाग और राक्षस भी नहीं जीत सकते। संसार में मुझसे या अर्जुन से बढ़कर दूसरा कोई अस्त्रवेत्ता नहीं है। मैं एक ऐसा अस्त्र जानता हूँ जिसे न श्रीकृष्ण जानते हैं, न अर्जुन। भीमसेन, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, धृष्टधुम्न, शिखण्डी और सात्यकि को भी उसका ज्ञान नहीं है।
पूर्वकाल की बात है, मेरे पिता ने भगवान् नारायण को नमस्कार करके उनकी विधिवत् पूजा की थी। भगवान् ने उनका पूजन स्वीकार किया और वर माँगने को कहा। पिता ने उनसे सर्वोत्तम नारायणास्त्र की याचना की। तब भगवान् बोले___मैं यह अस्त्र तुम्हें देता हूँ, अब युद्ध में तुम्हारा मुकाबला करनेवाला कोई नहीं रह जायगा। किन्तु ब्राह्मण ! इसका सहसा प्रयोग नहीं करना चाहिये; क्योंकि यह अस्त्र शत्रु का नाश किये बिना नहीं लौटता। अवध्य का भी वध कर डालता है। इसको शान्त करने के उपाय ये हैं___ शत्रु अपना रथ छोड़कर उतर जाय, हथियार नीचे डाल दे और हाथ जोड़कर इसकी शरण में चला जाय। और किसी उपाय से इसका निवारण नहीं होता।‘ यह कहकर उन्होंने अस्त्र दिया और मेरे पिता उसे ग्रहण करके मुझे भी सिखा दिया था। भगवान् ने अस्त्र देते समय यह भी कहा था कि ‘ तुम इस अस्त्र से अनेकों प्रकार के दिव्यास्त्रों का नाश कर सकोगे और संग्राम में बड़े तेजस्वी दिखायी दोगे।‘ ऐसा कहकर भगवान् अन्तर्धान गये। यह नारायणास्त्र मुझे अपने पिता से मिला है। इसके द्वारा युद्ध में मैं पाण्डव, पांचाल, मत्स्य और केकयों को मार भगाऊँगा। पाण्डवों को अपमानित करके न अपने संपूर्ण शत्रुओं का विध्वंस कर डालूँगा। ब्राह्मण और गुरु से द्रोह करनेवाले पांचालकुलकलंक धृष्टधुम्न को भी आज नहीं छोड़ूँगा।‘ अश्त्थामा की बात सुनकर कौरवों की भागती हुई सेना लौट पड़ी। सभी महारथियों ने बड़े_ बड़े शंख बजाने शुरु किये। भेेेेरी बज उठी, हजारों नगाड़े पीटे जाने लगे। उन बाजों की तुमुल ध्वनि से आकाश और पृथ्वी गूँज उठी। मेघ की गम्भीरता गर्जना के समान उस तुमुल नाद को सुनकर पाण्डव महारथी एकत्र हो परामर्श करने लगे। इसी बीच अश्त्थामा ने दिव्य नारायणास्त्र को प्रकट किया।

Friday, 6 March 2020

आचार्य द्रोण का वध

संजय कहते हैं___महाराज ! राजा द्रुपद ने बहुत बड़ा यज्ञ करके प्रज्वलित अग्नि से जिसको द्रोण का नाश करने के लिये प्राप्त उस धृष्टधुम्न ने जब देखा कि आचार्य द्रोण बड़े ही उद्विग्न हैं और उनका चित्त शोकाकुल हो रहा है तो उसने उस अवसाद का लाभ उठाने के लिये उनपर धावा कर दिया। धृष्टधुम्न ने एक विजय दिलानेवाला सुदृढ़ धनुष हाथ में ले उसपर अग्नि के समान तेजस्वी बाण रखा। यह देख द्रोण ने उसे रोकने के लिये अंगिरस नामक धनुष और ब्रह्मदण्ड के समान अनेकों बाण हाथ में लिये। फिर उन बाणों की वर्षा से उन्होंने धृष्टधुम्न को ढक दिया, उसे घायल भी कर डाला तथा उसके बाण, धनुष और ध्वजा को काटकर सारथि को भी मार गिराया। तब धृष्टधुम्न ने हँसकर दूसरा धनुष उठाया और आचार्य की छाती में एक तेज किया हुआ बाण मारा। उसकी