Thursday 9 February 2023

शल्यपर्व _____ धृतराष्ट्र का विषाद; कृपाचार्य का दुर्योधन को संधि लिये समझाना, किन्तु दुर्योधन का युद्ध के लिये ही निश्चय करना

नारायणन नमस्कृत्यं नरं चैन नरोत्तम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं त्यों जयमुदीरयेत्।।
अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके नित्य सखा नरस्वरूप नररत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियों पर विजयप्राप्तिपूर्वक अन्त:कर्ण को शुद्ध करनेवाले महाभारत ग्रंथ का पाठ करना चाहिये। 

धृतराष्ट्र ने पूछा_संजय ! कौरव_सेना का संचालन करनेवाले सूतपुत्र के मारे जाने पर मेरे पुत्रों ने क्या किया ? क्या कारण है कि मेरे पुत्र जिस_जिस को सेनापति बनाते हैं, उसी_उसी को पाण्डव_लोग थोड़े ही समय में मार डालते हैं ? तुम लोगों को देखते_देखते भीष्म मारे गये, द्रोण की भी यही दशा हुई और अब प्रतापी कर्ण भी जाता रहा। महात्मा विदुर ने मुझसे पहले ही कह दिया था कि 'दुर्योधन के अपराध से प्रजा का नाश हो जायगा।' उन्होंने जो कुछ कहा वह ज्यों का त्यों आज सच हो रहा है। उस वक्त प्रारब्धवश मेरी बुद्धि मारी गरी थी, इसलिए मैंने उनके कहने के अनुसार काम नहीं किया। संजय ! अब मेरे उस अन्याय के फल का पुनः वर्णन करो। कर्ण के मारे जाने पर कौन मेरी सेना का प्रधान बना ? किस महारथी ने श्रीकृष्ण तथा अर्जुन का सामना किया ? संजय ने कहा_महाराज ! कौरव और पाण्डवों के आपस में भिड़ने से जो महान् जनसंहार हुआ, उसकी कथा सावधान होकर सुनिये। नौका से व्यापार करनेवाले व्यापारी जैसे अगाध जल में नाव टूट जाने पर घबरा जाते हैं, उसी प्रकार कौरवों के आश्रयभूत कर्ण के मारे जाने पर आपके सैनिक थर्रा उठे। वे अनाथ की भांति रक्षक ढ़ूंढ़ने लगे। संध्या के समय अर्जुन से परास्त होकर जब हमलोग छावनी में लौटे, उस समय कर्ण की मृत्यु से भरकर आपके सभी पुत्र भाग रहे थे। उनके कवच नष्ट हो गये थे। किस दिशा में जाना है, इसका भी उन्हें पता नहीं था; वे सुध_बुध को बैठे थे। वे आपस में एक_दूसरे को ही मारने लगे। बहुत_से महारथी भय के कारण घोड़ों, हाथियों और रथों पर सवार होकर इधर_उधर भागने लगे। उस भयंकर संग्राम में हाथियों ने रथ तोड़ डाले, महारथियों ने घुड़सवारों को मार डाला तथा रणभूमि से भागने वाले पैदलों को घोड़ों ने कुचला डाला।
इसी समय कृपाचार्य जी आकर दुर्योधन से बोले_'राजन् ! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं, उसे ध्यान देकर सुनो और अच्छा लगे तो उसके अनुसार काम करो। पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, महारथी कर्ण, जयद्रथ, तुम्हारे बहुत से भाई, तुम्हारा पुत्र लक्ष्मण_ये सब तो मारे जा चुके; अब कौन बच गया है, जिसका हम आश्रय ग्रहण करें ? जिन वीरों पर युद्ध का भार रखकर हम राज्य पाने की आशा करते थे, वे तो शरीर छोड़कर वेदवेत्ता ओन की गति को प्राप्त हो गये। हमने भी बहुत से राजाओं को मरवाकर अपने गुणवान महारथियों को खो दिया है। उनके बिना अब हम अकेले रह गये हैं, ऐसी अवस्था में हमें दीनतापूर्ण वर्ताव करना पड़ेगा। जब सब लोग जीवित थे, तब भी अर्जुन किसी के