Tuesday 4 July 2023

युधिष्ठिर और दुर्योधन का संवाद, युधिष्ठिर के कहने से किसी एक पाण्डव का गदा युद्ध के लिये तैयार होना

संजय कहते हैं_महाराज ! उस सरोवर पर पहुंचकर युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से कहा_'माधव ! देखिये तो सही दुर्योधन ने जल के भीतर कैसी माया का प्रयोग किया है ? यह पानी को रोककर यहां सो रहा है। यह माया में बड़ा निपुण है। किन्तु यदि साक्षात् इन्द्र भी इन्द्र भी इसकी सहायता करने आवें, तो भी संसार आज इसे मरा हुआ ही देखेगा।' श्रीकृष्ण ने कहा_भारत ! इस मायावी की माया को आप माया से ही नष्ट कर डालिये; आप भी जल में माया का प्रयोग कर इसका वध कीजिये। राजन् ! उद्योग ही सबसे अधिक बलवान है; और कुछ नहीं। उद्योग और उपायों से ही बड़े _बड़े दैत्य, दानव, राक्षस तथा राजा मारे गये हैं, इसलिए आप उद्योग कीजिये। भगवान् के ऐसा कहने पर युधिष्ठिर ने हंसते-हंसते पानी में छिपे हुए आपके पुत्र से कहा_'सुयोधन ! तुमने जल के भीतर किसलिए यह अनुष्ठान आरंभ किया है ? समस्त क्षत्रियों तथा अपने कुल का संहार कराकर अब अपनी जान बचाने के लिये पोखरे में आ घुसे हो ? तुम्हारा यह पहले का दर्प और अभिमान कहां चला गया जो डर के मारे यहां आकर छिपे हो ? सभा में सब लोग तुम्हें शूर कहा करते हैं, किन्तु अब तुम पानी में घुसे हो तो मैं तुम्हारा वह शौर्य व्यर्थ ही समझता हूं। जो कौरव_वंश में जन्म लेने के कारण सदा अपनी प्रशंसा किया करता था वही युद्ध से डरकर पानी में कैसे छिपा बैठा है ? अभी युद्ध का अंत तो हुआ नहीं, फिर तुम्हें जीवित रहने की इच्छा कैसे हो गयी ? इस लड़ाई में पुत्र, भाई, संबंधी मित्र, मामा, बांधव जनों को मरवाकर अब तुम पोखरे में क्यों सो रहे हो ? कहां गया तुम्हारा पौरुष,  कहां गया तुम्हारा अभिमान और कहां गया तुम्हारी वज्र की_सी गर्जना ? तुम तो अस्त्र विद्या के ज्ञाता थे, कहां गया वह सारा ज्ञान ? भारत ! उठो और क्षत्रिय _धर्म के अनुसार हमारे साथ युद्ध करो। हमलोगों को परास्त करके पृथ्वी का राज्य करो अथवा हमारे हाथों भरकर सदा के लिये रणभूमि में सो जाओ।' धर्मराज के ऐसा कहने पर आपके पुत्र ने पानी में से ही जवाब दिया_'महाराज ! किसी भी प्राणी को भय होना आश्चर्य की बात नहीं है, किन्तु मैं प्राणों के भय से यहां नहीं आया हूं। मेरे पास न रथ है, न भाथा। पार्श्वरक्षक और सारथि भी मारे जा चुके हैं। सेना नष्ट हो गयी और मैं अकेला रह गया; इस दशा में मुझे कुछ देर तक विश्राम करने की इच्छा हुई। राजन् ! मैं प्राणों की रक्षा करने या किसी और भय से बचने के लिये अथवा मन में विषाद होने के कारण पानी में नहीं घुसा हूं; सिर्फ तक जाने के कारण ऐसा किया है। तुम भी कुछ देर तक सुस्ता लो, तुम्हारे अनुयायी भी विश्राम कर लें, फिर मैं उठकर तुम सब लोगों के साथ लोहा लूंगा।' युधिष्ठिर ने कहा_सुयोधन ! हम सब लोग सुस्ता चुके हैं और बहुत देर से तुम्हें खोज रहे हैं, इसलिये तुम अभी उठकर युद्ध करो। संग्राम में समस्त पाण्डवों को मारकर समृद्धशाली राज्य का उपभोग करो अथवा हमारे हाथ से भरकर वीरों के मिलनेयोग्य पुण्योंका में चले जाओ।