करारी चोट से उन्हें चक्कर आ गया। अब उन्होंने एक तीखी धारवाला भाला लिया और उससे उसके धनुष को पुनः काट डाला। इतना ही नहीं, इसके अलावा भी उसके पास जितने धनुष थे, उन सबको काट दिया। केवल गदा और तलवार  को रहने दिया। इसके बाद उन्होंने धृष्टधुम्न को नौ बाणों से बींध डाला। तब उस महारथी ने अपने घोड़ों को द्रोण के रथ के घोड़ों के साथ मिला दिया और ब्रह्मास्त्र छोड़ने का विचार किया। इतने में  ही द्रोण ने उसके ईषा, चक्र और रथ का बन्धन काट दिया। धनुष, ध्वजा और सारथि का नाश तो पहले ही हो चुका था। इस भारी विपत्ति में फँसकर धृष्टधुम्न ने गदा उठायी, किन्तु आचार्य वे तीखे सायकों से उसके भी टुकड़े_टुकड़े कर दिये। अब उसने चमकती हुई तलवार हाथ में ली और अपने रथ से द्रोणाचार्य के रथ पर पहुँचकर उनकी छाती में वह कटार भोंक देने का विचार किया। यह देख द्रोण ने शक्ति उठायी और उसके द्वारा एक_ एक करके धृष्टधुम्न के चारों घोड़ों को मार डाला। यद्यपि दोनों के घोड़े एक साथ मिल गये थे तो भी उन्होंने अपने लाल रंग के घोड़ों को बचा लिया। उनकी यह करतूत धृष्टधुम्न से नहीं सही गयी। वह द्रोण की ओर तलवार के अनेकों हाथ दिखाने लगा। इसी बीच एक हजार ‘ वैतस्तिक’ नामक बाण मारकर आचार्य ने उसका ढ़ाल_तलवार के  खण्ड_खण्ड कर डाले। उपर्युक्त बाण निकट से युद्ध करने में उपयोगी होते हैं तथा बित्तेभर के होने के कारण ही वैतस्तिक कहलाते हैं। द्रोण, कृप, अर्जुन, कर्ण, प्रद्युम्न, सात्यकि तथा अभिमन्यु के सिवा और किसी के सिवा वैसे बाण नहीं थे। तलवार काट देने के बाद आचार्य ने अपने शिष्य धृष्टधुम्न का वध करने की इच्छा से एक उत्तम बाण धनुष पर रखा। सात्यकि यह देख रहा था।  उसने दस तीखे बाण मारकर कर्ण और दुर्योधन के सामने द्रोण का वह अस्त्र काट दिया तथा धृष्टधुम्न को द्रोण के चंगुल से बचा लिया। उस समय सात्यकि, द्रोण, कर्ण और कृपाचार्य के बीच बेखटके घूम रहा था। उसकी हिम्मत देख श्रीकृष्ण और अर्जुन प्रशंसा करते हुए शाबाशी देने लगे। अर्जुन श्रीकृष्ण से कहने लगे___’ जनार्दन ! देखिये तो सही, आचार्य के पास खड़े हुए मुख्य महारथियों के बीच सात्यकि खेल_सा करता हुआ विचार रहा है, उसे देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। दोनों ओर के सैनिक आज उसके पराक्रम की मुक्तकण्ठ से सराहना कर रहे हैं।‘ जब सात्यकि ने द्रोणाचार्य का वह बाण काट डाला तो दुर्योधन आदि महारथियों को बड़ा क्रोध हुआ। कृपाचार्य, कर्ण तथा आपके पुत्र उसके निकट पहुँचकर बड़ी फुर्ती के साथ तेज किये हुए बाण मारने लगे। यह देख राजा युधिष्ठिर, नकुल_ सहदेव और भीम वहाँ आ गये तथा सात्यकि के चारों ओर खड़े उसकी रक्षा करने लगे। अपने ऊपर सहसा होनेवाली उस बाणवर्षा को सात्यकि ने रोक दिया और दिव्यास्त्रों से शत्रुओं के सभी अस्त्रों का नाश कर डाला। उस समय धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने पक्ष के क्षत्रिय योद्धाओं से कहा___'महारथियों !  