द्वारा परास्त नहीं हुए। कृष्ण जैसे सारथि के होते हुए उन्हें देवता भी नहीं जीत सकते। उनकी वानर की चिह्नवाली ध्वजा देखकर हमारी विशाल सेना थर्रा उठती है। भीमसेन का सिंहनाद, पांचजन्य की भयंकर आवाज और गाण्डीव धनुष की टंकार सुनकर हमलोगों का दिल बैठ जाता है। अर्जुन के हाथ में डोलता हुआ सुवर्ण से जटित महान् धनुष चारों दिशाओं में इस प्रकार दिखाई देता है, जैसे मेघ की घटाओं में बिजली। जिस प्रकार वायु की प्रेरणा से बादल उड़ते फिरते हैं, उसी तरह भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा हांके हुए घोड़े, जो सुनहले साजों से सजे रहते हैं, अर्जुन की सवारी में दौड़ते हैं। अर्जुन अस्त्र विद्या में कुशल हैं; इन्होंने तुम्हारी सेना को उसी प्रकार भस्म किया है, जैसे भयंकर आग घास की ढ़ेरी को जला डालती है। वे धनुष की टंकार से हमारे योद्धाओं को उसी प्रकार भयभीत करते हैं जैसे सिंह मृगों को। आज इस भयंकर संग्राम को प्रारंभ हुए सत्रह दिन बीत गये। महासागर में हवा के थपेड़े खाकर डगमगाती हुई नौका की तरह आपकी सेना को अर्जुन ने कंपा डाला है। उस दिन जयद्रथ को अर्जुन के बाणों का निशाना बनते देखकर भी तुम्हारा कर्ण कहां चला गया था ? अपने अनुयायियों के साथ आचार्य द्रोण, मैं, तुम, कृतवर्मा तथा भाइयों सहित दु:शासन_ये लोग कहां गये थे ? सब वहीं तो थे, पर अर्जुन पर किसी का जोर चला ? तुम्हारे संबंधियों, भाइयों, सहायकों तथा मामाओं को उन्होंने अपने पराक्रम से जीत लिया और तुम्हारे देखते_देखते सबके सबके सिर पर पैर रखकर जयद्रथ को मार डाला ! अब हम किसका भरोसा करें ? यहां कौन ऐसा पुरुष है जो अर्जुन पर विजय पा सकेगा ? उनके पास नाना प्रकार के दिव्य अस्त्र हैं। उनके गाण्डीव की टंकार सुनकर हमलोगों का धैर्य छूट जाता है। जैसे चन्द्रमा के बिना रात्रि अंधकारमयी हो जाती है, उसी प्रकार हमारी यह सेना सेनापति के मारे जाने से श्रीहीन हो रही है। सभी योद्धा घबराये हुए हैं। उधर सात्यकि और भीमसेन का जो वेग है, वह समस्त पर्वतों को विदीर्ण कर सकता है, समुद्रों को सुखा सकता है। राजन् ! ध्यूत_सभा में भीमसेन ने जो बात कही थी, उसे उन्होंने सत्य करके दिखा दिया; आगे भी वे ऐसा ही करेंगे। पाण्डव सज्जन हैं, किन्तु तुमलोगों ने उनके साथ अकारण ही बहुत से अनुचित व्यवहार किये; उन्हीं का अब फल मिल रहा है। तुमने यत्न करके सारे जगत् के लोगों को अपनी रक्षा के लिये एकत्रित किया था, किन्तु तुम्हारा ही जीवन संदेह में पड़ा हुआ है। दुर्योधन ! अब तुम अपने को बचाओ। बृहस्पतिजी की बताई हुई यह नीति है कि 'जब अपना बल कम अथवा बराबर जान पड़े तो शत्रु के साथ संधि कर लेनी चाहिये। लड़ाई तो उस वक्त छेड़नी चाहिये, जब अपनी शक्ति शत्रु से बढ़_चढ़कर हो।' बल और शक्ति में हम पाण्डवों से कम हो गये हैं, अतः: मेरी राय में तो अब उनसे संधि कर लेना ही उचित है। जो राजा अपनी भलाई का बात नहीं जानता और श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान किया करता है, वह शीघ्र ही राज्य से भ्रष्ट हो जाता है; उसका भला भी नहीं होता। यदि राजा युधिष्ठिर के सामने झुकने से हमलोग राज्य पा जायं तो इसी में