दुर्योधन बोला_राजन् ! जिनके लिये मैं राज्य चाहता था, वे मेरे सभी भाई मारे जा चुके हैं। पृथ्वी के समस्त पुरुषरत्नों और क्षत्रियपुंगवों का विनाश हो गया है; अब यह भूमि विधवा स्त्री के समान श्रीहीन हो चुकी है; अतः इसके उपभोग के लिये मेरे मन में तनिक भी उत्साह नहीं है। हां आज भी पांडवों तथा पांचालों का उत्साह भंग करके तुम्हें जीतने की आशा रखता हूं। किन्तु जब द्रोण और कर्ण शान्त हो गये, पितामह भीष्म मार डाले गये, तो अब मेरी दृष्टि में इस युद्ध की कोई आवश्यकता नहीं। आज से यह सारी पृथ्वी तुम्हारी ही रहे, मैं इसे नहीं चाहता। मेरे पक्ष के सभी वीर नष्ट हो गये, अतः अब राज्क्य में मेरी रुचि नहीं रही। मैं तो मृगछाला धारण करके आज से वन में ही जाकर रहूंगा। मेरे अपने कहे जानेवाले जब कोई भी मनुष्य जीवित नहीं रहे, तो मैं स्वयं भी जीवित रहना नहीं चाहता। अब तुम जाओ और जिसका राजा मारा गया, योद्धा नष्ट हो गये तथा जिसके रत्न क्षीण हो चुके हैं,  उस पृथ्वी का आनंदपूर्वक उपभोग करो; क्योंकि तुम्हारी आजीविका छीनी जा चुकी है। युधिष्ठिर ने कहा_तात ! तुम जल में बैठे_बैठे प्रलाप न करो। मैं इस संपूर्ण पृथ्वी को तुम्हारे दान के रूप में नहीं लेना चाहता। मैं तो तुम्हें युद्ध में जीतकर ही इसका उपभोग करूंगा। अब तो तुम स्वयं ही पृथ्वी के राजा नहीं रहे, फिर इसका दान कैसे करना चाहते हो ? जब हमलोगों ने अपने कुल में शान्ति कायम करने के लिये धर्मत: याचना की थी, उसी समय तुमने हमें पृथ्वी क्यों नहीं दे दी ! एक बार भगवान श्रीकृष्ण को कोरा जवाब देकर इस समय राज्य देना चाहते हो ? यह कैसी पागलपन की बात है। अब न तो तुम पृथ्वी किसी को दे सकते हो और न छीन ही सकते हो, फिर देने की इच्छा क्यों हुई ? पहले तो सूई की नोक बराबर भी जमीन नहीं देना चाहते थे और आज सारी पृथ्वी देने को तैयार हो गये ! क्या बात है? याद है न, तुमने हमलोगों को जलाने की कोशिश की थी, भीम को विष खिलाकर पानी में डुबाया और विषधर सांपों से डंसवाया। इतना ही नहीं तुमने सारा राज्य छीनकर हमें अपने कपटजाल का शिकार बनाया। तुम्हारे ही आदेश से द्रौपदी के केश और वस्त्र खींचे गये और स्वयं तुमने उसे गालियां सुनायीं। पापी ! इन सब कारण से तुम्हारा जीवन नष्ट_सा हो चुका है। अब उठो और युद्ध करो, इसी में तुम्हारी भलाई है। धृतराष्ट्र ने पूछा _संजय ! मेरा पुत्र दुर्योधन स्वभावत: क्रोधी था, जब युधिष्ठिर ने उसे इस तरह फटकारा तो उसकी क्या दशा हुई? राजा होने के कारण वह सबके आदर के पात्र था, इसलिये ऐसी फटकार उसको कभी नहीं सुननी पड़ी थी। किन्तु उस दिन उसको डांट सहनी पड़ी और वह भी अपने शत्रु पाण्डवों की। संजय ! बताओ, उनकी वे कड़वी बातें सुनकर दुर्योधन ने क्या जवाब दिया? संजय कहते हैं_महाराज ! पानी के भीतर बैठे हुए दुर्योधन को भाइयोंसहित युधिष्ठिर ने जब इस तरह फटकारा तो उनकी कड़वी बातें सुनकर वह क्रोध से दोनों हाथ हिलाने लगा और मन_ही_मन