Wednesday 1 February 2023

कर्णवध के समाचार से प्रसन्न हुए युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा, राजा धृतराष्ट्र और गांधारी का शोक तथा कर्णपर्व के श्रवण का माहात्म्य

संजय कहते हैं_राजन् ! इस प्रकार जब कर्ण मारा गया और कौरव_सेना भाग खड़ी हुई तो भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को छाती से लगाकर बड़े हर्ष के साथ कहा_'पार्थ ! इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था और तुमने कर्ण को मार गिराया है। आज से संसार के लोग वृत्रासुर_वध की तरह कर्ण_वध की कथा कहे_सुनेंगे। तुम बहुत दिनों से युद्ध में कर्ण का वध करना चाहते थे, आज वह अभीष्ट पूरा हुआ; अतः धर्मराज से यह शुभ समाचार बताकर तुम उनसे उऋण हो जाओ। तुममें और कर्ण में जब महासंग्राम छिड़ा हुआ था, उस समय वे भी युद्ध देखने के लिये आए थे; मगर बहुत अधिक घायल होने के कारण देरतक यहां ठहर नहीं सके, फिर छावनी में ही चले गये। अतः हमें उन्हीं के पास चलना चाहिये।
अर्जुन ने 'बहुत अच्छा' कहकर आज्ञा स्वीकार की; फिर भगवान् ने अपना रथ उधर ही मोड़ दिया। छावनी पर पहुंच कर वे अर्जुन को साथ ले राजा युधिष्ठिर से मिले। राजा उस समय सोने के पलंग पर सो रहे थे। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने प्रसन्नतापूर्वक उनके चरणों में प्रणाम किया। उन दोनों की प्रसन्नता देख कर्ण को मरा समझकर युधिष्ठिर उठ बैठे और आनंदातिरेक से आंसू बहाने लगे। फिर उन दोनों को छाती से लगाकर मिले और बारंबार युद्ध का समाचार पूछने लगे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने रणभूमि में जो कुछ घटना घटित हुई थी, सब कह सुनायी; अन्त में कर्ण के मरने की भी बात बतायी। इसके बाद भगवान् कुछ कुछ मुस्कराते हुए हाथ जोड़कर बोले_'महाराज ! बड़े सौभाग्य की बात है कि आप, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल_सहदेव भी कुशल से हैं। महारथी कर्ण मारा गया तथा आपकी विजय तथा अभिवृद्धि हो रही है_यह भी बड़े आनन्द की बात है। आज सूतपुत्र के सारे शरीर में बाण चुभे हुए हैं और वह भूतल पर पड़ा हुआ है; इस अवस्था में आप अपने शत्रु को चलकर देखिये। महाबाहो ! अब आप पृथ्वी का अकंटक राज्य भोगिये।' भगवान् श्रीकृष्ण का वचन सुनकर धर्मराज बहुत प्रसन्न हुए और बोले_'देवकीनन्दन ! यह बड़े आनन्द की बात हुई। आप सारथि थे, तभी अर्जुन कर्ण को मार सके हैं। यह आपकी बुद्धि का ही प्रसाद है, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।' यह कहकर युधिष्ठिर श्रीकृष्ण की दाहिनी हाथ पकड़ ली। फिर दोनों से कहा_'नारदजी ने मुझे बताया था कि अर्जुन और श्रीकृष्ण पुरातन नर_नारायण ऋषि हैं।' तत्वज्ञानी श्रीव्यासजी ने भी कई बार इस बात की चर्चा की थी। कृष्ण ! आपकी ही कृपा से ये पाण्डुनन्दन अर्जुन शत्रुओं का सामना करके विजय पाते गये हैं। जिस दिन युद्ध में आपने अर्जुन का सारथि होना स्वीकार किया उसी दिन यह निश्चय हो गया था कि हमारे पक्ष की विजय ही होगी, पराजय नहीं। जब भीष्म, द्रोण तथा कर्ण जैसे वीर आपकी बुद्धि से मारे जा चुके हैं तो बाकी लोगों को, जो उन्हीं के अनुयायी हैं, मैं मरे हुए के समान ही मानता हूं।'