क्या देखते हो, पूरी शक्ति लगाकर द्रोणाचार्य पर धावा करो। वीरवर धृष्टधुम्न अकेला ही द्रोण से लोहा ले रहा है और अपनी शक्तिभर उसके नाश की चेष्टा में लगा है। आशा है, वह आज उसे मार गिरायेगा। अब तुमलोग भी एक साथ उनपर टूट पड़ो।‘  युधिष्ठिर की आज्ञा पाते ही सृंजय महारथी द्रोण को मार डालने की इच्छा से आगे बढ़े। उन्हें आते देख द्रोणाचार्य यह निश्चय करके कि ‘आज तो मरने ही है, बड़े वेग से उनकी ओर झपटे। उस समय पृथ्वी काँप उठी। उल्कापात होने लगा। द्रोण की बायीं आँख और बायीं भुजा फड़कने लगी। इतने ही में द्रुपदकुमार की सेना ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। अब उन्होंने क्षत्रियों का संहार करने के लिये पुनः ब्रह्मास्त्र उठाया। उस समय धृष्टधुम्न बिना रथ के ही खड़ा था, उसके आयुध भी नष्ट हो चुके थे। उसको इस अवस्था में देख भीमसेन शीघ्र ही उसके पास गये और अपने रथ में बिठाकर बोला____’वीरवर तुम्हारे सिवा दूसरा कोई योद्धा ऐसा नहीं है, जो आचार्य से लोहा लेने साहस कर सके। इनके मारने का भार तुम्हारे ही ऊपर है।‘
भीमसेन की बात सुनकर धृष्टधुम्न ने एक सुदृढ़ धनुष हाथ में लिया और द्रोण को पीछे हटाने की इच्छा से इन पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। फिर दोनों ही क्रोध में भरकर एक_दूसरे पर ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य अस्त्रों का प्रहार करने लगे। धृष्टधुम्न ने बड़े_बड़े अस्त्रों से द्रोणाचार्य कोआच्छादित कर दिया और उनके छोड़े हुए सभी अस्त्रों को काटकर उनकी रक्षा करनेवाले वसाति, शिबि, बाह्लीक और कौरव_योद्धाओ को भी घायल कर दिया। तब द्रोण ने उसका धनुष काट डाला और सायकों से उसके मर्मस्थानों को भी बींध दिया। इससे धृष्टधुम्न को बड़ी वेदना हुई। अब भीमसेन ये नहीं रहा गया। वे आचार्य के रथ के पास जा उससे सटकर धीरे_ धीरे बोले___’यदि ब्राह्मण अपना कर्म छोड़कर युद्ध न करते तो क्षत्रियों का भीषण संहार न होता। प्राणियों का हिंसा न करना__यह सब धर्मों में श्रेष्ठ बताया गया है,उसकी जड़ है ब्राह्मण और आप तो उन ब्राह्मणों में भी सबसे उत्तम वेदवेत्ता हैं। ब्राह्मण होकर भी स्त्री, पुत्र और धन के लोभ में आपने चाण्डाल की भाँति म्लेच्छों तथा अन्य राजाओं का संहार कर डाला है। जिसके लिये आपने हथियार उठाया, जिसका मुँह देखकर जी रहे हैं, वह अश्त्थामा तो आपकी नजरों से दूर मरा पड़ा है। इसकी आपको खबर तक नहीं दी गयी है। क्या युधिष्ठिर के रहने पर भी आपको विश्वास नहीं हुआ ? उनकी बात पर तो संदेह नहीं करना चाहिये। भीम का कथन सुनकर द्रोणाचार्य ने धनुष नीचे डाल दिया और अपने पक्ष के योद्धाओं से पुकारकर कहा___'कर्ण ! कृपाचार्य और दुर्योधन ! अब तुमलोग स्वयं ही युद्ध के लिये प्रयत्न करो___ यही मेरा तुमसे बारम्बार कहना है। अब मैं अस्त्रों का त्याग करता हूँ।‘ यह कहकर उन्होंने ‘ अश्त्थामा’ नाम ले_ लेकर पुकारा। फिर सारे अस्त्र_ शस्त्रों को फेंककर वे रथ के पिछले भाग में बैठ गये और संपूर्ण प्राणियों को अभयदान देकर ध्यानमग्न हो गये।