Wednesday 15 February 2023

राजा शल्य का सेनापति के पद पर अभिषेक और भगवान् श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को शल्य से लड़ने के लिये आदेश

संजय कहते हैं_महाराज ! हिमालय की तराई में विश्राम करने के समय सभी प्रधान_प्रधान योद्धा एक स्थान पर इकट्ठे हुए। शल्य, चित्रसेन, शकुनि, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा, सुसेन, अरिष्टसेन, धृतसेन तथा जयत्सेन आदि राजाओं ने भी वहीं रात्रि बितायी थी। इन सब लोगों ने एकत्रित होकर राजा शल्य के पास बैठे हुए राजा दुर्योधन का विधिवत् पूजन किया और युद्ध के लिये प्रयत्नशील होकर कहा_'राजन् ! तुम किसी को सेनापति बनाकर शत्रुओं के साथ युद्ध करो; क्योंकि सेनापति के संरक्षण में रहकर ही हम अपने वैरियों पर विजय पा सकते हैं।' तब राजा दुर्योधन रथ पर सवार हो महारथी अश्वत्थामा के पास गया। अश्वत्थामा युद्ध की संपूर्ण कलाओं का ज्ञाता, संग्राम में तो वह यमराज के समान जान पड़ता था। सूर्य के समान तेजस्वी और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान था। उसमें सभी प्रकार के शुभ लक्षण थे, वह प्रत्येक कार्य में निपुण और वैदिक ज्ञान का समुद्र था। शत्रुओं को वेग से जीतने वाला वह स्वयं अजेय था। धनुर्वेद के ( व्रत, प्राप्ति, धृति, पुष्टि, स्मृति, क्षेप, अभिरेदन, चिकित्सा, उद्दीपन और कृष्टि_ इन )दस अंगों तथा ( दीक्षा, शिक्षा, आत्मरक्षा और इनका साधन_इन ) चार पादों को ठीक_ठीक जानता था। छ: अंगों सहित चारों वेदों तथा इतिहास_पुराणरूप पंचम वेद का भी उसे पूर्ण ज्ञान था। उस महातपस्वी ने कठोर व्रतों का पालन करके बड़े यत्न से शंकरजी की अराधना की थी। उसके पराक्रम और रूप की कहीं भी तुलना नहीं थी। वह संपूर्ण विद्याओं का पारगामी, गुणों का समुद्र तथा सबकी प्रशंसा का पात्र था। उसके पास पहुंचकर दुर्योधन ने कहा_'आप हमारे गुरु के पुत्र हैं, हम सब लोगों को आपका ही भरोसा है; अतः: आप आज्ञा करें, हम किसे सेनापति बनावें ? अश्वत्थामा ने कहा_ हमलोगों में राजा शल्य भी अब ऐसे हैं, जो उत्तम कुल, पराक्रम, तेज, यश, लक्ष्मी तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हैं। ये ही हमारे सेनापति होने योग्य हैं। राजन् ! इन्हीं को सेनाध्यक्ष बनाकर हम शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं। द्रोण कुमार के ऐसा कहने पर सभी योद्धा राजा शल्य को घेरकर खड़े हो गये और उनकी जय_जयकार करने लगे। अब उन्होंने बड़े आवेश में भरकर युद्ध का निश्चय किया। राजा शल्य द्रोण तथा भीष्म के समान पराक्रमी थे, वे एक उत्तम रथ पर बैठे हुए थे। दुर्योधन रथ से उतरकर उनके सामने भूमि पर खड़ा हो गया और हाथ जोड़कर बोला_मित्रवत्सल ! आप शूरवीर हैं, इसलिये हमारी सेना के अध्यक्ष बनिये।' राजा शल्य ने कहा_कुरुराज ! यदि तुम मुझे सेनापति का सम्मान दे रहे हो, तो मैं तुम्हारे कथनानुसार सब कुछ करुंगा। मेरे प्राण, राज्य और धन सब कुछ तुम्हारा प्रिय करने के लिये है। दुर्योधन बोला_मैं आपको अपना सेनापति स्वीकार करता हूं। जैसे स्वामी कार्तिकेय ने युद्ध में देवताओं की रक्षा की थी, उसी प्रकार आप भी मेरी रक्षा कीजिये। शल्य ने कहा_ दुर्योधन ! मेरी बात सुनो_रथ पर बैठे हुए जिन श्रीकृष्ण और अर्जुन को तुम महारथियों में श्रेष्ठ समझते हो, वे दोनों