अपनी भलाई है। मूर्खतावश हार जाने में कोई लाभ नहीं है। राजा धृतराष्ट्र और भगवान् श्रीकृष्ण के कहने से युधिष्ठिर तुम्हें राज्य दे सकते हैं। श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन से जो कुछ कहेंगे उसे वे सब लोग मान लेंगे_इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मेरा विश्वास है कि श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र की बात नहीं टालेंगे और युधिष्ठिर श्रीकृष्ण की आज्ञा के विरुद्ध नहीं करेंगे। इसलिये मैं सन्धि करने में ही कुशल देखता हूं, पाण्डवों के साथ लड़ने में कोई लाभ नहीं है। तुम यह नहीं समझना कि मैं कायरतावश या प्राण बचाने के लिये ऐसी बात कह रहा हूं। मैं तो तुम्हारे ही भले के लिये कहता हूं। यदि इस समय मेरा कहना नहीं मानोगे तो मरते समय तुम्हें मेरी याद आयेगी। कृपाचार्य के इस प्रकार कहने पर दुर्योधन जोर_जोर से गर्म उसांस खींचता हुआ कुछ देर तक चुपचाप बैठा रहा। फिर थोड़ी देर तक सोचने_विचारने के बाद उसने कहा_'विप्रवर ! एक हितैषी को जो कुछ कहना चाहिये, वह सब अपने कह सुनाया। यही नहीं, प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करते हुए आपने मेरी भलाई के लिये सबकुछ किया है। यद्यपि हितचिंतक होने के नाते आपने मेरे भले के लिये ही यह बात बतायी है, तब भी मुझे यह पसंद नहीं आती_ठीक उसी तरह, जैसे मरने वाले रोगी को दवा अच्छी नहीं लगती। राजा युधिष्ठिर महान् धनी थे, मैंने उन्हें जूए में जीतकर दर_दर का भिखारी बनाया और राज्य से बाहर निकाल दिया; अब वे मुझपर कैसे विश्वास करेंगे ? मेरी बातों पर उन्हें क्योंकर एतबार होगा ? श्रीकृष्ण मेरे यहां दूत बनकर आये थे, किन्तु मैंने उनके साथ धोखा किया; अब वे भी मेरी बात कैसे मानेंगे ? सभा में बलात् लाती हुई द्रौपदी ने जो विलाप किया था तथा पाण्डवों का जो राज्य छीन लिया गया था, उसके लिखे श्रीकृष्ण को अबतक अमर्ष बना हुआ है। श्रीकृष्ण और अर्जुन, दो शरीर एक प्राण हैं; वे दोनों एक_दूसरे के अवलम्ब हैं। पहले तो यह बात मैंने केवल सुनी थी, किन्तु अब इसे प्रत्यक्ष देख रहा हूं। जबसे उन्होंने अपने भांजे अभिमन्यु का मरण सुना है, तब से वे सुख की नींद नहीं लेते। हमलोग उनके अपराधी हैं, फिर वे हमें क्षमा कैसे कर सकते हैं ? महाबली भीमसेन का स्वभाव भी बड़ा कठोर है, उसने बड़ी भयंकर प्रतिज्ञा की है। सूखे काठ की तरह वह टूट भले ही जाय, झुक नहीं सकता। नकुल और सहदेव यमराज के समान भयंकर हैं, वे दोनों भी मुझसे वैर मानते हैं। धृष्टद्युम्न और शिखंडी का भी मेरे साथ वैर है, फिर वे मेरे हित के लिये क्यों यत्न करेंगे ? द्रौपदी एक वस्त्र पहने हुई थी, रजस्वला थी, उस अवस्था में वह सभा में लाती गयी और दु:शासन ने सबके सामने उसे क्लेश पहुंचाया। उसके वस्त्र का उतारा जाना_उसकी वह दीनावस्था पाण्डवों को आज भी याद है। अब उन्हें युद्ध से रोका नहीं जा सकता। जबसे द्रौपदी को क्लेश दिया गया, तभी से वे मेरे विनाश का संकल्प लेकर मिट्टी की वेदी पर सोया करती है। जबतक वैर का पूरा बदला न चुका लिया जाय, जबतक के लिये उसने यह व्रत ले रखा है। इस प्रकार वैर की आग पूर्ण रूप से