युद्ध का निश्चय करके राजा युधिष्ठिर से बोला_'तुम सभी पाण्डव अपने हितेषी मित्रों को साथ लेकर आये हो, तुम्हारे रथ और वाहन भी मौजूद हैं। तुम्हारे पास बहुत से अस्त्र-शस्त्र होंगे और मैं निहत्था हूं, तुम रथ पर बैठोगे और मैं कहां अकेला_ऐसी दशा में तुम्हारे साथ कैसे युद्ध कर सकता हूं ? युधिष्ठिर ! तुम अपने पक्ष के एक_एक वीर से मुझे बारी_बारी से लड़ाओ। एक को बहुतों के साथ युद्ध के लिये मजबूर करना उचित नहीं है। राजन् ! मैं तुमसे या भीम से जरा भी नहीं डरता। श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा पांचालों का भी मुझे भय नहीं है। नकुल, सहदेव, तथा सात्यकि की भी मैं परवा नहीं करता, इनके अतिरिक्त भी तुम्हारे पास जो सैनिक हैं, उनको भी मैं कुछ नहीं समझता। मैं अकेला ही सबको परास्त कर दूंगा। आज भाइयोंसहित तुम्हारा वध करके मैं बाह्लीक, द्रोण, भीष्म, कर्ण, जयद्रथ, भगदत्त, शल्य, भूरीश्रवा और शकुनि के तथा अपने पुत्रों, मित्रों , हितैषियों एवं बन्धु_बान्धवों के ऋण से उऋण हो जाउंगा।' यह कहकर दुर्योधन चुप हो गया। तब युधिष्ठिर ने कहा_'दुर्योधन ! यह जानकर खुशी हुई कि तुम अभी युद्ध का ही विचार रखते हो। यदि तुम्हारी इच्छा हममें से एक_एक के साथ लड़ने की है, तो ऐसा ही करो। कोई भी एक हथियार, जो तुम्हें पसंद है, लेकर मैदान में उतरो और एक ही के साथ लड़ो। बाकी लोग दर्शक बनकर खड़े रहेंगे। इसके अलावा तुम्हारी एक कामना और पूर्ण करता हूं, हममें से एक को भी मार डालोगे तो सारा राज्य तुम्हारा हो जायगा और यदि खुद मारे गये तो स्वर्ग तो तुम्हें मिलेगा ही।' दुर्योधन ने कहा_यदि एक से ही लड़ना है तो मैं युद्ध के लिये ललकारता हूं। किसी भी शूरवीर को मेरा सामना करने के लिये दे दो। तुम्हारे कथनानुसार मैं आयुधों में एकमात्र गदा को ही पसंद करता हूं। तुममें से कोई भी एक वीर, जो मुझे जीतने की शक्ति रखता हो, गदा लेकर पैदल ही आ जाय और मेरे साथ युद्ध करे। युधिष्ठिर ! इस गदा से मैं तुमको, तुम्हारे भाइयों को, पांचालों और सृंजयों को तथा तुम्हारे अन्य सैनिकों को भी परास्त कर सकता हूं। डर तो मुझे इन्द्र से भी नहीं लगता, फिर तुमसे क्या भय करूंगा? युधिष्ठिर बोले_गान्धारीनन्दन ! उठो तो सही, एक_एक के साथ ही गदा युद्ध करके अपने पुरुषत्व का परिचय दो। आओ मेरे ही साथ लड़ो। यदि इन्द्र भी तुम्हारी सहायता करें तो भी आज तुम जीवित नहीं रह सकते। महाराज! युधिष्ठिर के इस कथन को दुर्योधन नहीं सह सका। वह कंधे पर लोहे की गदा रखकर बंधे हुए जल को चीरता हुआ बाहर निकल आया। उस समय सब प्राणियों ने उसे दण्डधारी यमराज के समान ही समझा। उसे पानी से बाहर आया देख पाण्डव तथा पांचाल बहुत प्रसन्न हुए और एक_दूसरे के साथ पर ताली पीटने लगे। दुर्योधन ने इसे अपना उपहास समझा, क्रोध से उसकी त्योरियां चढ़ गयीं। भौहों में तीन जगह बल पड़ गये और वह मानो सबको भस्म कर डालेगा, इस प्रकार श्रीकृष्णसहित पाण्डवों की ओर देखता हुआ बोला_'पाण्डवों ! इस उपहास का फल तुम्हें भोगना पड़ेगा। तुम मेरे हाथ से मारे जाकर इन पांचालों के साथ शीघ्र ही यमलोक में पहुंचोगे ।