यों कहकर राजा युधिष्ठिर सोने से सजाये हुए रथ पर बैठकर श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के साथ रणभूमि देखने चले। वहां पहुंच कर उन्होंने देखा कि नररत्न कर्ण सैकड़ों बाणों से बिंधा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है। उस समय सुगंधित तेल से भरकर हजारों सोने के दीपक जलाये गये। उन्हीं के प्रकाश में सबलोगों ने कर्ण के शरीर पर दृष्टिपात किया। उसका कवच छिन्न_भिन्न हो गया था और शरीर बाणों से विदीर्ण हो चुका था। कर्ण को पुत्र सहित मरा हुआ देख राजा युधिष्ठिर  पुनः श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहने लगे_'गोविन्द ! आप वीर और विद्वान होने के साथ ही मेरे स्वामी हैं; आपसे सुरक्षित रहकर आज सचमुच ही मैं  भाइयों सहित राजा हो गया। राधानन्दन कर्ण को मारा गया सुनकर दुरात्मा दुर्योधन अब राज्य और जीवन दोनों से निराश हो जायगा। पुरुषोत्तम ! आपकी कृपा से हमलोग कृतार्थ हो गये। बड़ी खुशी की बात है कि गाण्डीव धारी अर्जुन की विजय हुई।'
इस प्रकार राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा की। उस समय नकुल, सहदेव, भीमसेन, सात्यकि योद्धाओं ने 'महाराज का अभ्युदय हो' ऐसा कहकर युधिष्ठिर का सम्मान किया। फिर श्रीकृष्ण और अर्जुन का गुणगान करते हुए वे बड़ी प्रसन्नता के साथ शिविर की ओर चले गये। राजा धृतराष्ट्र ! आपके ही अन्याय से यह रोमांचकारी संहार हुआ है; अब क्यों बारंबार सोच कर रहे हैं ?
वैशम्पायनजी कहते हैं_जनमेजय ! यह अप्रिय समाचार सुनते ही राजा धृतराष्ट्र मूर्छित होकर जड़ से कटे हुए वृक्ष की भांति जमीन पर गिर पड़े। इसी तरह दूर तक सोचने वाली गांधारी देवी पछाड़ खाकर गिरीं और बहुत विलाप करके कर्ण की मृत्यु के शोक में डूब गयीं। उस समय गांधारी को विदुर जी ने और राजा को संजय ने संभाला। फिर दोनों मिलकर धृतराष्ट्र को समझाने_बुझाने लगे। और राजमहल की स्त्रियों ने आकर गांधारी को उठाया। राजा को लड़ी व्यथा हुई, उनकी विवेक शक्ति नष्ट हो गयी, वे चिंता और शोक में डूब गये। मोहाचच्छन्न होने के कारण उन्हें किसी भी बात की सुध न रही। विदुर और संजय के बहुत आश्वासन देने पर प्रारब्ध और भवितव्यता को ही प्रधान मानकर वे चुपचाप बैठे रहे गये।
जो मनुष्य कर्ण और अर्जुन के इस युद्ध_यज्ञ का स्वाध्याय करता है अथवा इसे सुनता है, उसे विधिवत किये हुए यज्ञ का फल प्राप्त होता है। सनातन भगवान् विष्णु यज्ञस्वरूप हैं; अग्नि, वायु, चन्द्रमा और सूर्य भी यज्ञ के ही रूप हैं। अतः: जो मनुष्य दोषदृष्टि का त्याग करके इस युद्ध_यज्ञ का वर्णन सुनता या पढ़ता है वह समस्त लोकों में पहुंच सकने वाला और सुखी होता है तथा उसके ऊपर भगवान् विष्णु, ब्रह्मा और शंकरजी संतुष्ट होते हैं। इस पर्व के स्वाध्याय से ब्राह्मण को वेद_पाठ का फल मिलता है, क्षत्रियों को बल तथा युद्ध में विजय की प्राप्ति होती है, वैश्यों का धन बढ़ता है एवं शूद्र निरोग एवं स्वास्थ्य संपन्न होते हैं। इसमें सनातन भगवान् विष्णु की महिमा का गान हुआ है, इसलिये इसके पाठ से मनुष्य की कामनाएं पूर्ण होती हैं और वह सुखी होता है। लगातार एक वर्ष तक बछड़ोंसहित कपिला गौओं को दान करने का जो फल मिलता है, वह कर्णपर्व के एक बार सुनने मात्र से प्राप्त हो जाता है।

कर्णपर्व_समाप्त।

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