प्रज्वलित हो उठी है, अब वह किसी तरह बुझ नहीं सकती। अभिमन्यु का नाश करने के बाद अर्जुन के साथ मेरा मेल कैसे हो सकता है ? जब मैं समुद्रपर्यन्त पृथ्वी का एकछत्र राजा होकर पूरा उपभोग कर चुका हूं तो इस समय पाण्डवों का कृपापात्र बनकर कैसे राज्य कर सकूंगा ? समस्त राजाओं का सिरमौर होकर अब दास की भांति युधिष्ठिर के पीछे_पीछे कैसे चलूंगा ? दीनतापूर्वक जीवन क्योंकर व्यतीत करूंगा ? मैं आपकी बातों का खण्डन या तिरस्कार नहीं करता; क्योंकि आपने स्नेहवश मेरे हित के लिये वे बातें कही हैं। मैं तो केवल अपना विचार प्रकट कर रहा हूं। मेरे मन में यही आता है कि अब संधि का अवसर नहीं रहा। इस समय संधि की चर्चा चलाना किसी तरह उचित नहीं जान पड़ता। मुझे अब युद्ध में ही सुंदर नीति दिखाई दे रही है। यह समय भयभीत होकर कायरता दिखाने का नहीं, उत्साह के साथ युद्ध करने का है। मैं पाण्डवों के सामने दीनतापूर्वक वचन नहीं कह सकता। संसार में कोई भी सुख सदा रहनेवाला नहीं है, फिर राष्ट्र और यश भी कैसे रह सकते हैं ? यहां तो कीर्ति का ही उपार्जन करना चाहिये और कीर्ति युद्ध के सिवा दूसरे उपाय से नहीं मिल सकती। घर में खाट पर सोकर मरना क्षत्रिय के लिये बहुत बड़ा पाप है। जो बड़े_बड़े यज्ञ करके वन में या संग्राम में शरीर त्याग करता है, वहीं महत्व को प्राप्त होता है। जिसका बुढ़ापे के कारण शरीर जर्जर हो गया हो, रोग पीड़ा दे रहा हो, परिवार के लोग आसपास बैठकर रोते हो, उस अवस्था में दीनतायुक्त वचन बोलकर विलाप करते_करते प्राण त्यागने वाला क्षत्रिय 'मर्द' कहलाने योग्य नहीं हैं। अतः जिन्होंने नाना प्रकार के भोगों का परित्याग करके उत्तम गति प्राप्त की है, इस समय मैं युद्ध के द्वारा उनके ही लोक में जाऊंगा। जिनके आचरण श्रेष्ठ हैं, जो संग्राम में पीठ नहीं दिखानेवाले, शूरवीर, सत्यप्रतिज्ञ तथा नाना प्रकार के यज्ञ करनेवाले हैं, जिन्होंने शस्त्र की धारा में अवभृथ ( यज्ञान्त ) स्नान किया है, उनका स्वर्ग में निवास होता है। देवताओं की सभा में वे बड़े सम्मान की दृष्टि से देखें जाते हैं। देवता तथा संग्राम में पीठ नहीं दिखानेवाले शूरवीर जिस मार्ग से जाते हैं, उसी से मैं भी जाऊंगा। मित्रों, भाइयों और दादाओं को मरवाकर यदि मैं अपने प्राणों की रक्षा करूं तो निश्चय ही सारा संसार मेरी निंदा करेगा। भला, मित्रों और भाइयों से हीन होकर पाण्डवों के पैरों पर पड़ने से जो राज्य मिलेगा, वह मेरे लिये किस काम का होगा ? इसलिये अब मैं अच्छी तरह युद्ध करके स्वर्ग को ही प्राप्त करूंगा, इसके सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिये।'
दुर्योधन की यह बात सुनकर सब क्षत्रियों ने उसकी प्रशंसा की और उसे बहुत धन्यवाद दिया। सबने अपनी पराजय का शोक छोड़कर मन_ही मन पराक्रम करने की ठान ली। युद्ध करने के विषय में सबको एक निश्चय हो गया। सबके हृदय में उत्साह भर आया। तत्पश्चात् सब योद्धाओं ने अपने_अपने वाहनों को विश्राम दे आठ कोस से कुछ कम दूरी पर जाकर डेरा डाला। वहां रात्रि बिछाकर दूसरे दिन काल की प्रेरणा से वे तुरत रणभूमि की ओर लौटे।


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