‘ धृष्टधुम्न को यह एक मौका हाथ लगा। उसने धनुष और बाण तो रख दिया और तलवार हाथ में ले ली। फिर कूदकर वह सहसा द्रोण के निकट पहुँच गया। द्रोणाचार्य तो योगनिष्ठ थे और धृष्टधुम्न उन्हें मारने चाहता था___ यह देखकर सबलोग हाहाकार करने लगे। सबने एक स्वर से उसे धिक्कारा। इधर आचार्य शस्त्र त्यागकर परमज्ञानस्वरूप में स्थित हो गये और योगधारणा के द्वारा मन_ही_मन पुराणपुरुष विष्णु का ध्यान करने लगे। उन्होंने मुँह को कुछ ऊपर उठाया और सीने को आगे की ओर जानकर स्थिर किया, फिर विशुद्ध सर्व में स्थित होकर हृदयकमल में एकाक्षर ब्रह्म___ प्रवण की धारणा करके देवदेवेश्वर अविनाशी परमात्मा का चिंतन किया। इसके बाद शरीर त्यागकर वे उस उत्तम गति को प्राप्त हुए, जो बड़े_बड़े संतों के लिये दुर्लभ है। जब वे सूर्य के समान तेजस्वी स्वरूप से ऊर्ध्वलोक को जा रहे थे, उस समय सारा आकाशमण्डल दिव्य ज्योति से आलोकित हो उठा था। इस प्रकार आचार्य ब्रह्मलोक चले गये और धृष्टधुम्न मोहग्रस्त होकर वहाँ चुपचाप खड़ा था। महाराज ! योगयुक्त महात्मा द्रोणाचार्य जिस समय परमधाम को जा रहे थे, उस समय मनुष्यों में केवल मैं, कृपाचार्य, श्रीकृष्ण, अर्जुन और युधिष्ठिर___ ये ही पाँच उनका दर्शन कर सके थे। और किसी को उनकी महिमा का ज्ञान न हो सका। इसके बाद धृष्टधुम्न ने द्रोण के शरीर में हाथ लगाया। उस समय सब प्राणी उसे धिक्कार रहे थे। द्रोण के शरीर में चेतना नहीं थी, वे कुछ बोल नहीं रहे थे। इस अवस्था में धृष्टधुम्न ने तलवार से उनका मस्तक काट लिया और बड़ी उमंग में भरकर उस कटार को घुमाता हुआ सिंहनाद करने लगा। आचार्य के शरीर का रंग लाल था, उनकी आयु पचासी वर्ष की हो चुकी थी, ऊपर से लेकर कान तक सफेद बाल हो गये थे; तो भी आपके हित के लिये वे संग्राम में सोलह वर्ष का उम्र वाले तरुण की भाँति विचरते थे। कुन्तीनन्दन अर्जुन पुकारकर कहते ही रह गये कि ‘द्रुपदकुमार ! आचार्य का वध न करो, उन्हें जीते_जी ही उठा ले आओ।‘ पर उसने नहीं सुना। आपके सैनिक भी ‘न मारो, न मारो’  की रट लगाते ही रह गये। अर्जुन तो करुणा में भरकर धृष्टधुम्न के पीछे_ पीछे दौड़े भी, पर कुछ फल न हुआ। सब लोग पुकारते ही रह गये, किन्तु उसने उसका वध ही कर डाला। खून से भीगी हुई आचार्य की लाश तो रथ से  नीचे गिर पड़ी और उनके मस्तक को धृष्टधुम्न ने आपके पुत्रों के सामने फेंक दिया। उस युद्ध में आपके बहुत योद्धा मारे गये थे। अधमरे मनुष्यों की संख्या भी कम नहीं थी। द्रोण के मरते ही सभी की हालत मुर्दे की_सी हो गयी। हमारे पक्ष के राजाओं ने द्रोण के मृतक शरीर को बहुत खोजा; पर वहाँ इतनी लाशों बिछी थी कि वे उसे प्राप्त न कर सके। तदनन्तर भीमसेन और धृष्टधुम्न एक_दूसरे से गले मिलकर सेना के बीच में खुशी के मारे नाचने लगे। भीम ने कहा___ पांचालकुमार !  जब कर्ण और दुष्ट दुर्योधन मारे जायेंगे, उस समय फिर तुम्हें इसी प्रकार छाती से लगाऊँगा।