यों कहकर वह अपने हाथ में गदा लिये खड़ा हुआ, उस समय पाण्डव उसे कोप में भरे हुए यमराज के समान मानने लगे। उसने मेघ के समान गरजकर अपनी गदा दिखाते हुए संपूर्ण पाण्डवों को युद्ध के लिये ललकारा और कहने लगा_'युधिष्ठिर ! तुमलोग एक_एक करके मुझसे युद्ध करने के लिये आते जाओ; क्योंकि एक वीर को एक साथ बहुतों से लड़ना न्याय की बात नहीं है। अगर सब लोग मेरे साथ लड़ना ही चाहो तो भी मैं तैयार हूं, परंतु यह काम उचित है या अनुचित ? यह तो तुम्हें मालूम ही होगा !' कहकर वह अपने हाथ में गदा लिये खड़ा हुआ, उस समय पाण्डव उसे कोप में भरे हुए यमराज के समान मानने लगे। उसने मेघ के समान गरजकर अपनी गदा दिखाते हुए संपूर्ण पाण्डवों को युद्ध के लिये ललकारा और कहने लगा_'युधिष्ठिर ! तुमलोग एक_एक करके मुझसे युद्ध करने के लिये आते जाओ; क्योंकि एक वीर को एक साथ बहुतों से लड़ना न्याय की बात नहीं है। अगर सब लोग मेरे साथ लड़ना ही चाहो तो भी मैं तैयार हूं, परंतु यह काम उचित है या अनुचित ? यह तो तुम्हें मालूम ही होगा !' युधिष्ठिर बोले _दुर्योधन ! जिस समय बहुत_से महारथियों ने मिलकर अकेले अभिमन्यु को मार डाला था, उस समय तुम्हें न्याय_अन्याय की बातक्यों नहीं सूझी ? यदि तुम्हारा धर्म यही कहता है कि बहुत से योद्धा मिलकर एक को न मारें, तो उस दिन तुम्हारी सलाह लेकर बहुत _से योद्धा मिलकर एक को न मारें, तो उस दिन तुम्हारी सलाह लेकर बहुत_से महारथियों ने अभिमन्यु को क्यों मार डाला था ? सच है, स्वयं संकट में पड़ने पर प्रायः सभी लोग धर्म का विचार करने लगते हैं। खैर, जाने दो इन बातों को। कवच पहनो और शिखा बांध लो तथा और जो आवश्यक सामान तुम्हारे पास न हो, वह मुझसे ले लो। इसके सिवा, जैसा कि पहले कह चुका हूं, तुम्हें एक वरदान और देता हूं_तुम पांचों पाण्डवों में से जिसके साथ युद्ध करना चाहो, करो, यदि उसको मार डालोगे तो राज्य तुम्हारा ही होगा और यदि खुद मारे गये तो तुम्हारे लिये स्वर्ग तो है ही। इसके अतिरिक्त भी बताओ, हम तुम्हारा कौन_सा प्रिय कार्य करें ? जीवन की भिक्षा छोड़कर जो चाहो मांग सकते हो। संजय कहते हैं_ तदनन्तर, दुर्योधन सोने का कवच और सुनहरा टोप, ये दो चीजें मांग लीं और उन्हें धारण भी कर लिया। फिर हाथ में गदा लेकर बोला_'राजन् ! तुम्हारे भाइयों में से कोई भी एक आकर मुझसे गदायुद्ध करे। सहदेव, भीम, नकुल , अर्जुन अथवा तुम_कोई भी क्यों न हो, मैं उसके साथ युद्ध करूंगा और उसे जीत भी लूंगा। मेरा ऐसा विश्वास है कि गदायुद्ध में मेरे समान कोई है ही नहीं, गदा से मैं तुम सब लोगों को मार सकता हूं। यदि न्यायत: युद्ध हो तो तुम्हें से कोई भी मेरा सामना नहीं कर सकता। मुझे स्वयं अपने लिये ऐसी गर्भवती बात नहीं कहनी चाहिये, तथापि कहना पड़ा है। अथवा कहने की क्या बात है, मैं तुम्हारे सामने ही सबकुछ सत्य करके दिखा दूंगा। जो मेरे साथ युद्ध करना चाहता हो, वह गदा लेकर सामने आ जाय।'

No comments:

Post a Comment