बाहुबल में किसी तरह मेरी समानता नहीं कर सकते। यदि देवता, असुर और मनुष्यों सहित सारा भूमंडल ही मेरे विपक्ष में उठकर आ जाय तो मैं अकेला ही सबसे युद्ध कर सकता हूं, फिर पाण्डवों की तो बात ही क्या है ? नि: संदेह मैं तुम्हारी सेना का संचालक बनूंगा और ऐसा व्यूह बनाऊंगा, जिसे शत्रु नहीं लांघ सकते। तदनन्तर, राजा दुर्योधन ने शास्त्रीय विधि के अनुसार शल्य का सेनापति के पद पर अभिषेक किया। उनका अभिषेक होते ही आपकी सेना में महान् सिंहनाद होने लगा। तरह_तरह के बाजे बज उठे और मद्रदेश के महारथी बड़े हर्ष में भरकर राजा शल्य की स्तुति करने लगे_'राजन् ! तुम्हारी जय हो, तुम चिरंजीवी रहो और सामने आते हुए समस्त शत्रुओं का संहार करो। तुम देवता, असुर और मनुष्य_सबको युद्ध में परास्त कर सकते हो। इन मरणधर्मी सोमकों और सृंजयों की तो बात ही क्या है ?'  इस प्रकार सम्मान पाकर मद्रराज शल्य फूले नहीं समाये। उन्होंने दुर्योधन से कहा_'राजन् ! आज मैं पाण्डवों सहित समस्त पांचालों का संहार कर डालूंगा अथवा स्वयं ही मरकर स्वर्गलोक को चला जाउंगा। आज संपूर्ण पाण्डव, श्रीकृष्ण, सात्यकि, द्रौपदी के पुत्र, धृष्टद्युम्न, शिखंडी तथा पांचाल, चेदि एवं प्रभद्रक योद्धा मेरे पराक्रम पर दृष्टिपात करें, मेरे धनुष का महान् बल देखें। आज मैं पाण्डव सेना को चारों ओर भगा दूंगा। तुम्हारा प्रिय करने के लिये द्रोणाचार्य, भीष्म तथा कर्ण से भी अधिक पराक्रम दिखाता हुआ रणभूमि में विचरूंगा।' महाराज ! जब शल्य का सेनापति के पद पर अभिषेक हो गया उस समय सभी सैनिक कर्ण का दु:ख भूलकर प्रसन्नचित्त हो गये। आपकी सेना का हर्षनाद सुनकर युधिष्ठिर ने सब क्षत्रियों के सामने ही भगवान् श्रीकृष्ण से कहा_'माधव ! दुर्योधन ने महाराज शल्य को सेनापति बनाया है और सब सेनाओं के बीच उनका सम्मान किया है। यह जानकर आप जो उचित समझिये, कीजिये; क्योंकि आप ही मेरे नेता और रक्षक हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले_'भारत ! मैं आर्तायन के पुत्र शल्य को बहुत अच्छी तरह जानता हूं। वे अत्यन्त पराक्रमी और महान् तेजस्वी हैं, युद्ध करने के लिये विचित्र_विचित्र ढ़ंग उन्हें मालूम है। मेरा तो ऐसा ख्याल है कि भीष्म, द्रोण और कर्ण जैसे योद्धा थे वैसे ही महाराज शल्य भी हैं। युद्ध में उनके जोड़ का दूसरा योद्धा मुझे आपके सिवा कोई दिखाती नहीं देता। इस भूमण्डल की कौन कहे, देवलोक में भी आपके सिवा दूसरा और कोई वीर नहीं है, जो क्रोध में भरे हुए मद्रराज शल्य को युद्ध में मार सके। दुर्योधन ने जिनका सत्कार किया है, वे शल्य अजेय वीर हैं, उनके मारे जाने पर आप कौरवों की विशाल सेना को मरी हुई ही समझिये। मेरी बात मानकर आप इस समय महारथी शल्य पर चढ़ाई कीजिये। मामा समझकर उनपर दया करने की आवश्यकता नहीं है, क्षत्रिय धर्म को सामने रखकर उन्हें मार ही डालिये। आज के संग्राम में आप अपना तपोबल और क्षात्रबल दिखाइये। महारथी शल्य को अवश्य मार डालिये।'  यह कहकर भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों से सम्मानित हो विश्राम के लिये शिविर में चले गये। उनके जाने के बाद राजा युधिष्ठिर ने सब भाइयों, पांचालों और सोमकों को भी विदा किया। फिर सबने अपने_अपने शिविर में सोकर रात बितायी।



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